पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/२२४

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विरोधाभास २१५ नहीं है। मैं मानता हूँ कि आज भी ऐसे अनेक अंग्रेज़ अधिकारी पड़े हैं जो प्रामाणिक हैं, किन्तु इससे आज हिन्दुस्तान का कुछ भला नहीं हो सकता; कारण इतने दिन मैं जिस भ्रमवश आन्धा बना हुआ था, मेरे खयाल से वे भी उसी भ्र्मा के शिकार हैं । अतः आज मैं इस सरकार को अपनी कहकर अथवा अपने को इसका नागरिक कहलाकर कोई अभिमान नहीं मान सकता । इसके विपरीत इस सरकार में मेरा एक अछूत का सा दर्जा है, यह मुझे सूर्य के समान स्पष्ट प्रतीत होता है, इसलिए जिस प्रकार हिन्दू जाति का एक अछूत हिन्दू धर्म अथवा हिन्दू समाज को शाप दे सकता है, उसी प्रकार मुझे भी या तो इस सरकार की कायापलट होने की नहीं तो उसके समूल नाश की प्रार्थना करनी पड़ेगी ।

दूसरा अहिंसा-सम्बन्धी प्रश्न् अधिक सूचम है । जहाँ मेरी अहिंसा भावना तो मुझे हमेशा हरेक प्रवृत्ति में से निकल भागने की प्रेरणा करती है, वहाँ मेरी आत्मा को जबतक दुनिया में एक भी अन्याय अथवा दु:ख का असहाय साच्ती बनना पड़ता है, तबतक वह सुखी होने से इन्कार करता है । किन्तु मेरे जैसे दुर्बल अल्प जीव के लिए दुनिया का प्रत्येक दुःख मिटा सकना अथवा दिखाई पड़नेवाले प्रत्येक अन्याय के विषय में शक्ति भर कर गुजरना सम्भव नहीं । इस दुहरी खींचा-तान से मुक्त रहने का मार्ग है, किन्तु वह स्थिति बहुत धीमी गति से और अनेक व्यथाओं के बाद ही प्राप्त हो सकती है । कार्य में