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प्रेम पंचमी

विकिस्रोत से
प्रेम-पंचमी  (1930) 
प्रेमचंद, संपादक दुलारेलाल भार्गव

लखनऊ: गंगा पुस्तकमाला कार्यालय, पृष्ठ आवरण-पृष्ठ से – - तक

 
 

गंगा-पुस्तकमाला का ११५वाँ पुष्प

प्रेम-पंचमी

 
 

प्रेमचंद

 
 

प्रेम-पंचमी

 

संपादक
श्रीदुलारेलाल भार्गव
(सुधा-संपादक)

गंगा-पुस्तकमाला का ११५वाँ पुष्प

प्रेम-पंचमी

[मिडिल, मैट्रिक और प्रथमा के
विद्यार्थियों के लिये उपयुक्त
५ सुंदर कहानियाँ]


लेखक
प्रेमचंद
[रंगभूमि, कर्बला, प्रेम-प्रसून, प्रेम-द्वादशी, प्रेम-बत्तीसी,
प्रेम-पच्चीसी, प्रेमाश्रम, सेवा-सदन, प्रेम-पूर्णिमा,
सप्तसरोज, नवनिधि, कायाकल्प, वरदान,
प्रतिज्ञा,आदि के रचयिता]



प्रकाशक
गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय
प्रकाशक और विक्रेता
लखनऊ

प्रथमावृत्ति

सजिल्द १)]
[सादी ॥)
स° १९८७ वि°
 

प्रकाशक
श्रीदुलारेलाल भार्गव
अध्यक्ष गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय
लखनऊ


मुद्रक
श्रीदुलारेलाल भार्गव
अध्यक्ष गंगा-फाइनआर्ट-प्रेस
लखनऊ

संसार में जिस दिन दादी और उसके नाती-पोतों का आविष्कार

हुआ, उसी दिन कहानी का भी जन्म हुआ। कहानियों का दादी और बच्चों के साथ अटूट संबध है। बच्चों को विना कहानी सुने नींद नहीं आती, और दादी को विना कहानी सुनाए चैन नहीं पड़ता। इसीलिये शायद कहानी का आदिम इतिहास अज्ञात। उसका सबसे प्रथम आभास हमें संसार के सभी देशों में प्रचलित दंत- कथाओं तथा धार्मिक साहित्य में मिलता है। बूढ़ी दादी के समान ही ये धार्मिक ग्रंथ भी अजान मानव-समाज को कहानियाँ सुना- सुनाकर सीधा रास्ता बतलाने का प्रयत्न किया करते हैं। हमारे देश के शास्त्र और पुराण, महाभारत और रामायण, सभी प्राचीन ग्रंथ कहानियो से भरे पड़े हैं। इन सब अनत कथाओं का एकमात्र उद्देश्य है अज्ञानी और अबोध मनुष्य-समाज को शिक्षित बनाना। कहानी का यह महत्व पूर्ण उपयोग हमारे देश में बहुत पहले से ही चला आया है। दादी की कहानियाँ भी प्राय इसी उद्देश्य को लेकर कही जाती थीं। क्योंकि बालकों की अपरिपक मनोवृत्तियों को सुमार्ग में प्रवृत्त करने के लिये कहानी ही सबसे उत्तम साधन माना जाता था। आज दिन भी भारतीय तथा पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली में कहानी को ही शिशु-शिक्षा का सर्वोत्तम माध्यम समझा जाता है। बालकों के लिये लिखी गई सभी पुस्तकें―गणित-जैसे रूखे विषय की भी―कहानियों से भरी रहती हैं। मनोरंजन के साथ शिक्षा-प्रदान करने के लिये कहानी से बढ़कर साधन संसार ने अब तक नहीं डूँढ़ पाया। भाषा और लेखन-शैली की शिक्षा के लिये भी कहानी एक अत्यत उपयोगी साधन समझी गई है। उसके द्वारा बालकों को साहित्य प्रायः सभी अंगों की बारीकियों का ज्ञान कराया जा सकता है। एक अच्छी कहानी में नाटक के लिये उपयुक्त कथोप- कथन, उपन्यास के लिये उपयोगी चरित्र-चित्रण, काव्य के उपयुक्त वस्तु वर्णन तथा उत्तम निबध के लिये लाभदायक विचार-विभ्राट् बड़ी आसानी से मिल सकते हैं। उत्तमोत्तम लेखकों की कहानियों के अध्ययन से भाषा के परिमार्जित रूप, उसके लिये आवश्यक ओज:- पूर्ण तथा सनयोचित शब्दावली के संगठन और भाव व्यंजना के अनुरूप लेखन-शैली आदि का पूरा ज्ञान हो सकता है। पाठशालाओं में पढ़नेवाले विद्यार्थियों को भाषा, साहित्य तथा शैली का आवश्यक बोध कराने के लिये तो कहानी से बढ़कर दूसरा साधन ही नहीं। उनके पास बड़े बड़े आचार्यों द्वारा लिखे हुए निबंधों उपन्यासों तथा नाटकों को पढ़ने के लिये समय ही नहीं होता। इसके अतिरिक्त प्रति दिन पढ़ाए जानेवाले श्रेणी-पाठ के लिये बड़े-बड़े नाटक, उपन्यास भी अनुपयुक्त सिद्ध हुए हैं। बालकों में स्थगित कथा-वस्तु के लिये प्रतीक्षा करने का भाव बहुत कम हुमा करता है। वे एक बार में हो, एक साँस में ही, पूरी कथा सुन लेना चाहते हैं। बासी कथानक में उन्हें ज़रा भी, अभिरुचि नहीं रह जाती। अतएव उन्हें छोटी-छोटी स्वतंत्र कथायों द्वारा ही हिंदी-साहित्य की बारीकियों, भाषा सौष्ठव तथा साहित्य के आचार्यों की लेखन-शैली का ज्ञान कराना चाहिए। कहानियाँ ही उनके लिये सर्वोत्तम माध्यम होती हैं। अतएव हमारी सम्मति में हिंदी के आचार्यों द्वारा लिखी हुई छोटा-छोटी कहानियों के संग्रह ही बालकों को भाषा और साहित्य-विषयक शिक्षा के लिये उपयोग में लाने चाहिए, प्रचलित 'प्रोज़-सेलेक्शन' नामधारी भानमती के-से साहित्यिक पिटारे नहीं। उनसे किसी विषय का सफल ज्ञान होने के बजाय ऐंद्रजालिक भ्रांति ही अधिक उत्पन होती है।

इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर हमने हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कहानी- लेखक श्रीयुत मुंशी प्रेमचदजी की सैकड़ो कहानियों का आलोडन करने के बाद नवनीत-सस यह उनकी पाँच सर्वोत्तम कहानियों का संग्रह प्रकाशित किया है। इन कहानियो का संग्रह करने में हमने बालोपयोगिता को ही सबसे मुख्य लक्ष्य रक्खा है। कोई भी कहानी ऐसी नहीं रक्खी गई, जिसमें व्यर्थ के लिये राजनीतिक, पचड़ों को घसीटा गया हो। साथ-ही-साथ दांपत्य-प्रेम तथा यौवनोन्माद से संबध रखनेवाली कहानियाँ भी हमने छोड़ दी हैं, क्योंकि हमारी समझ में वे कोमल-भति बालकों के लिये हानिकर ही हो सकती हैं, लाभदायक नहीं। भाषा तथा शैली की दृष्टि से भी ये कहानियाँ प्रेमचदजी की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ हैं। इनमें उनकी शैली के सभी प्रकारों का समावेश हो गया है। 'मृत्यु के पीछे' कहानी में प्रमचंदजी की आदर्श-सृष्टि, वर्णन शैली तथा भावों की ऊहापोह पूर्ण रूप से प्रकट हुई है। 'आभूषण' में उनका कथा-वस्तु पर अधिकार पूर्णतया प्रस्फुटित हुआ है। मनोविज्ञान का अध्ययन भी उसमें ख़ूब विकसित हुआ है। मध्य श्रेणी के हिंदोस्तानी घर का उसमें सजीव चित्र देखने को मिलता है। 'राज्य-भक्त' में ऐतिहासिक आधार पर लिखी हुई उनकी इस तरह की सर्वश्रेष्ट कहानी है। लखनऊ के अंतिम नवाबी दिनों का ख़ाका-सा आँखों के सामने नाचने लगता है। 'अधिकार- चिंता' अपने ढंग की एक ही कहानी है। पशुओं की मनोवृत्ति का बड़ा ही सुंदर अध्ययन तथा प्राकृतिक दृश्य-वर्णन इस कहानी में मिलता है। प्रेमचंदजी को भाषा का लोच इस कहानी में पूर्णतया प्रकट होता है। 'गृह-दाह' हिंदास्तानी घरों में प्रतिदिन होनेवाले नाटकों का एक दृश्य है। आदर्श भ्रातृ-प्रेम का चित्रण जैसा इस कहानी में हुआ है, वैसा शायद अन्यत्र कहीं नहीं हो सका। कथोपकथन ( Dialogue) का महत्व भी इस कहानी में ख़ूब प्रकट हुआ है।

इन पाँचो कहानियों के एकत्र कर देने में हमारा केवल यही उद्देश्य है कि वर्तमान हिंदी-साहित्य के प्रधान अंगों से परिचित होने के लिये हमारे बालकों को जगह-जगह न भटकना पड़े, मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें उत्तम शिक्षा मिले, और भाषा और शैली का अनुकरण करने के लिये उनके सामने हिंदी के जन-प्रिय तथा मान्य लेखक की कृति आदर्श रूप से उपस्थित हो।

प्रस्तुत पुस्तक का स्टैंडर्ड हमारी पाठशालाओं के सातवें, आठवें, नवें तथा दसवें दर्जे के विद्यार्थियों की क्षमता के अनुसार रक्खा गया है, जिससे स्कूल और पाठशालाओं के विद्यार्थी भी प्रेमचंदजी की विख्यात लेखन-शैली से परिचित हो सकें। इसका मैटर भी साल-भर में समाप्त हो जाने के हिसाब से ही संग्रह किया गया है।

आशा है, शिक्षा-प्रेमी सज्जन—विशेषकर हिंदी-साहित्य-सम्मेलन, मदरास-हिंदी-प्रचार-कार्यालय, जालंधर-कन्या-महाविद्यालय, गुरुकुल काँगड़ी, गुरुकुल वृदांवन, पंजाब, यू॰ पी॰, सी॰ पी॰, बिहार, दिल्ली, राजपूताना आदि प्रांतों की टेक्स्ट-बुक-कमेटियाँ, इंटरमीडिएट-बोर्ड और युनिवर्सिटियाँ तथा अन्यान्य भारतवर्षीय शिक्षा-संस्थाएँ—हमारे इस उद्योग से संतुष्ट होंगे, और अपने बालकों और बालिकाओं में इस पुस्तिका का प्रचार बढावेंगे।

श्रीदुलारेलाल भार्गव
(संपादक)


विषय-सूची

पृष्ठ
१. मृत्यु के पीछे ...
२. आभूषण ... २०
३. राज्य-भक्त ... ५३
४. अधिकार-चिता ... ८३
५. गृह-दाह ... ९१
 

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