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ऊधो! मन की मन ही माँझ रही। कहिए जाय कौन सों, ऊधो! नाहिंन परति सही॥ अवधि अधार आवनहि की तन, मन ही बिथा सही। चाहति हुती गुहार[१] जहाँ तें तहँहि तें धार वही॥ अब यह दसा देखि[२] निज नयनन सब मरजाद ढही। सूरदास प्रभु के बिछुरे तें दुसह बियोग-दही॥३४३॥