आए नँदनन्दन के नेव[१]।
गोकुल आय जोग बिस्तार्यो, भली तुम्हारी टेव॥
जब बृन्दाबन रास रच्यो हरि तबहि कहाँ तू हेव[२]।
अब जुवतिन को जोग सिखावत, भस्म अधारी सेव॥
हम लगि तुम क्यों यह मत ठान्यो ज्यों जोगिन को भोग[३]।
सूरदास प्रभु सुनत अधिक दुख, आतुर बिरह-बियोग॥३३९॥