रक्षा बंधन/४-सहचर

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[ २४ ]सहचर

( १ )

ठाकुर कामतासिंह एक जमींदार हैं। लगभग पांच सहस्र रुपये वार्षिक के मालगुजार हैं। कुछ गांव सोलहो आने हैं और कुछ में हिस्से हैं।

कामतासिंह उन अधिकांश जमींदारों में से हैं जिनके कारण जमीदारी पेशा बदनाम है। बल्कि यदि देखा जाय तो वह अन्य जमींदारों से दो-चार कदम आगे ही बढ़े हुए हैं।

जैसा कि नियम है ऐसे जमींदारों के शत्रु भी उत्पन्न हो जाते हैं। उनके द्वारा पीड़ित लोगों को अन्य जमींदार अथवा ग्रामीण भड़काया करते हैं। ऐसों में प्रायः ऐसे लोग भी होते हैं जिनका कोई निजी स्वार्थ होता है—अर्थात ऐसे छोटे अथवा दुर्बल जमींदार, जिनका प्रभाव उक्त जमींदार के सामने नगण्य होता है। स्वयं उनकी प्रजा भी उक्त जमींदार के सामने उनका कोई महत्व नहीं समझती। अथवा वे लोग जो स्वयं उक्त जमींदार से पीड़ित होते हैं, और स्वयं अलग रहकर किसी दूसरे के द्वारा अपनी प्रतिशोधाग्नि को शान्त करना चाहते हैं।

संध्या का समय था। कामतासिंह अपने बड़े तथा पक्के भवन के सामने के प्रांगण में बैठे हुए थे। प्रांगण में तीन तख्त बिछे हुए थे, इनमें से एक पर गद्दी तकिया लगा हुआ था इस पर कामतासिंह विराजमान [ २५ ] थे। दो तख्त आने-जाने वालों के लिए बिछे हुए थे। इनके अतिरिक्त कुछ मोढ़े तथा लकड़ी और लोहे की कुर्सियां भी रक्खी हुई थीं।

कामतासिंह के पास कई आदमी बैठे हुए थे कुछ मोढ़ों और कुर्सियों पर तथा कुछ तख्त पर। ठाकुर साहब के बगल में उन्हीं के तख्त पर एक शिकारी कुत्ता अपने अगले पैर फैलाये तथा उन पर मुँह रक्खे चुपचाप बैठा था। ठाकुर साहब अपना बायाँ हाथ उस पर फेर रहे थे।

ठाकुर साहब की वयस ४० वर्ष के लगभग थी। हृष्ट-पुष्ट, दीर्घ-काय तथा बलवान व्यक्ति जान पड़ते थे। मुख पर कर्कशता, आँखें कुछ उबली हुई तथा आरक्त! एक अधेड़ सज्जन कह रहे थे—"आप कहीं जाया करें। तो हाथी पर जाया करें।"

"सो तो हम जाते ही हैं, परन्तु सच्ची बात तो यह है कि जब तक उसकी मरजी न होगी कोई बाल बाँका नहीं कर सकता।"

"यह तो पक्की बात है ठाकुर!" दो-तीन व्यक्ति बोल उठे।

अधेड़ सज्जन बोले—"यह तो हई है, इसमें कोई क्या कह सकता है; परन्तु उपाय करना भी आवश्यक है।"

"सो क्यों नहीं! उपाय न करे और भगवान को दोष दे—वही कहावत है कि 'चलनी में दूध दुहै और करम को दोष दे।"

"सो उपाय तो हम रखते हैं। यदि कहीं हम अकेले भी पड़ जायँ और यह शिकार हमारे साथ हो तो दस-बारह लठैत हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।"

"यह बात तो है ठाकुर! यह शिकारी बड़ा होशियार है। कुत्ते सभी होशियार होते हैं, पर यह शिकारी बड़ा बेढब है। कोई आपकी तरफ जरा घूर कर भी देखता है तो यह चौकन्ना हो जाता है।

"उस दिन एक आसामी आया, वह हमसे बात करते-करते जरा जोर से बोलने लगा—सो बस इसने त्योरी बदली। इसके त्योरी बदलते ही आसामी का बोल बन्द हो गया—फिर वह जोर से नहीं बोला।" [ २६ ]"आप इसकी सेवा-बरदस्त भी तो बहुत करते हैं—अपने बाल-बच्चों की तरह रखते हैं।"

"मैं अपने सामने इसे खिलाता हूँ, नौकर का भरोसा नहीं करता। मेरी चारपाई के पास ही इसका खटोला रहता है उसी पर सोता है।"

"बताओ! इतनी बरदास्त कौन कर सकता है!"

“सेर भर तो गोश्त पाता है, आधा सेर सबेरे और आध सेर साँझ को और दो सेर दूध—सेर भर तड़के, जहाँ भैंसें दुही गई बस पहिले यह छक लेता है और इसी तरह सेर भर सांझ को। और बीच-बीच में टुँगार पाता रहता है कोई लड़का-बच्चा खाने बैठा उसके पास बैठ गया—उनसे कुछ पा गया।"

"हां, हर वक्त छका रहता है।"

"शिकार में जाता है तब इसे देखो। जिस खरगोश या हिरन को देख लेगा बस फिर वह सायत ही निकल जा सके, नहीं तो यह मार ही लेता है।"

"हिरन के बराबर दौड़ लेता है?"

"बड़े मजे से।"

"तभी तो आपने इसका नाम भी 'सिकारी' रक्खा है।"

"यह कुत्ता भी शिकारी जाति का है।"

"जरूर होयगा। देखिये, कुछ चौकन्ना है और हम लोगों को गौर से देख रहा है।"

"यह समझ गया कि हम लोग इसके सम्बन्ध की बात कर रहे हैं। क्यों बे?"

यह कहकर ठाकुर साहब ने उसे थपथपाया। शिकारी ने कान दाब कर दुम हिलाते हुए ठाकुर साहब की ओर देखा और तत्पश्चात पुनः मुँह घुमाकर हाँफने लगा।

ठाकुर बोले—"हमें थोड़ा-बहुत खटका ठाकुर ध्यानसिंह से है और किसी से हमें भय नहीं हैं।"

"बड़ा पाजी ठाकुर है।" [ २७ ]"पाजी तो खैर हई है। सामने नहीं आता—छिपे छिपे वार करना चाहता है। इसी मारे उससे खटका है। सामने आकर वार करने वाले से खटका नहीं होता। खटका तो इन नागों से है जो छिपकर काटना चाहते हैं।"

"यही बात है ठाकुर!"

( २ )

उधर ठाकुर ध्यानसिंह कामतासिंह के अन्यतम शत्रु थे। छोटे जमींदार थे। कामतासिंह के मारे उनकी जमींदारी मिट्टी हो रही थी। उनका कुछ भी प्रभाव नहीं था। खास उनकी ही जमींदारी के आदमी उनकी अवहेलना करते थे। कोई काम पड़ता था तो कामतासिंह के आदमी उनकी जमींदारी के आदमियों को बेगार में पकड़ ले जाते थे। न ध्यानसिंह में इतनी शक्ति थी कि वह कुछ हस्तक्षेप करें और न गांव वाले ही उनके कहने से विरोध करने को उद्यत होते थे। बल्कि प्रायः वे स्वच्छा से ही ध्यानसिंह के रोकते रहने पर भी कामतासिंह के काम पर चले जाते थे।

कोई पारस्परिक झगड़ा होता था तो उसका भी न्याय कामतासिंह से ही कराते थे ध्यानसिंह से बात भी न करते थे। यद्यपि कामतासिंह बहुधा न्याय के बहाने अन्याय ही करते थे, परन्तु तब भी गांव वाले कामतासिंह के पास जाते थे।

कामतासिंह का इतना आतङ्क, इतना प्रभाव ध्यानसिंह को असह्य हो रहा था। वह मन ही मन भुना करते थे, परन्तु विवश थे।

दोपहर का समय था। ध्यानसिंह अपने घर के बाहरी भाग में बैठे हुए थे। इस समय वह अकेले थे। इसी समय उनके पास एक २८, २९ वर्ष का हृष्ट-पुष्ट कसरती जवान पहुँचा उसे देखकर ध्यानसिंह बोले—"क्या है रामचरन? कैसे आये?"

रामचरण उनके सामने उकड़ूं बैठ गया और बोला—"आपके पास फरियाद लाये हैं, मालिक!" [ २८ ]"फरियाद मेरे पास! कामतासिंह के पास जाओ—वही तुम लोगों का न्याओ करते हैं। हम काहे में हैं।"

"आप क्यों नहीं हैं सरकार, जमींदार तो आप ही हैं।"

"हाँ, खाली पसा लेने भरके, बाकी हुकुम तो यहाँ कामतासिंह का ही चलता है। झूठ कहते हैं?"

"नहीं सरकार, कहते तो आप सच्ची ही हैं। गाँव की यह दशा न होती तो कामतासिंह की मजाल थी कि हमारे गाँव पर टेढ़ी निगाह डाल सके। पर गाँव तो बिगड़ा ही हुआ है सरकार कामतासिंह का बोलबाला है। पर अब तो हद होगई।"

"क्या हुआ?"

"अब इज्जत पाबरू पर भी नौबत आगई सरकार! हम जात के अहीर जरूर हैं; पर इज्जत आबरू तो हमारी भी है सरकार।"

"हाँ क्यों नहीं! इज्जत-आबरू तो सब की है चाहे जिस जात का हो" ध्यानसिंह ने उत्सुकता पूर्वक कहा।

"और कोई चाहे सह ले पर हम तो नहीं सहेंगे।"

"सहना भी न चाहिए। यह तो मैं सदा कहता आया हूँ, पर मेरी बात ही कोई नहीं सुनता। परन्तु बात क्या हुई, पहिले यह तो बताओ।"

"कामतासिंह ने हमारी आबरू ले ली सरकार।"

ध्यानसिंह लेटे हुए थे, उठकर बैठ गये और बोले–"क्या बात हुई है।"

"कल साँझ को हमारी जवान बहिन को, जब कि वह बाहर (शौच को) गई हुई थी कामतासिंह के आदमी उठा ले गये रात भर उसे रक्खा, सबेरे फिर यहीं छोड़ गये।"

"आँय!" ध्यानसिंह ने नेत्र विस्फारित करके कहा।

"हाँ मालिक! हम तो किसी काम के नहीं रहे सरकार।"

यह कहते कहते रामचरण रो पड़ा।

"यह तो बड़ा गजब किया हराम जादे ने।" [ २९ ]"कुछ पूछिये नहीं सरकार, कलेजे में आग लगी है; यही लौ लगी है कि या तो उसकी जान ले लें या अपनी जान दे दें। पर एक तो गरीब आदमी ठहरे दूसरे सारा गाँव और पुलिस कामतासिंह के कब्जे की है। हमारी सहायता करने वाला कोई नहीं है सरकार!"

ध्यानसिंह का मस्तिष्क सक्रिय हो गया। उन्होंने देखा कि कामतासिंह से बदला लेने के लिए रामचरण एक अच्छा प्रश्न बन सकता है। अतः वह बोले—"यह तो बड़ा गजब हो गया रामचरन! इस बेइज्जती से तो मर जाना अच्छा है। गाँव वालों को तो यह हाल मालूम हो गया होगा।"

"सब को नहीं तो हमारे पास-पड़ोसियों को तो मालूम ही हो गया, पर कामतासिंह के डर के मारे कोई सनक नहीं रहा है सब अनजान बने घूम रहे हैं, पर आपस में खुसुर-फुसुर चल रही है। इसी से हमने समझा है कि उन्हें पता लग गया।"

"तब तो अब तुम्हें चुप नहीं बैठना चाहिए इससे ज्यादा बेइज्जती और नहीं हो सकती। बेइज्जत होकर जिये तो क्या जिये!"

"बात तो सरकार यही है। इसलिए हम सरकार के पास आये हैं कि अब जैसा सरकार हुकुम दें वैसा करें।"

ध्यानसिंह कुछ क्षण सोच-विचार करने के पश्चात् बोले—"हिम्मत है?"

"सो तो जैसी आप सलाह देंगे वैसा होगा चाहे प्राण भले ही चले जाँय!"

"अच्छा तो सुनो!"

इसके पश्चात् दोनों में बहुत ही धीमे स्वर में वार्तालाप होने लगा।

( ३ )

वार्तालाप करने के पश्चात् ध्यानसिंह बोले—"खूब अच्छी तरह होशियारी से काम करना। पहिले उनका सब बखत कि किस समय क्या करते हैं, कहां रहते हैं, कहां जाते हैं। इन सब बातों को समझ [ ३० ] लेना। बस! निकल भर आना—फिर हम सब ठीक कर लेंगे।"

"देखिये भगवान के हाथ बात है।" यह कहकर रामचरण चल दिया।

तीन दिन व्यतीत होगये।

कामतासिंह शाम को झुट-पुटे के लगभग शौच के लिए बाहर निकला करते थे। साथ में दो लठ बन्द जवान और 'शिकारी' रहता था।

आज भी कामतासिंह उसी समय उसी प्रकार शौच के लिए निकले।

एक स्थान पर पहुँच कर कामतासिंह ने साथ के आदमी के हाथ से जल का लोटा ले लिया और आगे बढ़कर जुवार के खेत के पीछे एक खुले मैदान में चले गये। शिकारी तथा दोनों आदमी उसी स्थान पर खड़े रहे। शिकारी भूमि सूँघता हुआ इधर-उधर टहलने लगा।

ठाकुर के जाने के दस मिनट पश्चात् ही जिधर ठाकुर गये थे उस ओर से ठाकुर का कण्ठ-स्वर सुनाई पड़ा। उन्होंने एक बार पुकारा "शिकारी।"

शिकारी तुरन्त चौकन्ना हो गया! एक क्षण के लिए उसने उस ओर देखा और दूसरे ही क्षण वह झपटकर उस ओर दौड़ा आगे। पहुँच कर उसने देखा कि कामतासिंह रक्त से लथपथ भूमि पर लोट रहे हैं और एक व्यक्ति भागा जा रहा है। शिकारी तुरन्त उस भागते हुए आदमी के पीछे दौड़ पड़ा। वह व्यक्ति कठिनता से बीस पचीस गज के फासले पर गया होगा कि पीछे से शिकारी उस पर टूट पड़ा। शिकारी के फांदने से वह व्यक्ति झोके में मुँह के बल गिरा परन्तु तुरन्त ही घूमकर खड़ा होने लगा। इसी समय शिकारी ने उसका गला पकड़ लिया। व्यक्ति के हाथ में छुरा था। उसने उससे दो बार तो किये, परन्तु फिर वह शिथिल पड़ गया और उसके हाथ से छुरा छूट पड़ा।

शिकारी ने दो-तीन झटके देकर उसका काम तमाम कर दिया।

यह व्यक्ति रामचरण अहीर था। शिकारी के शरीर से रक्त की [ ३१ ] धारा बह रही थी। रामचरण को छोड़कर वह लौटा—थोड़ी दूर चला और गिर पड़ा, फिर उठकर चला फिर गिरा इस प्रकार तीन बार गिर उठकर वह कामतासिंह से तीन गज की दूरी पर पहुँच गया। दोनों लट्ठबन्द हक्का-बक्का से कामतासिंह के पास खड़े थे। सहसा एक उनमें से बोला—"यह तो ठण्डे हो गये। जल्दी जाकर गाँव में खबर करो।"

वह आदमी उधर गया। उधर शिकारी पेट के बल घिसट कर कामतासिंह की लाश की ओर जाने लगा। खड़ा हुआ व्यक्ति मन्त्रमुग्ध की भांति 'शिकारी' की ओर ताक रहा था।

अब कामतासिंह की लाश शिकारी से एक गज की दूरी पर रह गई थी। शिकारी शिथिल होकर निश्चेष्ट हो गया। कुछ क्षण तक वह पड़ा रहा। उस व्यक्ति ने समझा कि 'शिकारी' भी समप्त होगया। परन्तु सहसा शिकारी ने अपना अन्तिम बल लगाया। दो झटकों में वह घिसट कर कामतासिंह की लाश के निकट पहुँच गया। लाश के निकट पहुँच कर उसने लाश की छाती पर अपना मुँह रख दिया और इसी समय उसके प्राण पखेरू उड़ गये।