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युद्ध और अहिंसा


किसी पकष की पूरी जीत न हुई हो, दोनों ने बराबरी के नाते संधिचर्चा करके सुलह कर ली हो और दोनों अच्छी तरह समझ गये हों कि और लड़ने का अनिवार्य परिणाम यही होगा केि संसार छिन्नभिन्न हो जाये और अव्यवस्था फैल जाये। जब नौबत यहाँ तक पहुँच जायगी कि दोनों पस्नेों को साफ-साफ मालूम हो जायगा कि समझौता नही करेंगे तो मिट जायेंगे, मेरे ख़याल से तभी किसी ऐसे निपटारे की आशा हो सकती है जिससे संसार में सच्ची शान्ति स्थापित हो जाये और राष्ट्रों के आपसी सम्बन्ध भविष्य में अधिक सन्तोषजनक रह सकें।

बड़ी मुश्किल तो यह है कि इस लड़ाई के परिणाम के विषय में निश्चय के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अख़बारों में जो दिलासा देनेवाला प्रचार हो रहा है उसके बावजूद दोनों तरफ की ज़ाहिरा और भीतरी शक्तियाँ इतनी बराबर की-सी हैं कि अगर यह देश अंग्रेजों की पूरी तरह सहायता न करे तो पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि अन्त में ब्रिटेन की हार नहीं होगी। उसका अर्थ होगा ७ करोड़ से ऊपर जर्मनों की जीत-यानी ऐसे लोगों की जीत जिनके दिलों में यह विश्वास जम गया है कि वे एक “ऊँची नसल” के हैं और इसलिए उन्हें दुनियाभर पर अपना साम्राज्य रखने का हक़ है। मेरा पक्का विश्वास है कि दोनों में से यह विपत्ति बड़ी होगी।

“अगर मुझे इतना भर मालूम हो जाये कि हिन्दुस्तान के बिल्कुल अलग रहने पर भी युद्ध का ऐसा अन्त न होगा तो मैं