रामनाम/१९

विकिस्रोत से

[ २८ ]पाअी है। और मेरा यह दावा है कि रामनाम सभी बीमारियोकी, फिर वे तनकी हो, मनकी हो या रूहानी हो, अेक ही अचूक दवा है। अिसमें शक नही कि डॉक्टरो या वैद्योसे शरीरकी बीमारियोका अिलाज कराया जा सकता है। लेकिन रामनाम तो आदमीको खुद ही अपना वैद्य या डॉक्टर बना देता है, और अुसे अपनेको अन्दरसे नीरोग बनानेकी सजीवनी हासिल करा देता है। जब कोअी बीमारी अिस हद तक पहुच जाती है कि अुसे मिटाना मुमकिन नही रहता, अुस वक्त भी रामनाम आदमीको अुसे शान्त और स्वस्थ भाव से सह लेनेकी ताकत देता है।" अुन्होंने और कहा "जिस आदमी को रामनाममे श्रद्धा है, वह जैसे-तैसे अपनी जिन्दगी के दिन बढानेके लिअे नामी-गरामी डॉक्टरो और वैद्योके दरकी खाक नही छानेगा और यहासे वहा मारा-मारा नही फिरेगा। रामनाम डॉक्टरो और वैद्योके आगे हाथ टेक देनेके बाद लेनेकी चीज भी नही। वह तो आदमीको डॉक्टरो और वैद्योके बिना भी अपना काम चला सकनेवाला बनानेकी चीज है। रामनाममे श्रद्धा रखनेवाले के लिअे वही अुसकी पहली और आखिरी दवा है।"

हरिजनसेवक, २-६-१९४६

१६
दशरथ-नन्दन राम

अेक आर्यसमाजी भाअी लिखते हैं

"जिन अविनाशी रामको आप अीश्वर-स्वरूप मानते है, वे दशरथ-नन्दन सीतापति राम कैसे हो सकते है? अिस दुविधा का मारा मै आपकी प्रार्थनामे बैठता तो हू, लेकिन रामधुनमे हिस्सा नही लेता। यह मुझे चुभता है। क्योकि आपका कहना तो यह है कि सब हिस्सा ले, और यह ठीक भी है। तो क्या आप अैसा कुछ नही कर सकते, जिससे सब हिस्सा ले सके?"

सबके मानी मै बता चुका हू। जो लोग दिलसे हिस्सा ले सके, जो अेक सुरमे गा सके, वे ही अिसमे हिस्सा ले, बाकी शान्त रहे। लेकिन यह तो छोटी बात हुअी। बड़ी बात तो यह है कि दशरथ-नन्दन राम अविनाशी कैसे हो सकते है? यह सवाल खुद तुलसीदास जी ने अुठाया था और अुन्होने [ २९ ]अिसका जवाब भी दिया था। अैसे सवालोका जवाब बुद्धिसे नही दिया जा सकता—अुससे खुद बुद्धिको भी सन्तोष नही होता। यह दिलकी बात है। दिलकी बात दिल ही जाने। शुरूमे मैने रामको सीतापतिके रूप में पूजा। लेकिन जैसे-जैसे मेरा ज्ञान और अनुभव बढता गया, वैसे-वैसे मेरा राम अविनाशी और सर्वव्यापी बनता गया, और है। अिसका मतलब यह है कि वह सीतापति बना रहा और साथ ही सीतापतिके मानी भी बढ गये। ससार अैसे ही चलता है। जिसका राम दशरथ राजाका ही रहा, अुसका राम सर्वव्यापी नही हो सकता, लेकिन सर्वव्यापी रामका बाप दशरथ भी सर्वव्यापी बन जाता है—पिता और पुत्र अेक हो जाते है। कहा जा सकता है कि यह सब मनमानी है। 'जैसी जिसकी भावना, वैसा अुसको होय'। दूसरा कोअी चारा मुझे नजर नही आता। अगर मूलमे सब धर्म अेक है, तो हमे सबका अेकीकरण करना है। वे अलग तो पडे ही है, और अलग मानकर हम अेक-दूसरेको मारते है। और जब थक जाते है, तो नास्तिक बन जाते है, और फिर सिवा 'हम' के न अीश्वर रहता है, न कुछ और। लेकिन जब समझ जाते है, तो हम कुछ नही रह जाते। अीश्वर ही सब कुछ बन जाता है। वह दशरथ-नन्दन, सीतापति, भरत व लक्ष्मणका भाअी है भी और नही भी है। जो दशरथ-नन्दन रामको न मानते हुअे भी सबके साथ प्रार्थनामे बैठते है, अुनकी बलिहारी है। यह बुद्धिवाद नही। यहा मै यह बता रहा हू कि मै क्या करता हू, और क्या मानता हू।

हरिजनसेवक, २२-९-१९४६