मानसरोवर २/१६ दूध का दाम

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मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १८२ ]'तुम पीछे से निकल जाओगे । पहले तुम घोड़ा बन जाओ। मैं सवारी कर लूँ, फिर मैं बनूँगा।'

सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था ! मंगल का यह मुतालबा सुनकर साथियों से बोला--देखते हो इसकी बदमाशी, भगी है न ?

तीनो ने मंगल को घेर लिया और उसे जबरदस्ती घोड़ा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके बोला-चल घोड़े, चल! मगल कुछ दूर तक तो चला, लेकिन उस वोझ से उसको कमर टूटी जाती थी। उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान से नीचे सरक गया। सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोपू बजाने लगे।

मां ने सुना, सुरेश कहाँ रो रहा है। सुरेश कहीं रोये, उनके तेज कानो में जरूर भनक पड़ जाती थी, और उसका रोना भी बिलकुल निराला होता था जैसे छोटो लाइन के इंजन को आवाज़ ।

महरी से बोली-देख तो, सुरेश कहीं रो रहा है, पूछ, किसने मारा है ?

इतने मे सुरेश खुद आखें मलता हुआ आया । उसे जब रोने का अवसर मिलता था, तो मां के पास फरियाद लेकर जरूर आता था। मां मिठाई या मेवे देकर आंसू पोछ देती थी। आप थे तो आठ साल के , मगर बिलकुल गावदी। हद से ज्यादा प्यार उसकी बुद्धि के साथ वही किया था, जो हद से ज्यादा भोजन ने उसकी देह के साथ।

मां ने पूछा- क्यो रोता है सुरेश, किसने मारा ?

सुरेश ने रोकर कहा---मंगल ने छू दिया।

मां को विश्वास न आया। मगल इतना निरीह था कि उससे किसी तरह की शरारत की शंका न होती थी, लेकिन जब सुरेश क़समें खाने लगा, तो विश्वास करना लाज़िम हो गया। मंगल को वुलवाकर डाटा क्यों रे मंगल, अब तुझे वद- माशी सूझने लगी ? मैंने तुम्झसे कहा था, सुरेश को कभी मत छूना, याद है कि नहीं, बोल!

मंगल ने दबी आवाज़ से कहा - याद क्यों नहीं है।

'तो फिर तूने उसे क्यो छुआ ?'

१३ [ १८३ ]'मैंने नहीं छुआ।'

'त्ने नहीं छुआ, तो यह रोते क्यो थे ?'

'गिर पड़े इससे रोने लगे।

चोरी और सीनाजोरी । देवीजी दांत पीसकर रह गई। मारती तो उसी दम स्नान करना पड़ता। छड़ी तो हाथ में लेनी ही पड़ती और छूत का विद्युत प्रवाह इस छड़ी के रास्ते उनकी देह में पैवस्त हो जाता , इसलिए जहाँ तो गालियां दे सकी, दी और हुक्म दिया कि अभी-अभी यहाँ से निकल जा । फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आई, तो खून ही पी जाउंगी। मुफ्त की रोटियाँ खा-खाकर शरारत सूझती है आदि।

मंगल में गैरत तो क्या थी, हाँ डर था । चुपके से अपने सकोरे उठाये, टाट का टुकड़ा बगल मे दबाया, धोती कन्धे पर रखी और रोता हुआ वहाँ से चल पड़ा। अब वह यहाँ कभी न आयेगा। यही तो होगा, भूखों मर जायगा। क्या हरज है। इस तरह जीने से फायदा ही क्या। गाँव मे उसके लिए और कहाँ ठिकाना था। भगी को कौन पनाह देता ! उसी अपने खंडहर की ओर चला, जहाँ भले दिनों की स्मृतियां उसके आंसू पोछ सकती थीं, और खुब फूट-फूटकर रोया ।

उसी क्षण टामी भी उसे ढूंढता हुआ पहुंचा और दोनों फिर अपनी व्यथा भूल गये।

( ६ )

लेकिन ज्यों-ज्यों दिन का प्रकाश क्षीण होता जाता था, मंगल को ग्लानि भी गायब होती जाती थी। बचपन की बेचैन करनेवाली भूख देह का रक्क पी-पीकर और भी बलवान होती जाती थी। आँखें बार-बार सकोरों की और उठ जातीं। वहाँ अब- तक सुरेश को जूठी मिठाइयाँ मिल गई होती । यहाँ क्या धूल फांके !

उसने टामी से सलाह की-खाओगे क्या टामी, मैं तो भूखा ही लेट रहूँगा ?

हामी ने कूँ-कूँ करके शायद कहा- इस तरह का अपमान तो ज़िन्दगी-भर सहना है । यो हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा। मुझे देखो न, अभी किसी ने डण्डा मारा, चिल्ला उठा , फिर जरा देर बाद दुम हिलाता हुआ उसके पास जा पहुंचा। हम-तुम दोनों इसलिए बने हैं भाई! [ १८४ ]मंगल ने कहा-तो तुम जाओ, जो कुछ मिले खा लो, मेरी परवाह न करो। टामी ने अपनी श्वान-भाषा में कहा --अकेला नहीं जाता, तुम्हे साथ लेकर चलूँगा।

'मैं नहीं जाता।'

'तो में भी नहीं जाता।'

'भूखों मर जाओगे।'

'तो क्या तुम जीते रहोगे।'

'मेरा कौन बैठा है, जो रोयेगा।'

यहाँ भी वही हाल है भाई। क्वार में जिस कुतिया से प्रेम किया था, उसने वेवफाई की और अव कल्लू के साथ है। खैरियत यही हुई कि अपने बच्चे लेती गई, नहीं मेरो जान गाढे में पड़ जाती । पांच-पांच बच्चों को कौन पालता ?

एक क्षण के बाद भूख ने एक दूसरी युक्ति सोच निकाली ?

'मालकिन हमे खोज रही होगी, क्यों टामी !'

'और क्या। बाबूजी और सुरेश खा चुके होगे। कहार ने उनकी थाली से जूठन निकाल लिया होगा और हमें पुकार रहा होगा।'

'बाबूजी और सुरेश दोनों के थालियों में घी खूब रहता है, और वह मीठी- मोठी चीज़-हा मलाई।

'सबका सब धूरे पर डाल दिया जायगा।'

'देखें, हमें खोजने कोई आता है ?'

'खोजने कोन आयेगा, क्या कोई पुरोहित हो । एक बार मंगल-मंगल होगा और बस, थाली परनाले में उँङेल दी जायगी।'

'अच्छा तो चलो चलें , मगर मैं छिया रहूँगा। अगर किसीने मेरा नाम लेकर न पुकारा, तो में लौट आऊँगा । यह समझ लो।'

दोनो वहां से निकले और आकर महेशनाथ के द्वार पर अंधेरे में दबककर खड़े हो गये , मगर टामी को सत्र कहाँ । वह वीरे से अन्दर घुस गया । देखा, महेशनाथ और सुरेश पाली पर बैठ गये हैं। बरौंठे में धीरे से बैठ गया , मगर दर रहा था कि कोई उस न मार दे।

नौकरों ने बातचीत हो रही थी। एक ने कहा-आज मॅगल्वा नहीं दिखाई देता। मालकिन ने डोटा था. इमी से भागा है साहब। [ १८५ ]दूसरे ने जवाब दिया--अच्छा हुआ, निकाल दिया गया। सबेरे-सबेरे भंगी का मुँह देखना पड़ता था।

मंगल और अंधेरे में खिसक गया। आशा गहरे जल मे डूब गई।

महेशनाथ थाली से उठ गये । नौकर हाथ धुला रहा है । अब हुक्का पीयेंगे और सोयेंगे । सुरेश अपनी माँ के पास बैठा कोई कहानी सुनता-मुनता सो जायेगा । गरीब मंगल की किसे चिन्ता है । इतनी देर हो गई, किसी ने भूल से भी न पुकारा ।

कुछ देर तक वह निराशा-सा वहाँ खड़ा रहा, फिर एक लबी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल मे थाली का जूठन ले जाता नजर आया।

मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया। अब मन को कैसे रोके ।

कहार ने कहा-अरे, तू यहाँ था । हमने समझा कहीं चला गया । ले खा ले, मैं फेंकने ले जा रहा था।

मंगल ने दीनता से कहा-~-मैं तो बड़ी देर से यहाँ खड़ा था।

'तो बोला क्यो नहीं ?

'मारे डर के।'

'अच्छा,ले खा ले।'

उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया। मंगल ने उसकी ओर ऐसी आँखो से देखा, जिसमे दीन कृतज्ञता भरी हुई थी।

टामी भी अन्दर से निकल आया था। दोनो वहीं नीम के नीचे पत्तल में खाने लगे।

मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा-देखा, पेट की आग ऐसी होती है । यह लात की मारी हुई रोटियां भी न मिलतीं, तो क्या करते ?

टामी ने दुम हिला दी।

'सुरेश को अम्माँ ने पाला था।'

टामी ने फिर दुम हिलाई।

'लोग कहते हैं, दूध का दार्मा कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।'

टामी ने फिर दुम हिलाई।

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