प्रसाद वाङ्मय द्वितीय खण्ड/ध्रुवस्वामिनी- द्वितीय अंक

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द्वितीय अंक

[शक दुर्ग के भीतर सुनहले काम वाले खम्भों पर एक दालान, बीच में छोटी-छोटी दो सीढ़ियाँ, उसी के सामने काश्मीरी खुदाई का सुन्दर लकड़ी का सिंहासन/ बीच के दो खम्भे खुले हुए हैं, उनके दोनों ओर मोटे-मोटे चित्र बने हुए तिब्बती ढंग के रेशमी पर्दे पड़े हैं/ सामने बीच में छोटा सा आंगन की तरह, जिसके दोनों ओर क्यारियाँ, उनमें दो-चार पौधे और लताएँ फूलों से लदी दिखलाई पड़ती हैं]

कोमा––(धीरे-धीरे पौधों को देखती हुई प्रवेश करके) इन्हें सींचना पड़ता है, नहीं तो इनकी रुखाई और मलिनता सौन्दर्य पर आवरण डाल देती है। (देखकर) आज तो इनके पत्ते धुले हुए भी नहीं हैं। इनमें फूल, जैसे मुकुलित होकर ही रह गये हैं। खिलखिलाकर हँसने का मानो इन्हें बल नहीं। (सोच कर) ठीक, इधर कई दिनों से महाराज अपने युद्ध-विग्रह में लगे हुए है और मैं भी यहाँ नहीं आयी, तो फिर इनकी चिन्ता कौन करता? उस दिन मैंने यहाँ दो मञ्च और भी रख देने के लिए कह दिया था, पर सुनता कौन है? सब जैसे रक्त के प्यासे! प्राण लेने और देने में पागल! वसन्त का उदास और अलस पवन आता है, चला जाता है। कोई उसके स्पर्श मे परिचित नहीं। ऐसा तो वास्तविक जीवन नहीं है? (सीढ़ी पर बैठकर सोचने लगती है) प्रणय! प्रेम! जब सामने से आते हुए तीव्र आलोक की तरह आँखो में प्रकाश-पुञ्ज उड़ेल देता है, तब सामने की सब वस्तुएँ और भी अस्पष्ट हो जाती हैं। अपनी ओर से कोई भी प्रकाश की किरण नहीं। तब वही केवल वही! हो पागलपन, भूल हो, दुःख मिले, प्रेम करने की एक ऋतु होती है। उसमें चूकना, उसमें सोच-समझ कर चलना, दोनों बराबर है। सुना है, दोनों ही संसार के चतुरों की दृष्टि में मूर्ख बनते हैं, तब कोमा, तू किसे अच्छा समझी है?

[गाती है]

यौवन! तेरी चंचल छाया।
इसमें बैठ घूँट भर पी लूँ जो रस तू है लाया।
मेरे प्याले में मद बनकर कब तू छली समाया।
जीवन-वंशी के छिद्रों में स्वर बनकर लहराया।
पल भर रुकने वाले! कह, तू पथिक! कहां से आया?

[चुप होकर आँखे बन्द किये तन्मय होकर बैठी रह जाती है। शकराज का प्रवेश/ हाथ में एक लम्बी तलवार लिये हुए चिन्तित भाव से आकर इस तरह खड़ा होता है, जिससे कोमा को नहीं देखता] [ ७२२ ]

शकराज––खिंगिल अभी नहीं आया, क्या वह बन्दी तो नहीं कर लिया गया? नहीं, यदि वे अन्धे नहीं हैं तो उन्हें अपने सिर पर खड़ी विपत्ति दिखाई देनी चाहिये। (सोच कर) विपत्ति! केवल उन्हीं पर तो नहीं है, हम लोगों को भी रक्त की नदी बहानी पड़ेगी। चित्त बड़ा चञ्चल हो रहा है। तो बैठ जाऊँ? इस एकान्त में अपने बिखरे हुए मन को सँभाल लूँ? (इधर-उधर देखता है, कोमा आहट पा कर उठ खड़ी होती है / उसे देख कर) अरे, कोमा! कोमा!

कोमा––हाँ, महाराज! क्या आज्ञा है?

शकराज––(उसे स्निग्ध भाव से देखकर) आज्ञा नहीं, कोमा! तुम्हें आज्ञा न दूँगा! तुम रूठी हुई-सी क्यों बोल रही हो?

कोमा––रूठने का सुहाग मुझे मिला कब?

शकराज––आज-कल मैं जैसी भीषण परिस्थिति में हूँ, उसमें अन्यमनस्क होना स्वाभाविक है, तुम्हें यह भूल जाना चाहिए।

कोमा––तो क्या आपकी दुश्चिन्ताओं में मेरा भाग नहीं? मुझे उससे अलग रखने से क्या वह परिस्थिति कुछ सरल हो रही है?

शकराज––तुम्हारे हृदय को उन दुर्भावनाओं में डाल कर व्यथित नहीं करना चाहता। मेरे सामने जीवन-मरण का प्रश्न है।

कोमा––प्रश्न स्वयं किसी के सामने नहीं आते। मैं तो समझती हूँ, मनुष्य उन्हें जीवन के लिए उपयोगी समझता है। मकड़ी की तरह लटकने के लिए अपने-आप ही जाला बुनता है। जीवन का प्राथमिक प्रसन्न उल्लास मनुष्य के भविष्य में मंगल और सौभाग्य को आमंत्रित करता है। उससे उदासीन न होना चाहिए महाराज!

शकराज––सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ! पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खींच लाता है। हाँ, मैं इस युद्ध के लिए उत्सुक नहीं था कोमा, मैं ही दिग्विजय के लिए नहीं निकला था।

कोमा––संसार के नियम के अनुसार आप अपने में महान के सम्मुख थोड़ा-सा विनीत बनकर इस उपद्रव से अलग रह सकते थे।

शकराज––यही तो मुझ से नहीं हो सकता।

कोमा––अभावमयी लघुता में मनुष्य अपने को महत्त्वपूर्ण दिखाने का अभिनय न करे तो क्या अच्छा नहीं है?

शकराज––(चिढ़ कर) यह शिक्षा अभी रहने दो कोमा, किसी से बड़ा नहीं हूँ तो छोटा भी नहीं बनना चाहता। तुम अभी तक पाषाणी प्रतिमा की तरह वहीं खड़ी हो, मेरे पास आओ। [ ७२३ ]

कोमा––पाषाणी! हाँ, राजा! पाषाणी के भीतर भी कितने मधुर स्रोत बहते रहते हैं। उनमें मदिरा नहीं, शीतल जल की धारा बहती है। प्यासों की तृप्ति––

शकराज––किन्तु मुझे तो इस समय स्फूर्ति के लिए एक प्याला मदिरा ही चाहिए।

[कोमा एक छोटा-सा मंच रख देती है और चली जाती है / शकराज मंच पर बैठ जाता है। / खिंगिल का प्रवेश]

कोमा––(स्थिर दृष्टि से देखती हुई) मैं ले आती हूँ। आप बैठिए।

शकराज––कहो जी, क्या समाचार है!

खिंगिल––महाराज! मैंने उन्हें अच्छी तरह समझा दिया कि हम लोगों का अवरोध दृढ़ है। उन्हें दो में से एक करना ही होगा। या तो अपने प्राण दें अन्यथा मेरे सन्धि के नियमों को स्वीकार करें।

शकराज––(उत्सुकता से) तो वे समझ गये?

खिंगिल––दूसरा उपाय ही क्या था। यह छोकड़ा रामगुप्त, समुद्रगुप्त की तरह दिग्विजय करने निकला था। उसे इन बीहड़ पहाड़ी घाटियों का परिचय नहीं मिला था। किन्तु सब बातों को समझ कर वह आपके नियमों को मानने के लिए बाध्य हुआ।

शकराज––(प्रसन्नता से उठकर उसके दोनों हाथ पकड़ लेता है) ऐं, तुम सच कहते हो! मुझे आशा नहीं। क्या मेरा दूसरा प्रस्ताव भी रामगुप्त ने मान लिया?

[स्वर्ण के कलश में मदिरा लेकर कोमा चुपके से आकर पीछे खड़ी हो जाती है]

खिंगिल--हाँ महाराज! उसने माँगे हुए सब उपहारों को देना स्वीकार किया और ध्रुवस्वामिनी भी आपकी सेवा में शीघ्र ही उपस्थित होती है।

[कोमा चौंक उठती है और शकराज प्रसन्नता से खिंगिल के हाथों को झकझोरने लगता है]

शकराज––खिंगिल! तुमने कितना सुन्दर समाचार सुनाया। आज देवपुत्रों की स्वर्गीय आत्माएँ प्रसन्न होंगी। उनकी पराजयों का यह प्रतिशोध है। हम लोग गुप्तों की दृष्टि में जंगली, बर्बर और असभ्य हैं तो फिर मेरी प्रतिहिंसा भी बर्बरता के ही अनुकूल होगी। हाँ, मैंने अपने शूर सामन्तों के लिए स्त्रियाँ भी माँगी थी।

खिगिल––वे भी साथ ही आएँगी।

शकराज––तो फिर सोने की झाँझ वाली नाच का प्रबन्ध करो, इस विजय का उत्सव मनाया जाय। और मेरे सामन्तों को भी शीघ्र बुला लाओ। [ ७२४ ]

[खिंगिल का प्रस्थान / शकराज अपनी प्रसन्नता में उद्विग्न-सा इधर-उधर टहलने लगता है और कोमा अपना कलश लिये हुए धीरे-धीरे सिंहासन के पास आकर खड़ी हो जाती है / चार सामन्तों का प्रवेश / दूसरी ओर से नर्तकियों का दल आता है / शकराज उनकी ओर ही देखता हुआ सिंहासन पर बैठ जाता है / सामन्त लोग उसके पैरों के नीचे सीढ़ियों पर बैठते हैं / नर्तकियाँ नाचती हुई गाती हैं]

अस्ताचल पर युवती सन्ध्या की खुली अलक घुँघराली है।
लो, मानिक मदिरा की धारा अब बहने लगी निराली है।
भर ली पहाड़ियों ने अपनी झीलों की रत्नमयी प्याली।
झुक चली चूमने वल्लरियों से लिपटी तरु की डाली है।
यह लगा पिघलने मानिनियों का हृदय मृदु-प्रणय-रोष भरा।
वे हँसती हुई दुलार-भरी मधु लहर उठाने वाली है।
भरने निकले हैं प्यार-भरे जोड़े कुंजों की झुरमुट से।
इस मधुर अँधेरे में अब तक क्या इनकी प्याली खाली है।
भर उठीं प्यालियाँ, सुमनों ने सौरभ मकरन्द मिलाया है।
कामिनियों ने अनुराग-भरे अधरों से उन्हें लगा ली है।
वसुधा मदमाती हुई उधर आकाश लगा देखो झुकने।
सब झूम रहे अपने सुख में तूने क्यों बाधा डाली है!

[नर्तकियाँ जाने लगती है]

एक सामंत––श्रीमान! इतनी बड़ी विजय के अवसर पर इस सूखे उत्सव से सन्तोष नहीं होगा, जब कि कलश सामने भरा हुआ रखा है।

शकराज––ठीक है, इन लोगों को केवल कहकर ही नहीं, प्यालियाँ भर कर भी देनी चाहिए।

[सब पीते हैं और नर्तकियाँ एक-एक को सानुरोध पान कराती हैं]

दूसरा सामंत––श्रीमान् की आज्ञा मानने के अतिरिक्त दूसरी गति नहीं। उन्होंने समझ से काम लिया, नहीं तो हम लोगों को इस रात की कालिमा में रक्त की लाली मिलानी पड़ती।

तीसरा सामंत––क्यों बक-बक करते हो? चुप-चाप इस बिना परिश्रम की विजय का आनन्द लो। लड़ना पड़ता तो सारी हेकड़ी भूल जाती।

दूसरा सामंत––(क्रोध से लड़खड़ाता हुआ उठता है) हमसे!

तीसरा सामंत––हाँ जी तुमसे!

दूसरा सामंत––तो फिर आओ तुम्हीं से निपट ले। (सब परस्पर लड़ने की [ ७२५ ]चेष्टा करते हैं / शकराज खिंगिल को संकेत करता है / वह उन लोगों को बाहर लिवा जाता है / तूर्यनाद)

शकराज––रात्रि के आगमन की सूचना हो गयी। दुर्ग का द्वार अब शीघ्र ही बन्द होगा। अब तो हृदय अधीर हो रहा है––खिंगिल!

[खिंगिल का पुनः प्रवेश]

खिंगिल––तोरण में शिविकाएँ आ गई हैं।

शकराज––(गर्व से) तब विलम्ब क्यों? उन्हें अभी ले आओ।

खिंगिल––(सविनय) किन्तु रानी की एक प्रार्थना है।

शकराज––क्या?

खिंगिल––वह पहले केवल श्रीमान् से ही सीधे भेंट करना चाहती हैं। उनकी मर्यादा...

शकराज––(ठठा कर हँसते हुए) क्या कहा? मर्यादा! भाग्य ने झुकने के लिए जिन्हें विवश कर दिया है, उन लोगों के मन में मर्यादा का ध्यान और भी अधिक रहता है। यह उनकी दयनीय दशा है।

खिंगिल––वह श्रीमान् की रानी होने के लिए आ रही है।

शकराज––(हँस कर) अच्छा, तुम मध्यस्थ हो न! तुम्हारी बात मान कर मैं उससे एकान्त में ही भेंट करूँगा––जाओ।

[खिंगिल का प्रस्थान]

कोमा––महाराज! मुझे क्या आज्ञा है।

शकराज––(चौंक कर) अरे, तुम अभी यही खड़ी हो? मैं तो जैसे भूल ही गया था। हृदय चञ्चल हो रहा है। मेरे समीप आओ कोमा!

कोमा––नयी रानी के आगमन की प्रसन्नता से?

शकराज––(संभल कर) नयी रानी का आना क्या तुम्हें अच्छा नहीं लगा कोमा?

कोमा––(निर्विकार भाव से) संसार में बहुत-सी बातें बिना अच्छी हुए भी अच्छी लगती हैं, और बहुत-सी अच्छी बातें बुरी मालुम पड़ती हैं।

शकराज––(झुँझलाकर) तुम तो आचार्य मिहिरदेव की तरह दार्शनिकों की-सी बातें कर रही हो!

कोमा––वे मेरे पिता-तुल्य हैं, उन्हीं की शिक्षा में मैं पली हूँ। हाँ ठीक है, जो बातें राजा को अच्छी लगें, वे ही मुझे भी रुचनी ही चाहिए।

शकराज––(अव्यवस्थित होकर) अच्छा, तुम इतनी अनुभूतिमयी हो, यह मैं आज जान सका।

कोमा––राजा, तुम्हारी स्नेह-सूचनाओं की सहज प्रसन्नता और मधुर आलापों [ ७२६ ]ने जिस दिन मन के नीरस और नीरव शून्य में संगीत की, वसन्त की और मकरन्द की सृष्टि की थी, उसी दिन से मैं अनुभूतिमयी बन गयी हूँ। क्या वह मेरा भ्रम था? कह दो––कह दो कि वह तेरी भूल थी।

[उत्तेजित कोमा सिर उठा कर राजा से आँख मिलाती है]

शकराज––(संकोच से) नहीं कोमा, वह भ्रम नहीं था। मैं सचमुच तुम्हें प्यार करता हूँ।

कोमा––(उसी तरह) तब भी यह बात?

शकराज––(सशंक) कौन-सी बात?

कोमा––वही जो आज होने जा रही है! मेरे राजा! आज तुम एक स्त्री को अपने पति से विच्छिन्न कराकर अपने गर्व की तृप्ति के लिए कैसा अनर्थ कर रहे हो?

शकराज––(हँस कर बात उड़ाते हुए) पागल कोमा! वह मेरी राजनीति का प्रतिशोध है।

कोमा––(दृढ़ता से) किन्तु, राजनीति का प्रतिशोध, क्या एक नारी को कुचले बिना पूरा नहीं हो सकता?

शकराज––जो विषय न समझ में आवे, उस पर विवाद न करो।

कोमा––(खिन्न होकर) मैं क्यों न करूँ। (ठहर कर) किन्तु नहीं, मुझे विवाद करने का अधिकार नहीं। यह मैं समझ गयी।

[कोमा दुखी होकर जाना चाहती है कि दूसरी ओर से मिहिरदेव का प्रवेश, हाथ में लम्बा त्रिशूल घुटने तक परिच्छद और छाती तक सफेद दाढ़ी]

शकराज––(संभ्रम से खड़ा होकर) धर्मपूज्य! मैं वन्दना करता हूँ।

मिहिरदेव––कल्याण हो। (कोमा के सिर पर हाथ रखकर) बेटी! मैं तो तुझको ही देखने चला आया। तू उदास क्यों है?

[शकराज की ओर गूढ़ दृष्टि से देखने लगता है]

शकराज––आचार्य! रामगुप्त का दर्प दलन करने के लिए, मैंने ध्रुवस्वामिनी को उपहार में भेजने की आज्ञा दी थी। आज रामगुप्त की रानी मेरे दुर्ग में आयी है। कोमा को इसमें आपत्ति है।

मिहिरदेव––(गम्भीरता से) ऐसे काम में तो आपत्ति होनी ही चाहिए राजा! स्त्री का सम्मान नष्ट करके तुम जो भयानक अपराध करोगे, उसका फल क्या अच्छा होगा? और भी, यह अपनी भावी पत्नी के प्रति तुम्हारा अत्याचार होगा।

शकराज––(क्षोभ से) भावी पत्नी?

मिहिरदेव––अरे, क्या तुम इस क्षणिक सफलता से प्रमत्त हो जाओगे? क्या [ ७२७ ]तुमने अपने आचार्य की प्रतिपालिता कुमारी के साथ स्नेह का सम्बन्ध नहीं स्थापित किया है? क्या इसमें भी संदेह है। राजा! स्त्रियों का स्नेह-विश्वास भंग कर देना, कोमल तन्तु को तोड़ने से भी सहज है, परन्तु सावधान होकर उसके परिणाम को भी सोच लो।

शकराज––मैं समझता हूँ कि आप मेरे राजनीतिक कामों में हस्तक्षेप न करें तो अच्छा हो।

मिहिरदेव––राजनीति? राजनीति ही मनुष्यों के लिए सब कुछ नहीं है। राजनीति के पीछे नीति से भी हाथ न धो बैठो, जिसका विश्वमानव के साथ व्यापक सम्बन्ध है। राजनीति की साधारण छलनाओं से सफलता प्राप्त करके क्षण भर के लिए तुम अपने को चतुर समझ लेने की भूल कर सकते हो। परन्तु इस भीषण संसार में एक प्रेम करने वाले हृदय को खो देना, सबसे बड़ी हानि है। शकराज! दो प्यार करने वाले हृदयों के बीच में स्वर्गीय ज्योति का निवास है।

शकराज––बस, बहुत हो चुका! आपके महत्व की भी एक सीमा होगी। अब आप यहाँ से नहीं जाते हैं, तो मैं ही चला जाता हूँ (प्रस्थान)

मिहिरदेव––चल कोमा! हम लोगों को लताओं, वृक्षों और चट्टानों से छाया और सहानुभूति मिलेगी। इस दुर्ग से बाहर चल।

कोमा––(गद्‌गद् कण्ठ से) पिता जी! (खड़ी रहती है)

मिहिरदेव––बेटी! हृदय को सँभाल। कष्ट सहन करने के लिए प्रस्तुत हो जा। प्रतारणा में बड़ा मोह होता है। उसे छोड़ने को मन नहीं करता। कोमा! छल का बहिरंग सुन्दर होता है––विनीत और आकर्षक भी, पर दुखदायी और हृदय को बेधने के लिए। इस बंधन को तोड़ डाल।

कोमा––(सकरुण) तोड़ डालूँ पिताजी! मैंने जिसे अपने आँसुओं से सींचा, वही दुलार भरी बल्लरी, मेरे आँख बन्द कर चलने में मेरे ही पैरों से उलझ गयी है। दे दूँ एक झटका––उसकी हरी-हरी पत्तियाँ कुचल जायँ और वह छिन्न होकर धूल में लोटने लगे? ना, ऐसी कठोर आज्ञा न दो!

मिहिरदेव––(निश्वास लेकर आकाश को देखते हुए) यहाँ तेरी भलाई होती, तो मैं चलने के लिए न कहता। हम लोग अखरोट की छाया में बैठेंगे––झरनों के किनारे, दाख के कुंजों में विश्राम करेंगे। जब नीले आकाश में मेघों के टुकड़े, मानसरोवर जाने वाले हंसों का अभिनय करेंगे, तब तू अपनी तकली पर ऊन कातती हुई कहानी कहेगी और मैं सुनूँगा।

कोमा––तो चलूँ! (एक बार चारों ओर देख कर) एक घड़ी के लिए मुझे...

मिहिरदेव––(ऊब कर आकाश की ओर देखता हुआ) तू नहीं मानती। [ ७२८ ]वह देख, नील लोहित रंग का धूमकेतु अविचल भाव से इस दुर्ग की ओर कैसा भयानक संकेत कर रहा है।

कोमा––(उधर देखते हुए) तब भी एक क्षण मुझे...

मिहिरदेव––पागल लड़की! अच्छा, मैं फिर आऊँगा। तू सोच ले, विचार कर ले। (जाता है)

कोमा––जाना ही होगा! तब यह मन की उलझन क्यों? अमंगल का अभिशाप अपनी क्रूर हँसी से इस दुर्ग को कँपा देगा, और सुख के स्वप्न विलीन हो जायँगे। मेरे यहाँ रहने से उन्हें अपने भावों को छिपाने के लिए बनावटी व्यवहार करना होगा; पग-पग पर अपमानित होकर मेरा हृदय उसे सह नहीं सकेगा। तो चलूँ! यही ठीक है! पिताजी! ठहरिए, मैं आती हूं।

शकराज––(प्रवेश करके) कोमा?

कोमा––जाती हूँ, राजा!

शकराज––कहाँ? आचार्य के पास? मालूम होता है कि वे बहुत ही दुःखी होकर चले गये हैं।

कोमा––धूमकेतु को दिखाकर उन्होंने मुझसे कहा है कि तुम्हारे दुर्ग में रहने से अमंगल होगा।

शकराज––(भयभीत होकर उसे देखता हुआ) ओह! भयावनी पूँछवाला धूमकेतु! आकाश का उच्छृंखल पर्यटक! नक्षत्रलोक का अभिशाप! कोमा! आचार्य को बुलाओ। वे जो आदेश देंगे, वही मैं करूँगा। इस अमंगल की शान्ति होनी चाहिए।

कोमा––वे बहुत चिढ़ गये हैं। अब उनको प्रसन्न करना सहज नहीं है। वे मुझे अपने साथ लिवा जाने के लिए मेरी प्रतीक्षा करते होंगे।

शकराज––कोमा! तुम कहाँ जाओगी?

कोमा––पिताजी के साथ।

शकराज––और मेरा प्यार, मेरा स्नेह, सब भुला दोगी? इस अमंगल की शान्ति करने के लिए आचार्य को न समझाओगी?

कोमा––(खिन्न होकर) प्रेम का नाम न लो! वह एक पीड़ा थी जो छूट गयी। उसकी कसक भी धीरे-धीरे दूर हो जायगी। राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करनी। मैं तो दर्प से दीप्त तुम्हारी महत्त्वमयी पुरुष-मूर्ति की पुजारिन थी, जिसमें पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े रहने की दृढ़ता थी। इस स्वार्थ-मलिन कलुष से भरी मूर्ति से मेरा परिचय नहीं। अपने तेज की अग्नि में जो सब कुछ भस्म कर सकता हो, उस दृढ़ता का, आकाश के नक्षत्र कुछ बना-बिगाड़ नहीं सकते। तुम आशंका-मात्र से दुर्बल––कंपित और भयभीत हो। [ ७२९ ]

शकराज––(धूमकेतु को बार-बार देखता हुआ) भयानक! कोमा, मुझे बचाओ!

कोमा––जाती हूँ महाराज! पिताजी मेरी प्रतीक्षा करते होंगे। (जाती है)

[शकराज अपने सिंहासन पर हताश होकर बैठ जाता है]

प्रहरी––(प्रवेश करके) महाराज! ध्रुवस्वामिनी ने पूछा है कि एकांत हो तो आऊँ।

शकराज––हाँ, कह दो कि यहाँ एकांत है। और देखो, यहाँ दूसरा कोई न आने पावे।

[प्रहरी जाता है / शकराज चञ्चल होकर टहलने लगता है / धूमकेतु की ओर दृष्टि जाती है तो भयभीत होकर बैठ जाता है]

शकराज––तो इसका कोई उपाय नहीं? न जाने क्यों मेरा हृदय घबरा रहा है। कोमा को समझा-बुझा कर ले आना चाहिए। (सोच कर) किन्तु इधर ध्रुवस्वामिनी जो आ रही है! तो भी देखूँ, यदि कोमा प्रसन्न हो जाय....(जाता है)

[स्त्री-वेश में चन्द्रगुप्त आगे और पीछे ध्रुवस्वामिनी स्वर्ण-खचित उत्तरीय में सब अंग छिपाये हुए आती है / केवल खुले हुए मुँह पर प्रसन्न चेष्टा दिखाई देती है]

चन्द्रगुप्त––तुम आज कितनी प्रसन्न हो!

ध्रुवस्वामिनी––और तुम क्या नहीं?

चन्द्रगुप्त––मेरे जीवन-निशीथ का ध्रुव-नक्षत्र इस घोर अन्धकार में अपनी स्थिर उज्ज्वलता से चमक रहा है। आज महोत्सव है न?

ध्रुवस्वामिनी––लौट जाओ, इस तुच्छ नारी-जीवन के लिए इतने महान् उत्सर्ग की आवश्यकता नहीं।

चन्द्रगुप्त––देवि! यह तुम्हारा क्षणिक मोह है। मेरी परीक्षा न लो। मेरे शरीर ने चाहे जो रूप धारण किया हो, किन्तु हृदय निश्छल है।

ध्रुवस्वामिनी––अपनी कामना की वस्तु न पाकर यह आत्महत्या जैसा प्रसंग तो नहीं है?

चन्द्रगुप्त––तीखे वचनों से मर्माहत कर के भी आज कोई मुझे इस मृत्यु-पथ से विमुख नहीं कर सकता। मैं केवल अपना कर्तव्य करूँ, इसी में मुझे सुख है।(ध्रुवस्वामिनी संकेत करती है / शकराज का प्रवेश / दोनों चुप हो जाते हैं / वह दोनों को चकित होकर देखता है)

शकराज––मैं किसको रानी समझूँ? रूप का ऐसा तीव्र आलोक! नहीं मैंने कभी नहीं देखा था। इसमें कौन ध्रुवस्वामिनी है?

ध्रुवस्वामिनी––(आगे बढ़कर) यह मैं आ गयी हूँ। [ ७३० ]

चन्द्रगुप्त––(हँसकर) शकराज को तुम धोखा नहीं दे सकती हो। ध्रुवस्वामिनी कौन है? यह एक अन्धा भी बता सकता है।

ध्रुवस्वामिनी––(आश्चर्य से) चन्द्रे! तुमको क्या हो गया है? यहाँ आने पर तुम्हारी इच्छा रानी बनने की हो गई है? या मुझे शकराज से बचा लेने के लिए यह तुम्हारी स्वामिभक्ति है?

[शकराज चकित होकर दोनों की ओर देखता है]

चन्द्रगुप्त––कौन जाने तुम्हीं ऐसा कर रही हो?

ध्रुवस्वामिनी––चन्द्रे! तुम मुझे दोनों ओर से नष्ट न करो। यहाँ से लौट जाने पर भी क्या मैं गुप्तकुल के अन्तःपुर में रहने पाऊँगी?

चन्द्रगुप्त––चन्द्रे कह कर मुझको पुकारने से तुम्हारा क्या तात्पर्य है? यह अच्छा झगड़ा तुमने फैलाया। इसीलिए मैंने एकान्त में मिलने की प्रार्थना की थी।

ध्रुवस्वामिनी––तो क्या मैं यहाँ भी छली जाऊँगी?

शकराज––ठहरो, (दोनों को ध्यान से देखता हुआ) क्या चिन्ता यदि मैं दोनों को ही रानी समझ लूँ?

ध्रुवस्वामिनी––ऐं...

चन्द्रगुप्त––हें...

शकराज––क्यों? इसमें क्या बुरी बात है?

चन्द्रगुप्त––जी नहीं, यह नहीं हो सकता। ध्रुवस्वामिनी कौन है, पहले इसका निर्णय होना चाहिए।

ध्रुवस्वामिनी––(क्रोध से) चन्द्रे! मेरे भाग्य के आकाश में धूमकेतु-सी अपनी गति बन्द करो।

शकराज––(धूमकेतु की ओर देखकर भयभीत-सा) ओह भयानक!

[व्यग्र भाव से टहलने लगता है]

चन्द्रगुप्त––(शकराज की पीठ पर हाथ रखकर) सुनिए....

ध्रुवस्वामिनी––चन्द्रे!

चन्द्रगुप्त––इस धमकी से तो कोई लाभ नहीं।

ध्रुवस्वामिनी––तो फिर मेरा और तुम्हारा जीवन-मरण साथ ही होगा।

चन्द्रगुप्त––तो डरता कौन है(दोनों ही शीघ्र कटार निकाल लेते हैं)

शकराज––(घबरा कर) हैं, यह क्या? तुम लोग यह क्या कर रही हो? ठहरो! आचार्य ने ठीक कहा है, आज शुभ मुहूर्त नहीं। मैं कल विश्वसनीय व्यक्ति को बुला कर इसका निश्चय कर लूँगा। आज तुम लोग विश्राम करो।

ध्रुवस्वामिनी––नहीं, इमका निश्चय तो आज ही होना चाहिए।

शकराज––(बीच में खड़ा होकर) मैं कहता हूँ न! [ ७३१ ]

चन्द्रगुप्त––वाह रे कहने वाले!

[ध्रुवस्वामिनी मानो चन्द्रगुप्त के आक्रमण से भयभीत हो कर पीछे हटती है और तूर्यानाद करती है / शकराज आश्चर्य से उसे सुनता हुआ सहसा घूम कर चन्द्रगुप्त का हाथ पकड़ लेता है / ध्रुवस्वामिनी झटके से चन्द्रगुप्त का उत्तरीय खींच लेती है और चन्द्रगुप्त हाथ छुड़ा कर शकराज को घेर लेता है]

शकराज––(चकित-सा) ऐ, यह तुम कौन प्रवंचक?

चन्द्रगुप्त––मैं हूँ चन्द्रगुप्त, तुम्हारा काल। मैं अकेला आया हूँ, तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेने। सावधान!

[शकराज भी कटार निकाल कर युद्ध के लिए अग्रसर होता है / युद्ध और शकराज की मृत्यु / बाहर दुर्ग में कोलाहल / 'ध्रुवस्वामिनी की जय' का हल्ला मचाते हुए रक्ताक्त कलेवर सामन्त-कुमारों का प्रवेश / ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त को घेर कर समवेत स्वर से 'ध्रुवस्वामिनी की जय हो!']

[पटाक्षेप]