विषयसूची:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf
________________ ३. पन : लक्ष्मीदास गांधोको शुक्रवार, ९ नवंबर, १८८८ कृपासागर, आदरणीय बड़े भाई श्री भुरब्बी लक्ष्मीदास करमचन्द गाधीकी सेवामें सेवक मोहनदास करमचन्दकी शिर-साष्टाग दण्डवत स्वीकार हो। दो या तीन हफ्ते हो गये, आपका कोई पत्र नहीं आया। यह बड़े ताज्जुब और खेदकी बात है। कारण कुछ समझ में नहीं आता। शायद बीचमें थोड़े दिन मेरे पत्र न पहुँचनेसे ऐसा हुआ हो। लंदन पहुँचनेतक मेरा कोई पक्का मुकाम नही था, इसलिए पत्र लिखकर डाल नहीं सका। परन्तु इस प्रकार आपका पत्र न लिखना तो ताज्जुबकी बात है। इस दूर देवामें सिर्फ पत्रसे ही मिलाप होता है। इसलिए आपको यह क्या सूझा, समझ में नहीं आता । बहुत चिन्ता है। घरकी खैर-खबर पानेका मौका हफ्ते में एक बार आता है। वह भी न मिले तो बड़ा दुःख होता है। खाली बैठे रहने पर तो सारा दिन इसी फिक्रमें वीतता है। आशा है कि आगे आप ऐसा हगिज नही करेगे। हफ्ते में एक कार्ड लिख देनेकी कृपा करेंगे तो भी बस होगा। परन्तु अगर इस तरह आप बिलकुल लिखेंगे ही नहीं, तो मेरी क्या दशा होगी, कह नही सकता। मापको ठिकाना मालम न होता तो मुझे बिलकुल चिन्ता न होती। परन्तु सापके दो पत्र मिले, फिर बन्द हो गये-यह खेदजनक है। मंगलवारको मै इनर टेम्पलमें भरती हो गया था। अगले हफ्ते में आपका पत्र आयेगा, यह सोचकर इस सप्ताह मैने विस्तारपूर्वक पत्र नहीं लिखा था। अब आपका पत्र मानेपर सारे समाचार दूंगा। ठंड बहुत सस्त पड़ रही है। इससे ज्यादा पड़नेकी सम्भावना नही है। अलबत्ता, ज्यादा पड़ती तो है, मगर कभी-कभी। परन्तु इस सख्त ठंडमें ईश्वरकी कृपासे मांस मदिराकी जरूरत मालूम नहीं होती। इससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी तबीयत बहुत अच्छी है। बस, हाल इतना ही है। मातुश्रीकी सेवामें शिर-साष्टाम दण्डवत करें। भाभीको दण्डवत् । महास्मा, खंड १ तथा गुजराती पत्रकी फोटो-नकलसे। ________________ ४. लन्दन-दैनन्दिनी' लन्दन १२ नवम्बर, १८८८ इंग्लैड आनेका इरादा करनेके क्या कारण थे? बात अप्रैलके लगभग अन्तमें शुरू हुई। अध्ययनके लिए लदन आनेके इरादेने जय प्रत्यक्ष रूप ग्रहण किया उसके पहले ही मेरे मन में यहाँ आने और आखिर लंदन है क्या, अपनी यह जिज्ञासा तुप्त करनेका मंसूबा दबा पड़ा था। जब मै भावनगर कालेजमें पढ़ रहा था, जयशंकर बुचसे मेरी मामूली बातें हुई थी। बातोके दौरानमें उन्होने मुझे सलाह दी थी कि तुम तो सोरठके निवासी हो, इसलिए जूनागढ़ राज्यको लंदन जानेके लिए छात्रवृत्तिकी अर्जी दो। उस दिन मैने उन्हें क्या जवाब दिया था, यह अब अच्छी तरह याद नहीं आता। ऐसा लगता है कि मैंने छात्रवृत्ति पाना असम्भव समझा होगा। उस [समय ] से मेरे मनमें इस अचलकी यात्रा करनेका इरादा जम गया था। मैं इस ध्येयको पूर्ण करनेके साधन खोजसा रहा। तेरह अप्रैल, १८८८ को मैं भावनगरसे छुट्टियां मनाने के लिए राजकोट गया। पन्द्रह दिनकी छुट्टियोंके बाद मेरे बड़े भाई और मै पटवारीसे मिलने गये। लौटने पर मेरे भाईने कहा: "चलो, मावजी जोशीसे मिल आयें।" इसलिए हम उनके यहां गये। मावजी जोशीने साधारण कुशल-प्रश्न करनेके बाद भावनगरमें मेरी पढ़ाईकी बावत कुछ पूछताछ की। मैने उन्हें साफ-साफ बताया कि मेरा पहले वर्ष में परीक्षा पास हो जाना मुश्किल ही है। मैंने यह भी कहा कि मुझे पाठ्यक्रम बहुत कठिन मालम होता है। यह सुनकर उन्होंने मेरे भाईको सलाह दी कि वे, जैसे भी सम्भव हो, मझे वैरिस्टरी पढ़नेके लिए लदन भेज दें। उन्होने बताया कि खुर्च सिर्फ ५,००० रुपये आयेगा। "यह अपने साथ थोड़ी उड़दकी दाल ले जाये। वहाँ अपने लिए खुद कुछ खाना बना लिया करेगा। इससे कोई धार्मिक आपत्ति न होगी। यह बात किसीको बतानो मत। कोई छात्रवृत्ति पानेका प्रयल करो। जूनागढ़ और पोरबन्दर १. जब गांधीजी के सम्बन्धी भौर साथी श्री छगनलाल गांधी १९०९ में पहली बार संदन जा रहे थे, स समय गांधोनीने उन्हें अपनी लइनमें लिखी हुई दैनन्दिनी दे दी थी। दैनन्दिनी लाभग १२० पूर्वोको थी। श्री छगनलालने १९२० में यह महादेव देसाईको दे दी थी। परन्तु देनेके पहले उन्होंने एक बड़ी में मूल दैनन्दिनीके लाभग बीस पृष्ठोंकी नकल तैयार कर ली थी। शेष १०० पृष्ठों में इन पौस पृष्ठोंके समान सिलसिलेवार सामग्री नहीं भी, वलि १८८८ से १८९१ तस्के लंदनमासमें दिन-प्रतिदिन को घटना होती थीं उनका उस्लेख-मात्र था। भी मानकाळको यह प्रति मामूली संपादकीय सुधारोंकि याद पहा उद्धृत की जा रही है। गांधोनोने दैनन्दिनी अंमेलीमें लिखी थी। उसे लिखने के समय ये केवल १९ वर्षके थे। २. गांधी-कुटुम्बके मित्र, पुरोहित और सलाहकार । ________________ दोनो राज्योंको पानेमे सफलता परन्तु किर बलरामसे मिल पास भी न तो भेज ही दो। म मावजी जोशी जो कुछ भावसे ही बड़े भोले सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय दोनो राज्योंको अर्जी भेज दो। मेरे लड़के केवलरामसे मिल लो और बगर तुम्हें आर्थिक सहायता पानेमे सफलता न मिले, और तुम्हारे पास मी रूपया न हो, तो अपना साज-सामान बेच डालो। परन्तु किसी भी तरह मोहनदासको लंदन तो भेज ही दो। मैं समझता हूँ कि तुम्हारे स्वर्गवासी पिताकी प्रतिष्ठा बनाये रखनेका एकमात्र उपाय यही है।" मावजी जोशी जो-कुछ भी कहते है उसपर हमारे परिवारके सभी लोगोंको बड़ा भरोसा रहता है। और मेरे भाई तो स्वभावसे ही बड़े भोले है। उन्होंने मावजी जोशीसे मुझे लंदन भेजनेका वादा कर दिया। अब मेरे प्रयत्नोंकी बारी आई। मेरे भाईने बातको गुप्त रखनेका जो बचन दिया था उसके बावजूद उसी दिन खुशालभाईसे सब कुछ कह दिया। बेशक, खुशालभाईने बात पसन्द की। शर्त इतनी ही थी कि मैं अपने धर्मका पालन कर सकूँ। उसी दिन मेधजीमाईको मी. बता दिया गया। वे प्रस्तावसे बिलकुल सहमत हो गये और उन्होने मुझे ५,००० रुपये देनेकी तैयारी भी दिखाई। मुझे उनकी बातपर कुछ भरोसा हो गया था; परन्तु जब बात मेरी प्यारी मौके सामने प्रकट की गई तो उन्होंने मेरे इतने भोलेपनपर मुझे फटकार सुनाते हुए कहा कि समय आनेपर तुम्हें उनसे कुछ भी रुपया न मिलेगा। उनका स्वयाल तो यह था कि जानेका अवसर ही कभी नही आयेगा। उस दिन मुझे केवलरामभाईके पास जाना था। मैं उनसे मिला। वहाँ मेरी बातचीत सन्तोषजनक नहीं रही। उन्होने मेरे लक्ष्यको तो पसंद किया परन्तु कहा यह कि "तुम्हें वहाँ कमसे-कम दस हजार रुपये खर्च करने पड़ेंगे।" मेरे लिए तो यही एक बड़ा धक्का था, परन्तु उन्होंने आगे यह भी कहा-"अगर तुम्हारे मनमें कोई धार्मिक आग्रह हों तो उनको तुम्हें छोड़ देना होगा। तुम्हें मांस खाना पड़ेगा, शराब पिये बिना भी काम न चलेगा। उसके बिना वहाँ तुम जी नहीं सकते। जितना ज्यादा खर्च करोगे उतने ही ज्यादा होशियार बनोगे। यह बात बहुत महत्त्वकी है। मैं तुमसे साफ-साफ कहता हूँ। बुरा न मानना । पर देखो, तुम अभी बहुत छोटे हो। लंदनमें प्रलोभन बहुत है। तुम उनके फंदेमें फंस जागोगे।" मेरे मनमें इस बातचीतसे कुछ खिन्नता उत्पन्न हुई। परन्तु मै एक बार इरादा कर लेनेपर उसे सरलतासे छोड़ देनेवाला आदमी नहीं हूँ.। उन्होंने अपनी बात कहते हुए श्री गुलाम मुहम्मद मुंशीका उदाहरण दिया। मैंने उनसे पूछा कि क्या आप मुझे छात्रवृत्ति पानेमें कोई सहायता पहुंचा सकते हैं? उन्होंने नकारात्मक जवाब दिया और कहा-इसके अलावा बौर सब कुछ बहुत खुशीसे करूंगा। मैने अपने भाईको सब बातें बता दी। १. काठियावादके प्रमुख वकील । २. गांधीजीके चचेरे भाई और दक्षिण अफ्रिकामें गाँधीमीके सहकर्मी श्री आनलाल गाथी वो मगनलाल गांधी के पिता। ३. गाँधीबीके चचेरे भाई। ________________ लन्दन-दनन्दिनी अब मुझे अपनी प्यारी मांकी अनुमति प्राप्त करनेका काम सौंपा गया। मैं मानता था कि यह मेरे लिए कोई बहुत कठिन काम नही है। एकदो दिन बाद मै और मेरे भाई श्री केवलरामसे मिलने गये। उस समय थे बहुत कार्य-व्यस्त थे, फिर भी हमसे मिले। एक-दो दिन पहले मेरी उनके साथ जैसी बातें हुई थी, वैसी ही वा फिर हुई। उन्होने मेरे भाईको सलाह दी कि मुझे पोरबन्दर मेहें। प्रस्ताव मान लिया गया। फिर हम लौट आये। मैने हंसी-हंसीमें अपनी माके सामने बात छेड़ी। हंसीमें कही बात तत्काल ही गंभीरतासे स्वीकार कर ली गई और फिर मेरे पोरबन्दर जानेके लिए दिन तय किया गया। दो या तीन वार मैने जानेकी तैयारी की, परन्तु कुछ-न-कुछ कठिनाई मार्गमें आती गई। एक बार में शवेरचन्दके साथ जानेवाला था, परन्तु रवाना होनेके एक घंटे पहले एक गम्भीर आकस्मिक दुर्घटना हो गई। मैं हमेशा अपने मित्र शेख महतावसे झगडता रहता था। रवाना होनेके दिन मैं झगडे-सम्बन्धी विचारोमें बिलकुल डूबा हुआ था। रातको भजन-संगीतका कार्यक्रम था। मुझे उसमें बहुत मजा नहीं आया । रातको लगभग साढ़े दस बजे कार्यक्रम समाप्त हुमा और हम सब मेघजीभाई और रामीसे मिलने गये। रास्तेमें चलता-चलता एक ओर तो मै लंदनकी धुनमें हवा हुआ था, दूसरी ओर शेख महताबके खयालोमें। इस धुनमें मैं अनजाने एक गाड़ीसे टकरा गया। मुझे चोट आई। फिर भी, चलनेमें मैने किसीका सहारा नहीं लिया। मुझे लगता है, मेरा सिर चकरा रहा था और आँखोंके सामने बिलकुल अघेरा छाया हुआ था। फिर हम मेघजीमाईके घरमें प्रविष्ट हुए । वहां फिरसे मै एक पत्थरसे ठोकर खा गया और मुझे चोट आई। मैं बिलकुल वेहोश हो गया था। उसके वाद क्या-क्या हुआ, इसका पता मुझे नहीं चला। उन्होने मुझे बताया कि उसके वाद कुछ कदम चलनेपर मैं जमीनपर गिर पड़ा था। पांच मिनटतक मुझे कोई होश नही था। उन्होने समझा कि मैं मर गया । परन्तु भाग्यवश जहाँपर में गिरा था वहाँकी जमीन बिलकुल सपाट थी। आखिर मुझे होश आया और सबको खुशी हुई। माको खवर दी गई। वे मुझे इस हालतमें देखकर बहुत दुःखी हुई। मैने कहा कि मैं विलकुल अच्छा हूँ, फिर भी यह चोट मेरे लिए देरीका कारण बन गई। कोई मुझे जाने देनेको तैयार न हुआ। बादमें मालूम हुआ कि मेरी साहसी और अत्यन्त प्यारी माँ तो मुझे चले जाने देती, परन्तु उसे लोगोंके कहने-सुननेका डर हुमा। अन्तर्मे बड़ी कठिनाईसे कुछ दिनो बाद मुझे राजकोटसे पोरबन्दर जानेकी इजाजत मिली। रास्तेमें भी मुझे कुछ कठिनाइयोंका सामना करना पड़ा। आखिर मै पोरबन्दर पहुँच गया, और सबको बहुत खुशी हुई। लालमाई और करसनदास मुझे घर ले जानेके लिए खाड़ी-पुलपर आये थे। अब, पोरबन्दरमें पहले १. गांधीजीका वचपनका मित्र, नि सुधारने का प्रपल उन्होंने वपोतक किया, परन्तु सफल नहीं हुए। २. गांधीजी के चचेरे भाई। ३. गांधीजी के बड़े भाई। ________________ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय तो मुझे अपने चाचाकी अनुमति प्राप्त करनी थी; दूसरे, श्री लेलीको कुछ आर्थिक सहायता पानेकी अर्जी देनी थी; और अन्तमें, अगर राज्यसे छात्रवृत्ति न मिले तो, परमानन्दभाईसे कहना था कि वे मुझे कुछ रुपया हैं। सबसे पहले मैने चाचासे भेंटकी और उनसे पूछा कि उन्हें मेरा लंदन जाना पसन्द है या नहीं। जैसी कि मैने अपेक्षा भी की ही थी, चाचाने स्वाभाविक रूपसे मुझसे लंदन जानेके फायदे गिनानेको कहा। मैने अपनी शक्तिके अनुसार फायदे गिना दिये । तब उन्होंने कहा-“देशक, इस पीढ़ीके लोग इसे बहुत पसन्द करेंगे, परन्तु जहाँतक मेरी बात है, मै पसन्द नहीं करता। फिर भी, हम बादमें विचार करेंगे।" इस प्रकारके उत्तरसे मुझे निराशा नहीं हुई। कमसे-कम मुझे इतना तो सन्तोष हुया कि कुछ भी हो, दिलसे वे बातको पसन्द करते है। और बादमें उनके कामसे सिद्ध हो गया कि मैने जो सोचा था वह ठीक था। दुर्भाग्यसे श्री लेली पोरबन्दरमें नहीं थे। सच ही है 'छिनेष्वना बहुली भवन्ति ।' श्री लेली जिलेके दौरेपर गये थे और वहाँसे लौटनेपर दे तुरन्त छट्टीपर चले जानेवाले थे। मेरे चाचाने मुझे अगले रविवारतक उनकी प्रतीक्षा करनेकी सलाह दी। उन्होंने कहा, अगर वे तबतक न लौटे तो जहाँ-कही भी होंगे, वहाँ उनके पास तुम्हें भेज दूंगा। परन्तु मेरे सौभाग्यसे वे रविवारको जिलेके दौरेसे लौट आये। फिर तय हुआ कि मै उनसे सोमवारको मिज़ और तदनुसार मै उनसे मिला। जीवनमें किसी अंग्रेज सज्जनसे मुलाकातका यह मेरा पहला ही अवसर था। इसके पहले मैंने अंग्रेजों के सामने जानेका साहस कभी नहीं किया था। परन्तु लंदन जानकी धुनने मुझे देषड़क कर दिया था। मैने गुजराती में उनके साथ थोड़ी-सी बातें की। वे बखत जल्दी थे। वे मुझसे अपने बंगलेके ऊपरी खंडके जीनेपर चढते-बढ़ते मिले। उन्होंने कहा कि पोरबन्दर रियासत बहुत गरीब है, इसलिए वह तुम्हें कोई आर्थिक सहायता नहीं दे सकती। फिर भी, उन्होंने कहा: पहले तुम भारतमें स्नातक बन जाओ; फिर मैं सोचंगा कि तुम्हें कोई आर्थिक सहायता दी जा सकती है या नही। उनके ऐसे उत्तरसे मैं सचमुच बिलकुल निराश हो गया। मैंने उनसे ऐसे जवाबकी अपेक्षा नही की थी। अब परमानन्दभाईस पाँच हजार रुपये मांगनेकी बात रही। उन्होने कहा, अगर तुम्हारे चाचा तुम्हारा लन्दन जाना पसन्द करें तो मैं खुशीसे रुपये दे दूंगा। मैंने इसे जरा कठिन ही समझा। परन्तु मै चाचाकी अनुमति पा लेनेपर तुला हुआ था। मैं जब उनसे मिला उस समय वे किसी काममें व्यस्त थे। मैने उनसे कहा"चाचाजी, अब बताइए, आप मेरे लन्दन जानेके बारेमें सचमुच क्या सोचते है ? मेरा यहाँ आनेका मुख्य उद्देश्य आपकी अनुमति हासिल करना ही है।" उन्होने उत्तर दिया-"मै अनुमति नहीं दे सकता। क्या तुम्हें मालूम नही कि मै तीर्ष-यात्रा पर जा रहा हूँ? फिर अगर मैं कहूँ कि मुझे लोगोंका लन्दन जाना पसन्द है, तो १. ब्रिटिश एजेंट, जो राजकुमारकी नाबाक्षिमीक समय पोरनन्दर राज्यका प्रबन्ध करता था। २. गांधीनी श्वेरे भाई। |