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युद्ध और अहिंसा


के बजाय तोभ से लिखते हैं:

‘भारत के युद्ध की अभिनय-स्थली होने पर, जो कोई अघटनीय घटना नहीं है, क्या गांधीजी अपने देशवासियों को यह सलाह देने के लिए तैयार हैं कि शत्रु की तलवार के सामने वे अपने सीने खोल दें? कुछ समय पहले वह जो कुछ कहते उसके लिए मैं अपने को वचनबद्ध कर लेता, लेकिन अब और अधिक विश्वास मुझे नहीं रहा है!'

मैं इन्हें विश्वास दिला सकता हूँ कि अपने हाल के लेखों के बावजूद, वह मुझमें इतना विश्वास रख सकते हैं कि अब भी मैं वही सलाह दूंगा जैसी कि उन्हें आशा है, मैंने पहले दी होती या जैसी मैंने चेकों या एबीसिनियनों को दी है। मेरी अहिंसा कड़ी चीज़ की बनी हुई है। वैज्ञानिकों को सबसे मजबूत जिस धातु का पता होगा उससे भी यह ज्यादा मजबूत है। इतने पर भी मुझे खेद-पूर्वक इस बात का ज्ञान है कि इसे अभी इसकी असली ताक़त प्राप्त नहीं हुई है। अगर वह प्राप्त हो गयी होती, तो संसार में हिंसा की जिन अनेक घटनाओं को मैं असहाय होकर रोज देखा करता हूँ उनसे निपटने का रास्ता भगवान् मुझे सुझा देता। यह मैं धृष्टतापूर्वक नहीं बल्कि पूर्ण अहिंसा की शक्ति का कुछ ज्ञान होने के कारण कह रहा हूँ। अपनी सीमितता या कमजोरी को छिपाने के लिए मैं अहिंसा की शक्ति को हलका नहीं आँकने दुँगा।

अब पूर्वोक्त प्रश्नों के जवाब में कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ :