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प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५)/गबन/सत्रह

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प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ ७२ से – ७५ तक

 


निकले। एकाएक उसे एक बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मीजान दो हजार लिख दें। रसीद बही की जांच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाए, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई फेर दी, और रजिस्टर को दराज में बंद करके इधर-उधर घूमने लगा।

इक्की दुक्की गाड़ियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं हैं, तो सोचा जल्दी से चुंगी देकर छुट्टी पर जायं। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दी क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था, मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बंद हो जाती थी, दूसरे दिन का इंतजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपये में आधा पाव भी गिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गई। दस-पांच रुपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नई बात मालूम हुई। सोचा, आखिर सुबह को मैं घर ही पर बैठा रहता हूं। अगर यहां आकर बैठ जाऊं तो रोज दस-पांच रुपये हाथ आ जायं। फिर तो छ: महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाय। मान लो रोज यह चांदी न होगी, पंद्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर मुबह को रोज पांच रुपये मिल जायं और इतने ही दिनभर में और मिल जाये, तो पांच-छ: महीने में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊ। उसने दराज खोलकर फिर रजिस्टर निकाला। यह हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-फेर कर देना उसे इतना भंयकर न जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बंदूक की आवाज से चौंक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबड़ाता।

रमा दफ्तर बंद करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुंचा। रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूंगा। बिसाती ने मिन्नत करनी शुरू की। उमें कोई बड़ा जरूरी काम था। आखिर दस रुपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रुपये जेब में रक्खे और घर चला। पच्चीस रुपये केवल दो-ढाई घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाजार से भी कुछ नहीं मंगवाया। रुपये भुनाते हुए उसे एक रुपया कम हो जाने का खयाल हुआ। वह शाम तक बैठा काम करता रहा। चार रुपये और वसूल हुए। चिराग जले वह घर 'चला, तो उसके मन पर से चिंता और निराशा का बहुत कुछ बोझ उतर चुका था। अगर दस दिन यही तेजी रही, तो रतन से मुंह चुराने की नौबत न आएगी।

सत्रह

नौ दिन गुजर गए। रमा रोज प्रात: दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बड़ा शिकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रुपये जमा कर लिए थे। उसने एक पैसे का पान

भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आवें, तो उसे भी उसने बातों में ही टाला। बस, कल का दिन और था। कल आकर रतन कंगन मांगेगी तो उसे वह क्या जवाब देगा। दफ्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था। क्या वह एक महीना भर के लिए और न माने जायगी। इतने दिन वह और न बोलती तो शायद वह उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके राजी कर लूंगा। अगर उसने जिद की तो मैं उससे कह दूंगा, सराफ रुपये नहीं लौटाता। सावन के दिन थे, अंधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दोचार बाजियां खेल आऊं, मगर बादलों को देख-देख रुक जाता था। इतने में रतन आ पहुंची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आई है और मुरव्वत और मुलाहजे की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है।

जालपा ने कहा—तुम खूब आई। आज मैं भी जरा तुम्हारे साथ घूम आऊंगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की फुर्सत नहीं हैं। | रतन ने निष्ठुरता से कहा-मुझे आज तो बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आई हूँ।

रमा उसका लटका हुआ मुंह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न काना चाहता था। बड़ी तत्परता से बोला-जी हां, खूब याद है, अभी सराफ की दुकान से चला आ रहा हूं। रोज सुबह-शाम घंटे भर हाजिरी देता हूँ, मगर इन चीजों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मानियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं, पर शायद अभी एक महीने से कम में चीज तैयार न हो, पर होगी लाजवाब! जी खुश हो जायगा।

पर रतन जरी भी न पिघली। तिनककर बोली-अच्छा | अभी महीना भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई ! आप उससे कह दीजिएगा मेरे रुपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियां पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं ।

रमानाथ-एक महीना न लगेगा, में जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैंने अंदाज कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गई हैं। कई दिन तो नगीने तला करने में लग गए।

रतन–मुझे कंगन पहनना ही नहीं है, भाई । आप मेरे रुपये लौटा दीजिए, बस। सुनार मैंने भी बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कगन मेरे पास होगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी।। धांधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा–धांधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या जरूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रुपये इसलिए दे दिए कि सुनार खुश होकर जल्दी से बना देगा। अब आप रुपये मांग रही हैं, सराफ रुपये नहीं लौटा सकता।

रतन ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा-क्यों, रुपये क्यों न लौटाएगा?

रमानाथ-इसलिए कि जो चीज आपके लिए बनाई है, उसे वह कहां बेचता फिरेगा। संभव है, साल-छ: महीने में बिक सके। सबकी पसंद एक-सी तो नहीं होती।

रतन ने त्योरियां चढ़ाकर कहा-मैं कुछ नहीं जानतीं, उसने देर की है, उसका दंड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रुपये। आपसे यदि सराफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए। नहीं आपको शर्म आती हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूंगी। वाह, अच्छी

दिल्लगी ! दुकान नीलाम करा दूंगी। जेल भिजवा देंगी। इन बदमाशों से लड़ाई के बगैर काम नहीं चलता।

रमा अप्रतिभ होकर जमीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रुपये लिए । बैठे-बिठाए विपत्ति मोल ली।

जालपा ने कहा-सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सराफ की दुकान पर ले जाते, चीज आंखों से देखकर इन्हें संतोष हो जायेगा।

रतन-मैं अब चीज लेना ही नहीं चाहती।

रमा ने कांपते हुए कहा-अच्छी बात है, आपको रुपये कल मिल जायेंगे।

रतन-कल किस वक्त?

रमानाथ-दफ्तर से लौटते वक्त लेता आऊंगा।

रतन–पूरे रुपये लूंगी। ऐसा न हो कि सौ-दो सौ रुपये देकर टाल दे।

रमानाथ-कल आप अपने सब रुपये ले जाइएगा।

यह कहता हुआ रमा मरदाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रुक्का लिखकर गोपी से बोला-इसे रमेश बाब के पास ले जाओ। जवाब लिखते आना।

फिर उसने एक दूसरा रुक्का लिखकर विश्वम्भरदास को दिया कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाए।

विश्वम्भर ने कहा-पानी आ रहा है।

रमानाथ–तो क्या सारी दुनिया बह जाएगी । दौड़ते हुए जाओ।

विश्वम्भर-और वह जो घर पर न मिलें?

रमानाथ-मिलेंगे। वह इस वक्त कहीं नहीं जाते।

आज जीवन में पहला अवसर था कि रमा ने दोस्तों से रुपये उधार मांगे। आग्रह और विनय के जितने शब्द उसे याद आये, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी ही बार आ चुके थे। उन पत्रों को पढ़कर उसका हृदय कितना द्रवित हो जाता था; पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जायंगे? उनकी आमदनी ज्यादा है, खर्च कम, वह चाहें तो रुपये का इंतजाम कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सुलक भी न करेंगे? अब तक दोनों लड़के लौटकर नहीं आए। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी और चल दी।

दोनों कहां रह गए अब तक कहीं खेलने लगे होंगे। शैतान तो हैं ही। जो कहीं रमेश रुपये दे दें, तो चांदी है। मैंने दो सौ नाहक मांगे, शायद इतने रुपये उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। माणिक चाहे तो हजार-पांच सौ दे सकता है,लेकिन देखा चाहिए, आज परीक्षा हो जायगी। आज अगर इन लोगों ने रपये न दिए, तो फिर बात भी न पूछेगा। किमी का नौकर नहीं हूँ की जब वह शतरंज खेलने को बुलायें तो दौड़ा चला जाऊं। रमा किसी की आहट पाता, तो उसका दिल जोर से धड़कने लगता था। आखिर विश्वम्भर लौटा, माणिक ने लिखा था-आजकल बहुत तंग हूं। मैं तो तुम्हीं से मांगने वाला था।

रमा ने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया। मतलबी कहीं का ! अगर सब-इंस्पेक्टर ने मांगा होता तो पुर्जा देखते ही रुपये लेकर दौड़े जाते। खैर, देखा जायगा। चुंगी के लिए माल तो आयगी ही।

इसकी कसर तब निकल जायगी।

इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था- मैंने अपने जीवन में दो-चार नियम बना लिए हैं। और बड़ी कठोरता से उनका पालन करता हूं। उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूंगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जाएगा कि जहां मित्रों से लेन-देन शुरू हुआ, वहां मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहती। इसलिए मुझे क्षमा करो।

रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखाई देता था, इसमें संदेह है। इतनी ही एकाग्रता से वह कदाचित आकाश की काली, अभेद्य मेघ-राशि की ओर ताकता । मन की एक दशा वह भी होती है, जब आंखें खुली होती हैं और कुछ नहीं सूझता; कान खुले रहते हैं और कुछ नहीं सुनाई देता।

अठारह

संध्या हो गई थी म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाडू लगा रहा था। चपरासियों ने भी जूते पहनना शुरू कर दिया था खोंचेवाले दिनभर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे। पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था। आज भी वह प्रात:काल आया था, पर आज भी कोई बड़ा शिकार न फंसा, वही दस रुपये मिलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था ! रमा ने रतन को झांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन को यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रुपये मैंने खर्च कर दिए। अगर उसे मालूम हो जाए कि उसके रुपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शांत हो जाएगी। रमा उसे रुपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका संदेह मिटा देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा है। उसने आज जान- बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रुपये उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या गरज थी कि रमा से आज की आमदनी मांगता। रुपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिनभर वहीं लिखते-लिखते और रुपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुख रही थी। रमा को जब मालूम हो गया कि खजांची साहब दूर निकल गए होंगे, तो उसने रजिस्टर बंद कर दिया और चपरासी से बोला-थैली उठाओ । चलकर जमा कर आएं।

चपरासी ने कहा-खजांची बाबू तो चले गए ।

रमा ने आंखें फाड़कर कहा-खजांची बाबू चले गए ! तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं? अभी कितनी दूर गए होंगे?

चपरासी-सड़क के नुक्कड़ तक पहुंचे होंगे।

रमानाथ-यह आमदनी कैसे जमा होगी?

चपरासी–हुकुम हो तो बुला लाऊं?