पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/२१४

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अहिंसक की विडंबना २०५ से काम लें, आपको शोभा-स्वरूप उपदेश दें पर तत्त्व की चीज कुछ न देंगे । आपने हमेशा मुझे आपकी आलोचना करने की छूट दी है इसलिए इतना लिखने की धृष्टता करता हूँ। चाहे जो हो आज् विश्वजीवन इतना अखंड हो गया है कि राष्ट्र के हित की दृष्टि से भले विचार न करें पर विश्व की दृष्टि से तो जरूर विचार किया जा सकता है ।' रेवरेएड बी० द लाइट का पत्र पाठकों के पढ़ने योग्य है । अहिंसा के शोधक और् साधक को ऐसे पत्र का स्वागत करना चाहिए । इसपर आदरपूर्वक विचार करना चाहिए। मित्रभाव से ऐसी चर्चा करने से अहिंसा की शक्ति और मर्यादाओं का अधिक स्पष्ट ध्यान आ सकता है। मनुष्य चाहे जितने तटस्थ-भाव से विचार करने का प्रयत्न करे तो भी वह अपने वर्तमान वातावरण और पूर्व संस्कार से एक दम अलग रहकर विचार नहीं कर सकता । दो जुदी-जुदी स्थिति में रहते हुए व्यक्तियों की अहिंसा बाह्य रीति से एक ही स्वरूप की न होगी । उदाहरणार्थ क्रोधी पिता के सामने बालक पिता की हिंसा को ध्यानपूर्वक सहन करने ही अपनी अहिंसा बता सकता है । परन्तु बालक ने क्रोध किया हो तो पिता बालक के समान नहीं बरतेंगे । ऐसे बरताव का कोई अर्थ ही नहीं होगा । पिता तो बालक को अपनी छाती से लगाकर बालक की हिंसा को एक दम निष्फल कर देगा । दोनों प्रसंगों के बारे में मान लिया गया है कि दोनों का बाह्य कृत्य अपनी आंतरिक इच्छा का प्रतिबिंब है। इसके विरुद्ध