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असल बात


कि जर्मनी की जीत को रोकने की चिन्ता अंग्रेजों को ही मुख्यत: करनी चाहिए। हिन्दुस्तान दिल से सहायता देगा तो यह उसकी एक तरह की मेहरबानी होगी। यह मेहरबानी उसी हालत में की जानी चाहिए, जब हम अंग्रेजों को उसका हक़दार समझें। ये हक़ वे इस देश के सम्बन्ध में अपनी नेकनीयती दिखाकर ही साबित कर सकते हैं।

“बेशक वे अपनी नेकनीयती साबित करदें तो बढ़ी बढ़िया बात हो, पर जैसा कि मेरे ख़याल से मैंने पिछले पत्र में आपको लिखा था, मुझे इसमें बहुत विश्वास नहीं है। मैं मानता हूँ कि नीति या न्याय के ख़याल से नहीं बल्कि संसार की परिस्थिति से मजबूर होकर ही अंग्रेज जिन देशों पर उनकी हुकूमत है वहाँ से अपने विशेष अधिकार छोड़ेंगे। इसके बावजूद मेरी राय में हमें उनकी ‘पात्रता’ की तरफ नहीं देखना चाहिए। और न उनकी अपात्रता से हमें जरा भी वह सब मदद देने में रुकावट होनी चाहिए जो हम इस संकट के मौक़े पर पश्चिमी ‘लोकतन्त्रों’, यानी ब्रिटेन और फ्रास को दे सकते हैं।

“मुझे तो ऐसा लगता हैं कि उनकी पात्रता का सवाल नहीं उठता है। चेम्बरलेन और दूसरे लोग उन्हें “शान्ति-प्रेमी राष्ट्र” कहते हैं। अवश्य ही वे शान्ति चाहते हैं, बशर्ते कि वे दुनिया के साधनों के बटवारे का मौजूदा आधार क़ायम रखकर सुलह कर सकें। वे अपने आपको न्याय-प्रमी राष्ट्र भी बताते हैं। तो भी, हिटलर इस लड़ाई के लिए जिम्मेदार हो जैसा कि