भ्रमरगीत-सार/३४१-या ब्रज सगुन-दीप परगास्यो

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या ब्रज सगुन-दीप[१] परगास्यो।
सुनि ऊधो! भृकुटी त्रिबेदि[२] तर निसिदिन प्रगट अभास्यो॥
सब के उर-सरवनि[३] सनेह भरि सुमन तिली को बास्यो।

[ २१० ]

गुन अनेक ते गुन[४], कपूर सम परिमल बारह मास्यो॥
बिरह-अगिनि अँगन सब के, नहिं बुझत परे चौमास्यो[५]
ताके तीन फुँकैया[६] हरि से, तुम से, पँचसरा[७] स्यो॥
आन-भजन तृन सम परिहरि सब करतीं जोति उपास्यो।
साधन भोग निरञ्जन तें रे अन्धकार तम नास्यो॥
जा दिन भयो तिहारो आवन बोलत ही उपहास्यो।
रहि न सके तुम, सींक रूप ह्वै निर्गुन-काज उकास्यो[८]
बाढ़ी जोति सो केस-देस[९] लौं, टूट्या ज्ञान-मवास्यो[१०]
दुरबासना-सलभ सब जारे जे छै रहे अकास्यो॥
तुम तौ निपट निकट के बासी, सुनियत हुते खवास्यो[११]
गोकुल कछु रस-रीति न जानत, देखत नाहिं तमास्यो॥
सूर, करम की खीर परोसो, फिरि फिरि चरत जवास्यो॥३४१॥

  1. सगुन-दीप=सगुण ज्योति को जगानेवाला दीपक।
  2. त्रिवेदि=त्रिपाई, चौकी
  3. उर-सरवनि=हृदय रूपी शराब या पात्र।
  4. गुन=तागा, बत्ती।
  5. चौमास्यो=चौमासे या वर्षा में भी।
  6. फुँकैया=फूँककर आग दहकानेवाले।
  7. पंचसरा=पंचशर, कामदेव।
  8. उकास्यो=उकसाया, बत्ती खसकाई।
  9. केस-देस=ब्रह्मांड, मस्तक।
  10. मवास्यो=मवास, गढ़, किला।
  11. खवास्यो=खवास भी, मंत्री भी।