रघुवंश/१६—कुश की राज्यप्राप्ति, अयोध्या का फिर से बसना, ग्रीष्म का आगमन और जलविहार आदि

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सोलहवाँ सर्ग।

कुश की राज्यप्राप्ति, अयोध्या का फिर से बसना,

ग्रीष्म का आगमन और जलविहार आदि।

रामचन्द्र आदि चारों भाइयों के दो दो पुत्र मिला कर सब पाठ भाई हुए। इन रघुवंशी वीरों में उम्र के लिहाज़ से और गुणों के भी लिहाज़ से कुश ही सब से बड़ा था। अतएव, उसके अन्य सातों भाइयों ने उसी को श्रेष्ठता दी और उत्तमोत्तम पदार्थों का अधिकांश भी उसी के पास जाने दिया । भाई भाई में प्रीति का होना रघुवंशियों के कुल की रीति ही थी । अतएवं, इन लोगों में, किसी भी वस्तु के लिए, कभी भी, परस्पर झगड़ा-फ़िसाद न हुआ। ये आठों भाई बड़े ही प्रतापी हुए । जिस तरह समुद्र अपनी तटवर्तिनी भूमि से कभी आगे नहीं बढ़ता उसी तरह इन आठों भाइयों ने भी, अपने राज्य की सीमा का उल्लङ्घन करके, कभी अपने अन्य भाइयों की राज्य की सीमा के भीतर कदम न रक्खा । विशेष करके जङ्गली हाथियों को पकड़ने, नदियों पर पुल बनवाने, खेती और बनिज-व्यापार की रक्षा करने आदि ही में इन्होंने अपने पुरुषार्थ का उपयोग किया; और, इन कामों में इन्हें

सफलता भी हुई। चतुर्भुज विष्णु के अवतार रामचन्द्रजी से उत्पन्न हुआ, इन लोगों का वंश, सामयोनि-सुरगजों के समान, आठ शाखाओं में बँट कर, खूब फैल गया । सामवेद का गान करते समय ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए सुरगजों के वंश की तरह इनके वंश की भी बहुत बाढ़ हुई । इनके वंश ने बाढ़ में भी सुरगजों की बराबरी की और दान में भी । सुरगज जिस तरह दान ( मद की धारा ) ब्रहाने में निरन्तर प्रवृत्त रहते हैं उसी तरह इनका [ ३०७ ]
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वंश भी दान देने ( खैरात करने ) में सदा ही प्रवृत्त रहा। इस वंश के नरेश बड़े ही दानी हुए।

एक दिन की बात सुनिए । आधी रात का समय था। दीपक मन्द मन्द जल रहे थे। सब लोग सो रहे थे । केवल राजा कुश अपने सोने के कमरे में जाग रहा था। उस समय उसे, प्रोषितपतिका के वेश में, अकस्मात्, एक ऐसी स्त्रो देख पड़ी जिससे वह बिलकुल ही अपरिचित था-जिसे उसने कभी पहले न देखा था। उसकी वेशभूषा परदेशी पुरुषों की स्त्रियों के सदृश थी । वह इन्द्र-तुल्य तेजस्वी, शत्रुओं पर विजय पाने वाले, सज्जनों के लिए भी अपनी ही तरह अपने राज्य की ऋद्धियाँ सुलभ कर देने वाले, बहु-कुटुम्बी, राजा कुश के सामने, जय-जयकार करके, हाथ जोड़ खड़ी हो गई।

दर्पण के भीतर छाया की तरह उस स्त्री को बन्द घर के भीतर घुस आई देख, दशरथ-नन्दन के बेटे कुश को बड़ा विस्मय हुआ। उसने मन में कहा कि दरवाज़े तो सब बन्द हैं, यह भीतर आई तो किस रास्ते आई! आश्चर्यचकित होकर उसने अपने शरीर का ऊपरी भाग पलँग से कुछ ऊपर उठाया और उस स्त्री से इस प्रकार प्रश्न करने लगा:-

'क्या तू योगविद्या जानती है जो दरवाजे बन्द रहने पर भी तू इस गुप्त स्थान में आ गई ? तेरे आकार और रंग-ढंग से तो यह बात नहीं सूचित होती; क्योंकि तेरा रूप दीन-दुखियों का सा है; और, योगियों को कभी दुःख का अनुभव नहीं होता। तू तो शीत के उपद्रव से मुरझाई हुई कमलिनी का सा रूप धारण किये हुए है । हे कल्याणी ! बता तू कौन है ? किस की स्त्री है ? और, किस लिए मेरे पास आई है ? परन्तु, इन प्रश्नों का उत्तर देते समय तू इस बात को न भूलना कि रघुवंशी जितेन्द्रिय होते हैं । दूसरे की स्त्री की तरफ वे कभी आँख उठा कर नहीं देखते; उनका मन पर-स्त्री से सदा ही विमुख रहता है।"

यह सुन कर वह बोली:-

"हे राजा! आपके पिता जिस समय अपने लोक को जाने लगे उस समय वे अपनी निर्दोष पुरी के निवासियों को भी अपने साथ लेते गये । अतएव, वह उजाड़ हो गई । मैं उसी अनाथ अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी [ ३०८ ]
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हूँ। एक दिन वह था जब मैं प्रखर-प्रतापी और विश्वविख्यात राजाओं की राजधानी थी। मेरे यहाँ नित नये उत्सव हुआ करते थे । अपनी विभूति से मैं अलकापुरी को भी कुछ न समझती थी। परन्तु हाय ! वही मैं, प्राज, तुझ सर्वशक्तिसम्पन्न रघुवंशी के होते हुए भी, इस दीन दशा को पहुँच गई हूँ। मेरी बस्ती के परकोटे टूट-फूट गये हैं। उसके मकानों की छतें गिर पड़ी हैं। उसके बड़े बड़े सैकड़ों महल खंडहर हो गये हैं । विना मालिक के इस समय उसकी बड़ी ही दुर्दशा है । आज कल वह डूबते हुए सूर्य और प्रचण्ड पवन के छितराये हुए मेघों वाली सन्ध्या की होड़ कर रही है। कुछ दिन और ऐसी दशा रहने से उसके भग्नावशेषों का भी नामोनिशान न रह जायगा; सन्ध्या -समय के बादलों की तरह वे भी विनष्ट हो जायेंगे।

“जिन राजमार्गों में दीप्तिमान नूपुरों का मनोहारी शब्द करती हुई स्त्रियाँ चलती थीं वहाँ अब शोर मचाती हुई गीदड़ी फिरा करती हैं। चिल्लाते समय उनके मुँह से आग की चिनगारियाँ निकलती हैं। उन्हीं के उजेले में वे मुर्दा जानवरों का पड़ा पड़ाया मांस ढूँढ़ा करती हैं।

"वहाँ की बावलियों का कुछ हाल न पूछिए। जल-विहार करते समय उनका जो जल, नवीन नारियों के हाथों का आघात लगने से, मृदङ्ग के समान गम्भीर ध्वनि करता था वही जल, अब, जङ्गली भैंसों के सींगों से ताड़ित होकर, अत्यन्त कर्णकर्कश शब्द करता है।

"बेचारे पालतू मोरों की भी बुरी दशा है । पहले वे बाँस की छतरियों पर आनन्द से बैठते थे। पर उनके टूट कर गिर जाने से उन्हें अब पेड़ों पर ही बैठना पड़ता है। मृदङ्गों की गम्भीर ध्वनि को मेघ गर्जना समझ कर पहले वे मोद-मत्त होकर नाचा करते थे । पर, अब वहाँ मृदङ्ग कहाँ ? इससे उन्होंने नाचना ही बन्द कर दिया है। दावाग्नि की चिनगारियों से उनकी पूछे तक जल गई हैं। कुछ ही बाल उनमें अब बाकी हैं। हाय हाय ! घरों में बड़े सुख से रहने वाले ये मार, इस समय, जङ्गली मोरों से भी बुरी दशा को प्राप्त हो रहे हैं।

" आप जानते हैं कि अयोध्या की सड़कों पर, जगह जगह, सीढ़ियाँ

  • किवदन्ती है कि शृगालियां लिप समय ज़ोर से चिल्लाती हैं उस समय उनके मुह से भाग निकलती है। [ ३०९ ]
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बनी हुई हैं। उन पर, पहले, रम्यरूप रमणियों के महावर लगे हुए, कमल कोमल पैरों का सञ्चार होता था। पर, आज कल, बड़े बड़े बाघ, मृगों को तत्काल मार कर, उनका लोहू लगे हुए अपने पजे, सीढ़ियों पर रखते हुए, उन्हीं सड़कों पर बेखटके घूमा करते हैं।

"अयोध्या की दीवारों आदि पर जो चित्रकारी है उसकी भी दुर्गति हो रही है। कहीं कहीं दीवारों पर हाथियों के चित्र हैं। उनमें यह भाव दिखाया गया है कि हाथी कमल-कुञ्जों के भीतर खड़े हैं और हथनियाँ उन्हें मृणाल-तन्तु तोड़ तोड़ कर दे रही हैं। परन्तु अब वह पहली अयोध्या तो है नहीं । अब तो वहाँ शेर घूमा करते हैं । अतएव वे जब इन चित्र-लिखित हाथियों को देखते हैं तब उन्हें सजीव समझ कर उन पर टूट पड़ते हैं और उनके मस्तकों को अपने नाखूनों से विदीर्ण कर डालते हैं। इन क्रोध से भरे हुए शेरों के प्रहारों से उन चित्रगत हाथियों की रक्षा करने वाला, हाय ! वहाँ अब कोई नहीं।

"खम्भों पर खुदी हुई स्त्रियों की मूर्तियाँ वहाँ कैसी भलो मालूम होती थी। परन्तु, अब, उनका रंग, कहीं कहीं, उड़ गया है और उनमें बेहद धुंधलापन आ गया है। जिन खम्भों पर ये मूर्तियाँ हैं उन पर साँप लिपटे रहते हैं । वे अपनी केंचुलें वहीं, मूर्तियों पर ही, छोड़ देते हैं । वे केंचुलें, इस समय, उन मूर्त्तिमती स्त्रियों की चोलियाँ बन रही हैं।

"अयोध्या के विशाल महलों की भी दशा, इस समय, बहुत ही बुरी है। उन पर घास उग रही है । पलस्तर का चूना काला पड़ गया है, उस पर काई लग गई है। इस कारण, मोतियों की लड़ो के समान निर्मल भी चन्द्र-किरणे, अब, उन पर नहीं चमकती।

"हाय ! हाय ! अपने फूल-बागों की लताओं की दुर्गति तो और भी मुझ से नहीं देखी जाती । एक समय था जब विलासवती बालायें उनकी डालों को इतनी दयादृष्टि से देखती थीं कि टूट जाने के डर से उन्हें धीरे धीरे झुका कर उनके फूल चुनती थीं। परन्तु, आज कल, उनकी उन्हीं डालों को जङ्गलो बन्दर- पुलिन्द नामक असभ्य म्लेच्छों की तरह-तोड़ा-मरोड़ा करते हैं और उन्हें तरह तरह की पीड़ा पहुँचाते रहते हैं ।

"मेरी पुरी के झरोखों पर नज़र डालने से न तो रात को उनसे दीपक [ ३१० ]
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का प्रकाश ही दिखाई देता है और न दिन को कमनीय कान्ताओं की मुख-कान्ति ही का कहीं पता चलता है। ये बातें तो दूर रहीं, अब तो उन झरोखों से धुवाँ भी नहीं निकलता । वे, सारे के सारे, इस समय, मकड़ियों के जालों से ढक रहे हैं।

"सरयू को देख कर तो मुझे और भी दुःख होता है। उसके किनारे किनारे बनी हुई फूस और पत्तों की शालायें सूनी पड़ी हैं । घाटों पर पूजापाठ करने वालों का कहीं नामोनिशान तक नहीं है-पूजा की सामग्री कहीं हूँढ़ने पर भी नहीं दिखाई देती । स्नान के समय शरीर पर लगाने के लिए लाये गये सुगन्धित पदार्थों की अब कहीं रत्ती भर भी सुगन्धि नहीं आती । सरयू की यह दुर्गति देख मेरा कलेजा फटा जाता है।

"अतएव, कारणवश धारण की हुई मानुषी देह को छोड़ कर वैष्णवी मूत्ति का स्वीकार करनेवाले अपने पिता की तरह इस कुशावती नगरी को छोड़ कर आपको मेरा स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि मैंही आपके वंश के नरेशों की परम्परा-प्राप्त राजधानी हूँ। मेरा निरादर करना आपको योग्य नहीं।"

कुश ने अयोध्या के प्रणयानुरोध को प्रसन्नतापूर्वक मान लिया और बोला- "बहुत अच्छी बात है; मैं ऐसा ही करूँगा।" इस पर स्त्रीरूपिणी अयोध्या का मुख-कमल खिल उठा और वह प्रसन्नता प्रकट करती हुई अन्तर्धान हो गई।

प्रातःकाल होने पर, कुश ने, रात का वह अद्भुत वृत्तान्त, सभा में, ब्राह्मणों को सुनाया। वे लोग, सुन कर, बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा की बड़ी बड़ाई की । वे बोले :-

"रघुकुल की राजधानी ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर आपको अपना स्वामी बनाया । इसलिए आप धन्य हैं।"

राजा कुश ने कुशावती को तो वेदवेत्ता ब्राह्मणों के हवाले कर दिया; और, रनिवास-सहित आप, शुभ मुहूर्त में, अयोध्या के लिए रवाना हो गया। उसकी सेना भी उसके पीछे पीछे चली । अतएव वह मेघ-मण्डली को पीछे लिये हुए पवन के सदृश शोभायमान हुआ। उस समय उसकी वह सेना, उसकी चलती हुई राजधानी के समान, मालूम हुई। राजधानी [ ३११ ]
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में उपवन होते हैं; उसकी सेनारूपिणी राजधानी में भी फहराती हुई हज़ारों ध्वजायें उपवन की बराबरी कर रही थीं । राजधानी में घरही घर दिखाई देते हैं। उसकी सेना में भी रथरूपी ऊँचे ऊँचे घरों का जमघट था। राजधानी में विहार करने के लिए शैलों के समान ऊँचे ऊँचे स्थान रहते हैं; उसकी सेना में भी भीमकाय गजराजरूपी शैल-शिखरों की कमी न थी। अतएव, कुश की सेना को जाते देख ऐसा मालूम होता था कि वह सेना नहीं, किन्तु उसकी राजधानी ही चली जा रही है।

छत्ररूपी निर्मल मण्डल धारण किये हुए राजा कुश की आज्ञा से उसका कटक उसकी पहली निवास-भूमि, अर्थात् अयोध्या, की ओर क्रम क्रम से अग्रसर होने लगा। उस समय उसका वह चलायमान कटकउदित हुए, अतएव अमल मण्डलधारी, चन्द्रमा की प्रेरणा से तट की ओर चलायमान महा-सागर के सदृश-मालूम होने लगा। कुश की विशाल सेना की विशाल सेना की चाल ने पृथ्वी को पीड़ित सा कर दिया। ज्यों ज्यों राजा कुश अपनी संख्यातीत सेना को साथ लिये हुए आगे बढ़ने लगा त्यों त्यों पृथ्वी की पीड़ा भी बढ़ने सी लगी। वह उस पीड़ा को सहने में असमर्थ सी हो कर, धूल के बहाने, आकाश को चढ़ सी गई। उसने सोचा, आसमान में चली जाने से शायद मेरा क्लेश कुछ कम हो जाय । कुश का कटक इतना बड़ा था कि उसके छोटे से भी छोटे अंश को देख कर यही मालूम होता था कि वह पूरा कटक है। अतएव, रात भर किसी जगह रहने के बाद, प्रातःकाल, आगे बढ़ने के लिए तैयारी करते समय उसकी टोलियों को चाहे कोई देखे; चाहे आगे के पड़ाव पर, संध्या समय, उतरते हुए उन्हें कोई देखे; चाहे मार्ग में चलते समय उन्हें कोई देखे-देखने वाले कोवेटोलियाँ पूरेही कटक सी मालूम होती थीं। सेनानायक कुश की सेना में हाथियों और घोड़ों की गिनती ही न थी। हाथी मद से मतवाले हो रहे थे। उनकी कनपटियों से मद की धारा बहती थी । उसके संयोग से मार्ग की धूल को कीचड़ का रूप प्राप्त हो जाता था। परन्तु हाथियों के पीछे जब सवारों की सेना आती थी तब घोड़ों की टापों के आघात से उस कीचड़ की फिर भी धूल हो जाती थी।

धीरे धीरे कुश का वह कटक विन्ध्याचल के नीचे, उसकी तराई में, [ ३१२ ]
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पहुँच गया। वहाँ उसके कई भाग कर दिये गये। प्रत्येक भाग को इस बात का पता लगाने की आज्ञा हुई कि रास्ता कहाँ कहाँ से है और किस रास्ते जाने से आराम मिलेगा । अतएव, सेना की कितनी ही टोलियाँ तराई में रास्ता हूँढ़ने लगीं। उनका तुमुल नाद विंध्याचल की कन्दराओं तक के भीतर घुस गया। फल यह हुआ कि नर्मदा के घोर नाद की तरह, सेना के व्योमव्यापी नाद ने भी विन्ध्य-पर्वत की गुफ़ाओं को गुञ्जायमान, कर दिया। वहाँ पर किरात लोगों की बस्ती अधिक थी। वे लोग तरह तरह की भेंटें लेकर कुश के पास उपस्थित हुए। पर राजा ने उनकी भेटों को केवल प्रसन्नतासूचक दृष्टि से देख कर ही लौटा दिया । यथासमय वह विन्ध्याचल के पार गया। पार करने में एक बात यह हुई कि पर्वत के पास गेरू आदि धातुओं की अधिकता होने के कारण उसके रथ के पहियों की हालें लाल हो गई।

रास्ते में एक तो कटक के ही चलने से बेहद कोलाहल होता था। इस पर तुरहियाँ भी बजती थीं । अतएव दोनों का नाद मिल कर ऐसा घनघोर रूप धारण करता था कि पृथ्वी और आकाश को एक कर देता था।

विन्ध्य-तीर्थ में आकर कुश ने गङ्गा में हाथियों का पुल बाँध दिया। इस कारण पूर्व-वाहिनी गङ्गा, जब तक वह अपनी सेना-सहित उतर नहीं गया, पश्चिम की ओर बहती रही। हाथियों के यूथों ने धारा के बीच में खड़े होकर उसके बहाव को रोक दिया। अतएव लाचार होकर गङ्गाजी को उलटा बहना पड़ा । इस जगह हंस बहुत थे । कुश की सेना को उतरते देख वे वहाँ न ठहर सके । डर के मारे वे आकाश को उड़ गये। जिस समय वे अपने पंख फैला कर उड़े उस समय वे, राजा कुश के ऊपर, बिना यत्न के ही, चमर सा करते चले गये । नावों से हिलते हुए जल वाली गङ्गाजी को पार करके कुश ने भक्तिभावपूर्वक उसकी वन्दना की । उसे, उस समय, इस बात का स्मरण हो पाया कि इसी भागीरथी के पवित्र जल की बदौलत कपिलमुनि के कोपानल से भस्म हुए उसके पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी।

इस तरह कई दिन तक चलने के बाद नरनाथ कुश सरयू के तट पर पहुँच गया। वहाँ उसे यज्ञकर्ता रघुवंशी राजाओं के गाड़े हुए सैकड़ों यज्ञ-स्तम्भ, वेदियों पर खड़े हुए, देख पड़े। कुश के कुल की राजधानी [ ३१३ ]
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अयोध्या के उपवन वहाँ से दूर न थे। उन उपवनों की वायु ने देखा कि कुश थका हुआ है और उसकी सेना भी श्रम से क्लान्त है। अतएव, सरयू की शीतल लहरों को छूकर और फूलों से लदे हुए वृक्षों की शाखाओं को हिला कर वह आगे बढ़ कर कुश से मिलने के लिए दौड़ आई।

पुरवासियों के सखा, शत्रुओं के हृदयों को बाणों से छेदने वाले, अपने कुल में ध्वजा के सदृश उन्नत, महाबली कुश ने, उस समय, फहराती हुई पताकावाली अपनी सेना को अयोध्या के इर्द गिर्द उतार दिया। सेना को, इस प्रकार, आराम से ठहरा कर उसने असंख्य सामग्री इकट्ठी कराई। फिर उसने हज़ारों कारीगर--बढ़ई, लुहार, मेसन, चित्रकार आदि-बुला कर उजड़ी हुई अयोध्या का जीर्णोद्धार करने की उन्हें आज्ञा दी। स्वामी की आज्ञा पाकर उन्होंने अयोध्यापुरी को-जल बरसा कर ग्रीष्म की तपाई हुई भूमि को बादलों की तरह-फिर से नई कर दिया । तदनन्तर, उस रघुवंशी वीर ने सैकड़ों सुन्दर सुन्दर देव-मन्दिरों सेcसुशोभित पुरी में प्रवेश करने के पहले, वास्तुविधि के ज्ञाता विद्वानों को बुलाया। उन्होंने, राजा की आज्ञा से, पहले तो उपवास किया; फिर, पशुओं का बलिदान देकर यथाशास्त्र पुरी की पूजा की।

शास्त्र में निर्दिष्ट नियमों के अनुसार, हवन और पूजन आदि हो चुकने पर, कुश ने अयोध्या के राज-महल में-प्रेयसी के हृदय में प्रेमी के सदृश-प्रवेश किया। अपने मन्त्री, सेनापति, कोशाध्यक्ष आदि बड़े बड़े अधिकारियों को भी, उनकी प्रधानता और पद के अनुसार, बड़े बड़े महल और मकान देकर, उसने उन सब का भी यथोचित सम्मान किया। घुड़सालों में घोड़े बाँध दिये गये । गजसालों में, यथानियम गड़े हुए खम्भों से, हाथी बाँध दिये गये। बाज़ार की दुकानों में बिक्री की चीजें भी यथास्थान रख दी गई। उस समय सजी हुई अयोध्या-सारे अङ्गों में आभूषण धारण किये हुए सुन्दरी स्त्री के समान-मालूम होने लगी। उजड़ने के पहले वह जैसी थी वैसी ही फिर हो गई । उसकी पहली शोभा उसे फिर प्राप्त हो गई। रघुवंशियों की इस मनोरमणीय नगरी में निवास

करके, मैथिली-नन्दन कुश ने न अमरावती ही को कुछ समझा और न अलकापुरी ही को। इन दोनों नगरियों का राज्य पाकर उनका स्वामी [ ३१४ ]
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होने की इच्छा उसके मन में न उत्पन्न हुई। उसने अलका के स्वामी कुवेर और अमरावती के स्वामी इन्द्र के वैभव से भी अपने वैभव को अधिक समझा। फिर, भला, क्यों उसका जी इन लोगों की राजधानियों में निवास करने को चाहे ?

इतने में ग्रीष्म-ऋतु का आगमन हुआ। यह वह ऋतु है जिसमें रत्नटॅ के हुए डुपट्टे ओढ़े जाते हैं; लम्बे लम्बे हार धारण किये जाते हैं; और, वस्त्र इतने बारीक पहने जाते हैं कि साँस चलने ही से उड़ जायें । कुश की प्रियतमाओं को ऐसे ही वस्त्र और ऐसे ही हार धारण करने की शिक्षा देने ही के लिए मानों ग्रीष्म ने, इस समय, पाने की कृपा की ।

ग्रीष्म का आगमन होते ही भगवान भास्कर, अगस्त्य के चिह्न वाले अयन, अर्थात् दक्षिणायन, से प्रस्थान करके उत्तर दिशा के पास आ गये। अतएव, बहुत दिनों के बाद, सूर्य का समागम होने से, उत्तर दिशा के आनन्द की सीमा न रही । उसने आनन्द से शीतल हुए आँसुओं की वृष्टि के सदृश, हिमालय के हिम की धारा बहा दी । गरमी पड़ते ही हिमालय का बर्फ गल कर बहने लगा। इधर दिन का ताप बढ़ने लगा; उधर रात भी धीरे धीरे क्षीण होने लगी। अतएव, इस समय, दिन-रात की दशा उस पति-पत्नी के जोड़े के सदृश हो गई जिसने विरुद्ध आचरण करके पहले तो एक दूसरे को अप्रसन्न कर दिया हो; पर अलग हो जाने पर, पीछे से, जो पछताने बैठा हो। घर की बावलियों का जल, सिवार जमी हुई सीढ़ियों को छोड़ता हुआ, दिन पर दिन, नीचे जाने लगा । फल यह हुआ कि वह स्त्रियों की कमर तक ही रह गया और कमलों के नाल जल के ऊपर निकले हुए दिखाई देने लगे। उपवनों में, सायङ्काल फूलने वाली चमेली की कलियाँ जिस समय खिली, सारा वन उनकी सुगन्धि से महक उठा । अतएव, सब कहीं से भौरे दौड़ पड़े और एक एक फूल पर पैर रख कर इस तरह गुजार करने लगे मानों वे फूलों की गिनती कर रहे मानों, वे यह कह रहे हों कि एक का रस ले लिया, दो का रस ले लिया, तीन का रस ले लिया; अभी इतने और बाक़ी हैं।

कामिनियों के कमनीय कपोलों पर बेहद पसीना निकलने लगा। इस कारण उनके कान पर रक्खा हुआ सिरस का फूल यद्यपि कान से गिर पड़ा तथापि

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उसके केसर, पसीना निकले हुए कपोल पर, ऐसे चिपक गये कि बड़ी देर में वह वहाँ से छूट कर ज़मीन पर पहुँच सका। जब गरमी बहुत पड़ने लगी तब, दोपहर की लू से बचने के लिए, अमीर ऐसे मकानों में रहने लगे जिनमें जल के फ़ौवारे चल रहे थे । वहाँ पर चन्दन छिड़की हुई और पिचकारी आदि यन्त्रों के द्वारा जल-धारा से भिगोई हुई पत्थर की बहुमूल्य शिलाओं पर सोकर, उन्होंने, किसी तरह, गरमी से अपनी जान बचाई । स्नान करके स्त्रियाँ अपने गीले केश, सुगन्धित चूर्ण आदि उनमें लगाने और सायङ्काल खिलने वाली चमेली के फूल गूंथने के लिए, खुले ही छोड़ देने लगी । ऐसे केशों को देख कर उनके पतियों का प्रेम उन पर पहले की भी अपेक्षा अधिक हो गया।

इस ऋतु में अर्जुन नामक वृक्ष की मञ्जरी बहुत ही शोभायमान हुई । पराग के कणों से परिपूर्ण हो जाने के कारण उसमें एक प्रकार की लालिमा आ गई। उसे देख कर ऐसा मालूम होने लगा जैसे रतिपति को भस्म करने पर भी महादेवजी का क्रोध शान्त न हुआ हो। अतएव उन्होंने काम के धनुष की प्रत्यञ्चा भी तोड़ डाली हो और यह वही टूटी हुई प्रत्यञ्चा हो, अर्जुन की मञ्जरी नहीं ।

इस ऋतु में रसिक जनों को अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं । परन्तु ग्रीष्म ने मनोहारी सुवास से परिपूर्ण श्राम की मञ्जरी, पुरानी मदिरा और पाटल के नये फूलों की प्राप्ति कराकर उन सारे कष्टों का प्रतीकार कर दिया । इन पदार्थों के सेवन से होने वाले सुख ने ग्रीष्म-सम्बन्धी अन्य सारे दुःखों का विस्मरण करा दिया।

इस महासन्तापकारी समय में, उदय को प्राप्त हुआ वह राजा और चन्द्रमा, ये दोनों ही प्रजा के बहुतही प्यारे हुए। राजा तो इस लिए कि वह अपनी पादसेवा से प्रजाजनों के दुःख और दरिद्र आदि से सम्बन्ध रखने वाला सारा ताप दूर करनेवाला था। और, चन्द्रमा इसलिए कि वह अपनी पाद-सेवा (किरण-स्पर्श ) से उन लोगों का उष्णता-सम्बन्धी सारा ताप नाश करनेवाला था।

ग्रीष्म की गरमी से तङ्ग आकर राजा कुश की इच्छा हुई कि रनिवास को साथ लेकर सरयू में जलविहार करना चाहिए । सरयू में स्नान करना, उस समय, सचमुचही अत्यन्त सुखदायक था। उसके तीर पर जो लतायें [ ३१६ ]
था उनसे गिरे हुए फूल उसमें वह रहे थे और लहरों के लोभी मत्त राजहंस उसमें कलोलें कर रहे थे। जल-विहार का निश्चय करके पहले तो चक्रधारी भगवान् विष्णु के समान प्रभाववाले राजा कुश ने जाल डलवा कर सरयू के सारे मगर और घडियाल निकलवा डाले। फिर उसके तीर पर सैकड़ों तम्बू उसने तनवा दिये। तदनन्तर उसने अपनी प्रभुता और महिमा के अनुसार, राजसी ठाठ से, उसमें विहार करना प्रारम्भ कर दिया।

राजा कुश के रनिवास की स्त्रियाँ किनारे पर लगे हुए पट-मण्डपों से एकही साथ निकल पड़ी और पैरों में पहने हुए नूपुरों का शब्द करती हुई नदी की सीढ़ियों से नीचे उतरने लगीं। उस समय वे इस तरह पास पास भिड़ कर उतरी कि एक दूसरी के भुजबन्द परस्पर रगड़ गये। जहाँ वे जल में कूद कर मनमाना विहार करने लगी वहाँ नदी के भीतर कलोलें करने वाले हंस भयभीत होकर भाग गये।

स्त्रियों में परस्पर छींटों की मार होने लगी। यह देख कर राजा का जी ललचा उठा। उसने अपने लिए एक नाव मॅगाई। उसी पर बैठ कर वह उन स्त्रियाँ के नहाने का तमाशा देखने लगा। उस समय उसके पास खड़ी हुई एक किरात-कान्ता उस पर चमर कर रही थी। मौज मैं आकर राजा उससे इस प्रकार कहने लगाः-

"देख, मेरे रनिवास की सैकड़ों स्त्रियाँ किस तरह प्रमोदमत्त होकर विहार कर रहीं हैं। उनके अङ्गों पर लगे हुए सुगन्धित पदार्थ-चन्दन, कस्तूरी आदि-छूट कर लहरों के साथ बहते चले जा रहे हैं। उनके मिश्रण से सरयू का जल-लाल, पीले बादल बिखरे हुए सन्ध्या-समय के सदृशरङ्ग-बिरङ्गी शोभा दिखा रहा है। नावों के हिलाये हुए सरयू के सलिल ने मेरे अन्तःपुर की सुन्दरी नारियों की आँखों के जिस अञ्जन को धो डाला था उसी को उसने फिर उन्हें लौटा सा दिया है। इनकी आँखों में यौवन के मद से छाई हुई लालिमा की शोभा को सरयू के कम्पमान जल ने जो बढ़ा दिया है उससे यही मालूम होता है कि उसने उनका अञ्जन फिर उन्हीं को दे दिया और कह दिया-लो तुम्हारा अञ्जन तुम्हीं को मुबारक रहे; मुझे न चाहिए। पानी और अजन का साथ कितने दिन तक रह सकता है ?

इन लोगों के शरीर के कुछ अवयव बहुत भारी हैं। उनके भारी[ ३१७ ]
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रघुवंश।

पन के कारण, तैरते समय, ये आसानी से आगे नहीं बढ़ सकती। फिर भी, जल में खेल-कूद का इन्हें इतना चाव है कि दुःख सह कर भी ये गाढ़े भुजबन्द बंधी हुई अपनी बाहों से तैर रही हैं। वारि-विहार करते समय इन लोगों के सिरस फूल के गहने इनके कानों से गिर गये हैं। उन्हें नदी की धारा में बहते देख मछलियों को बड़ा धोखा होता है। क्योंकि उन्हें सिवार बहुत पसन्द है । अतएव इन गहनों को सिवार ही समझ कर मछलियाँ इन्हें पकड़ने दौड़ती हैं और धोखा खाती हैं । उमङ्ग में आकर ये स्त्रियाँ अपने हाथों से जल को कैसा उछाल रही हैं । ज़ोर से जल उछाले जाने के कारण, मोती के समान बड़े बड़े जल कणों की वर्षा इनके वक्षःस्थल पर हो रही है। इससे, यद्यपि इनके हार टूट कर गिरने ही चाहते हैं तथापि इन्हें इस बात की कुछ खबर ही नहीं। जल-कणों और हार के मोतियों में तुल्यता होने के कारण स्त्रियों को इसका ज्ञानही नहीं कि उनके हार टूट रहे हैं या साबित हैं। गहरी नाभि की शोभा की उपमा जल की भौरों की शोभा से दी जाती है, भौहों की तरङ्गों से दी जाती है और वक्षोजों की चकवा-चकवी के जोड़े से दी जाती है । रूप और अवयवों की उपमा का यह सारा सामान, इस समय, इन विला- सवती जल-विहारिणी रमणियों के पासही मौजूद है। इनके अवयव आदि के उपमान ढूँढ़ने के लिए दूर जाने की ज़रूरत नहीं । वारिरूपी मृदङ्ग बजा कर ये गाती भी जाती हैं । उसे सुन कर, पूँछे ऊपर उठाये हुए तीरवर्ती मोर, अपनी मधुर कूक से, इनके गीत-वाद्य की प्रशंसा सी कर रहे हैं । आहा ! जलरूपी मृदङ्ग की ध्वनि जो ये कर रही हैं वह कानों को बहुतही प्यारी मालूम होती है । भीगने के कारण इनकी बारीक साड़ी इनके गोरे गोरे बदन पर चिपक सी गई है । उसी के ऊपर, इनकी कमर में, करधनी पड़ी है। उसकी घुघुरुओं के कुन्दों के भीतर पानी भर गया है । अतएव घुघुरू-चन्द्रमा की चाँदनी से ढके हुए तारों की तरह-मौन सा धारण किये हुए अपूर्व शोभा पा रहे हैं। पानी उछालने में ये एक दूसरी की स्पर्धा कर रही हैं। कोई भी नहीं चाहती कि मैं इस काम में किसी से हार जाऊँ। इस कारण, घमण्ड मैं आकर, ये अपने हाथ से पानी की धारा उछाल कर बड़े ज़ोर से अपनी सखियों के मुँह पर मारती हैं। इस मार से [ ३१८ ]
इनके खुले हुए बाल भीग जाते हैं। अतएव कुमकुम लगे हुए बालों की सीधी नोकों से ये तरुणी नारियाँ पानी की लाल लाल बूंदों की वर्षा कर रही हैं। इनके बाल खुल गये हैं; इनके शरीर पर काढ़े गये केसर-कस्तूरी आदि के बेल बूटे धुल गये हैं; और, इनके मोतियों के कर्णफूल खुल कर नीचे लटक गये हैं-जल-क्रीड़ा के कारण यद्यपि इनके मुख पर व्याकुलता के ये चिह्न दिखाई दे रहे हैं, तथापि इनका मुख फिर भी सुन्दरहो मालूम होता है।"

यहाँ तक अपने रनिवास की रमणियों के वारि-विहार का वर्णन कर चुकने पर, कुश का भी मन सरयू में स्नान करने के लिए चञ्चल हो उठा। अतएव, वह विमान के समान बनी हुई नौका से उतर पड़ा और छाती पर हिलता हुआ हार धारण किये हुए वह भी अपनी नारियों के साथ जल-विहार करने लगा। उस समय वह ऐसा मालूम हुआ जैसे उखाड़ी हुई कमलिनी को कन्धे पर डाले हुए जङ्गली हाथी, हथिनियों के साथ, जल में खेल रहा हो। जब वह सुस्वरूप और कान्तिमान राजा भी जल में कूद कर विहार करने लगा तब उन सौन्दर्यवती स्त्रियों की सुन्दरता और भी बढ़ गई—उसके संयोग से उनकी शोभा और चारुता चौगुनी हो गई। मोती स्वभाव ही से सुन्दर होते हैं। तिस पर यदि कहीं उनसे चमकते हुए इंद्रनीलमणि का संयोग हो जाय तो फिर क्या कहना है। राजा को पाकर वे विशालनयनी नारियाँ दूने उत्साह से जलक्रीड़ा करने लगी। सोने की पिचकारियों में बाल-पीला रङ्ग भर भर कर वे बड़े प्रेम से राजा को भिगोने लगी। जिस समय कुश पर, इस प्रकार, सब तरफ़ से रङ्ग पड़ पड़ कर नीचे गिरने लगा उस समय उसकी शरीर-शोभा बहुत ही बढ़ गई-ऐसा मालुम होने लगा जैसे गिरिराज हिमालय से गेरू आदि धातु मिले हुए झरने कर रहे हो। रनिवास की स्त्रियों के साथ उसने उस श्रेष्ठ सरिता में घंटों विहार करके, अप्सराओं के साथ आकाश-गङ्गा में बिहार करने वाले सुरेश्वर इन्द्र को भी मात कर दिया।

इस जल-विहार में एक दुर्घटना हो गई। जिस अलौकिक आभूषण को रामचन्द्रजी ने महामुनि अगस्त्य से पाया था वह इस समय कुश के पास था। जल-विहार करते समय वह उसे पहने हुए था। रामचन्द्रजी ने राज्य [ ३१९ ]
के साथ हो उसे भी कुश के हवाले कर दिया था। दैवयोग से वह नदी में गिर कर डूब गया और कुश ने न जाना। यह एक प्रकार का भुजबन्द था। इसमें यह गुण था कि इसके बाँधनेवाले को सामने समर में कोई भी न हरा सकता था।

स्त्रियों के साथ इच्छापूर्वक जल-विहार करके कुश तीर पर लगे हुए अपने तम्बू में लौट आया। वहाँ आते ही कपड़े तक वह बदल न पाया था कि उसे अपनी भुजा, उस दिव्य आभूषण से सूनी, देख पड़ी। उस आभूषण का इस तरह खो जाना कुश से न सहा गया। इसका कारण लोभ न था। लोभ तो उसे छू तक न गया था। क्योंकि वह विद्वान् और समझदार था-तुच्छ फूल और बहुमूल्य भूषण को वह तुल्य समझता था। बात यह थी कि वह आभूषण उसके पिता रामचन्द्रजी का धारण किया हुआ था और युद्ध में विजय को वशीभूत करने की शक्ति रखता था। इसीसे उसे उसके खो जाने का दुःख हुआ।

नदी में घुस कर डुबकी लगानेवाले सैकड़ों मछुवों को उसने तत्काल ही हुक्म दिया कि खोये हुए आभूषण को ढूंढ़ निकालो। राजाज्ञा पाकर उन लोगों ने रत्ती रत्तो सरयू ढूँढ़ डाली। पर उनका सारा श्रम व्यर्थ गया। वह आभूषण न मिला। तब, लाचार होकर, वे राजा के पास गये और अपनी विफलता का हाल कह सुनाया। परन्तु कहते समय उन लोगों ने अपने चेहरों पर उदासीनता या भय का कोई चिह्न न प्रकट किया। वे बोले:-

"महाराज! जहाँ तक हम से हो सका हमने ढूँढ़ा। यत्न करने में हम लोगों ने कोई कसर नहीं की। परन्तु जल में खाया हुआ आपका वह सर्वोत्तम आभरण न मिला। हमें तो ऐसा जान पड़ता है कि सरयू-कुण्ड के भीतर रहने वाला कुमुद नामक नाग, लोभ में प्राकर, उसे ले गया है और वह उसी के पास है। उसके पास न होता तो वह ज़रूर ही हम लोगों को मिल जाता।"

यह सुन कर प्रबल पराक्रमी कुश जल-भुन गया। क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गई। उसने तुरन्त ही धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी और नदी के तट पर जाकर नागराज कुमुद को मारने के लिए तरकस से गरुड़ास्त्र [ ३२० ]
निकाला। उस अस्त्र के धनुष पर रक्खे जाते ही कुण्ड के भीतर खलबली मच गई। मारे डर के वह तुब्ध हो उठा और तरङ्गरूपी हाथ जोड़ कर, तट को गिराता हुआ-गड्ढे में गिरे हुए जङ्गली हाथी की तरह-बड़े ज़ोर से शब्द करने लगा। उसके भीतर मगर आदि जितने जलचर थे सब बेतरह भयभीत हो गये। तव कुमुद ने अपनी खैर न समझी। कुश के वाण-सन्धान करते ही उसके होश ठिकाने आगये। अतएव, वह उस कुण्ड से-मथे जाते हुए समुद्र से लक्ष्मी को लिये पारिजात वृक्ष की तरह- अपनी बहन को आगे किये हुए सहसा बाहर निकल आया। कुश ने देखा कि खाये हुए आभूषण को नज़र करने के लिए हाथ में लिये हुए वह नाग सामने खड़ा है। तब उसने गरुड़ास्त्र को धनुष से उतार लिया। बात यह है कि सज्जनों का कोप, नम्रता दिखाने पर, शीघ्रही शान्त हो जाता है।

कुमुद भी अस्त्र-विद्या में निपुण था। वह जानता था कि गरुड़ास्त्र कैसा भीषण अस्त्र है। अपने प्रबल प्रभाव से शत्रुओं का अंकुश बन कर, उन्हें अपने अधीन रखनेवाले कुश के प्रचण्ड पराक्रम से भी वह अनभिज्ञ न था। यह बात भी उससे छिपी न थी कि कुश त्रिलोकीनाथ रामचन्द्र का पुत्र है। अतएव, मान और प्रतिष्ठा से उन्नत हुए भी अपने सिर को उसने मुर्दाभिषिक्त महाराज कुश के सामने अवनत करने ही में अपनी कुशल समझी। कुण्ड से निकलते ही उसने सिर झुका कर कुश को प्रणाम किया और कहा:-

"महाराज, मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि कारणवश मनुष्य का अवतार लेने वाले भगवान् विष्णु के आप पुत्र हैं। पुत्र क्या आप उनकी दूसरी मूर्ति हैं; क्योंकि पुत्र तो आत्मा का प्रतिबिम्ब ही होता है। अतएव, आप सर्वथा मेरे द्वारा आराधना किये जाने योग्य हैं। फिर भला यह कैसे सम्भव था कि मैं कोई बात आपके प्रतिकूल करके आपका अप्रीति-भाजन बनता। आपको मैं कदापि अप्रसन्न नहीं कर सकता। बात यह हुई कि यह लड़की गेंद खेल रही थी। हाथ के आघात से एक बार इसकी गेंद ऊपर को ऊँची चली गई। उसे यह सिर उठाये देख रही थी कि इतने में आपका विजयशील भूषण, प्राकाश से गिरती हुई उल्का की तरह, बड़े वेग के साथ कुण्ड से नीचे गिरता हुआ दिखाई दिया। इस [ ३२१ ]
कारण कुतूहल में आकर इसने उसे उठा लिया। सो इसे आप अब अपनी बलवती भुजा पर फिर धारण कर लें-उस भुजा पर जो आपके घुटनों तक पहुँचती है, जो धनुष की प्रत्यञ्चा की रगड़ का चिरस्थायी चिह्न धारण किये हुए है, और जो पृथ्वी की रक्षा के लिए अर्गला का काम देती है। मेरी छोटी बहन, इस कुमुद्रती, ने सचमुच ही आपका भारी अपराध किया है। अतएव, आपके चरणों की चिरकाल सेवा करके यह उस अपराध की मार्जना करने की इच्छुक है। मेरी प्रार्थना है कि आप इसे अपनी अनुचरी बनाने में आनाकानी न करें।"

इस प्रकार प्रार्थना करके कुमुद ने वह आभूषण कुश के हवाले कर दिया। उसे पाकर और कुमुद की शालीनता देख कर कुश ने कहा:-

"मैं आपको अपना सम्बन्धी ही समझता हूँ। आप सर्वथा प्रशंसा- योग्य हैं।"

तब बन्धु-बान्धवों सहित कुमुद ने, अपने कुल का वह कन्यारूपी भूषण, विधिपूर्वक, कुश को भेंट कर दिया। कुश ने धमाचरण के निमित्त, यथाशास्त्र, कुमुद्रती से विवाह किया। जिस समय ऊन का मङ्गलसूचक कङ्कण धारण किये हुए कुमुद्रती के कर को कुश ने, प्रज्वलित पावक को साक्षी करके, ग्रहण किया उस समय पहले तो देवताओं की बजाई हुई तुरहियों की ध्वनि दिशाओं के छोर तक छा गई, फिर आश्चर्यकारक मेघों के बरसाये हुए महा-सुगन्धित फूलों से पृथ्वी पूर्ण हो गई।

इस प्रकार त्रिभुवनगुरु रामचन्द्रजी के औरस पुत्र, मैथिलीनन्दन, कुश, और तक्षक के पाँचवें बेटे कुमुद का, पारस्परिक सम्बन्ध हो गया। इस सम्बन्ध के कारण अपने बाप तक्षक के मारने वाले सर्प-शत्रु गरुड़ के डर से कुमुद को छुटकारा मिल गया। उधर पुरवासियों के प्यारे कुश के राज्य में भी सपों का उपद्रव शान्त हो गया। कुमुद की आज्ञा से सर्पो ने कुश की प्रजा को काटना बन्द कर दिया। और, विष्णु के अवतार रामचन्द्रजी के पुत्र, कुश, की आज्ञा से गरुड़ ने सर्पो को सताना छोड़ दिया। अतएव कुश सर्पभयरहित पृथ्वी का सुख से शासन करने लगा।