पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/२१६

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अहिंसक की विडंबना २०७ उस समय जो प्रश्न पैदा होंगे उसके बारे तो आज से ही अपने देशभाइयों के साथ लड़ाई करने के लिए मेरे अन्दर की अहिंसा मुझे रोक रही है । भविष्य के बर्ताव के बारे में आज चर्चा करना निरर्थक है। ऐसा करने में व्यर्थ के मतभेद पैदा होंगे, जहर बढ़ेगा और उतने अंश में अहिंसा को भी धक्का लगेगा । यह भी बहुत सम्भव है कि आज़ादी की लड़ाई समाप्त होने बाद भी अगर मैं जीता रहा तो मुझे अपने देशभाइयों के साथ भी कई प्रसंगों पर अहिंसक लड़ाई लड़नी पड़े। और जैसी आज मैं लड़ रहा हूँ वैसी ही भयंकर हो । परन्तु यदि इच्छापूर्वक आहिंसक साधनों की खोज करके उनका उपयोग करने से हमने स्वराज्य प्राप्त किया है यह सिद्ध हो जाये तो आज बड़े-बड़े नेता लोग जो फौजी योजनाएँ तैयार कर रहे हैं वे उनको एक दम अनावश्यक लगेंगी ऐसा बहुत सम्भव है । आज तो अपने देशबन्धुओं से मेरा सहयोग गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने तक ही सीमित है। वह बेड़ी तोड़ने के बाद हमारी कैसी दशा होगी और हम क्या करेंगे इसकी बात न मैं ही कुछ कर सकता हूँ न वे ही । मेरी जगह टॉल्स्टॉय दूसरी तरह बरसते या नहीं इसका तर्क करना निरर्थक है। मैं तो आज अपने यूरोपियन मित्रों को इतना ही विश्वास दिला सकता हूँ और वह काफी है कि मैंने अपने किसी भी कृत्य से जान-बूझकर हिंसा का समर्थन नहीं किया और अपने अहिंसा-धर्म को कालिख नहीं लगाई।