बिहारी-रत्नाकर/प्राक्कथन

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बिहारी-रत्नाकर  (1926) 
द्वारा बिहारी
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प्रायः ३२-३३ वर्ष हुए हमने महाकवि श्री बिहारीदास जी की सतसई का विधिवत् अध्ययन किया था। उस समय हमारे पास उक्त ग्रंथ की ५ टीकाएँ थीं - ( १ ) नवलकिशोरप्रेस की छपी हुई कृष्ण कवि की कबित्तों वाली टीका, (२) भारतजीवल प्रेस की छपी हुई हरि-प्रकाश टीका, (३) लल्लूलालजी-कृत तथा उन्हीं की छपाई हुई लालचंद्रिका टीका, (४) विद्योदय-प्रेस की छपी हुई पं० परमानंदजी-कृत श्रृंगार-सप्तशती नाम की संस्कृतटीका तथा (५) सरदार कवि की टीका (हस्तलिखित )। इन पुस्तकों में किए गए अर्थों का मिलान करने पर कितने ही दोहों के अर्थो में मत-भेद पाया गया, और अनेक दोहों के विषय में यह भी भावना हुई कि उनके यथार्थ अर्थों का बोध उनमें से किसी टीका से भी नहीं हो सकता। उक्त पुस्तकों में दोहों के पूर्वापर क्रम, संख्या तथा कहीं कहीं पाठों में भी भेद मिला, और शब्दों के रूपों तथा लेखन-प्रणाली में तो बहुत बड़ा अंतर पाया गया । एक ही पुस्तक में कोई शब्द अथवा कारक एक दोहे में एक प्रकार से और दूसरे में दूसरे प्रकार से लिखा दिखाई दिया । इन्हीं बातों के कारण एवं बिहारी की कोमलकांत पदावली और प्रशस्त प्रतिभा से प्रभावित होकर हमारा विचार हुआ कि सतसई का एक ऐसा संस्करण प्रकाशित किया जाय, जिसमें यथासंभव दोहों का पाठ शुद्ध हो, और उस पर एक ऐसी टीका भी लिखी जाय, जिससे दोहों के यथार्थ भावार्थ पाठकों की समझ में सहज ही आ सकें । सन् १८६६ ईसवी में लालचंद्रिका का जो संस्करण सर जॉर्ज ग्रियर्सन साहब ने प्रकाशित किया, उसमें कई स्थानों पर अपना नाम देख कर हमारा उत्साह और भी बढ़ा, और सन् १८६७ ई० में हमने उक्त विचार से सतसई के दोहों के भावार्थो की सामान्य टिप्पणियाँ भी, छपी हुई हरिप्रकाश टीका की एक प्रति के पाश्र्व भाग में, लिख डाली। इस टीका का नाम 'विहारीरत्नाकर' रखने का विचार था । उसे देखकर हमारे मित्र स्वर्गीय साहित्याचार्य श्रीयुत पं० अंबिकादत्त व्यास जी ने, अपने ‘विहारी-बिहार' नामक ग्रंथ की भूमिका के ३८वें पृष्ठ पर, यह लिखा था| "बिहारी-रत्नाकर-यह टीका थोड़े ही दिन हुए कि बन के प्रस्तुत हुई है, और शीघ्र ही छपने वाली है। टीका बहुत ही छोटी है परंतु लगभग पचीस दोहों के अर्थ बहुत ही अपूर्व हैं, और दोहों के पाठ जहाँ तक हो सका बहुत ही शुद्ध किए गए हैं। इसके ग्रंथकार इस समय के काशी के प्रसिद्ध मधुर कवि हैं। इनका वास्तविक नाम बाबू जगन्नाथदास है। ये इस समय लगभग पचीस वर्ष के होंगे । अंग्रेज़ी में इनने बी० ए० पास किया है और उर्दू, [ २३ ]________________

फ़ारसी में बहुत अच्छा अभ्यास है । सन् १८९३ में साहित्य-सुधानिधि नामक मासिक पत्र निकाला था । उसे ये और बाबू देवकीनंदन (उपन्यास-लहरी के वर्तमान संपादक ) खत्री मिल के संपादित करते थे । इनका कविता का नाम रत्नाकर है ॥ “इनने और भी कई ग्रंथ रचे हैं। उनमें समालोचनादर्श, हिंडोला, घनाक्षरी-नियमरत्नाकर आदि कई एक छप चुके हैं । ये अग्रवाल बनिए हैं और काशी में शिवाले घाट पर रहते हैं ॥ उस समय, यथेष्ट प्राचीन प्रतियों की प्राप्ति के कारण, पाठ-शुद्धि का कार्य, सम्यक रूप से, न हो सका। फिर हम कुछ सांसारिक झंझटों में ऐसे फँसे कि साहित्यिक संसार से बहिर्गत ही हो गए, और उक्त कार्य के संपादन का ध्यान भी जाता रहा । सन् १९१७ के जाड़ों में संयोग-वश, महीने डेढ़ महीने, हमें लखनऊ रहना पड़ा। हमारे प्रिय मित्र बाबू श्यामसुंदरदास जी बी० ए०, उस समय, वहाँ के कालीचरण-हाई-स्कूल में हेडमास्टर थे । अतः उनसे मिलने का प्रायः संयोग होता था। उन्हें सतसई के विषय में हमारे संकल्प तथा टिप्पणियों का वृत्तांत विदित था, अतएव उन्होंने हमसे उक्त टीका के समाप्त करने का इतने प्रेम-पूरित हठ के साथ अनुरोध किया कि अंत को हमें इस कार्य के संपादन में तत्पर होना ही पड़ा। लखनऊ से लौट कर हमने जो अपने सतसईसंबंधी ग्रंथों तथा लेखों को एकत्र किया, तो विदित हुआ कि उक्त पाँच टीकाओं में से सरदार कविकृत टीका तो की ने सर्वथा नष्ट ही कर दी है, और भावार्थ-टिप्पणियों वाली पुस्तक का भी पता नहीं है। इसलिए पुनः भावार्थ सोचने तथा लिखने की आवश्यकता पड़ी, और यह धारणा हुई कि पहले यथासंभव पाठ-शुद्धि कर ली जाय, तव भावार्थ लिखने में हाथ लगाया जाय ; क्योंकि भावार्थ-शुद्धि का पाठ-शुद्धि से आंतरिक संबंध है । बस, इस विचार की पूर्ति के लिए हमने सतसई' की प्राचीन प्रतियों तथा अन्य टीकाओं का संग्रह करना आरंभ कर दिया, और ईश्वरानुग्रह से शनैः शनैः कृतकार्य भी होने लगे । इस अनुसंधान में अनेक हस्तलिखित मूल तथा सटीक प्रतियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें कई बड़े महत्त्व की हैं । उनका यथास्थान विवरण दिया जायगा ॥ उक्त प्रतियों में हमें एक प्रति पूज्य स्वर्गीय पं० लक्ष्मीनारायण जी ( उपनाम कमलापति कवि ) से मिली । यह प्रति संवत् १७६६ की लिखी हुई है। यह अचलगढ़ (अलवर) में किसी वस्तकुंवरि जी की पुत्र रत्नकुंवरि जी के पढ़ने के निमित्त, लक्ष्भीरत्ननामक किसी चक के द्वारा, लिखी गई थी। इस पुस्तक में कहीं कहीं दोहों के भावों के चित्र भी दिए हुए हैं, और इसके लिखने की परिपाटी मारवाड़ी लेखकों की सी है। इसमें दोहों का क्रम किसी साहित्यिक परिपाटी अथवा विषय के अनुसार नहीं है, अर्थात् इसमें दोहे किसी क्रम विशेष से नहीं रखे गए हैं, प्रत्युत यह बिहारी के दोह का एक सामान्य संग्रह मात्र है। इसे देखने से एकाएक यह भावना उत्पन्न हुई कि कदाचित् इसमें दोहों का पूर्वापर क्रम वही हो, जिससे विहारी ने उनकी रचना की थी। | उसके पश्चात् एक उससे भी सात वर्ष पूर्व की लिखी हुई प्रति हमें अपने पूज्य मित्र स्वर्गीय पं० गोविंदनारायण जी मिश्र से मिली । यह प्रति सं० १७८६ में, किसी गुलाल-: [ २४ ]________________

प्राक्कथन कीर्ति जी के शिष्य पं० शंभूनाथ के द्वारा, लखनऊ में, किसी केसरीसिंह जी के पुत्र गिरधरलाल के पढ़ने के निमित्त, लिखी गई थी। इस प्रति के अक्षर भी मारवाड़ियों के से हैं, और ५-७ दोहों को छोड़ कर शेष दोहों का क्रम इसमें भी वही है, जो पं० लक्ष्मीनारायण जी वाली प्रति में। इन दोनों पुस्तकों का क्रम एक ही होने से हमारी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई कि यही क्रम दोहों की रचना का है। ज्ञात होता है, उस समय बिहारी के स्फुट दोहे देश-देशांतरों में फैल गए थे, और काव्य-प्रेमियों द्वारा सादर पढ़-सुने जाते थे; पर सतसई की पूरी पुस्तक दुष्प्राप्य थी । अतएव जयपुर और अलवर के कवियों को उसके द्वारा द्रव्योपार्जन करने का अच्छा अवसर मिलता था । जयपुर अथवा अलवर का कोई कवि अथवा सामान्य पढ़ा-लिखा मनुष्य, सतसई की कोई प्रति प्राप्त कर के, देशाटन को निकल पड़ता था, और किसी नगर में पहुँच कर वहाँ के धनाढ्य कविता-प्रेमियों को बिहारी के दोहे तथा उनके अर्थ सुनाता और रिझाता था । इसी व्याज से वह वहाँ कुछ दिनों टिकता और सम्मानित होता था, और चलते समय यदि किसी गुणग्राहक की अभिलाषा होती थी, तो सतसई की प्रतिलिपि लिख, उन्हें भेंट कर और गहरी दक्षिणा से आगे बढ़ता था। यह पुस्तक भी इसी प्रकार लिखी हुई प्रतीत होती है ॥ ऊपर लिखी हुई दोनों पुस्तकों से जब यह धारणा पुष्ट हुई कि उनके क्रम का दोहे की रचना का क्रम होना संभावित है, तो उसी के साथ यह बात भी चित्त में उठी कि जयपुर के राज-पुस्तकालय में संभवतः बिहारी की स्वहस्तलिखित सतसई विद्यमान होगी । अतः उक्त पुस्तकालय में सतसई की जो प्राचीन प्रतियाँ उपस्थित हैं, उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने का उद्योग आरंभ किया गया । पर पता लगाने पर ज्ञात हुआ कि यह कार्य बड़ा दुःसाध्य है। उक्त राज्य में दो पुस्तकालय हैं-एक सार्वजनिक और दूसरा निजी । सार्वजनिक पुस्तकालय से तो सर्वसाधारण लाभ उठा सकते हैं, पर निजी पुस्तकालय में बिना महाराज की विशेष शिक्षा के कोई प्रवेश नहीं कर पाता, और प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ विशेषतः निज ही के पुस्तकालय में, बड़े यत्न तथा चौकसी से, संरक्षित हैं । यह जान कर पहले तो जी कुछ कचिया सा गया; पर फिर हम, यह सोचकर कि उद्योग से कदाचित् कुछ सफलता हो जाय, उक्त कार्य में लगे रहे। जब और कोई उद्योग सफल होता न दिखाई दिया, तो हमने श्रीमती महारानी अवधेश्वरी से एक पत्र श्रीमान् महाराजाधिराज दर्भगा-नरेश को लिखवाया कि वह श्रीमान् जयपुराधीश से पत्र-व्यवहार कर के उनके निजी पुस्तकालय में उपस्थित सतसई की प्रतियाँ हमें देखने देने का उपाय कर दें । यही प्रार्थना हमने अपने मित्र श्रीमान् कर्नल विंध्येश्वरीप्रसादसिंह जी से भी की। ये दोनों उद्योग ईश्वर की कृपा से फलीभूत हुए, और दोनों स्थानों से सूचना मिली कि श्रीमान् महाराजा साहब बहादुर जयपुराधीश ने आज्ञा दे दी है कि यदि कोई व्यक्ति यहाँ से भेजा जाय, तो सतसई की प्राचीन प्रतियों को देख सकता है॥ श्रीमान् महाराजाधिराज दर्भगानरेश के पास से उत्तर स्वर्गवासी श्रीमान् जयपुराधीश सवाई श्री महाराजा माधवसिंह जी का आया था, उसकी प्रतिलिपि [ २५ ]________________

बिहारी-रत्नाकर Jaipur Palace, Rajputaria. 2nd December, 1918. MY DEAR MAHARAJA SAHUB, I regret very much that yours of the 2nd. October last, enclosing.one from the Maharani of Ajodhya, regarding Bihari Lal's Satsai, remains unacknowledged. The delay was due on account of the difficulty the Librarian had in searching the original manuscript. Copies have been found, but the Librarian cannot say definitely if any one of the inanuscripts is in the author's own hand writing. Though Bihari Lal was a famous poet of the time, yet there were several other contemporary poets who had also won renown. It appears from an inspection of the manuscripts that in some of the copies they had inserted some of their own Dohas. The manuscripts in question can be shown to a Pandit deputed for the purpose. The duty of the landit will be to compare the texts and find out which of the manuscripts is original. With kindest regards and all good wishes, 1 remain, Yours sincerely, (Sd.) S. MADHO SINGH. The llou'vle Maharaja Sir Rameshwar Singh Bahadur, G. C. 1. E., K. E B. of larbhanga DARBHANGA. श्रीयुत कर्नल विध्येश्वरीप्रसादसिंह जी ने, श्रीमान् महाराज काशी-नरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी श्री बाबू ललितमोहन जी सेन राय से, जो पत्र जयपुर की कौंसिल के मेंबर रायबहादुर श्री अविनाशचंद्र सेन को लिग्यवाया था, उसके उत्तर की प्रतिलिपि यह है Jaipur, Palace. 22nd. December, 1918. MY DEAR LLIT BABU, I am duly in receipt of your kind letter of the 10th November, but as I was out of the station for a long time, I am sorry I could not reply to it earlier. As regards the Satsaya of Behari, the Librarian reports that some manuscript copies of the book are in the Palace Library, but he cannot definitely say if any one of the manuscripts is in the author's own handwriting. Behari Lal was a famons poet of the time, and it appears from an inspection of the manuscripts that in some of the copies some contemporary poets had inserted serveral Dohas of their own. The manuscripts in question can be shown to the Pandit whom you may depute for the purpose. The duty of the Pandit will be to compare the texts and find out which of the manuscripts is the original one. I may add in this connection that similar enquiries have been made by the Hon'ble the Maharaja of Darbhanga, and a reply to the above effect has been [ २६ ]________________

प्राक्कथन 18 given to him. It would, therefore, be convenient if you enquire from the Private Secretary to the Maharaja of Darbhanga, when they are going to send their Pandit for the purpose, and you can arrange to send your Pandit with him at the same time. I may also say that at least a week's notice should be given to us, as His Highness the Maharaja is shortly going out on a long tour, and His Highness' permission will be required before the manuscripts are shown to the Pandit. Yours sincerely, (Sa.) ABINASH CHANDRA SEN Rai Buhalur, Member oj Council ( Foreign Department ) B. LALIT MOHAN SEN RAY Private Secretary to Hix Hiylness the Maharaja oj' Benares, Fort Ramnagar, BENARES. यह शुभ समाचार पा कर हमने अयोध्या के राज-पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री विद्याभूषण पं० रामनाथ जी ज्योतिषी को जयपुर भेजने का प्रबंध किया, क्योंकि उस समय हमारा आना कई कारणों से न हो सका । सन् १९१९ के मार्च महीने की २५ तारीख को उक्त पंडित जी ने जयपुर को प्रस्थान किया । वहाँ पहुँच कर पहले तो उन्हें बहुत कठिनाइयाँ उठानी पड़, जो हिंदुस्थानी दरबारों में प्रायः उपस्थित होती हैं। पर उक्त पंडित जी महाशय बड़े उद्योगी, चतुर तथा कर्म-कुशल हैं । शनैः शनैः सब कठिनाइयाँ दूर करके वह प्राचीन प्रतियों के अवलोकन तथा उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने में सफल हुए। राज-पुस्तकालय के अतिरिक्त और भी कई स्थानों से उन्हें सतसई की कई प्रतियाँ मिल । उनमें से मुख्य मुख्य का वर्णन आवश्यकतानुसार यथास्थान किया जायगा ॥ यों तो उक्त पुस्तकालय में सतसई की कई प्रतियाँ हैं, पर बिहारी के हाथ की लिखी कोई नहीं निकली । जो प्रति सबसे प्राचीन है, उसकी प्रतिलिपि पंडित जी को बड़ी कठिनता से उतार मिली । इस प्रति मैं केवल ४९३ दोहे हैं। यह मिर्जा राजा जयशाह के पुत्र कुंवर श्री रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखी गई थी। इसकी जिल्द चमड़े की है, और इसके अंत में कुछ पन्ने अलग से सिए हुए हैं। इसमें ४९३वें दोहे के पश्चात् और उस पृष्ठ पर, जिस पर ४९३वाँ दोहा है, कुछ स्थान छोड़ कर, ये तीन दोहे, कुछ कचे अक्षरों में, लिखे हैं - श्री रानी चौहानि कौ करतय देखि रसाल। फूलति है मन मैं सिया, पहिरि फूल की माल ।। १ ।। दान ग्यान हरि-ध्यान को सावधान सब ठौर ।। श्री रानी चौहानि है रानिनु की सिरमौर ॥ २ ॥ नित असीस हौ देत हौ” उर मनाई जगदीस।। राम कुँवर जयसिंह की जीयौ कोरि बरीस ॥ ३ ॥ [ २७ ]इसके पश्चात् के पृष्ठों पर सुंदर, गोपाललाल, मुकुंद, गंग, चतुरलाल, मंडन तथा प्रह इन कवियों की थोड़ी थोड़ी कविताएँ, ऊपर लिखे हुए दोहों ही के जैसे भद्दे अक्षरों में, दी है। फिर 'अनुभव-प्रकाश' शीर्षक से ११२ दोहे लिखे हुए हैं। इन दोहों के कर्ता का कोई नाम नहीं दिया है। तदनंतर ६ दोहे फुटकर हैं, जिनमें ५ तो बिहारी के हैं, और शेष और किसी के। फिर कुछ बुझौवलं हैं, और अंत में ये दोहे- एक वयस, एकै बिरछ, एकै भोग, बिलास। सोन चिरैया उड़ि गई, (अव)गौ राम-कर आस ॥ चौहानी रानी लता, राम-रूप फल-फूल । खग-मृग-मधुकर-बूंद सब, परे रहौ गहि मूल ।। सुचि सिँगार में बुड़ि के भयौ बिहारी-दास । जग हैं फिरत उदास अब सुकवि बिहारी-दास ।। मंडन मंडन कै जगत..................

इसके पश्चात् के कुछ पन्ने नहीं हैं । हाँ, इसी पन्ने पर, एक स्थान पर, क, ख, ग, घ, च, छ, झ, इ, उ, ण, य, र, ल, श, ष, ह' लड़कों के से अक्षरों में लिखा है । फिर एक पृष्ठ पर यह लिखा है- शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं । प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशांतये ।। देवान् पितृन् द्विजान् हव्यकव्यायैः करुणामया । ततः प्रभृति पूज्यैते त्रैलोक्ये सचराचरे । ॐ विष्णे भास्वद क्रीट। जल मैं बसै कमोदनी, चंदा बसै अकास। जो जाके मन मैं बसै, सो ताही के पास ॥

इस पुस्तक के आरंभ में जो एक पत्र छूटा हुआ है, उसके पृष्ठ पर लड़कों के से अक्षरों में ऊपर 'रामसिंह जी' लिखा है। फिर राग केदारों के शीर्षक से एक गीत की दो सुके वैसे ही अक्षरों में लिखी हैं, जो स्पष्ट पढ़ा नहीं जाती। पर उस गीत का आरंभ यह है- | जाके रस कुँ जी तरसत ।।

फिर वैसे ही अक्षरों में एक दोहा लिखा है, जो कुछ पढ़ा जाता है-

बौरी, बहकि न बोलियै, रहियै मन की गई। जग सौं कछु कहिये नहीं, जो हरि-प्यारी होई ॥

तदनंतर वर्णमाला के कुछ अक्षर अंटसंट लिखे हैं। उनके अंत में 'राम' शब्द वैसे ही अक्षरों में है। फिर वैसे ही अक्षरों में यह लिखा है[ २८ ]________________

प्राक्कथन अचल बिराजै पतसाही राव....... अस्तुति कहि न जात पेख्यौ रसना । क, ख, ग, घ ॥ यह लिखना वैसा ही है, जैसे बहुधा अाठ दस वर्ष के बालक अपनी पुस्तकों के पांडु-पत्रों पर लीपा-पोता करते हैं। इस पुस्तक के विषय में, जयपुर में, यह प्रसिद्ध है कि इसे बिहारी ने कुँवर रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखवा दिया था, जिनको वह स्वयं पढ़ाते भी थे । इसमें ५०० दोहे तो उन्होंने आदि में अपने रखे थे, और फिर थोड़ी थोड़ी कविता अन्य कवियों की संग्रह कर दी थी । दोहे तो इस पुस्तक में अच्छे अक्षरों में और बहुत कुछ शुद्ध भी लिखे हुए हैं, किंतु अन्य कविताओं के अक्षर भद्दे तथा कचे हैं, और कई लेखकों के लिखे प्रतीत होते हैं। ज्ञात होता है, बिहारी ने अपने दोहे तो अपनी शुद्ध लिखी हुई चौपतिया में से किसी अच्छे लेखक से उतरवा दिए, और शेष कविताएँ भिन्न भिन्न चौपतियों में से कई लेखकों द्वारा लिखी गई ॥ | यह पुस्तक कुँवर रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखी गई थी, यह बात उसमें जहाँ तहाँ की गई लीपापोती से भी पुष्ट होती है। क्योंकि बाल-बृद प्रायः इसी प्रकार अपनी पाठ-पुस्तकों पर अपना नाम लिखते और चीतचात किया करते हैं । इस चीतचात को कुँवर रामसिंह जी के हाथ की मानने में कोई असंगति भी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि एक तो इसमें रामसिंह जी का नाम दो एक स्थान पर लिखा हुआ है, दूसरे पुस्तक की आकृति मे उसको ढाई तीन सौ वर्ष का लिखा हुआ होना भी ठीक ऊँचता है, और तीसरे बिहारी के दोहों के अतिरिक्त और जिन जिन कवियों की कविताएँ उसमें संगृहीत हैं, वे बिहारी के समकालीन अथवा कुछ पूर्व के हें ॥ | इस पुस्तक के अंतिम दोहे पर ५०० का अंक लगा हुआ है, पर गिनती में वस्तुतः इसमें केवल ४६३ ही दोहे हैं । लेखक के प्रमाद से बीच बीच के अंकों में गड़बड़ हो गई है, और उसी गड़बड़ के अनुसार जहाँ ५००वाँ अंक पूरा हुआ, वहीं उसने बिहारी के दोह का लिखना समाप्त कर दिया, क्योंकि उसे कदाचित् ५००ही दोहे लिखने की आशा मिली थी। इस संग्रह में भी जो दोहे बिहारी के हैं, उनका पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुंवरि घाली प्रति में। केवल दो चार स्थानों पर कुछ उलटपुलट है । अतः इस पुस्तक से भी यही लक्षित होता है कि यही क्रम विहारी के दोहों के निर्माण का है ॥ | इस पुस्तक की प्रतिलिपि प्राप्त करने में बड़ी कठिनाइयाँ पड़ । उनको यहाँ वर्णन करने से कुछ लाभ नहीं; केवल इतना ही कहना अलम् है कि हमारे पंडित जी महाशय को इस कार्य के निमित्त जयपुर में ३ महीने १० दिन लग गए। इस अवसर में उन्होंने जयपुर के कई प्रतिष्ठित महानुभाव से परिचय प्राप्त किया, और अन्य पुस्तकों का भी पता लगाया। इस खोज में उन्हें अनेक पुस्तकें दृष्टि-गोचर दुईं। उनमें से जो विशेष महत्वपूर्ण समझी हैं, उनकी प्रतिलिपियाँ भी वह ले अाए । जयपुर के जिन सत्रों से डित जी ने परिचय प्राप्त किया, उनमें से मुख्य मुख्य ये हैं [ २९ ]________________

बिहारी-रत्नाकर (१) राय बहादुर वावु अविनाशचंद्र सेन सी० आई० ई०, मॅवर कोसिल तथा प्राइवेट सेक्रेटरी महाराजा साहव बहादुर, (२) ठाकुर श्रीनंदकिशोरसिंह साहब, रईस और मैंबर कौंसिल, (३) राय वहादुर श्री पं० गोपीनाथ जी पुरोहित एम० ए०, सी० आई० ई०, (४) श्री पं० हरनारायण जी पुरोहित बी० ए०, दारोगा ड्यौदी रनिवास, (५) श्रीयुत बालदत्त जी खवास ॥ ये सब महाशय बड़े सज्जन तथा विद्याव्यसनी हैं। इन्होंने हमारे पंडित जी को अनेक सहायताएँ पहुँचाईं, जिनके लिए हम उनके हृदय से कृतज्ञ हैं ॥ इन महानुभावों के अतिरिक्त कई सहृदय कवि-कोविदों से भी हमारे पंडित जी को सहायता मिली । उनमें से मुख्य ये हैं (१) महामहोपाध्याय श्री पं० दुर्गाप्रसाद जी द्विवेदी, मुख्याध्यापक राजकीय पाठशाला, (२) श्री पं० रामनारायण जी मिश्र, अध्यापक महाराजा कॉलेज, (३) श्री पं० गौरीदत्त जी कवि, (४) श्री विनोदीलाल जी कवि, (५) श्री पं० मथुरानाथ जी कवि ॥ इन विद्वद्वरो के भी हम कृतज्ञ हैं । जो पुस्तकें हमारे पंडित जी जयपुर से लाए, उनमें बिहारी के किसी शिष्य की लिखी हुई सतसई की एक प्रतिलिपिभर है। श्री रामसिंह जी के राज्यकाल में 'सम्राट जी' नाम के एक राजगुरु थे। विहारी के किसी शिष्य ने, सं० १७३९ में, सतसई की एक प्रति लिख कर उन्हें अर्पित की थी । उसकी एक प्रतिलिपि संवत् १८०० के भाद्र-कृष्ण ३० चंद्रवार की लिखी हुई इस समय जयपुर के निजी पुस्तकालय में विद्यमान है । उसी की प्रतिलिपि हमारे पंडित जी ले आए हैं। संवत् १८०० की लिखी हुई इस सतसई के अंत में, उड़े हुए से अक्षरों में, कुछ लिखा है, जिसका अभिप्राय यह है कि यह पुस्तक व्रह्मपुरी के राजगुरु की संवत् १७३६ की प्रति से लिखी गई है, जिसे बिहारी के शिष्य ने लिख कर गुरु जी को दिया था, पर शोधने को रह गई है ॥ . इस पुस्तक के बीच बीच में किसी किसी शब्द के ऊपर अथवा पार्श्व में कुछ उर्दू अक्षरों में लिखा है, किंतु उड़ जाने के कारण स्पष्ट पढ़ा नहीं जाता। प्रतीत होता है, कहाँ कहीं शब्दार्थ लिखा गया है ॥ इस शिष्य वाली पुस्तक में भी दोहों का पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुंवरि जी वाली पुस्तक में । केवल ५-७ दोहों में स्थानांतर दिखलाई पड़ता है, और २२ दोहे, जिनमें प्रायः भगवत्-संबंधी कविता है,और जो इस क्रम की अन्य पुस्तकों में बीच बीच में आए हैं, इस पुस्तक के अंत में रक्खे हुए मिलते हैं। रत्नकुंवरि वाली पुस्तक से इसमें ये ५ दोहे न्यून हैं संपति केस, सुदेस, नर नमत दुहुँनु इक बानि । विभव सतर कुच, नीच नर, नरम थिभव की हानि ॥ १ ॥ [ ३० ]________________

प्राक्कथन औधाई सीसी सु लखि विरह-वरत बिललात । बीचहिँ सुखि गुलाब गौ, छटो छुई न गात ॥ २ ॥ सीस-मुकट, कटि-काछनी, कर-मुरली, उर-माल । इहिँ बानक मो मन सदा बसौ बिहारी लाल ॥ ३ ॥ एरी, यह तेरी, दई, क्यै हैं प्रकृति न जाइ । नेह-भरें हिय राखियै, तउ रूखियै लखाइ ॥ ४ ॥ हुकुमु पाइ जयसाहि कौ, हरि-राधिका-प्रसाद । करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद ॥ ५ ॥ ६८९ दोहों के पश्चात् इस प्रति में ७३ दोहे ऐसे दिए हैं, जो इस क्रम की और किसी प्रति में नहीं मिलते, और बिहारी-रचित भी प्रतीत नहीं होते । वे बिहारी-रत्नाकर के द्वितीय उपस्करण में दे दिए गए हैं । इन दोनों पुस्तकों के अतिरिक्त एक पुस्तक संवत् १७७२ की लिखी हुई भी हमारे पंडित जी जयपुर से, किसी अन्य कवि से, ले आए । यह उदयपुर-प्रांत के बेलागाछीनिवासी मानसिंह कवि की टीका-समेत है। खेद की बात है, इसमें आदि के कुछ पत्रे नहीं हैं, जिस से २५० दोहों की टीका इसमें नहीं मिलती। पर जो दोहे इसमें हैं, उनका पूर्वापर क्रम ठीक वही है, जो रत्नकुंवरि जी वाली पुस्तक मैं ॥ यों ते जयपुर तथा अन्यान्य स्थानों से सतसई की कितनी ही मुल तथा सटीक प्रतियाँ प्राप्त हुईं, पर ऊपर कही हुई पाँच प्रतियों से प्राचीनतर प्रति हमारे देखने में नहीं आई। इनके अतिरिक्त सतसई की एक और सटीक प्रति भी हमें अभी थोड़े दिन हुए, विहारी-रत्नाकर का मुख्य भाग छप जाने के पश्चात् मित्रवर श्रीयुत पं० दुलारेलाल जी भार्गव के द्वारा, जयपुर-निवासी श्रीयुत पं० हनूमान् शर्मा जी से प्राप्त हुई है । हमारे अनुमान से बिहारी-सतसई पर यही सबसे पहली टीका है । इसमें भी ५-७ दोहों को छोड़ कर शेष दोहों का पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुँवर जी वाली पुस्तक में ॥ । | इन पाँच प्रतियों में दोहों का पूर्वापर क्रम प्रायः एक ही सा दृष्टिगोचर होता है। और ये हैं भी बहुत प्राचीन, अतएव यह अनुमान करना युक्तियुक्त ही है कि यही क्रम बिहारी की दोहा-रचना का है, और उन्होंने अपनी सतसई इसी क्रम में छोड़ी । यदि बिहारी ने अपनी सतसई में दोहों का कोई साहित्यिक अथवा अन्य प्रकार का क्रम बाँध दिया होता, तो फिर उन्हें इस प्रकार घालमेल करके क्रमहीन कर देने को न तो किसी को साहस ही होता, और न कोई आवश्यकता ही रहती । अस्तु । सतसई का जो क्रम पहले पहल कोविद कवि ने संवत् १७४२ मैं लगाया, उसके अंत में यह दोहा लिखा है किए सात सौ दोहरा, सुकबि बिहारीदास । बिनहिँ अनुक्रम ए भए, महि-मंडल सुप्रकास ॥ . इससे भी बिहारी का अपनी सतसई को विना किसी विशेष क्रम है। के छोड़ जाना सिद्ध होता है, और यही वात पुरुषोत्तम जी के इस दोहे से भी व्यजित होती है [ ३१ ]________________

बिहारी-रत्नाकर जद्यपि है सोभा सहज मुकतनि, तऊ सु देखि । गुहै” ठौर की ठौर तैलर मैं” होति बिसेखि ॥ बिहारी के अपनी सतसई को इसी क्रम में बिना किसी विशेष क्रम लगाएछोड़े जाने के कारण अनेक कवियों तथा टीकाकारों ने अपने अपने मत के अनुसार उसके क्रम बाँध लिए। इनका विवरण भूमिका में यथास्थान होगा। | बिहारी-रत्नाकर में इन्हीं पाँच प्रतियों के आधार पर दोहों के पूर्वापर क्रम, पाठ तथा संख्या का निर्धारण किया गया है। इसका विशेष विवरण भी भूमिका में दिया जायगा । उल्लेख की सरलता के अभिप्राय से ये पुस्तकें १, २ इत्यादि संख्याओं के नाम से विशिष्ट कर दी गई है । रामसिंह जी वाली पुस्तक के निमित्त १, बिहारी के शिष्य वाली प्रति के निमित्त २, मानसिंह जी की टीका वाली पुस्तक के निमित्त ३, गिरधरलाल जी वाली प्रति के निमित्त ४ और रत्नकुवरि जी वाली प्रति के निमित्त ५ संख्या मानी है। बिहारी-रत्नाकर में, पाद-टिप्पणियों में, इन्हीं संख्याओं का प्राकेट में उपयोग किया गया है। बिहारी-रत्नाकर का क्रम | जैसा ऊपर कहा जा चुका है, हमारी पाँचों प्राचीन पुस्तकों में दोहों का पूर्वापर क्रम प्रायः एक ही सा है—केवल दो चार दोहों के स्थानों में कुछ भेद पाया जाता हैं। ३ तथा ५ अंकों वाली पुस्तकों के क्रम तथा संख्या सर्वथा एक ही हैं, और १ अंक की पुस्तक में जो ४९३ दोहे हैं, उनका पूर्वापर क्रभ भी उनके अनुसार ही है। अतः बिहारीरत्नाकर के दोहों की संख्या तथा क्रम के निमित्त तृतीय तथा पंचम पुस्तकें ही आधारभूत मानी गई हैं । परंतु प्राचीन प्रतियों से बिहारी का अपने क्रम में दस दस अथवा बीस बीस पर एक एक भगवत्-संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहा रखना अभीष्ट समझ कर, जहाँ जहाँ इन स्थानों से उक्न प्रकार के दोहे कुछ विचलित मिले, वहाँ वहाँ उनके स्थान, अपनी बुद्धि के अनुसार, हमने ठीक कर दिए हैं । किंतु संभव है, जिस स्थान पर हमने कहीं दूर का कोई दोहा स्थापित किया है, वहाँ के निमित्त बिहारी ने कोई अन्य दोहा सोचा हो । अतएव यह दिखलाने के nिए कि किस किस दोई में स्थान-परिवर्तन किया गया है, हमने पहले उपस्करण में एक कोष्ठ तीसरी पुस्तक ( मानसिंह जी की टीका घाली प्रति ) का भी रख दिया है ।। । यद्यपि बिहारी ने सतसई में दोहों का पूर्वापर क्रम तो वही रहने दिया, जिस क्रम से उनकी रचना हुई थी, तथापि, जैसा हम ऊपर कई आए हैं, प्राचनि पुस्तकों के देखने से भासित होता है कि उनके हृदय में इतना क्रम स्थापित करने की अभिलाषा अवश्य थी कि प्रति दस दस अथवा बीस बीस दोहों के पश्चात् एक एक भगवत्-संबंधी अथवा नीतिविषयक बोहा रहे । बनाते समय भी उन्होंने इस बात पर ध्यान रखा था, और रचना-ल में, भाचों के उद्गार के कारण, जहाँ जहाँ वे इस बात को न कर सके, वहाँ वहाँ उन्होंने उसकी पूर्ति ग्रंथ समाप्त होने पर कर दी, अर्थात् जहाँ जहाँ दस दस अथवा बीस बीस पर भगवत्-संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहे नहीं पड़े, वहाँ वहाँ नए दोहे बना कर [ ३२ ]________________

प्राक्कथन अथवा अन्य स्थानों से उठा कर रखने का प्रयत्न किया । इस कार्य में, जात होता है, उन्हेंने ऐसे अधिकांश दो को तो अपनी चौपतिया के पाश्र्व भाग में, जिन स्थानों पर ऐसे दोहे स्थापित होने चाहिए थे, उनके सम्मुख लिख दिया, और किसी किसी दोहे के सामने केवल वह संख्या लिख दी, जिस पर उस दोहे का रखन' अभीष्ट था । चौपतिया की प्रतिलिपि उतारने वाले ने उन दोहों को, जे पार्श्व भाग पर लिखे थे, बिहारी का अभिप्राय न समझ कर, कहाँ कहाँ उचित स्थान से दो एक संख्या आगे पीछे लिख दिया, और जिन दोहों के सामने थे अंक मात्र लिखे थे, जिन पर वे दोहे जाने चाहिए थे, उनको प्रमाद से जहाँ का तहाँ रहने दिया, अर्थात् अभीष्ट स्थान पर नहीं रक्खा । इन चुक में पहली चुक का कारण तो यह अनुमानित हो सकता है कि पार्श्व भाग में लिखे हुए दोहे एक ही दोहे के सामने नहीं समा सकते, वरन् तीन चार दोहा के सामने पड़ जाते हैं, अतः ऐसे किसी लेखक का, जिसे इस बात का भान न रहा हो कि पाश्र्व भाग पर ये दोहे किस स्थान पर रखने के अभिप्राय से लिख दिए गए हैं, उनका उचित अंकों के दो चार अंक अगे पीछे समावेश कर देना पूर्णतया संभव और स्वाभाविक ही है । ऐसी चूक के उदाहरण ११, ४१, ६१, ७१, ६१ इत्यादि अंकों के दोहों में दृष्टिगोचर होते हैं, जो ३ तथा ५-संख्यक पुस्तक में १०, ४२ ६२, ६६, ८७ इत्यादि अंक पर लिखे मिलते हैं। दूसरी चूक का कारण लेखक का पाश्र्वअंकों पर ध्यान न देना, या उनका अभिप्राय न समझना अथवा, यदि कोई दोहा पछे से अगे आया है त, उसे पीछे वाले दहे के सामने के अंक का, उचित स्थान के आसपास के दोहाँ के लिखते समय, न देखना प्रतीत होता है । ऐसे चूक के उदाहरण १२१, १३१, १८१, २६१४०१ इत्यादि अंकों के दोहाँ में दिखाई देते हैं, जे ३ तथा ५ अंकों की पुस्तकों में ५२, ११७, १६२, २१६, ३६८ इत्यादि अंकों पर हैं ॥ | बिहारी-रत्नाकर में दो की संख्या । मानसिंह वाली टीका अर्थात् हमारी तीसरी प्राचीन प्रति मैं ७१३ देहे मिलते हैं, और अंत में टीकाकार ने स्पष्ट रूप से लिख भी दिया है कि सतसई में ७१३ दोहे हैं । रत्नकुँवर वाली पुस्तक अर्थात् पाँचवाँ प्राचीन प्रति में भी ये ही ७१३ दोहे देखने में आते हैं । बिहारी के शिष्य वाली प्रति अर्थात् दूसरी प्राचीन प्रति में इन ७१३ दोहों में से ११७, ३०१, ६०४ और ७१३ अंकों के दोहे नहीं हैं ।पर इनमें से ११७तथा ३०१ अंकों के दोहे ते अन्य प्राचीन प्रतियों में विद्यमान है, और ६०४ अंक वाला देह तीसरी, चौथी तथा पाँचवी पुस्तकों में उपलब्ध है, और पहला प्रति में केवल ४६३ तक दो हैं, अतः उसमें भी इसकी उपस्थिति मान लेना असंगत नहीं है । अब रहा ७१३ अंक वाला दोहा । यह चौथे अंक की पुस्तक में भी नहीं है। पर कृष्णलाल की गद्य टका वाली प्रति में, जिसका कथन ऊपर हो चुका है, यह ७१३ ही अंक पर पाया जाता है, अतः इसकी उपस्थिति दो सटीक प्रतियों तथा एक मूल प्रति में है। इसके अतिरिक्त पहले अंक की प्रति में इसकी उपस्थिति तथा अनुपस्थिति, दोनों संदिग्ध हो । सटीक पुस्तके सामान्यतः मूल पुस्तकों से अधिक प्रामाणिक मानी जाती हैं, अतः इस ७१३ अंक वाले दोहे को बिहारी-कृत मानना समीचीन प्रतीत [ ३३ ]________________

बिहारी-रत्नाकर होता है।२ अंक की पुस्तक में जा ७३ दोहे अधिक हैं, वे इनमें से अन्य किसी प्राचीन प्रति में नहीं मिलते, और न वे अपनी रचना प्रणाली ही से विहारीकृत प्रतीत होते हैं। चौथे अंक की प्रति में ४६४, ४६८ और ५६३ से ले कर ५६६ तक एवं ७१३ अंक के दोहे नहीं हैं। इनमें से ५६३ से लेकर ५६६ अंकों तक के दोहों के न होने के विषय में तो यह प्रतीत होता है। कि लेखक ने जिस प्रति से लिखा, उसका एक पृष्ठ का पृष्ठ भूल से छोड़ दिया; क्योकि ये दोहे अन्य सब प्राचीन प्रतियों में मिलते हैं । ४६४ तथा ४९८ अंकों के दोहे बिहारी के प्रसिद्ध दोहे हैं, और प्रायः सतसई की सभी प्रतियों में प्राप्त होते हैं । अतः इनके इस प्रति में छुट जाने का कारण लेखक का प्रमोद मात्र मानना संगत है ; और, ७१३ अंक के दोहे के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है। इस प्रति में ये दो दोहे विहारी-रत्नाकर से अधिक हैं मान बुटैगौ मानिनी, पिय-मुख देखि उदोतु । जैसै लागै घाम के पाला पानी होतु ॥ ७ ॥ प्यौ थिचुरत तन थकि रह्यो, लागि चल्यो चितु गेल । जैसे चीर चुराइ लै, चलि नहिँ सकै चुरेल ।। ४६ ॥ पर ये दोनों दोई न तो हमारी किसी अन्य प्राचीन प्रति ही में मिलते हैं, और न बिहारी की रचना ही से टक्कर खाते हैं, अतः इनको विहारीकृत मानना समीचीन नहीं भात होता । ऊपर लिखे हुए कारणों से विहारी-रत्नाकर में वे ही ७१३ दोहे स्वीकृत किए गए हैं, जो मानसिंह वाली टीका तथा रत्नकुँवर जी वाली प्रति अर्थात् हमारी तीसरी तथा पाँचवी पुस्तकों में हैं ॥ बिहार-रत्नाकर का पाठ-संशोधन दोहों के पाठ शुद्ध करने में हमको बड़ा श्रम उठाना पड़ा । प्रत्येक दोहे के पाठ का मिलान पाँच प्राचीन प्रतियों से करने के अतिरिक़ जो शब्द सतसई में अथवा अन्यान्य प्रजभाषा-ग्रंथों में कई कई रूपों में लिखे मिलते हैं, उनके विहारी-स्वीकृत रूप । निर्धारित करने में बहुत समय व्यय हुआ, और बड़ी कठिनाई उठानी पड़ी । जैसे 'नॅक' शब्द प्रजभाषा की अन्यान्य पुस्तकों तथा सतसई की अनेक प्रतियों में ‘नेक', 'नैक', 'नॅक' तथा 'नेकु' रूपों में लिखा मिलता है । इसका विहारी-स्वीकृत रूप स्थिर करने के लिये पहले तो यह निर्धारित किया गया कि सतसई भर में यह १५ दोहों में आया है, और उनके अतिरिक्त ४ दोदों में यह 'नॅक' के रूप में मिलता है । पहली पुस्तक में केवल ४९३ दोहे हैं, अतः उसमें यह शब्द बारह दोहों में आया है। इनमें से आठ दोहों में तो यह ‘नैक' रूप में लिखा है, और चार दोहों में 'नैक' रूप में। दूसरी पुस्तक में यह एक स्थान पर 'नैक', दस स्थानों पर 'नैंक', दो स्थानों पर 'कु' तथा दो स्थानों पर 'नैन' के रूप में मिलता है। तीसरी पुस्तक में आदि के २५० दोहे खंडित है, अतः उसमें यह शब्द केवल छ दोहा में आया है। उनमें से एक दोहे में 'नेक',एक में नैक तथा चार में 'नॅक' रूप में हैं। चौथी पुस्तक में यह एक स्थान पर 'नेकु' तथा चौदह स्थानों पर 'नेक'लिंखा मिलता है। पाँचवाँ : पुस्तक में इसका रूप छ स्थानों पर 'नॅक' और नव स्थान पर 'नेक पाया जाता हैं ॥: . [ ३४ ]________________

प्राक्कथन यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि हमारी प्राचीन प्रतियों में से भी परली तथा दूसरी प्रतियाँ विशेष प्रामाणिक तथा शुद्ध हैं । अतः शब्दों के रूप-निर्धारण में विशेषतः इन्हीं से सहायता ली गई है। इन दोनों पुस्तकों को मिला कर ६ स्थान पर इसका पाठ 'नैक', १४स्थानों पर 'नॅक' और दो दो स्थानों पर नंकु' तथा नॅन' मिलता है। अतएव सतसई में प्रयोगाधिक्य के विचार से इस शब्द का 'नॅक' पाठ ही ठीक ठहरता है । फिर इस बात पर विचार करने से भी कि यह शब्द संस्कृत शब्द ईषदर्थवाचक 'न' में 'क' प्रत्यय लगा कर बना हुआ प्रतीत होता है, इसका नैक' रूप शुद्ध जचता है । इसका कई ‘नेक', कहीं नैक' इत्यादि लिखना लेखकों की असावधानी मात्र है। अब रह गया इस बात पर विचार करना कि नक' तथा 'नैकु' रूपों में कौन विशेष ग्राह्य है । इसके विषय में यह वक्तव्य है कि प्राचीन प्रतियों के किसी किसी दोहे में यह शब्द उकारांत लिखा मिलता है, और ब्रजभाषा की अन्यान्य पुस्तकों में भी कहीं कहीं यह उकारांत ही दिखाई देता है। इस का कारण यह प्रतीत होता है कि यह शब्द प्रायः क्रियाविशेषणवत् ही प्रयुक्त किया जाता है, और ऐसे क्रियाविशेषण संस्कृत में कर्मकारक रूप में रखे जाते हैं । अपभ्रंश तथा प्राचीन साहित्यिक प्रजभाषा में अकारांत पुंलिंग शब्द के कर्मकारक का एकवचन रूप उकारांत होता था, अतः 'नॅक' शब्द का, उसके क्रियाविशेषण होने की अवस्था में, उकारांत प्रयोग समीचीन है। इसी विचार से ऐसे अवसरों पर उसका पाठ'नकु' रखा गया है । पर जहाँ वह क्रियाविशेषण-रूप से नहीं आया है-जैसे ७९ अंक के दोहे में-वहाँ वह अकारांत ही रक्खा गया है ॥ | इसी प्रकार सतसई की प्राचीन प्रतियों तथा ब्रजभाषा के अन्यान्य ग्रंथों में अनेक अकारांत शब्दों को कहाँ अकारांत तथा कहाँ उकारांत लिखा पा कर जैसे स्याम, रूप इत्यादि तथा स्यामु, रूपु इत्यादि-इस बात के निर्णय की आवश्यकता पड़ी कि उकारांत लिखने की प्रथा किसी सिद्धांत पर निर्भर है, अथवा कवि तथा लेखक की रुचि की अनुसारिणः । पाँच प्रतियों के ऐसे उकारांत लिखे हुए शब्दों की जाँच करने पर ज्ञात हुआ कि ऐसा उकार एकवचन शब्दों ही में लगाया गया है । इसके अतिरिक़ यह भी निर्धारित हुआ कि वे शब्द पुलिंग कर्ताकारक अथवा कर्मकारक हैं । यद्यपि किसी किसी प्रति में कहाँ कहाँ कर्ता तथा कर्मकारों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के कोई कोई शब्द भी उकारांत लिखे दृष्टिगोचर हुए, पर उनकी संख्या इतना न्यून है कि वे परिगणनीय नहीं । उनके लेख में लेखक का प्रमादि मात्र मानना ही समुचित प्रतीत हुआ । प्रथम तथा द्वितीय पुस्तकों में तो यह लेख-प्रणाली भली भाँति निबाही गई है, केवल परिगणित स्थानों पर यथेष्ट उकार लगा नहीं निकलता, जो कि लेखक की असावधानी मात्र कही जा सकती हैं। तृतीय पुस्तक में और भी अधिक उकार छोड़ दिए गए हैं, और चतुर्थ तथा पंचम पुस्तक में बहुत अधिक। पर यह बात ध्यान देने की है कि जिन जिन स्थानों पर प्रथम अथवा द्वतीय पुस्तक में उकार छूट गया है, उनमें से कितने ही स्थानों पर तृतीय, चतुर्थ अथवा पंचम पुस्तक में वह लंगा मिलता है । अतः सय मिला कर जाँच करने से ऐसे स्थान बहुत ही कम रह जाते हैं, जहाँ पाँचौं पुस्तकों में से किसी में यथेष्ट स्थगन पर उकार न लगा हो । इस जाँच है यह बात सिद्ध हुई कि बिहारी ने एक विशेष प्रकार के अकारांत पुंलिंग शब्द के कर्ता [ ३५ ]________________

३६ बिहारी-रत्नाकर तथा कर्मकारक * एकवचन का प्रयोग उकारांत रूप में किया है, और इस नियम का निर्वाह उन्होंने, केवल दोहों के मध्य ही में नहीं, जहाँ कि अकारांत को उकारांत अथवा उकारांत को अकारांत लिखने में कोई बाधा नहीं पड़ती, प्रत्युत तुकांतों में भी किया है, जहाँ अंन्यानुप्रास लेख-प्रणाली को स्वेच्छाचारिणी नहीं होने देता, जैसा कि ११८, ६२५, ६७५ इत्यादि अंकों के दोहों से विदित होता है । सतसई में इस नियम का निरीक्षण करने पर इस बात पर ध्यान गया कि अपभ्रंश में भी उसी प्रकार के अकारांत पुंलिग तथा नपुंसकलिंग शब्दों के कता तथा कर्मकारक के एकवचन रूप उकारांत होते थे। अतः ऐसे रूपों को इस संस्करण में उकारांत स्वीकृत करना समुचित समझा गया, और तदः नुमार वर्तमानकालिक कृदंत के एकवचन के रूप की भी जॉच करके वह भी उकारांत ही स्वीकृत किया गया, जैसे-१० अंक के दोहे में 'रहतु, २७ अंक के दोहे में 'बेधतु, ३६ अंक के दोहे में 'आवतु' इत्यादि । इस उकारांत-प्रथा के ग्रहण करने में इस बात को भी विचार कर लिया गया है कि ऐसे पाठ मे पुस्तक भर में कहाँ पाठ-साम्य में बाधा नहीं पड़ सकनी, प्रन्युन विना इस परिपाटी के ग्रहण किए पाठ-साम्य स्थापित नहीं हो सकता ॥ सामान्यकारक के बहुवचन को रुप, सतसई की भिन्न भिन्न प्रतियों में, कहाँ इकारांत और कहीं उकारांत देखने में आता है, जैसे-दृगनि, दृगनु, भागनि, भागनु इत्यादि। कहाँ कहाँ ऐसे शब्द अकारांत लिखे हुए भी मिलते हैं, जैसे-दृगन, भागन इत्यादि । हमारी प्रथम प्राचीन पुस्तक में, जैसा कि ऊपर कहा गया है, केवल ४६३ दोहे हैं। उनमें ऐसे शब्द अनुमान से १३०-१३५ स्थानों पर आए हैं। उनमें से २८-३० स्थानों पर तो वे अकारांत लिखे हैं, ४ स्थानों पर इकागंन तथा शेष स्थान पर उकारांत । अकारांत रूपों के विषय में तो यह कहा जा सकता है कि लेखक की असावधानी से उनमें उकार लगाना रह गया है, और इकारांत रुप इतने कम हैं कि उनको भी लेखक का प्रमोद मानना ही समुचित है । अतः प्रथम पुस्तक के अनुसार सनसई में ऐसे कपों का उकारांत प्रयोग सिद्ध होता है। द्वितीय पुस्तक में ऐसे शब्द अनुमान से २६ स्थानों पर अकारांत, १७ स्थानों पर उकारांत तथा १३६ स्थानों पर इकारांना मिलते हैं । अतः इस पुस्तक के अनुसार ऐसे शब्दों का इकारांत होना कहा जा सकता है। तृतीय पुस्तक में ऐसे शब्द ३१ स्थानों पर अकारांत, ४० स्थानों पर प्रकारांत तथा ५६ स्थानों पर उकारांन हैं, और चतुर्थ पुस्तक में ६६ स्थानों पर अकारांत, ३६ स्थानों पर इकारांत तथा ८१ स्थानों पर उकारांत हूँ। पाँचव पुस्तक में ऐसे शब्द ८१ स्थानों पर अकारांत, ३१ स्थानों पर इकारांत तथा ७४ स्थानों पर उकारांत हैं । पाँचों पुस्तकों को मिला कर ऐसे शब्द २२३ स्थानों पर अकारांत,२५० स्थानों पर इका त तथा ३२८ स्थानों पर उकारांत ठहरते हैं *। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जो शब्द एक प्रति में इकारांत लिस्था मिलता है, वह अन्य प्रति में उकारांत दिखाई देता है।

  • स्थान की संख्याएँ को दी गई हैं, उनकी जाँच भली भाँति नहीं की गई है। अतः संभावंता है कि इनमें दो एक संस्थाओं की भूल हो । पर जो निकर्ष उनसे निकाला गया है, उसमें इस अस्प भूख से किसी भी की संभावना नहीं है। [ ३६ ]________________

মাথন अतः ऐसे शब्द बहुत न्युन रह जाते हैं, जो अधिक प्रतियों में इकारांत लिखे हों, और ऐसे बहुत अधिक, जो अधिकांश प्रतियों में उकारांत । इस गणना से भी सतसई में ऐसे रूपों का पाठ-साम्य के अनुरोध से उकारांत ही स्वीकृत करना समीचीन प्रतीत हुआ । इसके अति रिक पाठ-साम्य की दृष्टि से विचार करने पर ऐसे शब्दों के अकारांत तथा इकारांत रूप का निर्वाह सतसई भर में होता दिखाई नहीं दिया, जैसे-६७५, ४२६ इत्यादि दोहों में। पर उनके उकारांत रूप रखने में कहीं कोई बाधा नहीं पड़ी, अतः सतसई भर में ऐसे शब्द उकारांत ही रखे गए हैं। केवल दो एक स्थानों पर वे असावधानी से इकारांत छप गए हैं, और ३२०-संख्यक दोहे में ‘दृगनि' शब्द जान बूझ कर इकारांत छोड़ दिया गया है, जिस का कारण टीका में दिखा दिया गया है। पर हमारी समझ में उसको भी पाठ-साम्य के अनुः रोध से ‘दृगनु' ही होना युक्र है ॥ | कारणचक ऐसे शब्द, जैसे–चलें, परें, क्रीन, लखें इत्यादि, जिनका अर्थ, चलने से, चलने में, चलने पर इत्यादि होता है, सतसई तथा प्रजभाषा के अन्यान्य ग्रंथों में कई रूप से लिखे दिखाई देते हैं। इनके बिहारी-स्वकृत रूपों के निर्धारित करने के निमित्त भी पाँचों प्रतियों में आए हुए रूपों की संख्याओं की जाँच की गई, और अनुप्रास में आए हुए ऐसे रुपों पर भी विचार किया गया, जैसे १८४ अंक के दोहे के ‘क’ शब्द पर। इन अनुसंधानों से ऐसे शब्दों का 'चलें, परै' इत्यादि रूप स्वीकृत करना युक्त प्रतीत हुआ । फिर ऐसे रूपों की व्युत्पत्ति पर विचार किया गया, तो ज्ञात हुआ कि ये रूप संस्कृत के क्रियार्थक संशा ‘चलन', 'पतन' इत्यादि अथवा भूतकालिक कृदंत 'चलित', 'पतित' इत्यादि के सामान्यकारक के रूप के-अर्थात् 'चलनहिं, पतनहिँ' अथवा 'चलितह, पतितहि' इत्यादि के-रुपांतर मात्र हैं, जो करण-कारक के अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं, जैसे संस्कृत के 'चलनेन, पतनेन' इत्यादि । 'चलनहिँ' अथवा 'चलितहिं” इत्यादि से चले' इत्यादि रूप उसी प्रकार बन जाते हैं, जैसे 'राम' से 'रामें' । ऐसे शब्दों के ‘चले’, ‘परें' इत्यादि रूप ही प्राय ठहरते हैं ॥ । बिहारी-रत्नाकर की पाठ-शुद्धि के निमित्त इसी प्रकार प्रत्येक शब्द के यथार्थ रूप पर यथाशक्ति भली भाँति विचार किया गया है, जिसके निदर्शनार्थ दो चार शब्दों की संशोधनविधि ‘स्थालीपुलोकन्याय' से ऊपर कथन कर दी गई है। यद्यपि पाठ की शुद्धि तथा साम्य में यथाशक्ति श्रम किया गया है, पर फिर भी कहीं कहीं असावधानी अथवा भ्रम से अशुद्धियाँ तथा पाठ-विषमताएँ रह गई है। कहीं उकार छूट गया है, तो कहीं अधिक लग गया है। कहीं हैं के स्थान पर 'ए' अथवा 'ए' के स्थान पर हैं' छप गया है, तो कहीं 'ए' के स्थान पर 'ये' अथवा 'ये' के स्थान पर 'ए' हो गया है, इत्यादि । यद्यपि ऐसी अशुद्धियों की संख्या अधिक नहीं है-वे उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं, तथापि हम उनके निमित्त प्रिय पाठक से क्षमाप्रार्थी हैं। हमारा विचार था कि पुस्तकांत में एक शुद्धाशुद्ध पत्र लगा दिया जाय, पर फिर यह अचेत प्रतीत हुआ कि दूसरे संस्करण में फिर से और भी भली भांति विचार कर के पाठ-परिवर्तन किया जाय, इस संस्करण में जो कुछ है, वही रहने दिया जाय ॥ [ ३७ ]________________

३० बिहार-रत्नाकर विहारी-रत्नाकर टीका इस ग्रंथ का टीका-भाग, सं० १९७८ के माघ मास से, श्री अयोध्यापुरी में, आरंभ हो कर संवन् १९७६ भाद्रपद की ऋषि-पंचमी को, हमारी ५६वीं वर्षगाँठ के दिन, कश्मीरप्रांत के निशानबाग-नामक स्थान में समाप्त हुआ । | पहले हमारा विचार था कि इस टीका में प्रत्येक दोहे पर साहित्य के सब अंगअलंकार, लक्षणा, व्यंजना, ध्वनि इन्यादि-भी लिखें । पर अवकाशाभावात् उफ़ संकल्प के पूरे होने में बहुत दिनों की आवश्यकता थी । अतः हमारे कई सज्जन मित्रों ने सम्मति दी कि इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण केवल दोहों की पाठ-शुद्धि कर के तथा अर्थ मात्र दे कर प्रकाशित कर दिया जाय; क्योंकि पाठ-शुद्धि तथा अर्थ ही पर अलंकारादि निर्भर रहते हैं। उनके अनुरोध तथा सम्मति से हमने भी ऐसा ही करना उचित समझा, जिसमें जो श्रम हो चुका है, वह दृथा न जाय । यदि अवकाश प्राप्त हुआ, और इस ग्रंथ के पुनः संस्करण का अवसर आया, तो यथासंभव कुछ साहित्यिक विषय भी प्रेमी पाठकों की सेवा मैं उपस्थित किए जायेंगे । | इम टीका में विशेषतः इस बात का ध्यान रखा गया है कि पाठकों की समझ में शब्दार्थ तथा भावार्थ भली भाँति आ जायें । दोहे के शब्दों के पारस्परिक व्याकरणिक संबंध तथा कारक इत्यादि के, स्पष्ट रूप से, प्रकट करने का भी यथासंभव प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक दोहे के पश्चात् उसके कठिन शब्दों के अर्थ दे दिए गए हैं, और फिर उस दोहे के कहे जाने का अवसर, वझा, बोधव्य इत्यादि, 'अवतरण' शीर्षक के अंतर्गत, बतलाए गए है । उसके पश्चात् 'अर्थ' शीर्षक के अंतर्गत दोहे का अर्थ लिखा गया है। अर्थ लिखने में जो कोई शब्द अथवा वाक्यांश कठिन ज्ञात हुआ, उसका अर्थ, उसके पश्चात्, गोल कोष्ठक में दे दिया गया है, और जिस किसी शब्द अथवा वाक्यखंड का अध्याहार करना उचित समझा गया, वह चौखूटे कोष्ठक में रख दिया गया है । जहाँ कहीं कोई विशेष यात कहने की आवश्यकता प्रतीत हुई, वहाँ वह टिप्पणी-रूप से एक भिन्न वाक्य-विच्छेद (पैराग्राफ़ ) मैं लिखी गई है ॥ पांचों प्रतियों के आवश्यक आवश्यक पाठांतर भो, दोहे के शब्दों पर १,२ आदि अक लगा कर, पाद-टिप्पणियों में दे दिए गए हैं। पाद-टिप्पणियों में जो अंक कोष्ठक के थाहर हैं, वे तो घे हैं, जो दोहों पर दिए गए हैं, और पाठांतर के पश्चात् जो अंक कोष्ठक में है, वे पाँच प्रतिरों के सांकेतिक अंक हैं॥ इस टीका में अधिकांश दोह के अर्थ अन्यान्य ! काओं से भिन्न हैं । उनके यथार्थ होने की विवेचना पाठकों की समझ, रुचि तथा न्याय पर निर्भर है ॥ हमारे विद्याभूषण पं० रामनाथ जी ज्योतिषी बिहारी-सतसई की अनेक प्रतियों के साथ बिहारी के एक चित्र की अनुकृति भी जयपुर से लाए हैं । उक्त चित्र किसी अतः में लगा हुआ है । उसका पता पंडित जी को संयेाग से लग गया, और उन्होंने अपने तथा उद्योग से उसकी अनुकृति प्राप्त कर ली । उसमें उस समर का दृश्य दिखलाया है, जब बिहारी ने “नहिं पराग, नएँ मधुर मधु” इत्यादि दोहा लिई कर महाराज जाँके [ ३९ ]

बिहारी-रत्नाकर


[ ४० ]________________

प्रायन पास भेजा था । अमेरगढ़ के विनायक-पौरि तथा उसके सामने के प्रशस्त चबूतरे का दृश्य उसमें दिखलाया गया है। बिहारी के चित्र उसमें दो जगह हैं। एक तो बिहारी के आते समय का चित्र है, जिसके पीछे खासे ढाल वाला एक मिरदहा, जो बिहारी को बुलाने गया था, खड़ा है, और सामने कोई राजकर्मचारी विहारी का स्वागत कर रहा है । दुसरे स्थान पर कतिपय और कर्मचारियों के साथ बिहार को बैठा हुआ: चित्र है। इसमें बिहारी उक्त दोहा लिख कर एक वर्षधर ( खोजे ) को देते हुए दिलाए गए हैं, और वह वर्षवर वह दोहा ले जा कर किसी दासी को दे रहा है । इस चित्र के विषय में जयपुर में यह कहा जाता है कि जब बिहारी के दोहे के प्रभाव से राजा नवोढ़ा रानी के प्रेम-पाश से मुक्त हो कर बाहर निकल आए, और अपना काम-काज करने लगे, तो चौहानी रानी ने प्रसन्न हो कर झा दी कि उस समय की घटना का ज्यों का त्ये चित्र बनाया जाय। यस, उसी प्रज्ञा के अनुसार उक्न चित्र तैयार किया गया । उसके नीचे के भाग में दोनों पाश्र्वो पर दो दो अंक लिखे हुए हैं, अर्थात् वाम पाश्र्व पर १६ तथा दक्षिण पाश्र्व पर १२। इन चारों अंके को मिला कर हम इसको विक्रम संवत् १६९२ अनुमानित करते हैं । उक्त चित्र बहुत बड़ा है । उसे छोटा कर के पुस्तक में देने योग्य बनवाने में बिहारी के चित्र के बहुत छोटे हो जाने की आशंका थी । अतः हमने उक्त चित्र में से केवल बिहारी का खड़ा चित्र अलग कर के बिहार-रत्नाकर में दे दिया है । मिज़ राजा जयशाह का भी एक चित्र पाठकों के अवलोकनार्थ इस पुस्तक में दिया गया है। यह वित्र भी हमारे पंडित जी जयपुर से लाए थे । | अब हम श्रीमान् महाराजाधिराज दरभंगा-नरेश, श्रीमान् महाराजाधिराज काशी-नरेश, श्रीयुत कर्नल विंध्येश्वरीप्रसाद सिंह सी० आई० ई० तथा स्वर्गवासी श्रीमान् महाराजाधिराज सवाई जयपुराधीश एवं जयपुर के उन सजनों को, जिनका नाम ऊपर कथन किया गया है, इस संस्करण की सामग्री एकत्र करने में सहायता पहुँचाने के निमित्त, अनेकानेक हार्दिक धन्यवाद देते हैं, और राजराजेश्वरी श्रीमती महारानी अवधेश्वरी की असीम कृतज्ञता स्वीकृत करते हैं, जिनके व्यय तथा उत्साह-प्रदान से यह टीका संपादित हो सकी। अपने वि० भू० पंडित श्री रामनाथ ज्योतिषी को भी हम, कष्ट उठा कर अनेक अमूल्य प्रतियाँ संग्रह धरने के निमित्त, साधुवाद का अधिकारी समझते हैं । माधुरी तथा गंगापुस्तकमाला के संपादक, हमारे मित्र श्री दुलारेलाल जी भार्गव ने इस ग्रंथ को प्रकाशित करने में बड़ा उत्साह प्रदर्शित किया, और इसके संशोधन में बहुत बड़ी सहायता दी, जिसके निमित्त हम उनको अनेकानेक धन्यवाद देते हैं, और इस संस्करण की भूल-चूक के निमित्त अपने सज्जन पाठक से क्षमा-प्रार्थना करके यह प्राक्कथन समाप्त करते है ॥ श्री राजसदन, अयोध्या श्री जगन्नाथदास भाद्र-कृष्णजन्माष्टमी, भौमवार, संवत् १९८२ वि॰ ।

( रत्नाकर ) ( तारीख ११ अगस्त, सन् १९२५ ई०) ) [ ४१ ]

बिहारी-रत्नाकर के छप जाने पर हमारा विचार हुआ कि उसके साथ एक यथायोग्य भूमिका भी लगा दें, और हमने उसका लिखना आरंभ भी कर दिया । यद्यपि उसका अधिकांश तो लिख गया है, पर अवकाशाभाव से उसकी समाप्ति अभी तक न हो सकी, और इस समय कई कारणों से उसे पूरा करने का अवसर प्राप्त होना भी कठिन प्रतीत होता है । इधर बिहारी-रत्नाकर को छपे प्राय: डेढ़ वर्ष हो चुके हैं, और हमारे सज्जन मित्र तथा प्रेम पाठकगण उसे देखने की उत्कंठा प्रकट कर रहे हैं । इसके अतिरिक्त भूमिका का जितना भाग लिखा जा चुका है, उससे अनुमान करने पर स्वयं भूमिका ही एक स्वतंत्र ग्रंथ होने के निमित्त अलम् जान पड़ती है। अतः इस समय क्षमा-प्रार्थना के साथ केवल एक प्राकथन लगाकर बिहारी-रत्नाकर प्रकाशित कर दिया जाता है । आशा है, उसका भूमिका-भाग स्वतंत्र रूप में शीघ्र ही पाठकों की भेंट किया जायगा । श्रीअयोध्या फाल्गुन-कृष्ण १४ ( शिवरात्रि ), सं० १९८२ वि० जगन्नाथदास ( रत्नाकर ) [ ४३ ] बिहारी-रत्नाकर


महाकवि श्रीबिहारीदास
[ ४४ ]

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

दोहा

मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ ।।

जा तन की झाँईँ परैँ स्यामु हरित-दुति होइ ॥ १ ॥

॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥

टीकाकार का मंगलाचरण

कृपा-कौमुदी कौ करौ श्रीब्रजचंद प्रकास ।

उमगै रतनाकर-हियैँ बानी-बिमलबिलास ।।

भव= संसार । बाधा= रुकावट, विघ्न । भव-बाधा=संसार के विप्न अर्थात् दुःख, दारिद्र तथा अनेक प्रकार की चिंताएँ इत्यादि, जो बाधा-रूप में उपस्थित हो कर संसार के मनुर्यों को किसी उत्तम अभीष्ट का एकाग्रता-पूर्वक साधन नहीं करने देतीं । स्मरण रहे कि कवि-परिपाटी में दुःख-दारिद्रादि का रंग काला माना जाता है ।‘भव-बाधा' का अर्थ टीकाकारों ने बहुधा जन्म-मरण का दुःख लिखा है । वह भी ठीक है। पर यहां यह शब्द ग्रंथ के मंगलाचरण में आया है । अतः यहाँ कवि की यही प्रार्थना विशेष संगत है कि हमारे अनेक प्रकार के चिंतादि-जनित विप्न का निवारण कीजिए, जिसमें ग्रंथ के पूर्ण होने में विघ्न न हो ॥ झॉई—इस शब्द के यहाँ तीन अर्थ लिए गए हैं—( १ ) परछाँहाँ, आभा । ( २ ) झाँकी, झलक । ( ३ ) ध्यान । प्राकृत-व्याकरण के ‘‘ध्ययोर्कः', इस सूत्र के अनुसार ‘ध्य' के स्थान में ‘झ' हो कर ‘ध्यान' शब्द से ‘झाँई बन जाता है । त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत-व्याकरण में 'ध्यान' शब्द का झाण' रूप लिखा भी है। 'न' के स्थान में बहुधा ‘इँ' भाषा के शब्दों में देखा जाता है, जैसे 'दाहिने' के स्थान पर ‘दायें । हेमचंद्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में जो निम्नलिखित छंद अपभ्रंश के उदाहरण में रक्खा है, उसमें ध्यात्वा का अपभ्रंश रूप झाइवि’ प्रयुक्त हुआ है बहमुहु भुवण-भयंकरु तोसिअ-संकरु णिग्गउ रह-वरि चडिअउ । चउमुहु छंमुहु झाइवि एकहिँ लाइव णावह दइवें घडिअउ । [ ४५ ]________________

बिहारी-रत्नाकर परै'=पड़ने से । इस शब्द के भी निम्नलिखित तीन भावार्थ 'भाई' के तीन अर्थों से यथाक्रम अन्वित होते हैं—( १ ) तन पर पड़ने से । ( २ ) दृष्टि में पड़ने से । ( ३ ) हृदय में पड़ने से । स्यामु ( श्याम )--यह शब्द भी यहाँ तीन अथों में प्रयुक्त हुया है--( १ ) श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्णचंद्र । ( २ ) श्रीकृष्ण चंद्र । ( ३ ) काले रंग वाला पदार्थ अर्थात् कल्मष, पातक, दुःख, दारिद्रादि, जिनका रंग कवि-परिपाटी मैं काला नियत है । उपादान लक्षणा शक्ति से ‘श्याम' का अर्थ श्याम रंग का पदार्थ होता है, जैसे ‘सुरंग दौड़ता ह' वाक्य * *मुरंग' शब्द का अर्थ सुरंग घोड़ा होता है । फिर साहित्य की परिपाटी के अनुसार काले पदार्थ से पातक, कल्मष इत्यादि का ग्रहण हो जाता है । हरित-दुाने ( हरित-द्युति )—इस शब्द के भी इस दोह में तीन अर्थ ग्रहण किए गए हैं--( १ ) हरे रंग वाला । ( २ ) हराभरा, डहडहा अर्थात् प्रसन्न-वदन । ( ३ ) हृतद्युति, गतद्युति, हतप्रभ अर्थात् तेज-हीन, प्रभा-शून्य, अथवा भयंकरता-रहित । द्युति का अर्थ नाटक में भयंकर चेष्टा भी होता है । इस अर्थ में 'हरित' शब्द हृत का अपभ्रंश है ॥ ( अवतरण )--अपनी सतसई की निर्विघ्न समाप्ति की कामना से कवि, इस मंगला चरण-रूप दोहे में, श्रीराधिकाजी से सांसारिक बाधा दूर करने की प्रार्थना करता है । सतसई ६ यद्यपि और रस के भी दोहे हैं, तथापि प्रधानता श्रृंगार ही रस की है । इसके अतिरिक्र श्रृंगार रस मैं सब रस की स्थायियाँ संचारी हो कर संचरित होती हैं, जिसके कारण वह रसराज कहलाता है । अतः सतसई में शृंगार रस के मुख्य प्रवर्तक श्रीराधाकृष्ण ही का मंगलाचरण रहना समीचीन है । श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण मैं भी, श्रृंगार रस मैं, प्रधानता श्रीराधिकाजी ही की है, और कवि जिस संप्रदाय का अनुयायी था, उसमें भी श्रीराधिकाजी ही प्रधान मानी जाती हैं । अतः उसने श्रीराधिकाजी ही से अपनी ‘भव-बाधा' हरने की प्रार्थना की है ( अर्थ )-जिसके तन की झाँई पड़ने से श्याम हरित-द्युति हो जाता है, “राधा नागरि सोइ' (हे वही राधा नागरी, अथवा वही राधा नागरी ) मेरी भव-बाधा हरो (तुम हरो, अथवा हरें ) ॥ इस दोहे मैं ‘राधा नागरि' पद संबोधन भी माना जा सकता है, और प्रथमपुरुष-वाची भी, क्याँकि ‘हरो' क्रिया का अन्वय, प्रार्थनात्मक वाक्य मैं, मध्यम पुरुष से भी हो सकता है, और प्रथम पुरुष से भी । फिर मंगलाचरण में, आराध्य देवता से, मध्यम पुरुष तथा प्रथम पुरुष, दोन ही रूप में प्रार्थना करने की प्रणाली प्रशस्त है ॥ यह दोहा बिहारी की प्रतिभा का अत्युत्कृष्ट उदाहरण है । इसमें कवि ने 'झाँई','स्याम' तथा ‘हरित-दुति' शब्द के तीन तीन अर्थ रख कर एक ही वाक्य से तीन भाव निकाले हैं, जो तीन ही उसके इष्टार्थ के साधक हैं। पहला अर्थ तो इस दोहे का यह हुआ: हे व राधा नागरी, जिसके तन की परछाँही अर्थात् आभा पड़ने से श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्णचंद्र हरे रंग की चुत वाले हो जाते हैं , मेरी भव-बाधा हो । | इस अर्थ से कवि श्रीराधिकाजी के शरीर की गुराई की प्रशंसा करता है कि वह ऐसे सुनहरे रंग की है कि उसकी आभा पड़ने से श्रीकृष्ण चंद्र का श्याम रंग हरा हो जाता है । पीले तथा नीले रंग के मेल से हरे रंग का बनना लोक-प्रसिद्ध ही है । इसी भाव को कवि ने अपने "नित प्रति एकत [ ४६ ]________________

बिहारी-रत्नाकर ही इत्यादि दोहे में भी कहा है, और माघ का एक श्लोक भी गौर तथा श्याम छविय के, पारस्परिक आभा से, हरी हो जाने के वर्णन मैं है, जो कि नित प्रति एकत ही इत्यादि दोहे की टीका में उद्धृत किया गया है। इस भाँति उनके रूप की प्रशंसा कर के कवि उनसे अपनी भत्र-बाधा दूर करने की बिनती करता है ॥ अब दूसरा अर्थ नीचे लिखा जाता है| हे वहीं राधा नागरी, जिसके तन की झाँकी अर्थात् झलक [ आँखाँ में ] पड़ने से ( दिखाई देने से ) श्रीकृष्णचंद्र हरेभरे अर्थात् प्रसन्न-वदन हो जाते हैं, मेरी भव-बाधा हरो ॥ इस अर्थ से कवि, श्रीराधिकाजी के श्रीकृष्णचंद्र की अत्यंत प्रेमपाश्री होने की प्रशंसा करता हुआ, उनसे अपनी भव-बाधा निवारण करने की प्रार्थना करता है। ऊपर कहे हुए दोन अथ” से कवि, श्रीराधिकाजी के रूप तथा प्रियतम-प्रियता की प्रशंसा करता हुआ, निम्नलिखित तीसरे अर्थ से उनमें भव-बाधा हरने का सामर्थ्य सिद्ध कर के, उनको अपनी भवबाधा हरने पर उयत करता है । इस सामर्थ्य के सिद्ध करने से कवि का यह तात्पर्य है कि, अपने सामर्थ्य का स्मरण कर के, वह शीघ्र ही उसकी भव-बाधा हरने के लिए उत्साहित हो जायँ ॥ वह तीसरा अर्थ यह है हे वही राधा नागरी, जिसके तन ( रूप ) का ध्यान पड़ने से (भक्त के हृदय में आने से) काले रंग वाला [ पदार्थ अर्थात् कल्मष, पातक इत्यादि ] हृतद्युति ( गतद्युति अर्थात् अपनी कल्मषता से राहत ) हो जाता है ( अर्थात् अपना दुःखद प्रभाव छोड़ देता है ), मेरी भव-बाधा ( सांसारिक दुःख, दारिद्र, चिंता इत्यादि, जिनका रंग कवि-परिपाटी में काला माना जाता है ) हरो ॥ ऊपर के तीन अर्थों में 'राधा नागरि’ पद संबोधन माना गया है । उसे प्रथमपुरुष-वाची मान कर भी इस दोहे के यही तीन अर्थ हो सकते हैं। हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक में से चार मैं “मेरी भव-बाधा', यही पाठ है, और तीसरे अंक की पुस्तक आदि मैं खंडित है। कृष्ण काव की टीका के अनुसार भी यही पाठ ठीक ठहरता है । कृष्ण कवि ने, अपनी टीका मैं, प्रत्येक दोहे की जाति का नाम तथा उसके गुरु और लघु अक्षरों की संख्या लिख दी है। इस दोहे को उन्हाँने 'करभ' लिखा है, जिसमें ३२ अक्षर, अर्थात् १६ गुरु और १६ लघु, होते हैं। यह संख्या ‘भव-बाधा' ही पाठ मानने से चरितार्थ होती है, अथवा 'भौ-बाधा हरहु' पाठ रखने से । पर 'इरहु’ पाठ किसी पुस्तक मैं नहीं मिलता । एक पुरानी लिखी हुई पुस्तक, जिसमें दो का क्रम पुरुषोत्तमदासजी के बाँधे हुए क्रम के अनुसार है, हमको वृंदावन में मिली है। उसमैं ‘भौ-बाधा' पाठ तो है, पर हरहु' पाठ उसमें भी नहीं है। अतः यदि 'भौ-बाधा' पाठ शुद्ध माना जाय, तो यह दोहा करभ जाति का नहीं रहता, जैसा कि कृष्ण कवि ने इसको लिखा है । कृष्ण कवि ने अपनी टीका संवत् १७८२ में समाप्त की थी । अतः यह बात स्पष्ट है कि उस समय, जब कि बिहारी को मरे बहुत दिन नहीं बीते थे, ‘भवबाधा' ही पाठ प्रसिद्ध था । पर विचारने की बात यह है कि मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं बिहारी ने 'मेरी भव-बाधा' कैसे रक्खा होगा; क्योंकि इस पाठ के आदि मैं त-गण भरता है, जो कि अशुभ माना जाता है। इसी को यदि वह ‘मेरी भौ-बाधा' कर देते, तो [ ४७ ]________________

बिहारी-रत्नाकर अदि मैं शुभ गण म-गण पड़ जाता, और छंद मैं भी कोई त्रुटि न पड़ती। यह कहना तो असंगत ही होगा कि बिहारी गण-विचार नहीं जानते थे ; कि यह तो ऐसी सामान्य बात है कि इसको थोड़ा पदे हुए लोग भी जानते हैं। इसके अतिरिक्त ‘भव-बाधा’ को ‘भौ-बाधा' कर देने में कोई कठिनाई भी न थी । फिर बिहारी ने, मंगलाचरण के दोहे के आदि मैं, ‘भवबाधा' क्यों लिखा ? इसके दो कारण हो सकते हैं—पहला त यः कि बिहारी के दोहे बहुधा, उनके मुख से सुन कर, राजसभा के लेखक अथवा बिहारी के शिष्य लिख लिया करते थे, अतः संभव है कि यह पाठ लिखने वाल के प्रमाद से प्रचलित हो गया हो; दूसरा यह कि बिहारी ने इस दोहे को मंगलाचरण में रखने के अभिप्राय से न बनाया हो, पर, सतसई संकलित करते समय, इसको इस योग्य देख कर, मंगलाचरण मैं रख दिया हो, और इसके अादि के गण पर ध्यान न दिया हो । जो हो, हमारी समझ में, ‘मेरी भौ-बाधा हौ' पाठ होता, तो अच्छा होता । पर प्राचीन पुस्तक में 'मेरी भव-बाधा हरौ' ही पाठ होने के कारण यही पाठ इस संस्करण में रखा गया है ॥

अपने अँग के जानि के जोबन-नृपति प्रबीन ।
स्तन, मन, नैन, नितंब कौ बड़ौ इजाफा कीन ॥ २ ॥

अपने अंग के ( अपने अंग के )-राजा के प्रधान, अमात्य, सेनापति तथा सेना इत्यादि राजा के अंग अर्थात् सहायक कहलाते हैं । अतः अंग का अर्थ यहाँ सहायक अथवा पक्षी होता है । अपने अँग के' का अर्थ अपने पक्षियों के दल मैं हुया । इजाफा( इज़ाफ़ा )-अरबी भाषा में इजाफ्रा बढ़ती अर्थात् वृद्धि को कहते हैं। जब कोई बादशाह, अपने किसी सरदार अथवा कर्मचारी को अपना शुभचिंतक समझ कर, अथवा उसके किसी अच्छे काम से प्रसन्न हो कर, उसकी जागीर अथवा वेतनादि मैं वृद्धि कर देता है, तो यह वृद्धि इज़ाफ़ा कहलाती है । ( अवतरण )-नायक नवयौवना मुग्धा के शरीर तथा उत्साह में वृद्धि देख, रीझ कर, उसकी प्रशंसा करता हुअा, अपने मन में कहता है ( अर्थ )-यौवन-रूपी प्रवन ( दान, दंड इत्यादि उपायों में निपुण ) नृपति ( राजा ) ने, [उनके ] अन अंग का ( दल का, पक्ष का ) समझ कर, स्तनों (कुचों), मन, नयन, [ और ] नितंब का वड़ा इज़ाफ़ा कर दिया है ॥ | टीकाकारों ने प्रायः ऐसे दोहों को सखी का वचन सखी से, नायक से, अथवा स्वयं नायिका से माना है । पर हमारी समझ में ऐसे दोहाँ को, सखी का वचन मानने की अपेक्षा, नायक का वचन मानने में विरोर रस है; क्याँके कि पी गुण-ग्राहक की प्रशंसा से किसी वस्तु के गुण की जैसी वास्तविकता प्रकट होती है, वैसी किसी अभिप्राय से प्रशंसा करने वाले की प्रशंसा से नहीं हो सकती। इसलिए ऐसे दोहाँ मैं हमने प्रायः नायक का स्वगत वचन माना है ॥

अर तैं टरत न घर-परे, दई मरक मनु मैन ।
होड़ाहोड़ी बढ़ि चले चितु, चतुराई, नैन ।। ३ ।।

१. * ( २ ) । २. होड़ीहोड़ा ( २, ४) । [ ४८ ]________________

बिहारी-रत्नाकर |अर ( अँड़ )= किसी बात के निमित्त हठ-पूर्वक डट जाना । यहाँ ‘अर' का अर्थ अपने गौरव के निमित्त हठ करना है । बर:परे–‘बर' का अर्थ बल है। यहाँ इसका अर्थ उत्साह, उमंग है। अतः ‘बर-परे' का अर्थ उभंग से भरे हुए होता है ॥ मरक= बढ़ावा, चाँटी ॥ होड़ाहोड़ी-होड़ बराबरी करने की स्पृहा–लागडाँट-को कहते हैं। ‘होड़ाहोड़ी' का अर्थ परस्पर की लागडाँट होता है । ( अवतरण )-नवयौवना नायिका की शोभा से रीझ कर नायक, उसकी प्रशंसा करता हुआ, अपने मन मैं कहता है ( अर्थ )-[ अहा ! इस स्त्री के शरीर में यौवनागमन के कारण ] उमंग से भरे हुए चित्त, चतुराई और नयन [ अपने अपने ] हठ से नहीं हटते, [ श्रीर] होड़ाहोड़ी (परस्पर लाडॉट कर के ) बढ़ चले हैं, मानो मदन ने [ इन्हें ] बढ़ावा दे रक्खा है ॥

औरै-ओप कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज ।।
मनीँ धनी के नेह की बनीँ छनीँ पट लाज ।। ४ ।।

औरै-ओप= कुछ और ही ओप वाली । यह समस्त पद ‘कनीनिकनु' का विशेषण है ॥ कनीनिकनु -कनीनिका आँख की पुतली को कहते हैं। 'कनीनिकनु' कनानिका शब्द के संबंधकारक का बहुवचनांत रूप होता है । इसके पश्चात् की तृतीया की विभक्ति का लोप है, अतः इसका अर्थ कनीनिका से,.अर्थात् कनीनिका के कारण, हुया । गनी= गिनी गई है, मानी गई है । घनी-सिरताज-घनी का अर्थ अनेक होता है। यहाँ इसका अर्थ अनेक सपत्नी है । ‘सिरताज' फ़ारसी समस्त शव्द ‘सरताज' का रूपांतर इसका अर्थ शिरोमणि अर्थात् श्रेष्ठतम होता है । इसलिए ‘घनी-सिरताज' का अर्थ अनेक संपनियों में शिरोमणि अर्थात् श्रेष्ठतम पत्नी हुआ ॥ मन (मणि ) - हीरा, नीलम इत्यादि, अथवा सर्प इत्यादि से निकली हुई मणियाँ । मणिय मैं अनेक प्रकार के प्रभाव माने जाते हैं। किसी मणि के पहनने से लक्ष्मी की प्राप्ति, किसी से अन्य मनुष्य का सम्मोहन इत्यादि माना जाता है । धनी = प्रभु, स्वामी अर्थात पति ॥ मनी धनी के नेह की—इसका अर्थ पति के स्नेह को प्राकर्षित करने वाली मणियाँ होता है । छन = अाच्छादित, छिपी हुई । मणि, मंत्र इत्यादि का प्रभान छिपे रहने पर विशेष होता और खुल जाने पर जाता रहता है । इसी प्रकार लल्ला से आच्छादित नेत्र में भी अाकर्षण-शक्ति विशेष होती है । इसी लिए कवि ने कनानिका को मणि बना कर लजा-रूपी पट से ढाँप रक्खा है ।। |

( अवतरण )-नवयौवना मुग्धा की आँखों की पुतलियाँ मैं यौवनागमन के कारण कुछ विलक्षण प्रभा तथा लज्जा का संचार हो गया है । उसी की प्रशंसा सखी, उसके हृदय में उत्साह बढ़ाने के निमित्त, करती है|

( अर्थ )--[ अब तू अपनी ] और ही ओप ( प्रभा ) वाली कनीनिकाओं के कारण अनेक [ सपत्नियों ] में शिरोमणि गिनी गई है, [ क्योंकि ये तेरी कदीनिकाएँ] लज्जा-रूपी पट में छिपी हुई ( लिपटी हुई ) पति के स्नेह की ( पति के स्नेह को तेरी ओर आकर्षित करने वाली ) मणियाँ बन गई हैं ॥ १. सनी ( १, ४, ५) ।। [ ४९ ]________________

बिहारी-रत्नाकर सनि-कज्जलं चख-झव-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु ।। क्य न नृपति है भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु ॥ ५ ॥ सनि ( शनि )= शनैश्चर नामक ग्रह । इस ग्रह का रंग काला माना जाता है, और वस्तुतः भी इस तारे का रंग देखने में श्याम प्रतीत होता है । सनि-कजना= जिसमें कजल शनि है ऐसी । यह समस्त पद ‘चख-झख-लगन’ का विशेषण है। इसमें बडुत्रीहि समास है। चख (चक्षु )= आँख । झख ( झष )= मछली ॥ लगन (लग्न)इस शब्द का धात्वर्थ लगा रहना, मि ला रहना है । येतित्र की परिभाषा में क्रांतिवृत्त के क्षितिज मैं लगे रहने को लग्न कहते हैं। भारतीय ज्योतिषाचार्यों के अनुसार सूर्य पृथ्वी की परिकमा करता है । उस परिक्रमा-पथ को क्रांतिवृत कहते हैं, जे स्वयं भी, प्रह वायु-द्वारा चलायमान हो कर, पृथ्वी के चारों ओर घूमा करता है । यह क्रांतिवृत बारह सभ भाग में विभक्त माना गया है। एक एक भाग एक एक राशि के नाम से ख्यात है। उन बारह राशि के नाम ये हैं-नेत्र, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन । जो राशि जितने काल तक पूर्व क्षितिज से सम्मिलित रहती है, उतने काल तक उस राशि की लग्न मानी जाती है । जैसे यदि सूर्योदय के समय क्रांतिवृत्त की मीन राशि तितिज से सम्मिलित हो, तो उस समय मीन लग्न मानी जार श्रीर जब तक, क्रांतिवृत के भ्रमण के कारण, वह राशि घूम कर क्षितिज-रेखा का उल्लंघन न कर जायगी, और मेष लग्न उस रेखा पर न पहुंच जायगा, तब तक मीन लग्न का मान रहेगा । उसके पश्चात् मेष लग्न का मान आरंभ होगा । जन्म-कुंडली के संबंध में लग्न उस लग्न को कहते हैं, जो किसी के जन्म के समय होती है। जैसे यदि किसी लग्न हो, ती मीन लग्न कहने से उसके जन्म-काल की लग्न समझी जायगी । यदि उस मनुष्य के जन्म के समय मीन लग्न हो, योर शनि ग्रह भी उस समय मीन राशि ही में हो, तो उस मनुष्य की लग्न मैं मीन राशि के शनि का होना कहा जायगा। ऐसा मनुष्य ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राजा होता है, यथा तुलाकोदर इमीनस्थो लग्नस्थोऽपि शनैश्चरः ।। करोति भूपतेर्जन्म वंशे च नृपतिर्भवेत् ॥ ( जातक-संग्रहः, राजयोग-प्रकरण, श्लोक १३ ) ‘लगन' शब्द इस दोहे मैं श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ तो वहीं है, जो ऊपर लिखा गया है, और दूसरा लगना, अथवा मिलना, है ॥ सुदिन = अच्छा दिन अर्थात् ऐसा समय, जो कि ग्रहों की स्थिति के कारण राजयोग के अनुकूल हो । यद्यपि शनि का मन लग्न में होना मनुष्य को राजा बनाता है, तथापि केवल एक यही योग इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं है । शोर भी ग्रहों का यथेष्ट स्थानों मैं होना आवश्यक है, अर्थात् और प्रकार से भी वह समय सानुकूल होना चाहिए । यही सानुकूलता विहारी ने ‘सुदिन' कह कर व्यंजित की है। नेत्रों से देखने के विषय में सुदिनना का यह भाव है कि नायिका के नायक को क जल-कलित नेत्रों से देखने के समय ऐसा सुअवसर था कि वह अांखें भर कर उसकी ग्रोर देख सकी । सनेहु ( स्नेह ) = स्नेहरूपी बालक । इस दोहे में, ‘उपव्या', 'लगन' इत्यादि शन्द के पड़ने के कारण, अर्थ-बल से बालक शब्द का ग्रहण हो जाता है । भगवै = भागे, भोग करे ॥ सुदेसु = सुंदर देश । देश का सौष्ठव उसका धनधान्य तथा सानुकुल प्रजा से संपन्न होना इत्यादि है, और देह का सौष्ठव सुंदर, युवा तथा स्निग्ध होना है ॥ | ( अवतरण )-किसी सुअवसर पर नायिका के कज्जल-कलित नेत्रों से देखने से नायक के हृदय में स्नेह उत्पन हुआ, जिपने उसके सवंग पर अधिकार जमा लिया । उसकी इसी दशा का वर्णन सखी, बेरी गरी से नायिका-प्रति कर के, उसको नायक से मिलाया चाहती है १. कबलु ( १ )। [ ५० ]________________

बिहारी-राकर ( अर्थ )-जिसमें कजल-रूपी शनि [ स्थित ] है, ऐसी चख-रूपी मीन लग्न में, (१. पृथ्वी तथा सूर्य की विशेष स्थिति के समय । २. आँखों के आँखों से मिलने के समय ) शुभ दिन [ नायक के हृदय में ] उत्पन्न स्नेह-रूपी बालक सव देह-रूपी सुदेश (देह-रूपी सुदेश को सार्वभौमि : राज्य) पा कर, राजा बन कर क्यों न [ उस पर ] भोग करे (पूर्ण अधिकार जमावे ) ॥ इस दोहे में सखी नायक के स्नेह की व्यवस्था का वर्णन करती हुई, वाक्यचः तुरी-द्वारा, ‘सुदेस' शब्द के प्रयोग से उसका सुंदर, युवा इत्यादि होना तथा सब' शब्द के प्रयोग से उसके सवंग पर स्नेह का अधिपत्य हो जाना व्यंजित कर के, नायिका के हृदय में रुचि उपजाया चाहती है। सालति है नटसाल सी, क्यौं हूँ निकसति नाँहि ।। मनमथ-नेजा-नोक सी खुभी खुभी जिरी माँहि ॥ ६ ॥ सालति है = चुभ कर पीड़ा देती है ॥ नटसाल ( नष्ट शल्य )= बछ, बाण इत्यादि की अथवा काँटे की नोक, जो टूट कर घाव के भीतर रह जाती है । मनमथ नेजा नोक = कामदेव के भाले की नोक । कई एक टीकाका ने, यह कह कर कि कामदेव के आयुध बाण प्रसिद्ध हैं, अतः ‘मनमथ-नेजा' का अर्थ कामदेव का भाला करने में प्रसिद्धि-विरुद्ध दूषण पड़ता है, ‘मनमथ' का अर्थ मन को मथने वाला अर्थात् पीड़ा देने वाला किया है । पर शृंगार रस के दोहे में ‘मनमथ-नेजा-नोक' का अर्थ कामदेव के भाले की नोक ही करना विशेष सरस है । यद्यपि कामदेव के मुख्य आयुध तो अवश्य बाण ही माने जाते हैं, पर उसके और आयुर्थी–खड्ग, कुंतादि का भी वर्णन कवि करते हैं। अतः उसके भाले का वर्णन दुषित नहीं समझा जा सकता ॥ खुभी= कान मैं पहनने का एक भूषण, जो भाले के फल के आकार का होता है । खुभी= चुभी हुई, धंसी हुई ।। ( अवतरण )-भी पर रीझे हुए नाय के का, नायिका की किसी सखी अथवा दूती से, मिलनोत्कंठा-व्यंजक वचन ( अर्थ )-[ उसकी ] कामदेव के भाले की नोक सी खुभी [ मेरे ] जी में धंसी हुई नटसाल सी सालती ( खटकती ) है, [और] किसी प्रकार निकलती नहीं ॥ जुवति जोन्ह मैं मिलि गई, नैंक न होति लखाइ । सौंधे कैं डोरें लगी अली चली सँग जाइ ॥ ७ ॥ जोन्ह ( ज्योत्स्ना )= चाँदनी ॥ लखाइ = लक्षित ॥ सांधे= सुगंध ।। डोरै = डोरे मैं। जिस प्रकार दीपक की किरणें तार की भाँति चारों ओर फैलती हैं, उसी प्रकार सुगंधित वस्तु की सुगंध के तार बायु के बहाव की ओर प्रसरित होते हैं। इन्हीं तारौं को डोरे कहते हैं ॥ अली= सखी । यदि यह शब्द यहाँ श्लिष्ट माना जाय, तो चमत्कार बढ़ जाता है। एक अर्थ सखी और दूसरा अर्थ भ्रमर करने से इसका अर्थ भ्रमर सी सखी हो जाता है । १. मन ( २ ), हिय ( ४ ) । २. चली अली ( १ )। [ ५१ ]________________

विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-शुक्राभिसारिका नायिका की अंतरंगिनी सखियाँ उसके शरीर की गुराई तथाः सुगंध का वर्णन करती हैं ( अर्थ )-[ देखो, यह ] युवती [ अपनी गौर द्युति के कारण ] चाँदनी में [ कैसी ] मिल गई है [ कि ] किंचिन्मात्र भी लक्षित नहीं होती । अतः उसको दृष्टि द्वारा लक्षित कर के उसके संग चलना असंभव है, पर ] अली ( भ्रमर सी सखी ) [ उसके शरीर की ] सुगंध के डेरे से लगी हुई ( डोरे के सहारे पर ) [ उसके ] संग चली जा रही है ॥


---- हौं रीझी, लखि रीझिहौ छबिहिँ छबीले लाल।

सोनजुही सी होति दुति-मिलंत मालती माल ॥ ८ ॥ दुति-मिलत= द्युति अर्थात् श्राभा से मिलते ही । यह पद समस्त है ।। ( अवतरण )--नायिका की सखी अथवा दूती नायिका के शरीर की सुनहरी आभा की प्रशंसा कर के नायक के हृदय मैं उसके देखने की उत्कंठा उत्पन्न किया चाहती है ( अर्थ )--- म [ तो उस पर ] रीझ गई, [ और तुम भी, ] हे [ अपने को } छबीले [ समझने वाले ] लाल, [ उसकी ] छवि देख कर रीझ जाओगे । [ उसकी गुराई ऐसे पीत वर्ण की है कि उसकी ] आभा से मिलते ही [ उसकी ] माला में [ लगी हुई ] मालती सोनजुही सी [ सुनहरी ] हो जाती है । बहके, सय जिये की कहत, ठौरु कुठौरु लग्नैं न । छिर्न औरै , छिर्न और से, ए छबि छाके नैन ॥ ९ ॥ | बहके= अपने वश से बाहर हुए । छवि-छाके = छांव-रूपी मदिरा से छके हुए । छकना पीने को कहते हैं। पंजाब में अभी तक लोग ‘जल छक लो' का जल पी लो के अर्थ में बोलते हैं। जैसे पियक्कड़ का अर्थ बहुत मदिरा पीने वाला होता है, वैसे ही 'छाके' का अर्थ मांदरा पा कर मतवाल होता है । अतः ‘छाब-छाके' का अर्थ छवि-रूपा मदिरा पी कर मतवाल हुया ।। ( अवतरण )-सखी नायिका से कहती है कि तुझे अपना अनुराग छिपाए रखना चाहिए; इस तरह प्रेमोन्मत्त देव कर लोग तुझे क्या कहँगे । उसकी यह शिक्षा सुन कर पूर्वानुरागिनी नायिका उससे कहती है-- ( अर्थ )--[ मैं क्या करूँ, ] ये छवि-रूपी मदिरा पी कर मतवाले, बहके, [ और इसी कारण ] क्षण क्षण पर और ही और प्रकार के होने वाले नयन जी की सव [ छिपी हुई बाते ] कह देते है ( प्रकाशित कर देते है ), [ और ] ठौर कुठौर (अवसर अनवसर) नहीं देखत ( समझत) ॥ यह बात प्रसिद्ध ही है कि मदिरा पान करने पर मनुष्य अपने जो की सब बातें कह देता है। इसी लिए घोर से उसकी चोरी कहला लेने के लिए उसको प्रायः मदिरा पिला दी जाती है ॥ १. मिलिति ( ५ ) । २. बहके ( २ ) । ३. जी ( ४ ) । ४. छिनु ( १,५)।