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 विरोधाभास २१७


वैसा हिन्दू स्वराज्य निर्माण करने की मेरी धारणा नहीं है । कारण एक तो इस वस्तु को तात्कालिक ध्येय के रूप में सफल करने के लिए आज यह प्रयत्न नहीं हो रहा है और दूसरी बात यह कि प्रजा को इसके लिए तैयार करने के लिए योग्य कार्यक्रम निश्चित करने की योग्यता मुझमें है ऐसा मैं नहीं मानता । मुझमें अभी इतने सारे विकार और मानवी दुर्बलतायें भरी हुई हैं कि ऐसे कार्य की प्रेरणा अथवा शक्ति मैं अपने भीतर नहीं महसूस करता । मैं तो इतना ही दावा करता हूँ कि मैं अपनी प्रत्येक दुर्बलता को जीतने के लिए सनत प्रयत्न्शील रहता हूँ । मुझे प्रतीत होता है कि इन्द्रियों का दमन करने की शक्ति मैंने काफी प्राप्त कर ली है । तथापि मैं यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि मैं इस स्थिति में पहुँच गया हूँ कि मुझसे पाप हो ही नहीं सकता, इन्द्रियों मुझे पराजित नहीं कर सकतीं।

         तो भी मैं यह मानता हूँ कि पूर्ण अवर्णनीय निष्पाप अवस्ठा-जिसमें मनुष्य अपनी अन्तरात्मा में अन्य सब वस्तुओं की लय करके केवल मात्र ईश्वर की उपस्थिति अनुभव करता है – प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव है । मैं मानता हूँ कि यह अभी बहुत आगे की अवस्था है और इसलिए सम्पूर्ण आहिंसा का कार्यक्रम जनता के आगे रखने का मैं आज अपने को अधिकारी नहीं समझता ।
        इस महान तत्त्व की चर्चा के बाद रेल इत्यादि का प्रश्न तो सर्वथा गोण रह जाता है । मैंने स्वयं इन सुविधाओं का व्यक्ति-