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युद्ध और अहिंसा


नीति तो घोषित करनी ही होगी और उसे यह बतलाना पड़ेगा कि आक्रमण करनेवाले गिरोह का मुकाबिला वह हिंसात्मक साधनों से करेगी या अहिंसात्मक।

जहाँतक कि मैं कार्यसमिति के सदस्यों की मनोवृत्ति को खासी पूरी चर्चा के बाद, समझ सका हूँ, उसके सदस्यों का खयाल है कि अहिंसात्मक साधनों के जरिये सशस्र आक्रमण से देश की रक्षा करने के लिए वे तैयार नहीं है।

यह दु:खद प्रसंग है। निश्चय ही अपने घर से शत्रु को निकाल बाहर करने के लिए जो उपाय अख्तियार किये जाते हैं, वे उन उपायों से, जो कि उसे (शत्रु को) घर से बाहर रखने के लिए अख्तियार किये जायें, न्यूनाधिक रूप में मिलते-जुलते होने ही चाहिए। और यह पिछला (रक्षा का) उपाय ज्यादा आसान होना चाहिएँ। बहरहाल हकीकत यह है कि हमारी लड़ाई बलवान की अहिंसात्मक लड़ाई नहीं रही है। वह तो दुर्बल के निष्क्रिय प्रतिरोध की लड़ाई रही है। यही वजह है कि इस महत्त्व के क्षण में हमारे दिलों से अहिंसा की शक्ति में ज्वलंत श्रद्धा का कोई स्वेच्छापूर्ण उत्तर नहीं मिला है। इसलिए कार्य-समिति ने यह बुद्धिमानी की ही बात कही है कि वह इस तर्कपूर्ण कदम को उठाने के लिए तैयार नहीं है। इस स्थिति में दुःख की बात यह है कि काँग्रेस अगर उन लोगों के साथ शरीक हो जाती है, जो भारत की सशस्र रक्षा की आवश्यकता में विश्वास करते हैं, तो इसका यह अर्थ हुआ कि गत बीस बरस यों ही चले गये, कांग्रेसवादियों ने