भ्रमरगीत-सार/३४३-ऊधो! मन की मन ही माँझ रही

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ऊधो! मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाय कौन सों, ऊधो! नाहिंन परति सही॥
अवधि अधार आवनहि की तन, मन ही बिथा सही।
चाहति हुती गुहार[१] जहाँ तें तहँहि तें धार वही॥
अब यह दसा देखि[२] निज नयनन सब मरजाद ढही।
सूरदास प्रभु के बिछुरे तें दुसह बियोग-दही॥३४३॥

  1. गुहार=रक्षा के लिए दौड़।
  2. देखि=देख तू।