राजस्थान का इतिहास १/ 37 महाराज जसवंत सिंह व अजीत सिंह दुर्गादास का त्याग

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अध्याय-37
महाराज जसवंत सिंह व
अजीत सिंह दुर्गादास का त्याग

पृथ्वीसिंह की मृत्यु के समय जसवन्त सिंह काबुल में था। उसके शोक में जसवन्त सिंह ने परलोक की यात्रा की। उसके मरते ही उसकी रानी, जो उसके साथ थी, सती होने के लिए तैयार होने लगी। उसने चिता बनवाने का आदेश दिया। लेकिन वह गर्भवती थी। सात महीने का शिशु उसके पेट में था। इसलिए उसका सती होना सरदार ऊदा ने उचित नहीं समझा। उसने बड़ी सावधानी के साथ रानी से प्रार्थना की और उसे समझाया कि इस दशा में आपको सती न होना चाहिए। उससे जो पुत्र पैदा हुए थे, उनकी अकाल मृत्यु हो गयी थी। अब जसवन्त सिंह के कोई बालक न था। इसलिए साथ के सरदारों ने मिलकर गर्भवती रानी को सती होने से रोका। इस दशा में जसवन्त सिंह की रानी सती न हो सकी। जसवन्त सिंह के साथ काबुल में जो उप पत्नियाँ थीं, वे सती हो गयीं। उसकी दूसरी रानी मन्डोर नगर में रहती थी। उसको जब जसवन्त सिंह की मृत्यु का समाचार मिला तो उसने सती होने की तैयारी की और अपने पति की पगड़ी साथ में लेकर चिता में बैठी और सती हो गयी।

जसवन्त सिंह के मरने के बाद सम्पूर्ण राजस्थान में शोक मनाया गया। मारवाड़ के स्त्री-पुरुप बहुत दिनों तक दुःखी रहे। जसवंत सिंह ने मारवाड़ के गौरव की रक्षा की थी। अब वह गौरव राज्य के सभी लोगों को अरक्षित दिखायी देने लगा। मन्दिरों में घण्टों का बजना बन्द हो गया, प्रातःकाल और सायंकाल राज्य में शंख बजा करते थे, अब उनकी आवाज कहीं सुनायी न पड़ती थी। मारवाड़ की परिस्थितियाँ जसवन्त सिंह के मरते ही एक साथ भयानक हो उठीं। राज्य के सभी लोग अत्यन्त भयभीत हो उठे। अब उनको कोई ऐसा दिखायी न पड़ता था, जिसके द्वारा मारवाड़ की रक्षा हो सकती। जो ब्राह्मण जसवन्त सिंह के शासन काल में निर्भीक होकर अपने धर्म का प्रचार करते थे, उनका झुकाव अब इस्लाम की तरफ दिखायी पड़ने लगा। इस प्रकार के अनेक परिवर्तन जसवन्त सिंह के मरने के बाद एक साथ सामने आये।

जसवन्त सिंह की विधवा रानी अभी तक काबुल में थी। उसके साथ बहुत से राठौड़ सैनिक और शूरवीर सरदार थे। समय पर उससे एक पुत्र पैदा हुआ। अजीत उसका नाम रखा गया। कुछ समय के बाद जब रानी वहाँ से आने के योग्य हो सकी तो राठौड़ सरदार अपने साथ के सब लोगों को लेकर काबुल से मारवाड़ की तरफ रवाना हुए। उन सब के [ ३७० ]दिल्ली में पहुँचते ही औरंगजेब ने राठौड़ सरदारों को आगे न जाने दिया और उसने उनको दिल्ली में ही रोक लिया। उसने शिशु अजीत को सरदारों से लेने का प्रयत्न किया।

राठौड़ सरदारों के दिल्ली आते ही औरंगजेब ने उनको आदेश दिया कि वे जसवन्तसिंह के शिशु अजीत को उसके हवाले कर दें। जब औरंगजेब ने देखा कि जसवन्त सिंह के सामन्त और सरदार इसके लिए तैयार नहीं हैं तो उसने सामन्तों और सरदारों को अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये। उसने उनसे साफ-साफ कहा: "यदि तुम शिशु राजकुमार को मुझे दे दोगे तो मैं सम्पूर्ण मारवाड़ राज्य तुम सब को बाँट दूँगा।"

औरंगजेब किसी भी दशा में जसवन्तसिंह के शिशु अजीत को लेना चाहता था। परन्तु मारवाड़ के सामन्तों और सरदारों ने औरंगजेब की बात को स्वीकर नहीं किया और उन सब ने यह निश्चय कर लिया कि जब तक हम लोग जीवित रहेंगे अजीत को औरंगजेब के हवाले न करेंगे। अजीत को लेने के लिए औरंगजेब बराबर आग्रह करता रहा। उसने अनेक प्रकार की बातें की। परन्तु सामन्तों और सरदारों ने अजीत को देना स्वीकार नहीं किया।

औरंगजेब ने दरबार में मारवाड़ के सामन्तों और सरदारों को बुलाकर अजीत को दे देने के लिए आदेश दिया। राठौड़ सामन्त इसके लिए तैयार न हुए और उन लोगों ने एक मत होकर औरंगजेब को उत्तर देते हुए स्पष्ट कहा-"जिस मातृभूमि के द्वारा हमारा पालन हुआ है उस मातृभूमि की रक्षा हमारी प्रत्येक अस्थिमज्जा और नस के द्वारा होगी।"

सामन्तों और सरदारों ने किसी भी दशा में शिशु अजित को देना स्वीकार नहीं किया। वे बादशाह के दरबार से निकल कर चले आये और जहाँ पर वे ठहरे थे, वहाँ वे पहुँच गये। उसके थोड़े ही समय के बाद मुगलों की एक सेना ने आकर उनको घेर लिया। औरंगजेब के इस अत्याचार से राठौड़ सामन्त बहुत क्रोधित हुए, किन्तु वे सावधान होकर अजीत के प्राणों की रक्षा का उपाय सोचने लगे। सभी ने मिलकर एक निर्णय कर लिया। राजधानी के हिन्दुओं में मिठाईयाँ पहुँचाने की तैयारियाँ होने लगीं और टोकरों में मिठाईयाँ भर-भरकर हिन्दुओं के यहाँ भेजना शुरू कर दिया। इस प्रकार जो हजारों टोकरे हिन्दुओं के घरों पर पहुँचाने के लिए रवाना हुए, उनमें एक टोकरे में शिशु अजीत को छिपा कर भेज दिया गया।

इस मिष्ठान के बँटवाने का कार्य समाप्त होने के बाद सभी राठौड़ों ने अपनी तैयारी की। औरंगजेब ने इस समय जैसा व्यवहार इन राठौड़ों के साथ किया था, उसके बदले में युद्ध करने के सिवा और कोई भी रास्ता राठौड़ सामन्तों के सामने न रह गया था। इसलिए युद्ध की तैयारी कर चुकने पर और अपने-अपने घोड़ों पर बैठ कर राठौड़ आगे बढ़े और साथ के लोगों को ललकारते हुए राठौड़ सामन्तों ने कहा-"आज हम लोगों के सामने राठौड़ों के गौरव की रक्षा का प्रश्न है। बादशाह ने हमारे सर्वनाश की चेष्टा की है। इसलिए जो संकट हमारे सामने पैदा हुआ है, उसका हम सामना करें और मारे जाने पर स्वर्ग की यात्रा करें।"

राठौड़ वीरों के इन शब्दों को सुनकर भट्ट कवि सूजा ने गम्भीर होकर कहा-"मारवाड़ की लाज आज आप लोगों के हाथों में है। आपके सामने मातृभूमि और राजपूतों के गौरव की रक्षा का प्रश्न है। अपने प्राणों की बलि देकर आपको इस गौरव की रक्षा करनी है।"

इसी समय दुर्गादास ने कहा-"हिन्दुओं का सर्वनाश करके बादशाह का साहस बढ़ गया है। हम सब लोग जितना दबे हैं, उतने ही हम लोग दबाये गये है। आज हम सब [ ३७१ ]लोग अत्याचारों का बदला लेंगे।" राठौड़ सामन्तों ने अजीत के प्राणों की किसी प्रकार रक्षा कर ली थी। परन्तु अब उनके सामने उन स्त्रियों के गौरव का प्रश्न था, जो काबुल से उनके साथ आयी थीं। उनके धर्म की रक्षा कैसे होगी, इस प्रश्न को लेकर राठौड़ सामन्त बार-बार सोचने लगे। मुगल सेना ने चारों ओर से घेरा डाल रखा था। उनको घेरे से बाहर ले जाने का कोई रास्ता न था।"

इसलिए उन सामन्तों ने साथ की स्त्रियों का अंत करने का निर्णय किया। क्योंकि इसके सिवा उनके धर्म की रक्षा का दूसरा कोई उपाय न था। घर के भीतर एक बड़े कोठे में बहुत सी बारूद, फूस और लकड़ी एकत्रित की गई। राजपूत स्त्रियों ने अपने देवता का नाम लेकर उस कोठे में प्रवेश किया। उसके बाद कोठे का दरवाजा बंद कर दिया और एक सुराख से बारूद में आग लगा दी गयी। कोठे के भीतर एकत्रित बहुत-सी बारूद का ढेर एक साथ जल उठा और थोड़ी देर में वे समस्त स्त्रियाँ राख के ढेर में परिणित हो गयीं।

राठौड़ सामन्तों का पहला कार्य था किसी प्रकार शिशु अजीत की रक्षा करना और दूसरा कार्य था अपनी स्त्रियों और लड़कियों के धर्म को सुरक्षित रखना। इन दोनों कार्यों के सम्बन्ध में जो कुछ सम्भव हो सकता था, मुगलों की राजधानी दिल्ली में उन्होंने किया। अजीत की जान बचाने में उनको सफलता मिली। स्त्रियों के धर्म की रक्षा करने के लिए उनको उनके प्राणों का अंत करना पड़ा। अब वे मुगल सेना के साथ युद्ध करने के लिये तैयार हो गये। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर राठौड़ों ने मुगल सेना का सामना किया। बात की बात में घमासान युद्ध जारी हो गया। उस मारकाट में दूहड़ के वंशजों ने भयानक रूप से मुगल सैनिकों का संहार किया।[१]

नौ हजार मुगल सैनिकों ने थोड़े से राठौड़ों के साथ युद्ध आरम्भ किया था। इस लड़ाई में राठौड़ों को स्वयं सफलता की आशा न थी। लेकिन युद्ध के सिवा उनके सामने और दूसरा कोई उपाय न था। उन मुगल सैनिकों से भीषण मारकाट करते हुए रत्नसिंह मारा गया उसके बाद कई एक राठौड़ धराशाही हुए। चंद्रभान ने अपने प्राणों की बलि दी। राठौड़ों के साथ जो शूरवीर योद्धा थे, वे एक-एक करके मारे जाने लगे। कवि चन्द बड़े साहस के साथ अपने दोनों हाथों में तलवारें लिये शत्रुओं के साथ युद्ध कर रहा था। थोड़ी ही देर में वह भी मारा गया।

मुगल सेना के साथ थोड़े से राठौड़ों का यह युद्ध श्रावण कृष्ण पक्ष सम्वत् 1736 सन् 1680 ईसवी में हुआ। भट्ट ग्रंथों में इस युद्ध का वर्णन भली प्रकार किया गया है। शूरवीर राठौड़ों ने अपने प्राण देकर शिशु अजीत की रक्षा की। राठौड़ सामन्त ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था। दिल्ली में पहुँच जाने के बाद अजीत के प्राणों को बचाने के लिये उनके पास कोई उपाय न था। इसलिये उन्होंने मिष्ठान बँटवाने का प्रबन्ध किया और मिठाइयों से भरे हुये जो बडे-बडे टोकरे वहाँ से भेजे गये, उनमें एक टोकरे के भीतर राठौड़ सामन्तों ने अजीत को छिपा दिया। वह टोकरा-जिसमें अजीत को छिपाया गया था-एक मुसलमान को सौंपा गया। वह पहले से राठौड़ों का विश्वासी था। वह टोकरा एक मुसलमान के द्वारा रवाना किया गया। इसलिये उस पर किसी शाही कर्मचारी को संदेह न हो सकता था। राठौड़ों की यह दूरदर्शिता थी। लोग पहले से उस मुसलमान का विश्वास करते थे। उस टोकरे को ले जाने वाला मुसलमान जानता था कि इस टोकरे में राजा जसवंत सिंह का शिशु छिपाया गया है। राठौड़ों ने उससे यह बात छिपाकर नहीं रखी थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उस मुसलमान ने अजीत के प्राणों की रक्षा करने में सहायता की। [ ३७२ ] वह मुसलमान एक निश्चित स्थान पर टोकरा लेकर पहुँच गया और उसके कुछ समय के बाद दुर्गादास युद्ध में बचे हुए सरदारों को साथ में लेकर वहाँ पहुँचा। उसके शरीर में सैंकड़ों जख्म थे, जिनसे बराबर रक्त निकल रहा था। दुर्गादास ने उन जख्मों की परवाह न की। वह किसी प्रकार अजीत को सुरक्षित देखना चाहता था। उस मुसलमान से जिस स्थान का निश्चय हुआ था, वहाँ पर पहुँच कर जब दुर्गादास ने टोकरे में अजीत को सुरक्षित और सकुशल देखा तो उसे बहुत संतोष और सुख मिला। उस समय वह अपने शरीर के सैंकड़ों जख्मों की पीड़ा को भूल गया। जो मुसलमान अजीत को छिपा कर टोकरा लाया था, वह राठौड़ों का परम विश्वासी था। वह जानता था कि राजपूतों के साथ जो उपकार किया जाता है, वह कभी व्यर्थ नहीं जाता। अजीत के प्राणों की रक्षा करने वाले मुसलमान को उसके इस उपकार के बदले मारवाड़-राज्य की तरफ से जागीर दी गयी, जो अब तक उसके वंशजों में पायी जाती है। इसके साथ-साथ मारवाड़ के दरबार में उसको बहुत बड़ी प्रतिष्ठा मिली। अजीत जब बड़ा हुआ तो उसने उस मुसलमान का बहुत आदर किया और अंत तक अजीत उसको काका कह कर पुकारता रहा।

दुर्गादास अपने कुछ विश्वासी आदमियों के साथ राजकुमार अजीत को लेकर आबू पहाड़ पर चला गया और वहाँ एकान्त स्थान में रह कर वह उस बालक का पालन-पोषण करने लगा। दुर्गादास को वहाँ रह कर भी औरंगजेब का भय बना रहा। इसलिए उसने अपने एकान्तवास का समाचार शक्ति भर किसी को प्रकट नहीं होने दिया।

धीरे-धीरे बहुत दिन बीत गये। अजीत के साथ बहुत दिनों तक दुर्गादास का छिपकर रहना अप्रकट न रह सका। किसी प्रकार मारवाड़ के राजपूतों में यह अफवाह फैलने लगी कि जसवंत सिंह का पुत्र अजीत जीवित है। दुर्गादास के संरक्षण में उसका पालन-पोषण हो रहा है। इस अफवाह के फैलते ही वहाँ के अगणित राजपूत आपस में एक दूसरे से बातें करने लगे और इस बात की खोज में रहने लगे कि यह अफवाह सही कहाँ तक है। इस खोज में मारवाड़ के बहुत से राजपूत दुर्गादास का पता लगाने के लिए बाहर निकले। वे इधर-उधर घूमते हुए आबू पहाड़ पर पहुँच गये।

राजकुमार शिशु अजीत को बहुत पहले से दूनाड़ा का सरदार धनी के नाम से सम्बोधित किया करता था। जो राजपूत आबू पर्वत पर पहुँच गये थे, उन्होंने दुर्गादास और अजीत का पता लगा लिया और जब वे उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ पर अजीत रहा करता था तो वे राजकुमार को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और आपस में बातचीत करके उन लोगों ने मारवाड़ के सिंहासन पर अजीत को बिठाने का निश्चय किया।

आबू पहाड़ पर अजीत का वह एकान्त स्थान धीरे-धीरे मारवाड़ के दूसरे राजपूतों को भी मालूम हो गया, अब वहाँ पर बहुत-से राठौड़ भट्ट और चारण एकत्रित होने लगे। प्राचीन काल में ईदा नामक एक प्राचीन राजवंश मरुभूमि में राज्य करता था। ईदा परिहार राजपूतों की एक शाखा है। मारवाड़ में राठौड़ों का आधिपत्य कायम होने पर ईदा वंश के लोग अपने राज्य को छोड़कर दूर चले गये थे और अपना राज्य खोकर किसी प्रकार दिन बिताने लगे। परन्तु अपने राज्य के छूट जाने की वेदना अभी तक उस वंश के लोगों में थी। इस समय उनको मौका मिल गया और थोड़े ही दिनों में परिहारों का झंडा प्राचीन मन्ड़ोर में फ़हराने लगा। [ ३७३ ] इस विजय से परिहार वंश के राजपूतों को बहुत प्रोत्साहन मिला। रत्नसिंह नाम के एक राठौड़ ने जोधपुर को जीतकर अपने अधिकार में लाने की चेष्टा की[२] अमर सिंह अपने पिता के द्वारा राज्याधिकार से वंचित किया गया था। औरंगजेब ने रत्नसिंह को जोधपुर विजय करने के लिए तैयार किया था परन्तु उसको सफलता न मिली। राठौड़ सरदारों ने अजीत का पक्ष लेकर उसके साथ युद्ध किया। उस युद्ध में रलसिंह की पराजय हुई। वह युद्ध से भाग कर नागौर के दुर्ग में पहुँच गया। उसके बाद राठौड़ सरदारों ने ईदा वंशजों पर आक्रमण किया और उन्हें मन्डोर से निकाल दिया।

औरंगजेब ने रत्नसिंह को राठौड़ों से लड़ाने की चेष्टा की थी। परन्तु जब उसको सफलता न मिली तो उसने स्वयं राठौड़ सरदारों पर आक्रमण करने की तैयारी की और एक विशाल सेना लेकर वह मारवाड़ की तरफ रवाना हुआ। मुगल सेना ने जोधपुर पहुँच कर उस नगर को घेर लिया। मुगलों की सेना इतनी बड़ी थी कि मारवाड़ के राठौड़ उसके आक्रमण को रोक न सके। औरंगजेब ने जोधपुर को अपने अधिकार में ले लिया। इसके बाद मुगल सेना ने वहाँ पर लूट मार और भयानक अत्याचार किये। वहाँ की सम्पत्ति को लूट कर मुगल सेना ने मेड़ता, डीडवाना और रोहत नामक नगरों पर आक्रमण किया,

औरंगजेब की मुगल सेना ने एक-एक करके मारवाड़ के सभी नगरों पर अधिकार कर लिया। वहाँ के गाँवों, कस्बों और नगरों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई। वहाँ के मंदिर और स्तम्भ गिरा दिये गये। देवताओं की मूर्तियाँ तोड़ डाली और अगणित हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का कार्य किया गया। मंदिरों के स्थानों पर मस्जिदें बनवाई गयीं। उसके बाद औरंगजेब अपनी फौज के साथ राजधानी लौट गया। मेवाड़ का राणा राजसिंह मारवाड़ में किये गये मुगलों के अत्याचारों को सहन न कर सका। उसने राठौड़ों को मिला कर मुगलों से युद्ध करने की तैयारी की। उसके साथ संग्राम करने के लिए औरंगजेब ने सत्तर हजार सैनिकों के साथ तहव्वरखाँ को भेजा और उसको रवाना करने के पश्चात वह स्वयं मुगलों की एक बड़ी फौज लेकर अजमेर की तरफ चला। उसके साथ युद्ध करने के लिए मेड़ता के सामन्तों ने तैयारी की और अपने सैनिकों को लेकर वे पुष्कर के सामीप पहुँच गये। वहाँ पर वाराह का एक प्रसिद्ध मंदिर था। उस मंदिर के सामने मेड़ता की सेना ने मुगलों के साथ युद्ध आरम्भ किया। उनको देखते हुए मुगलों की सेना बहुत अधिक थी। यह युद्ध सम्वत् 1736 के भादो महीने में हुआ। उसमें मेड़ता के सैनिक और सरदार मारे गये।

मेड़ता के युद्ध में विजयी होकर तहब्बर खाँ अपनी फौज के साथ आगे बढ़ा। मरुधर के निवासी घबरा कर पहाड़ों की तरफ भागने लगे। तहब्बर खाँ की फौज का सामना करने के लिए रूपा और कूँपा नाम के दोनों भाइयों ने युद्ध की तैयारी की और वे दोनों बड़ी तेजी के साथ गुडा नाम के स्थान पर पहुँच गये। मुगल सेनापति के साथ बहुत बड़ी फौज थी इसलिए अपने सैनिकों के साथ दोनों भाई मारे गये।

औरंगजेब इन दिनों राजपूतों के सर्वनाश में लगा हुआ था। उसकी शक्तियाँ विशाल थीं। इसलिये वह भयानक अत्याचार करने में भी किसी प्रकार का सोच विचार न करता था। अजयमेरु दुर्ग में पाँच दिन तक रह कर उसने चित्तौड़ का रास्ता पकड़ा और वहाँ पहुँचते ही उसने रोमान्चकारी अत्याचार आरम्भ कर दिये। राणा ने शिशु राजकुमार की रक्षा की और राठौड़ों के युद्ध में सीसोदिया सेना आगे रही थी। [ ३७४ ]औरंगजेब के साथ बहुत बड़ी फौज देखकर चित्तौड़ के लोगों ने शिशु अजीत को बचाने की कोशिश की। उसे एक गुप्त स्थान में छिपा कर रखा गया। औरंगजेब अपनी फौज के साथ देवाड़ी के निकट आ गया। उसका सामना करने के लिए कुम्भा, उग्रसेन और ऊदा आदि कई राठौड़ शूरवीर अपनी सेना के साथ पहाड़ी मार्ग पर पहुँच गये। राठौड़ों ने मुगलों को रोकने की कोशिश की। औरंगजेब ने उस पहाड़ी रास्ते से होकर जब उदयपुर में आक्रमण किया, तो उस समय आजम चित्तौड़ में था। इसी समय औरंगजेब को समाचार मिला कि दुर्गादास ने जालौर राज्य पर आक्रमण किया है। इसको सुनते ही वह अजमेर की तरफ लौट पड़ा। वहाँ जाने के पहले उसने मुकर्रम खाँ को आज्ञा दी कि वह जालौर के युद्ध में बिहारी की सहायता करे।

दुर्गादास उन दिनों में युद्ध का कर वसूल कर रहा था। वह जोधपुर पहुँचा। इन दिनों में औरंगजेब भीषण रूप से धार्मिक पक्षपात कर रहा था और हिन्दुओं के विरुद्ध उसके हृदय में आग जल रही थी। उसने इन दिनों में बार-बार प्रतिज्ञा की कि इस्लाम को छोड़कर इस देश में दूसरा कोई मजहब न रखूँगा। उसने शाहजादा अकबर को एक मुगल सेना देकर तहब्बरखाँ के पास भेज दिया। इन दिनों में मुगल फौजें चारों तरफ लूट मार कर रही थीं और उसके बाद उसके सैनिक आग लगाकर ग्रामों और नगरों का सर्वनाश कर रहे थे। ईदा लोगों ने जोधपुर में अधिकार कर लिया। परन्तु कुम्पावत लोगों ने खत्तापुर में उनका सामना किया और भयानक रूप से उनका नाश किया। मुरधर का राजा एक बार फिर राव की पदवी से वंचित हुआ। यद्यपि बादशाह चाहता था कि परिहार लोग मारवाड़ पर अधिकार करें। लेकिन उसका यह इरादा सम्वत् 1736 के जेठ महीने की त्रयोदशी को बेकार हो गया।

इन दिनों में राठौड़ों ने अरावली पहाड़ पर आश्रय लिया। जहाँ पर वे जाकर रहे थे, वह स्थान अत्यन्त कठोर और जनहीन था। वहाँ पर पहुँचकर राठौड़ों ने अपना सुदृढ़ संगठन किया। वे अचानक अपने पहाड़ी स्थानों से निकलकर मुसलमानों पर आक्रमण करते और उनको मार काटकर एवम् लूटकर फिर अपने स्थानों को भाग जाते। उनके लगातार ऐसा करने से औरंगजेब की परेशानियाँ बहुत बढ़ गयीं। अनेक उपाय करने पर भी उन आक्रमणकारी राठौड़ों से वह मुसलमानों की रक्षा न कर सका।

इस प्रकार के आक्रमणों के द्वारा राठौडों को प्रोत्साहन मिल रहा था। उन्होंने अनेक बार एकत्रित होकर मुगलों का विनाश करने के लिये प्रतिज्ञायें कीं। इन्हीं दिनों में उनके एक दल ने जालौर पर आक्रमण किया और उनका दूसरा दल सिवाना पर आक्रमण करने के लिये तैयार हुआ। इसका फल यह हुआ कि औरंगजेब को राणा के साथ युद्ध बन्द कर देना पड़ा और उसने अपनी विशाल सेना मारवाड़ भेज दी।

राणा राजसिंह ने अजीत को अपने यहाँ आश्रय देकर औरंगजेब के साथ आग भड़कायी थी। राणा ने अपने लड़के भीम को सीसोदिया सेना का भार सौंपा और उसे राठौड़ों की सहायता के लिये भेज दिया। उन दिनों में इन्द्रभानु और दुर्गादास राठौड़ से के साथ गोडवाडा में मौजूद थे। भीमसिंह वहाँ पहुँच कर उनके साथ मिल गया। शाहजादा अकबर और सेनापति तहब्बर खाँ मुगल फौज को लेकर उनके मुकाबले के लिए पहुँचे। नाडोल नगर में दोनों तरफ से भयानक युद्ध आरम्भ हुआ। इस संग्राम में दोनों तरफ के बहुत से आदमी मारे गये। राजकुमार भीम युद्ध करते हुये मारा गया। उसकी सेना ने राठौड़ों के साथ मिलकर मुगलों से भीषण युद्ध किया। युद्ध की परिस्थिति लगातार भयानक होती गयी। इन्द्रभानु युद्ध करते हुए ऊदावत जैता के साथ संग्राम भूमि में गिरा और उसके प्राणों का अन्त हो गया। सोनग और दुर्गादास अन्त तक युद्ध करते रहे। [ ३७५ ]इस युद्ध में जिस प्रकार नरसंहार हुआ, उसको देखकर शाहजादा अकवर घबरा उठा। उसकी समझ में न आया कि इस प्रकार का सर्वनाश किसलिये हो रहा है। उसने इस युद्ध में अपने नेत्रों से राजपूतों की वीरता का दर्शन किया। उसने सोचा, 'जो वीर राजपूत इतने शूरवीर हैं, क्या उनके साथ मिलकर इस नरसंहार को रोका नहीं जा सकता?' उसने सेनापति तहब्बर खाँ से बातें की और इस बात को स्वीकार किया कि इस सर्वनाश का कारण हम लोगों के सिवा कोई दूसरा नहीं हो सकता। शाहजादा अकबर की बात तहब्बर खाँ की समझ में आ गयी। उसने उसकी बातों का समर्थन किया। सेनापति के साथ परामर्श करके शाहजादा अकबर ने अपना दूत दुर्गादास के पास भेजकर कहा-"राज्य में शान्ति कायम होने के लिये यह जरूरी है कि आपके साथ मेरी मुलाकात हो और इस सिलसिले में बातचीत हो।"

शाहजादा अकबर के द्वारा वह संदेश पाकर दुर्गादास ने राठौड़ सरदारों को बुलाया और शाहजादा अकबर का संदेश सुनाकर उसने उनके साथ परामर्श किया। सभी लोगों ने इसके विरुद्ध सम्मतियाँ प्रकट कीं। किसी ने कहा-"यवनों का विश्वास करना किसी प्रकार ठीक नहीं हैं। उनकी विश्वासघातकता से राजपूतों का सर्वदा नाश हुआ है।" किसी ने कहा-"शाहजादा अकबर का संदेश किसी रहस्य से खाली नहीं है।"

दुर्गादास ने सब को समझाते हुए कहा-"आपकी सम्मतियाँ बिल्कुल ठीक हैं। हमें शत्रु का विश्वास न करना चाहिए। लेकिन यदि सच्चाई के साथ यह संदेश आपके पास भेजा गया है तो उससे आपको भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। विश्वास करके हमको इतना निर्बल नहीं बन जाना चाहिये कि शत्रु हमारा विनाश कर सके। इसलिये यदि आप लोग मंजूर करें तो मेरा कहना यह है कि हम सब लोग सन्देश भेजकर अकबर के शिविर में चलें और उसके साथ परामर्श करें लेकिन इतना सतर्क और सावधान रहें कि शत्रु हमको क्षति न पहुँचा सके।"

सरदारों ने दुर्गादास की बातों को स्वीकार कर लिया। उसके बाद शाहजादा अकबर से भेंट हुई। किसी प्रकार का विवाद नहीं पैदा हुआ और संधि के रूप में सारी बातें तय हो गयीं। जो कुछ निर्णय हुआ, उससे दोनों तरफ के लोगों को सुख और सन्तोष मिला।

अकबर ने राठौड़ों के साथ संधि करके अपने नाम का सिक्का चलाया। मारवाड़ और मुगल राज्य की सीमायें निर्धारित हो गयीं। राठौड़ों ने अकबर को बादशाह माना। मुगल साम्राज्य के सभी प्रधान सामन्तों ने उसकी बादशाहत को स्वीकार किया। उसके बाद इस प्रकार के कार्य आरम्भ हुए, जिनसे राठौड़ों और मुगलों की इस मित्रता को आघात पहुँचने की सम्भावना न थी।

अजमेर में औरंगजेब को इन सब बातों का समाचार मिला। उसके हृदय को बहुत चोट पहुँची। वह एक साथ अधीर हो उठा। मिले हुए समाचारों से उसने विश्वास कर लिया कि शाहजादा अकबर दुर्गादास के साथ मिल गया है। इस विश्वास के कारण उसके हृदय में एक आग पैदा हो गयी। उसकी अशान्ति का कोई ठिकाना न रहा। दुर्गादास और शाहजादा अकबर के मिल जाने की बात चारों तरफ फैल गयी। लोग तरह-तरह की बातें आपस में करने लगे।

अगणित राजपूतों के साथ शाहजादा अकबर अपनी फौज लिए हुए अजमेर की तरफ रवाना हुआ। यह समाचार जब औरंगजेब को मिला तो वह घबरा उठा और सोचने लगा, "क्या अब मुझे राजपूतों को छोड़कर अकबर के साथ युद्ध करना पड़ेगा? क्या यह बात सही नहीं है कि शाहजादा अपनी और राजपूतों की विशाल सेना लेकर मुझे सिंहासन से [ ३७६ ]उतारने के लिए आ रहा है?" इस प्रकार की अनेक बातें सोच कर उसने बड़ी दूरदर्शिता से काम लिया और सेनापति तहब्बर खाँ को सम्पूर्ण भार देकर वह अपनी बेगमों के बीच में चला गया। वह सोचने लगा, "सब भाग्य के अधीन है। मनुष्य भाग्य का खिलौना होता है। भाग्य हम सब को डोरे में बाँधकर नचाता है और हमको नाचना पड़ता है।"

औरंगजेब अपने हृदय को शान्ति देने के लिए अनेक प्रकार की बातें सोचने लगा। वह स्वभाव से पड़यन्त्रकारी था और सच्चाई की अपेक्षा वह पड़यन्त्रों पर अधिक विश्वास करता था। भयानक कठिनाइयों के समय उसने षड़यन्त्रों के द्वारा अपने जीवन में सफलता पायी थी। उसने इस समय भी उन्हीं का आश्रय लिया और तहब्बर खाँ के साथ उसने साजिश शुरू की। औरंगजेब ने अत्यन्त गुप्त रूप से उसके पास सन्देश भेजा कि यदि वह शाहजादा अकबर को हमारे सुपुर्द कर सके तो उसे बहुत बड़ा पुरस्कार मिलेगा।

तहब्बर खाँ ने उस सन्देश पर विश्वास कर लिया और उसने रात में छिपे तौर से बादशाह से मुलाकात की और उसके बाद उसने राठौड़ को एक पत्र भेजा। उसमें उसने लिखा-"आप लोगों के साथ जो अकबर की सन्धि हुई थी, उसमें मैं गाँठ के रूप में था। जिस बाँध ने जल के दो भाग कर दिये थे, वह बाँध टूट गया है। बाप और बेटा मिलकर एक हो गये हैं। इस दशा में सन्धि की समस्त बातें अब खत्म हो जाती हैं और मैं उम्मीद करता हूँ कि आप लोग लौट कर चले जायेंगे।"

तहब्बर खाँ ने यह पत्र लिखकर तैयार किया। उसने उस पर अपनी मुहर लगायी और दूत के द्वारा उस पत्र को राठौड़ों के पास भेज कर वह औरंगजेब के पास पहुँचने के लिये रवाना हुआ। औरंगजेब का काम पूरा हो चुका था। उसने समझ लिया कि इस प्रकार के पत्र से अकबर के साथ राठौड़ों का जो सम्बन्ध कायम हुआ है, वह खत्म हो जायेगा। उसने लम्बा पुरस्कार देने के वादे पर यह काम सेनापति तहब्बर खाँ से लिया था। सेनापति के पहुँचने के पहले ही औरंगजेब ने सोच डालाः "मैंने अपनी मर्जी के मुताबिक पत्र लिखवाकर तहब्बर खाँ से राठौड़ों के पास भिजवा दिया है। शाहजादे के साथ राठौड़ों की सन्धि का बहुत कुछ कारण यह सेनापति तहब्बर खाँ था इसलिए इसको पुरस्कार तो मिलना ही चाहिए। पुरस्कार लेने के लिए ही इस समय तहब्बर खाँ औरंगजेब के पास गया था। उसके सामने आते ही औरंगजेब के एक अधिकारी ने अपनी तलवार से उसकी गरदन को काट कर जमीन पर गिरा दिया। उसके बाद ही आधी रात को तहब्बर खाँ का पत्र लेकर दूत राठौड़ों के पास पहुँचा। उसने वह पत्र उनको दे दिया और साथ ही यह भी बताया कि तहब्बर खाँ मारा गया।

उस पत्र और समाचार से राठौड़ आश्चर्यचकित हो उठे। शाहजादा अकबर का डेरा राठौड़ों के डेरों से बहुत दूर न था। इसीलिए वह समाचार शाहजादा के डेरे में भी फैल गया। उस पत्र और समाचार से एक साथ गड़बड़ी पैदा हुई। राठौड़ों ने अकबर से मिलकर कुछ समझने की चेष्टा न की और वे तुरन्त अपने डेरे को उठा कर अकबर के डेरे से बीस मील के फासले पर चले गये।

राठौड़ों और शाहजादे अकबर के डेरे एक दूसरे के करीब थे। लेकिन राठौड़ों ने उस पत्र के सम्बन्ध में कुछ भी जाँच न की। उस पर उन्होंने एक साथ विश्वास कर लिया और तुरन्त वे वहाँ से कुछ दूरी पर चले गये। राठौड़ों के चले जाने के बाद शाहजादे की फौज भी आँधी में उड़ने लगी। शाहजादा अकबर अपनी बेगम के साथ था। उसके आने के पहले ही उसकी फौज अपना डेरा छोड़कर उस स्थान से रवाना हो गयी। [ ३७७ ]दूसरे दिन सवेरे शाहजादे अकबर ने सेनापति तहब्बर खाँ के मारे जाने और राठौड़ तथा अपनी सेना के वहाँ से भाग जाने का समाचार सुना। उसकी समझ में वह रहस्य न आया। सबसे पहले उसने अपनी फौज को खोजा। उस समय उसके साथ एक हजार सैनिक भी न रह गये थे। अपनी फौज को पाने के बाद उसने राठौड़ सेना का पता लगाया। राजपूत सेना के मिल जाने पर अकबर ने राठौड़ के सन्देह को दूर करने की कोशिश की।

इसके पहले तहब्बर खाँ के पत्र से राठौड़ों को मालूम हुआ था कि अकबर अपने पिता औरंगजेब के साथ मिल गया है। इसलिए अब वे अकबर का विश्वास करने में बहुत सोच-विचार कर रहे थे। चम्पावत, कुम्पावत, पातावत, लाखावत, कर्णोत, डुंगरोत, मेड़तिया, वरसिंहोत, ऊदावत और विदावत आदि सामन्त एक स्थान पर बैठकर परामर्श करने लगे कि अकबर के साथ हमें अब क्या करना चाहिये। उस परामर्श के अन्त में सभी लोगों ने मिलकर निश्चय किया कि अकबर के मिल जाने के सम्बन्ध में जो पत्र मिला है, वह रहस्यपूर्ण मालूम होता है। क्योंकि उसके बाद ही तुरन्त सेनापति तहब्बर खाँ बादशाह औरंगजेब के आदेश से मारा गया है। इससे साफ जाहिर है कि अकबर के इधर मिल जाने से औरंगजेब का पड़यन्त्र चल रहा है। इस दशा में अभी तक अकबर का कोई अपराध नहीं है। जब तक वह हम लोगों से अलग नहीं हो जाता, हमें भी उसे छोड़ नहीं देना चाहिये।

अकबर और उसके साथ के सैनिक सेना के साथ मिलकर फिर एक हो गये। चम्पावत सरदार के छोटे भाई जैता को अकबर के परिवार की रक्षा का भार सौंपा गया। दुर्गादास ने बड़ी सावधानी और गम्भीरता के साथ, भविष्य के उत्तरदायित्व को अपने ऊपर लिया। इन दिनों में जिस प्रकार दुर्गादास साहस, धैर्य और शौर्य से काम ले रहा था, उसकी प्रशंसा भट्ट ग्रन्थों में बहुत अधिक की गयी है। उसी की शक्तियों के द्वारा इन दिनों में मारवाड़ विध्वंस होने से बच सका था। उसी ने अपने प्राणों की बाजी लगा कर शिशु अजीत की रक्षा की थी। उसने महान शक्तिशाली सम्राट औरंगजेब की परवाह न की।

अन्य सभी शत्रुओं की अपेक्षा दुर्गादास के द्वारा औरंगजेब की परेशानियाँ अधिक बढ़ गयी थीं। इन दिनों में बादशाह के दो शत्रु शिवाजी और दुर्गादास अधिक विद्रोही हो रहे थे। औरंगजेब ने एक चित्रकार को बुलाकर उन दोनों के चित्र लाने का आदेश दिया। कुछ समय में चित्रकार ने दोनों चित्र लाकर बादशाह औरंगजेब के सामने रखे। शिवाजी का चित्र एक आसन पर बैठा हुआ था और दुर्गादास अपने भाले की नोक में रोटी पिरोकर उसे आग पर सेंक रहा था। औरंगजेब ने दोनों चित्रों को देखकर कहा–"मैं शिवाजी को तो किसी प्रकार जाल में फंसा सकता हूँ परन्तु यह कुत्ता मेरी जिन्दगी के लिये जहर से भी ज्यादा खतरनाक हो गया है।"

दुर्गादास और शाहजादा अकबर मिलकर अब फिर एक हो गये थे। औरंगजेब पर आक्रमण करने के लिये दुर्गादास तैयारी करने लगा। इन्हीं दिनों में बादशाह औरंगजेब ने उसके विरुद्ध एक नया जाल तैयार किया। उसने सेनापति तहब्बर खाँ को फँसा कर शाहजादा अकबर को दुर्गादास से अलग करने की जो कोशिश की थी, उसकी वह चाल असफल हो गयी थी। अब उसने दुर्गादास को फँसाने के लिये एक नयी कोशिश की। उसने आठ हजार सोने की मोहरें दुर्गादास के पास भेज दीं और उसके बाद भी उसने उसको प्रलोभन दिये। परन्तु दुर्गादास पर इन प्रलोभनों का कोई प्रभाव न पड़ा। दुर्गादास ने पायी हुई मोहरों का जिक्र शहजादे अकबर से किया और उनमें से बहुत सी मोहरें अकबर की जरूरतों में खर्च की गयीं। कुछ रुपया दोनों तरफ के गरीब नौकरों में बाँटा गया। [ ३७८ ] औरंगजेब की जब यह चाल भी बेकार हो गयी तो उसने अकबर के विरुद्ध एक मुगल सेना रवाना की। उसके आने का समाचार सुनकर वह भयभीत हुआ। उसके मन में अनेक प्रकार की आशंकायें पैदा होने लगीं। उसे चिन्तित देखकर दुर्गादास ने सन्तोष देते हुए उससे कहा-"आपको किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। जब तक मैं जिन्दा हूँ, बादशाह आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।"

दुर्गादास ने राजकुमार अजीत की रक्षा का भार सोगनदेव को सौंपा और एक सेना लेकर वह दक्षिण की तरफ रवाना हुआ। शाहजादा अकबर की रक्षा के लिये दुर्गादास ने जिन विश्वासी राजपूतों को नियुक्त किया था, उनका वर्णन कवि कर्णीदान ने बड़ी सुन्दरता के साथ किया है। उन विश्वस्त राजपूतों में चम्पावतों की संख्या अधिक थी। जोधा, मेड़तिया, यदु, चौहान, भाटी, देवड़ा, सोनगरा और माँगलिया आदि बहुत से सरदार दुर्गादास के साथ गये थे। बादशाह ने दुर्गादास की सेना का पीछा किया। उसकी फौज ने राठौड़ सेना को चारों तरफ से घेर लिया। इस दशा में दुर्गादास ने एक हजार सैनिकों को साथ लेकर उत्तर दिशा की तरफ का रास्ता छोड़ दिया। औरंगजेब ने उसका पीछा किया और जब वह जालौर में पहुँचा तो उसे उस बात का ख्याल हुआ कि दुर्गादास जालौर की तरफ नहीं आया। वह गुजरात के दक्षिण की तरफ और चम्बल नदी की बायीं ओर अकबर को लिये हुए नर्मदा के किनारे पर पहुँच गया है।

इस समय औरंगजेब के क्रोध का ठिकाना न रहा। वह अपने नित्य के धार्मिक कामों को भी भूल गया और मन की उलझन में उसने कुरान को उठाकर फेंक दिया। उसके बाद उसने आजम से कहा: "उदयपुर को फतह करने के लिये मैं वहाँ पर रहूँगा। तुम्हारा सबसे पहला काम यह है कि राठौड़ों पर आक्रमण करके अपने भाई अकबर को गिरफ्तार करो।"

बादशाह औरंगजेब ने अजमेर पहुँचने के दस दिनों के बाद अपनी सेना जोधपुर और अजमेर में छोड़ दी और वह स्वयं आगे की तरफ रवाना हुआ। दुर्गादास ने अजीत की रक्षा का भार बहुत विश्वासी राठौड़ों को सौंपा था। इसीलिये बहुत कोशिश करने के बाद भी औरंगजेब को अजीत का पता न मिल सका। वह कहाँ पर, किस पर्वत की गुफा में छिपा कर रखा गया है, इसका पता तो मारवाड़ के लोगों को भी न था। बहुत से लोग यह जानना चाहते थे कि अजीत कहाँ है और उसकी रक्षा किस प्रकार हो रही है? परन्तु इन बातों का कोई पता न लगा सका। बादशाह औरंगजेब के इन दिनों के सारे अत्याचार मेवाड़ और मारवाड़ पर राजकुमार अजीत के कारण हो रहे थे। वह किसी प्रकार अजीत को जीवित नही देखना चाहता था। वह जानता था कि मारवाड़ के सरदारों और सामन्तों ने उसके प्राणों की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया है इसीलिये उसने मारवाड़ के नौ हजार ग्रामों और नगरों में भयानक अत्याचार किया था और उनको लूटकर तथा आग लगा कर श्मशान बना दिया था। यही अवस्था उसने मेवाड़ की बनाई थी। इसलिये कि वहाँ के राणा ने अजीत को और उसकी रक्षा करने वालों को अपने यहाँ आश्रय दिया था। राणा के इस अपराध के बदले औरंगजेब ने मेवाड़ राज्य के दस हजार ग्रामों और नगरों का भयानक रूप से विनाश किया था। उसके इन अत्याचारों के कारण मारवाड़ के राठौड़ सरदार और सामन्त भयभीत नहीं हुए और उनकी इस निर्भीकता का कारण शूरवीर दुर्गादास था।

मेवाड़ और मारवाड़ का विध्वंस और विनाश करके इनायत खाँ ने दस हजार मुगल सेना के साथ जोधपुर में प्रवेश किया और वहाँ पर उसने मुकाम किया। जोधपुर इन दिनों में मुगलों के अधिकार में था। इस पराधीनता से जोधपुर को निकालने के लिये मारवाड़ के [ ३७९ ]राठौड़ों ने प्रतिज्ञायें कीं। कर्णोत, क्षेमकर्ण, जोधावंशी, महेचा, विजयमल, सूजावत, जैतमाल, शिवदान आदि और भी शूरवीरों ने अपनी सेनायें तैयार की। इन लोगों को जव मालूम हुआ कि वादशाह औरंगजेब ने अजमेर से आठ मील की दूरी पर आकर विश्राम किया है, तो उस समय राठौड़ सेना ने जोधपुर पहुँच कर उसकी फौज का सामना किया। परन्तु उसके बाद ही वीस हजार मुगल सेना इनायत खाँ की सहायता के लिये वहाँ पहुँच गयी। उस समय जोधपुर में मुगल फौज के साथ राठौड़ों का भयानक युद्ध हुआ और उस संग्राम में दोनों तरफ के बहुत से आदमी मारे गये। जोधपुर का यह संग्राम सम्वत् 1737 सन् 1681 आषाढ़ बदी की सप्तमी को हुआ था। इसके बाद दूसरा युद्ध राठौड़ों और मुगलों के बीच फिर हुआ। उस युद्ध में हरनाथ और कर्ण अपने परिवार के कई लोगों के साथ मारे गये । इस युद्ध का अन्त सम्वत 1738 के आरम्भ में हुआ। इन संग्रामों में सोनग ने जिस प्रकार अपने अद्भुत पराक्रम का परिचय देकर युद्ध किया था, उसको देखकर औरंगजेव आश्चर्य में आ गया। युद्ध के बाद वादशाह ने अपना दूत उसके पास भेजा और उसके साथ सन्धि की बातचीत शुरू की। इसके साथ-साथ उसने उसको सात हजारी की पदवी दी और उसके वंशजों को अजमेर देकर सोनग को वहाँ का अधिकारी बना दिया। इसके सम्बन्ध में एक सन्धि पत्र लिखा गया। उसमें औरंगजेव ने यह भी लिख दिया कि-"मैं भगवान की कसम खाकर इस सन्धि पत्र पर मुहर करता हूँ और वादा करता हूँ कि इसके विरुद्ध मैं कभी कोई कार्य न करूँगा।" इस संधि पत्र को लेकर दीवान असद खाँ वहाँ पर आया और राठौड़ों के बीच पहुँचकर उसने शपथ के साथ कहा – “इस सन्धि के विरुद्ध बादशाह कोई भी कार्य न करेगा।" शाहजादा अकवर के जीवन की परिस्थितियाँ इस समय भयानक हो उठीं। वह सैनिकों को लेकर दक्षिण की तरफ चला गया। असद खाँ अजमेर में और सोनग मेड़ता नगर में रहने लगा। औरंगजेब की दृष्टि मेड़ता पर गयी। वह सोनग के सम्बन्ध में विचार करने लगा। उसने राठौड़ों को जो अश्वासन दिया था, उसे उसने भुला दिया और एक ब्राह्मण को धन देकर उसने सोनग का अन्त करने के लिये रास्ता बनाया। भट्ट ग्रन्थों में लिखा गया है कि उस व्राह्मण के द्वारा सोनग की मृत्यु हो गयी। वहाँ पर यह वात स्पष्ट नहीं की गयी कि उसकी मृत्यु का कारण क्या हुआ। परन्तु इस बात का अनुमान किया जाता है कि उस ब्राह्मण के द्वारा सोनग को विष खिलाकर मारा गया। सोनग की मृत्यु का समाचार दीवान असद खाँ ने औरंगजेब के पास भेजा । उससे वादशाह को बहुत संतोष मिला। उसने उस ब्राह्मण को जो धन दिया था, सफल हो गया। राठौड़ों के साथ की गयी सन्धि को तोड़कर और सोनग को संसार से विदाकर औरंगजेब दक्षिण की तरफ रवाना हुआ। इन दिनों में मेड़ता निवासी कल्याण के पुत्र मुकुन्दसिंह को वादशाह की तरफ से एक उपाधि दी गयी थी। मुकुन्दसिंह ने उस उपाधि को ठुकराकर मुगलों के साथ युद्ध करने की तैयारी की। उसने मेड़ता के करीव दीवान असद खाँ की सेना से एक युद्ध किया। विट्ठलदास का वेटा अजवसिंह उस युद्ध में मारा गया। यह युद्ध सम्वत् 1738 कार्तिक सुदी 2 को हुआ था। इस युद्ध में शाहजादा आजम असद खाँ के साथ था। इनायत खाँ जोधपुर में रहने लगा और उसकी फौज जोधपुर के आस-पास भयानक अत्याचार करने लगी। अपने साथ 425 [ ३८० ]इनायत खाँ के इस अत्याचार को रोकने के लिये चन्द्रावल का अधिकारी कुम्पावत शम्भू बख्शी उदयसिंह और दुर्गादास का बेटे तेजसिंह राठौड़ सेना के साथ रवाना हुआ। फतहसिंह और रामसिंह शाहजादा अकबर के साथ दक्षिण गये थे। वहाँ पर शाहजादा को छोड़कर वे दोनों कुम्पावत की सहायता करने के लिये आ गये। इनके अतिरिक्त और भी बहुत से राजपूत मुगलों के साथ युद्ध करने के लिये राठौड़ सेना में पहुँच गये। ये लोग मेवाड़ के कुछ नगरों में फैल गये और वहाँ के मुगल अधिकारी कासिमखाँ को उन लोगों ने मार डाला।

इन दिनों में राठौड़ों की शक्तियाँ बहुत क्षीण हो गई थीं और वे अब शक्तिशाली मुगल सेना के साथ युद्ध करने के योग्य न रह गये थे। इसलिये उनको पहाड़ों पर जाकर आश्रय लेना पड़ा। वे निर्बल हो गये थे। इसलिये वे पहाड़ों के ऊपर दुर्गम स्थानों में छिपे रहते थे और मौका पाकर एकाएक शत्रुओं पर आक्रमण करके उन्हें भीषण रूप से क्षति पहुँचाते थे और फिर इसके बाद वे सब लोग भाग कर फिर पहाड़ों पर चले जाते थे।

इस प्रकार की परिस्थितियों में राठौड़ों के कई महीने बीत गये। उन्होंने एक बार भयानक रूप से मुगलों की उस सेना पर आक्रमण किया, जो जैतारण नामक स्थान पर पड़ी हुई थी। राठौड़ों के अचानक आक्रमण से मुगल सेना का भयानक विनाश हुआ। उसके बाद राठौड़ फिर भागकर अपने पहाड़ी स्थानों पर चले गये। इस प्रकार के आक्रमण करके सम्वत् 1739 में राठौड़ों ने अपनी शक्तियाँ पहले की अपेक्षा अधिक मजबूत बना ली। इन्हीं दिनों में चम्पावत विजयसिंह ने सोजत का दुर्ग जीतकर अपने अधिकार में कर लिया और राजपूतों की एक सेना लेकर रामसिंह ने मुगलों के साथ युद्ध किया। मिर्जा तूर अली नाम का एक मुसलमान चेरई का अधिकारी था। राठौड़ों ने उस पर आक्रमण किया और तीन घन्टे के युद्ध में हजारों मुसलमान जान से मारे गये।

चम्पावत उदयसिंह और मेड़ता के मोहकमसिंह ने जैतारण के युद्ध में एक राठौड़ सेना को भेजा था। उसके लौटने पर वे दोनों गुजरात की तरफ रवाना हुए और खेराल नगर में पहुँच कर गुजरात के अधिकारी सैयद मोहम्मद का उन्हें सामना करना पड़ा। मुस्लिम सेना ने अचानक राठौडों को घेर लिया। परन्तु रात हो जाने के कारण युद्ध नहीं हुआ। सवेरा होते ही दोनों तरफ के लोग आगे बढ़े और युद्ध आरम्भ हो गया। भाटी गोकुलदास अपने बहुत से आदमियों के साथ मारा गया। रामसिंह ने सैयद मोहम्मद की सेना के साथ भयानक युद्ध किया। परन्तु अन्त में वह भी मारा गया। इस युद्ध में राठौड़ों के सैनिक और सामन्त अधिक मारे गये। लेकिन पराजय मुसलमानों की हुई।

इसी वर्ष भादो के महीने में मुगल सेना ने पाली नगर पर आक्रमण किया। वहाँ पर राठौड़ों ने पाँच सौ मुगलों को युद्ध में पराजित किया। उनका सेनापति अफ़जलखा मारा गया। इस युद्ध में राठौड़ौं की तरफ से जिसने भीषण युद्ध किया था और मुगलों को पराजित किया था, उसका नाम वल्लू था।

इसके बाद उदयसिंह ने सोजत पर आक्रमण किया। जैतारण में राठौड़ों का फिर से प्रभुत्व कायम हुआ। बैसाख के महीने में मोहकमसिंह ने मेड़ता के बचे हुए मुगल सैनिकों पर आक्रमण किया। उस लड़ाई में सैयद अली मारा गया और उसके मरते ही मुगल सेना युद्ध के क्षेत्र से भाग गयी।

लगातार युद्धों, आक्रमणों और नर हत्याओं के साथ सम्वत् 1739 खत्म हुआ। इस वर्ष राठौड़ अधिक संख्या में मारे गये। लेकिन संख्या में बहुत कम होते हुए भी उन्होंने मुगलों के साथ भयानक युद्ध किये और भीषण रूप से शत्रुओं का संहार किया। इस वर्ष [ ३८१ ]की लड़ाइयों में राजस्थान के सभी राजपूत मिलकर एक हो गये थे। इसका कारण मुगलों का अत्याचार था। इसलिये जो राजपूत एक, दूसरे के साथ कभी न मिल सके थे, वे भी इन दिनों में मिलकर एक हो गये। सम्वत् 1739 के आखिर में जैसलमेर के भाटी लोग भी राठौड़ों के साथ मिल गये थे और उन लोगों ने राठौड़ों की सहायता करने में अपने प्राणों को उत्सर्ग किया। सम्वत् 1742 के आरम्भ से मुसलमानों की नई तैयारियाँ आरम्भ हुईं। अब वे अपनी नवीन शक्तियों को लेकर युद्ध की तैयारियाँ करने लगे। आजम और असदखाँ भारत के दक्षिण में चले गये और वहाँ जाकर औरंगजेब से मिले। इनायत खाँ अधिकारी वनकर अजमेर में रहने लगा। उसे औरंगजेब ने आज्ञा दी थी कि राठौड़ों के साथ युद्ध वरावर जारी रहे और बरसात के दिनों में भी युद्ध वन्द न किया जाये। इनायत खाँ ने यही किया। इन दिनों में मारवाड़ के सभी नगर और ग्राम मुगलों के अधिकार में थे और उनके अत्याचार से मारवाड़ सभी प्रकार मिट चुका था। जो लोग उन गाँवों और नगरों में वाकी रह गये थे, वे मुगलों के नाम से घबरा रहे थे। अपनी इस निर्वलता में मारवाड़ के वे लोग मेरवाड़ा में पहुँचकर आश्रय लेने लगे और थोड़े समय के भीतर सभी राठौड़ अपने परिवारों को लेकर मेरवाड़ा के पहाड़ी स्थानों पर जाकर रहने लगे। यहाँ आकर उन लोगों ने फिर से अपना संगठन किया और भयानक कठिनाई में होने पर भी उन्होंने मुगलों पर आक्रमण आरम्भ कर दिये। वे किसी समय अपने स्थानों से निकल कर अचानक उन गाँवों और नगरों पर आक्रमण कर देते, जो मुगलों के अधिकार में थे। उन नगरों की लूट-मार कर वे फिर पहाड़ी और जंगली स्थानों में भाग जाते । मुगलों से वदला लेने के लिये जितने भी अवसर राठौड़ों को मिल सकते थे, उनको उन्होंने वेकार नहीं जाने दिया। राठौड़ों ने पाली, सोजत और गोडवाड आदि कितने ही नगरों और ग्रामों को लूट कर वरवाद कर दिया। प्राचीन मन्डोर नगर का अधिकार ख्वाजा सालह नाम के एक मुस्लिम सेनापति के हाथ में था। भाटियों ने उस पर आक्रमण किया और उसे वहाँ से निकाल दिया। वैसाख के महीने में वगड़ी नाम स्थान पर एक भयानक युद्ध हुआ। उसमें रामसिंह और सामन्तसिंह नाम के दो भाटी सरदारों ने हजारों मुसलमानों का अन्त किया और अपने दो सौ सैनिकों के साथ वे दोनों सरदार मारे गये। अनूपसिंह नाम का एक सरदार कुम्पावतों को लेकर लूनी नदी के समीप पहुँच गया और उसने वहाँ के मुसलमानों का संहार करना आरम्भ किया। उसके इस आक्रमण से उस्तराँ और गाँगणी नाम के दो दुर्गों से मुगलों के सैनिक भाग गये। मोहकमसिंह मेड़तिया सेना के साथ अपनी प्राचीन भूमि में आया और वहाँ के रहने वाले मुसलमानों पर उसने आक्रमण किया। मुगल सेनापति मोहम्मद अली ने अपनी फौज लेकर उसका सामना किया। दोनों ओर से मारकाट आरंभ हुई। अन्त में मोहम्मद अली ने राठौड़ों से युद्ध बंद करने की प्रार्थना की । उसके वाद सन्धि हुई । राठौड़ों ने युद्ध बन्द कर दिया था और मोहम्मद अली के साथ उनकी जो सन्धि हुई थी, उससे वे निश्चिन्त हो गये। उनको असावधान देखकर मोहम्मद अली ने सन्धि की उपेक्षा करके राठौड़ सेनापति पर आक्रमण किया और धोखे से उसे मार डाला। मुसलमानों के इस विश्वासघात का प्रभाव राठौड़ों पर बहुत बुरा पड़ा। उसका बदला लेने के लिये राठौड़ों ने इधर-उधर अपने आक्रमण आरंभ कर दिये । सुजानसिंह राठौड़ सेना को लेकर दक्षिण की तरफ चला गया। जोधपुर में जो मुस्लिम सेना मौजूद थी, उसके साथ राजपूतों के 427 [ ३८२ ]संघर्ष आरम्भ हुए। सुजानसिंह के मारे जाने पर सेनापति संग्रामसिंह युद्ध के लिये तैयार हुआ।[३]

संग्रामसिंह उन दिनों में मनसब के पद पर था। उसको एक जागीर मिली हुई थी। उसने युद्ध की तैयारी की। शूरवीर राठौर उसके झण्डे के नीचे आकर एकत्रित हुए। संग्रामसिंह ने अपनी सेना लेकर शिवाँणची पर आक्रमण किया और उसके साथ-साथ बालोतरा तथा पंचभद्रा में लूटमार की।

उदयभानु जोधावत सेना के साथ भद्राजून के सम्मुख पहुँचा और उसने वहाँ पर आक्रमण करके शत्रुओं की धन-दौलत लूटकर उनके खाने-पीने की सामग्री अपने अधिकार में कर ली। वहाँ के मुसलमानों ने उनका सामना किया। परन्तु वे लड़ न सके और जोधावत सैनिकों ने कई बार उनको पराजित किया।

पुरदिल खाँ ने सिवाना और नाहर खाँ ने मेवाटी तथा कुकारी पर अधिकार कर लिया था। इसलिये उन पर आक्रमण करने के लिए चम्पावत लोग मुकुलदर नामक स्थान पर इकट्ठा हुये। उसी अवसर पर उन्हें समाचार मिला कि नूरअली, अशानी खानदान की स्त्रियों को अपहरण करके ले गया है। यह सुनते की रतनसिंह राठौड़ सेना को लेकर रवाना हुआ। उसने कुनारी नामक स्थान पर पहुँच कर पुरदिल खाँ पर आक्रमण किया। पुरदिल खाँ के साथ छः सौ लड़ाकू सैनिक थे। उनमें से बहुत से सैनिकों के साथ पुरदिल खाँ मारा गया। उस लड़ाई में राठौड़ों के केवल सौ सैनिक मारे गये। इस पराजय को सुनते ही मिरजा दोनों अपहृत स्त्रियों को लेकर थोडा की तरफ भागा और कोचाल में पहुँचकर उसने मुकाम किया।

इस समाचार को सुनकर आसकर्ण के पुत्र सबलसिंह ने अपनी सेना को तैयार किया और अफीम खाकर मुस्लिम सेनापति के साथ युद्ध करने के लिये वह रवाना हुआ। दोनों तरफ से मारकाट आरम्भ हुई। उस लड़ाई में भाटी सरदार मारा गया।

धीरे-धीरे सम्वत् 1741 भी समाप्त हो गया। इन दिनों में हिन्दू-मुसलमानों के जो संघर्ष बढ़े थे, उनमें किसी प्रकार कमी न आई। इसके पश्चात् सम्वत् 1742 आरम्भ हुआ। इस वर्ष के आरम्भ में लाखावतों और आशावतों ने साँभर पहुँच कर मुसलमानों के साथ युद्ध करने की तैयारियाँ कीं। कुछ दूसरे सामन्तों ने गोडवाड से निकल कर अजमेर के मुसलमानों पर आक्रमण किया और वहाँ से चलकर वे मेड़ता के मैदानों में पहुँच गये और वहाँ के मुसलमानों पर उन्होंने आक्रमण किया। दोनों ओर से भयानक संघर्ष हुआ।

इस लड़ाई में राठौड़ों की पराजय हुई। विजयी मुसलमानों ने राठौड़ सेना को युद्ध क्षेत्र से भगा दिया। संग्रामसिंह असफल होने के बाद फिर युद्ध की तैयारी करने लगा। अपनी बची हुई सेना को लेकर वह रवाना हुआ और जोधपुर के गाँवों में पहुँच कर उसने आग लगवा दी। इसके बाद दूवाड़ा नगर में वह अपनी सेना के साथ पहुँच गया। वहाँ से उसने जालौर पर आक्रमण किया। वहाँ का मुस्लिम अधिकारी घबरा उठा। परन्तु उस पर कोई अत्याचार नहीं किया गया। उसको आत्मसमर्पण करने के लिये विवश किया गया और इसके लिये उसे सम्मानपूर्वक अवसर दिया गया। इस प्रकार सम्वत् 1742 भी समाप्त हो गया।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।

  1. मारवाड़ में दूहड़ नाम का एक राजा हुआ था राव उसकी उपाधि थी।
  2. कुछ लेखकों का कहना है कि रत्नसिंह गलत नाम है। उसका सही नाम रायसिंह है। वह राव अमर सिंह का बेटा था और जसवंत सिंह का भतीजा था।
  3. संग्रामसिंह जुझारसिंह का बेटा था। वह मुगल बादशाह के यहाँ नौकर था। वह नौकरी छोड़कर राठौड़ों के साथ आकर मिल गया था।