मानसिक शक्ति

विकिस्रोत से
मानसिक शक्ति  (1920) 
द्वारा जेम्स एलन, अनुवादक बाबू चेतन दास

[ आवरण-पृष्ठ ]सद्विचार पुस्तक माला नं॰ १३

मानसिक शक्ति।

 

Mrs. James Allen की Might of Mind नामक
पुस्तक का भाषानुवाद

 

अनुवादक––

 

बाबू चेतनदास बी. ए.
बाबू नाथुराम सिंघई।

 

प्रकाशक––

 

हिंदी साहित्य-भंडार, लखनऊ।

प्रथमावृत्ति १०००]
[मूल्य ।)
१९२०

Printed by Pt. Ghasi Ram at the Deshopkarak Press,
Narhai Road Lucknow,

[ विषय-सूची ]
विषय-सूची।


१. मन का वशीकरण... ... ...
२. मन की उत्पादन शक्ति ... ...
३. विचार शक्ति जादू है ... ...
४. इच्छा अथवा अभिलाषा ... ...
५. बाह्य क्षेत्र पर विचार का प्रभाव ...
६. पारस पथरी ... ... ...
७. अपनी सब प्राप्ति के साथ ... ...


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मानसिक शक्ति।

१.––मन का वशीकरण।

जब तुम्हारा मन इधर उधर परिभ्रमण करे तो तुम्हें चाहिए कि तुम उसको बड़ी बड़ी समस्याओं पर लाकर स्थित करो।

(जेम्स एलन)

ब मनुष्य ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में पैर रखता है तो सबसे कठिन बात जो इस शिष्य को मालूम होती है वह मन को अपने वश में रखना है। यह कितना क्लिष्ट और कष्टसाध्य कार्य है, इसका केवल वे ही मनुष्य अनुभव कर सकते हैं जिन्होंने इसके लिए कुछ परिश्रम किया है। जब हम विचारों को अपने आधीन रखने के सम्बंध में सोचते हैं तब हमें कुछ अनुभव होता है कि मन सदैव कितना उद्दंड और अशासित अवस्था में रहता रहा है और वह कैसे हर प्रकार की और [  ] हर विषय की विचार तरंगों का पात्र रहा है और कैसे सब प्रकार के संकल्प विकल्पों का द्वार रहा है। इस बात को देखकर हमें बड़ा विस्मय होता है और साथ ही साथ लज्जा भी आती है कि हम ने कितना अमूल्य समय व्यर्थ चंचल विचारों में नष्ट कर दिया है। वह समय जिसको यदि हम उचित रीति से उपयोग में लाते और उसको किसी अभीष्ट के सिद्ध करने में लगाते तो निस्संदेह हम शक्तिशाली और दृढ़ चारित्रवान बन जाते। ऐसा समय यदि हम शुभ विचारों और शुभ भावनाओं में लगाते तो हमारा जीवन सुधर जाता, हमारी अंतरात्मा पवित्र हो जाती, हम प्रभावशाली बन जाते और हम में आत्मिक शक्ति का महत्व आ जाता।

हमारे विचार में किसी मनुष्य के जीवन का वह बड़ा दिन है जिस दिन कि उपरोक्त बात की सत्यता उसके हृदय में बैठे।

पहिले पहिल मन वश में नहीं होना चाहता। यह घोड़े के नए बछड़े के समान है जो लगाम लगाते समय बड़ी उछल कूद मचाता है और भागने की कोशिश करता है। यदि हम विचार को अपने मार्ग की ओर चलाना चाहते हैं तो हमारा मुख्य कर्त्तव्य यह है कि हम धैर्य धारण करें और अपने चंचल और अस्थिर विचारों को निरन्तर अपनी ओर खींचते रहें। बार बार हमें कुछ निराशा तथा अधीरता तो अवश्य होगी और हमारा चित्त चाहेगा कि निराश होकर छोड़ दें, परन्तु ऐसा करना सर्वदा अपने को हानि पहुंचाना है।

सबसे पहली बात जो मनमें बैठानी चाहिए, धैर्य है। उतावली करने से न कभी किसी को कुछ मिला है और न [  ] मिलने की कोई आशा है। शीघ्रता करने से काम खराब हो जाता है और काम खराब करने से तो यही अच्छा है कि काम को धीरे धीरे करो और सफलता पूर्वक करो। इसलिए पहले पहल अधिक करने की कभी कोशिश मत करो और न विचार ही विचार में समय नष्ट करो नहीं तो मन उसकी ओर न लगाने से थक जाएगा और फिर वह उस उत्तम कार्य के योग्य भी न रहेगा जो तुम्हारे सामने उपस्थित है। जो मनुष्य अपनी मानसिक शक्तियों को अपने आधीन नहीं कर पाया है वह वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य नहीं।

इसके अभ्यास करने का सबसे अच्छा ढंग यह है कि यदि हो सके तो प्रातःकाल कुछ समय नियत करलो और उसी समय मन को स्थिर करना प्रारम्भ करो पहले पहल केवल दस ही मिनट सही तत्पश्चात बीस मिनट तक। जब एक या दो सप्ताह हो जावें तो समय को बढ़ा लो और आध घण्टे तक ध्यान किया करो और इसी प्रकार मन एकाग्र करने का अभ्यास बढ़ाते जाओ।

मैं समझता हूं कि यह बहुत अच्छा होगा कि एक शब्द लो और उसी पर मन स्थिर करो। उदाहरणार्थ 'सहानुभूति' शब्द लीजिए। 'सहानुभूति' की सुन्दरता पर विचार करो, इसमें दूसरों को सुखी करने की कितनी शक्ति अव्यक्त है। किस प्रकार और कब वह दूसरों के साथ की जा सकती है। इसके भेद प्रभेद पर सब प्रकार से विचार करो। सम्भव है कि ऐसा करते समय तुम्हारा मन किसी अन्य बात की ओर [  ] चला जाए और तुम समझो, अहा ! यह तो बड़ा मनोरंजक है अब में इस पर विचार करूगा, परन्तु ऐसी भूल कभी न करना।

अपने मन को उसी तरफ फेर लो और उसी शब्द पर बराबर विचार करते रहो जिस पर पहले करते थे। यदि चाहो तो दूसरे सबेरे कोई दूसरा शब्द लेलो और फिर वह शब्द जीवन और स्वभाव से क्या सम्बन्ध रखता है, इसको सोचो। जब तक उस शब्द के गुण तुम्हारे जीवन में प्रवेश न कर जाऐं तब तक उसको न छोड़ो।

शनैः शनैः शब्दों से सिद्धान्तों तक पहुंच सकते हो और तुमको बहुत जल्दी मालूम हो जाएगा कि तुम अपने प्रातःकाल के ध्यान के विचार का अर्थ दैनिक व्यवहार में प्रयोग कर रहे हो, निस्सन्देह यह प्रयोग होता रहेगा और तुम जानोगे भी नहीं । ऐसा अवश्य होना ही चाहिए, क्योंकि जब गम्भीर विचार हम किसी बात पर करते हैं वह स्वभाव हो जाता है।

मैंने एक बार एक युवती को देखा था जोकि बड़ी मुश्किल से लिख पाती थी। बुरे लेख के कारण स्कूल में उसका सदैव निरादर हुआ करता था और उसके शिक्षकों को पूर्ण विश्वास हो गया था कि अब इसका लेख नहीं सुधर सकता और लड़की स्वयं भी निराश हो गई और बड़ी दुःखित थी। अब वह किसी छुट्टी के दिन अपनी सखी के यहां गई जिसने उसके दुःख को सुनकर पूछा कि बताओ तुम किस प्रकार लिखना चाहती हो। लड़की ने दुखी मन से उत्तर दिया, ओहो, मैं इसको नहीं जानती; मैं इसके मारे मरी जाती हूँ। मुझे उन कापियों के देखने से भी घृणा होती है। उसकी सहेली ने कहा अच्छा [  ] कापियों को जाने दो। अब तुम यह बताओ कि किसका लिखना सुन्दर है। लड़की ने जल्दी से जवाब दिया कि मेरे विचार से अमुक लड़की बहुत ही सुंदर लिखती है। यदि मैं उसके समान लिख सकू तो अच्छा हो परन्तु यह असम्भव है क्योंकि मेरे शिक्षक मुझ से कहा करते हैं कि तुम कभी भी सुन्दर नहीं लिख सकती। उसकी सखी ने कहा कि अब तुम अपने शिक्षकों की बात को बिल्कुल छोड़ दो, सब कापियों की सुध विसार दो सब दुःखों को भूल जाओ और अब अपने मन को उस सुन्दर लेख की तरफ़ लगाओ जिसकी कि तुम इतनी प्रशंसा करती हो। उसके अक्षरों को बार बार पढ़ो और प्रत्येक अक्षर के झुकाव पर भली प्रकार विचार करो। देखो उसमें क्या गुण है, अक्षर कैसा सुडौल और सुन्दर है। जब तुम लिखने को अपना कलम उठाओ तो मन में यह विचारो कि यही मेरा आदर्श है, इसी के सदृश मैं लिखना चाहती हूँ। दिन में कई बार उसकी बाबत विचार करो। यह सोचो कि तुम उसके अनुसार लिख रही हो और अब सोचो कि कैसी खुशी तुम्हे होगी जब तुम ऐसा लिख सकोगी।

लड़की ने प्रतिज्ञा की कि मैं अवश्य ही ऐसा करूँगी, क्योंकि यह बात उसके हृदय में बैठ गई थी और उसको उससे अत्यन्त प्रेम हो गया था। गर्मियों की छुट्टी के बाद वह स्कूल आई, उस समय उसका लिखना उसके शिक्षकों से अच्छा था। उस आदर्श ने वास्तव में उसको आदर्श का ही काम किया । यह बारम्बार किसी विषय पर विचारने की शक्ति और एक स्थिर आदर्श के प्रभाव का स्पष्ट उदाहरण है। [  ]ग्रन्थकार का कथन है कि मनुष्य अपने उच्च नीच विचारों के अनुसार अपनी उच्चनीच अवस्था में रहते हैं। उनका संसार इतना संकीर्ण और अन्धकार मय है जैसे कि उनके संकीर्ण और गन्दे विचार होते हैं। परंतु यदि विचार उदार और उत्तम हैं तो उनका कार्य भी बड़ा और सुन्दर है। उनके चारों ओर की वस्तु उन विचारों के रंग से रंग जाती है।

जिस प्रकार लड़की पहले अच्छा नहीं लिख सकती थी, परंतु ज्योंहीं आदर्श लेख को उसने अपने सामने रखा त्योहीं वह सुन्दर लिखना सीख गई, उसी प्रकार आत्मा के सामने भी कोई आदर्श चरित्र होना चाहिए जिसकी ओर बढ़ने का वह यत्न करे, यदि वह कुछ उन्नति करना चाहता है। पहले हमको अपने आत्म-बल की परीक्षा करनी चाहिए जिससे हम अपने आप को जान जाँए। मनुष्य का मन बहुत ही गम्भीर है और अपने आपका ज्ञान करना ऐसा सरल नहीं है जैसा कि पहले पहल दीखता है। यदि हम विचार अधिकार के बाबत थोड़ा भी जानना चाहते हैं तो पहले हमको अपना ज्ञान होना चाहिए। हम अपने विचारों के टुकड़े करें, अपनी इच्छाओं की संभाल करें और अपने से पूंछे कि हमने वह कहां और यह क्यों किया? हम फिर से गतदिन और घंटे को याद करें और अपने प्रत्येक कार्य को तराजू में तौलें। क्या हम ऐसा करने के लिए तैयार हैं? यदि हैं तो हमें प्रतिदिन आत्म-परीक्षा के लिए थोड़ा बहुत समय खर्च करना चाहिए जिससे हमें यह ज्ञान हो जाए कि हम क्या हैं और कहाँ हैं? अपनी आत्मा पर सत्यता का पूर्ण प्रकाश डालने से मत डरो, जो कुछ तुम्हें उस समय प्राप्त हो उसे स्वीकार [  ] करने से मत झिझको। याद रखो आदर्श तक पहुंचना अपने आपको मालूम करना है जो कुछ हम हैं इस अवस्था से उस दर्जे पर जाना है जैसे कि हम होना चाहते हैं। आत्मा में किसी वस्तु के प्राप्त करने की इच्छा को अभिलाषा कहते हैं हाथों का फैलाना किसी उत्तम और उच्च वस्तु के प्राप्त करने की इच्छा को दर्शाता है। क्योंकि जब दृष्टि आदर्श पर नहीं होती है तो मनुष्य नाश को प्राप्त होता है।

जब हमें आत्म-परीक्षा से यह बात ज्ञात हो जाए कि हम क्या है और कहां हैं तो फिर हमें अपने आदर्श को स्थिर कर लेना चाहिए और उसको अपने सामने रखकर एकाग्र मन से उसकी ओर ध्यान लगाना चाहिए। यदि हम इस प्रकार नित्य प्रति करते रहेंगे तो अवश्य ही अपने आदर्श के सदृश हो जाएँगे, यही हमारी कोशिशों का प्रतिफल होगा।

 

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।