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युद्ध और अहिंसा


अनुपम संगठन-कर्ता आदि के रूप में जरूर करेंगे। लेकिन मुझे आशा करनी चाहिए कि भविष्य के जर्मन अपने महापुरुषों के बारे में भी विवेक से काम लेने की कला सीख जायेंगे। कुछ भी हो, मेरे खयाल में यह तो मानना ही होगा कि हिटलरने जो मानव-रक्त बहाया है उससे संसार की नैतिकता में अणुमात्र भी वृद्धि नहीं हुई है।

इसके प्रतिकूल, आज के यूरोप की हालत की जरा कल्पना तो कीजिए। चेक, पोल, नार्वेवासी, फ्रांसीसी और अँग्रेज सब ने अगर हिटलर से यह कहा होता तो कितना अच्छा होता कि “विनाश के लिए आपको अपनी वैज्ञानिक तैयारी करने की जरूरत नही है। आपकी हिंसा का हम अहिंसा से मुकाबिला करेंगे। इसलिए टैंकों, जंगी जहाजों और हवाई जहाजों के बगैर ही आप हमारी अहिंसात्मक सेना को नष्ट कर सकेंगे।

इसपर यह कहा जा सकता है कि इसमें फ्रर्क सिर्फ यही रहेगा कि हिटलर ने खूनी लड़ाई के बाद जो कुछ पाया है वह उसे लड़ाई के बगैर ही मिल जाता। बिलकुल ठीक। लेकिन यूरोप का इतिहास तब बिलकुल जुदे रूप में लिखा जाता। अब जिस तरह अकथनीय बर्बरताओं के बाद कब्जा किया गया है तब शायद (लेकिन सिर्फ शायद ही) अहिंसात्मक प्रतिरोध में ऐसा किया जाता। लेकिन अहिंसात्मक प्रतिरोध में सिर्फ वही मारे जाते जिन्होंने जरूरत पड़ने पर अपने मारे जाने की तैयारी कर ली होती और वे किसी को मारे व किसीके प्रति कोई दुर्भाव