वेनिस का बाँका/त्रयोदश परिच्छेद

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त्रयोदश परिच्छेद।

गत परिच्छेद में मैं लिख चुका हूँ कि फ्लोडोआर्डो उदास रहता था और रोजाबिला रुजग्रस्त थी, परन्तु अब तक मैंने अपने पाठकों को उसकी वास्तवता से अभिज्ञ नहीं किया है इस लिये यहाँ उसका वर्णन आवश्यक है। फ्लोडोआर्डो जब वेनिस में पहले पहल आया तो लोग उसे आनन्द का स्वरूप समझते और जिस समाज में वह संयुक्त होता था, उस समाज के लोग उसको उसका प्राण जानते, परन्तु एक दिन कुछ ऐसे सन्ताप से उसका हृदय सन्तप्त हुआ जिससे उसका सम्पूर्ण आनन्द मिट्टी में मिल गया और संभवतः उसी दिन से रोजाबिलो के रोगों के चिह्न भी प्रगट होने लगे। इसका विवरण यह है कि एक दिवस दैवात् रोजाबिला अपने पितृव्य के उस उपवन में भ्रमण के लिये गई, जहाँ नृपतिवर्य के प्राणोपम मित्रों के अति- रिक्त कोई दूसरा जाने न पाता था और जहाँ कभी कभी स्वयं महाराज संध्या समय एकाकी जाकर बैठा करते थे। वहाँ पहुँच कर वह अपने विचारों में डूबी हुई उपवन की छाया वान पटरियों पर टहलने लगी। कभी वह झुझला कर वृक्षों से पत्रोंको नोचती और पृथ्वी पर फेंकती, कभी अकस्मात् रुक जाती, कभी वेग से आगे बढ़ जाती, और फिर चुपचाप खड़ी होकर आकाश की ओर देखने लगती, कभी उसका हृदय तीव्रता के साथ धड़कने लगता, और कभी उसके ओठों से एक दबी हुई आह निकलती। अन्ततः वह आपही आप कह उठी, वह अत्यन्त सुन्दर है, और अपने सामने इस अनुराग के साथ देखने लगी जैसे उसे कोई बस्तु जो औरों को दिख [ ८० ]लाई नहीं देती देख पड़ती हो। फिर ठहर कर बोली तथापि कामिला ठीक कहती है, परन्तु उसके साथ ही इस रीति से नाक भौं चढ़ाई जैसे उसने कहा हो कि कामिला का कहना ठीक नहीं।

अब इस ठौर यह वर्णन करना आवश्यक है कि कामिला रोजाबिला की शिक्षका, उसकी सखी, उसका भेद जानने वाली और उसकी माता के स्थान पर थी। रोजाविला के पिता माता उसके बोलपन ही में परलोकगामी हुये थे, उसकी माता ने उस समय संसार का त्याग किया था जब कि वह माता का शब्द कठिनता से कह सकती थी। उसका पिता गिस्कार्डो नामक काफू का गण्य मान्य पुरुष और वेनिस के एक युद्ध पोत का स्वामी (कप्तान) था जो आठ वर्ष व्यतीत हुए कि एक लड़ाई में तुरुकों के हाथ से युवावस्था में ही मारा गया था। उस समय से कामिलाने जो एक अत्यन्त योग्य युवती थी रोजाविला को अपनी कन्या समान पालन किया था। उसके साथ वह इस रीति से व्यवहार करती थी कि रोजाबिला अपने अन्तःकरण का सम्पूर्ण भेद उससे कह दिया करती थी।

जब कि रोजाबिला उसकी बातों का ध्यान कर रही थी कामिला उपवन की एक द्वितीय दिशा से उसके सन्निकट आ पहुँची। रोजाविला चौंक उठी और कहने लगी "प्रिये कामिला क्या तुम हो? कहो तो तुम किसलिये आईं"।

कामिला―तुम प्रायः मुझे अपना रक्षक देवता कथन किया करती हो अतएव रक्षक देवता को सदैव उन बस्तुओं के पास वर्तमान रहना चाहिये जिनकी रक्षा का भार उनको समर्पण किया गया है।

रोजाविला―"कामिला मैं इस समय तुम्हारे सदुपदेशों को [ ८१ ]स्मरण कर रही थी और भली भांति समझती हूँ कि जो कुछ तुमने कहा है वह सर्वथा सत्य और युक्तियों से परिपूर्ण है"।

कामिला-"परन्तु यद्यपि तुम्हारी बुद्धि मुझसे सहमत है तथापि तुम्हारा चित्त कुछ और ही परामर्श देता है"।

रोजाबिला―"इसमें तो सन्देह नहीं"।

कामिला―"पर पुत्री मैं तुम्हारे हृदय पर दोषारोपण भी नहीं कर सकती कि वह क्यों मेरी अनुमतिके विरुद्ध है और क्यों मेरी बातों का प्रतिवाद करता है, बरन मैंने तुमसे स्पष्ट कह दिया है कि यदि मेरी अवस्था तुम्हारी सी होती और फ्लोडोआर्डो सा पुरुष परस्पर रखता तो कदापि मैं उसके साथ निठुरता न कर सकती। मैं स्वयं स्वीकार करती हूँ कि इस अपरिचितका स्वरूप, आकृति, चाल ढाल बहुत ही उत्तम है और कोई स्त्री जिसका मन दूसरे पुरुष से न लगा हो ऐसी नहीं है जो इस पर मोहित न हो जावे। उसके सुन्दर मुखड़े में न जाने क्या बात है कि देखते ही जी उसे प्यार करने लगता है। इसके अतिरिक्त उसके ढंग अत्यंत मनोहर हैं और इन थोड़े दिवालों के अनन्तर जबसे कि वह वेनिस में आया है सब लोगों को बिदित हो गया है कि उसमें बहुत से उत्तम और प्रशंसनीय गुण मौजूद हैं। पर खेदका विषय है कि फिर भी वह एक कंगाल पथिक है, अतएव यह संभव नहीं कि बेनिस के महाराज अपनी भ्रातृजा ऐसे व्यक्तिको दें जो सच पूछो तो यहाँ भिक्षुकों की सी अवस्था में आया। पुत्री वि- श्वास करो कि ऐसा पुरुष रोजाबिला का पाणिग्रहण करने का अधिकारी नहीं है।

रोजाविला―"प्यारी कामिलो यहाँ पाणिग्रहण को चर्चा नहीं है? मैंतो केवल फूलोडो आर्डो से मित्रों की भाँति प्रीति करती हूँ"॥ [ ८२ ]कामिला---'सच कहो ! तब तो तुम अवश्य प्रसन्न होगी यदि बेनिसकी कोई धनवती युवती फ्लोडोआर्डो से ब्याह कर ले' ।

रोजाविला--(शीघ्रता से ) "नहीं कामिला, फ्लोडोआर्ड? इसको कभी न स्वीकार करेगा, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है" ।

कामिला-"पुत्री! पुत्री !! तुम जान बूझकर अपने को भ्रान्त बनाती हो, परन्तु तुम पर क्या प्रत्येक स्त्री, जो किसी के स्नेहपाशबद्ध होती है,सदाके संयोग की चाहका सम्बन्ध मित्रता के विचार के साथ २ लगा लेती है, पर इस प्रकार की चाह तुम फ्लोडोआडों के विषय में पूरी नहीं कर सकती हो क्योंकि इससे तुम्हारे पितृव्य असंतुष्ट होंगे, कल्पना किया कि वे सत्पुरुष और दयालु व्यक्ति हैं परन्तु वे राजकीय प्रबन्ध,प्रणाली, रीति और नियम के सर्वथा वशवर्ती हैं।

रोजाविला--" मैं कामिला इन सब बातों को भली भांति जानती हूं परन्तु तुम मेरा अभिप्रायही नहीं समझती हो,मैं तुमसे कहती हूं। फ्लोडोआडो पर मैं मोहित नहीं हूं और न उसका मोहन स्वरूप मेरे हृदय में प्रविष्ट हो कर मुझे मोह सकता है । मैं द्वितीय वार तुमसे कहती हूं कि मुझे फ्लोडोआर्डो के विषय में केवल सच्ची और पुनीत मित्रता का ध्यान है और इसमें सन्देह नहीं कि फ्लोडोआडो इस योग्य है कि मुझे उसका इतना ध्यान हो। मैंने कहा “ इस योग्य है, हाय ! फ्लोडोआडो किस योग्य नहीं है"।

कामिला-" हां ! हां !! निस्सन्देह मित्रता के योग्य है बरन आसक्त होजाने के । खेद है कि रोजाविला तुम अभी नहीं जानती हो कि छल करनेवाले कुटने और कुटनियां परस्पर एक दुसरे का वेश परिवर्तन कर सीधी युवतियों के हृदय
[ ८३ ]को आक्रमण कर लेती हैं और प्रायः प्रीति मित्रताका परिच्छद धारण कर उन मानसों में प्रविष्ट होती है जहाँ वह अपने मुख्य स्वरूप के साथ जाना चाहती तो पास फटकने न पाती। संक्षेप यह कि पुत्री तुम इन बातों पर विचार करो कि तुमारा कर्तव्य तुम्हारे पितृव्य की ओर क्या है और यदि उनको यह ज्ञात होगा तो वह कितना रुष्ट और खिन्न होंगे। अतएव मेरे परामर्श के अनुसार तुमको उचित है कि उस कर्तव्य के साम- ने इस धुनको हृदय से दूर करो, क्योंकि अभीतक कुशल है। जहाँ इसने अपना अधिकार तुम्हारे हृदय पर कर लिया फिर सहस्रशःप्रयत्न करोगी कुछ न बन पड़ेगा"।

रोजाविला―"कामिला तुम सत्य कहती हो। मुझे भी विश्वास होता है कि फ्लोडोआर्डो के साथ जो एक प्रकार का मेरा सम्बन्ध हो गया है वह केवल क्षणिक और कल्पित है, जिससे मैं सुगमता के साथ मुक्त हो सकती हूँ। अच्छा अब तुम समझो कि मैं उससे प्रीति नहीं रखती बरन अब मुझे उलसे कुछ घृणासी होती जाती है। क्योंकि तुम्हारे कथन से ज्ञात होता है कि उसके कारण मेरे दयालु और भले पितृव्य को संताप हो सकता है"।

कामिला―"(मुसका कर) क्या तुमको अपने कर्तव्य और अपने पितृव्य के उपकारों का इतना ध्यान है"।

रोजाविला―"निस्सन्देह कामिला, मुझे इतना ध्यान है और विश्वास है कि थोड़े दिनों में तुम भी यही कहोगी। वह दुष्ट फ्लोडोआर्डो मुझको इतना दुःख दे, वह मन्दभाग्य वेनिस में क्यों आया। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ कि मैं फ्लोडोआर्डो के साथ अब तनिक स्नेह नहीं रखती"॥

कामिला―"ऐं क्या फ्लोडोआर्डो के साथ तनिक स्नेह नहीं रखतीं"। [ ८४ ]रोजाबिला―(आँखें नीची करके) "नहीं कदापि नहीं परन्तु मैं उसका अनिष्ट भी नहीं चाहती क्योंकि कामिला तुम भलीभांति जानती हो कि कोई कारण नहीं है कि मैं इस दीन फ्लोडोआर्डो के अनिष्ट का ध्यान करू"।

कामिलो―"अच्छा मैं इस चर्चाको फिर किसी समय करूँगी। इस समय मुझे एक कार्य्य करना है और नौका मेरे लिये लगी हुई है। अब मैं जाती हूँ परन्तु पुत्री जितना शीघ्र तुमने प्रण किया है उतना ही शीघ्र कहीं उसे त्याग न देना।"

यह कह कर कामिला चली गई और रोजाबिला इसी तर्क वितर्क में उदास बैठी रही। वह अपने हृदय में कुछ बातों का विचार करती और फिर उन्हें तत्काल दूर कर देती। किसी बस्तु की कांक्षा करती और फिर अपने लिये धिक्कार शब्द का प्रयोग करने लगती, क्योंकि वह चारों ओर दृष्टिपात करके इस रीति से देखती थी जैसे किसी वस्तुके अनुसन्धान में हो परन्तु मुख से यह नहीं कह सकती कि वह क्या वस्तु है।

कामिला के चले जाने पर रोजाविला इसी उधेड़ बुन में थी कि एकवार आतप की प्रखरताने उसको उत्तप्त किया और अशक्त होकर उसे किसी छायावान स्थान में शरण ग्रहण की आवश्यकता हुई। उपबन में एक ठौर एक छोटा सा सरोवर था जिस पर लोहे की तिकठियों के सहारे सुमनों की वेलें चढ़ाई गई थीं, इस कारण वहाँ प्रचण्ड मार्तण्ड की प्रखर किरणें प्रवेश नहीं कर सकती थीं, रोजबिला उसी ओर चल निकली परन्तु समीप पहुँच कर उसकी गति रुक गई और वह कुछ ठिठकी और लज्जितसी हुई। इसका कारण यह था कि उस सरोवर के कुलपर फ्लोडोआर्डो बैठा हुआ एक पत्र अत्यन्त सावधानता से देख रहा था। उसे देखकर रोजाबिला अपने हृदय में सोचने लगी कि अब मैं यहाँ ठहरूँ अथवा पलट जाऊँ, परन्तु इससे [ ८५ ]पूर्व कि वह कोई विचार निश्चित करे फ्लोडोआर्डो ने जिसकी आकुलता प्रगट में उससे, न्यून न थी, अपने स्थान से उठ कर उसका करपल्लव अत्यन्त सम्मान से स्व कर कमलों में लिया और उसे सरोवर के कूलपर अपने स्थान पर लाकर बैठाया। अब रोजाविला तत्काल वहाँ से प्रस्थान नहीं कर सकती थी क्योंकि ऐसी दशा में उठजाना असभ्यता में परिणत होता। फ्लोडोआर्डो उसका कोमल कर अपने हाथों में लिये रहा, परन्तु फ्लोडोआर्डो के लिये यह एक ऐसी साधारण बात थी कि उस समय वह इसके लिये उसको कुछ कह भी नहीं सकती थी। इसके अतिरिक्त उससे यह भी नहीं हो सकता था कि वह अपने किशलय सदृश करको खींचले, क्योंकि वह यह बिचारती थी कि फ्लोडोआर्डो के हाथ में मेरा हाथ होने से मेरी कुछ क्षति नहीं, बरन उसको एक प्रकार का आनन्द है अतएव मैं क्यों ऐसा काम करूँ कि किसीके ऐसे आनन्द को हरण करलूं जिसमें मेरी किसी प्रकार की हानि नहीं।

इधर तो रोजाबिला यह सोच रही थी और उधर न जानें फ्लोडोआर्डो के हृदय में कैसै कैसे अनुमान समूह अंकुरित हो रहे थे। निदान उससे देर तक मौन न बैठा गया इसलिये उसने बार्तालाप आरंभ करने के लिये कहा "राजकन्यके! आपने अच्छा किया कि इस समय वायु सेवनके लिये निकलीं देखिये कैसा सुहावना समय है"।

रोजाबिला―"परन्तु महाशय मैं अनुमान करती हूँ कि मेरे आनेसे आपके पठन में बिघ्न पड़ा।"

फ्लोडोआर्डो―"कदापि नहीं"। इतनी बातें करके फिर वे लोग अल्पकाल के लिये चिन्तित हो गये परन्तु इस अवसर पर कभी आकाश कभी बसुमती कभी वृक्षों और कुसुमकलि का ओंकी ओर दृष्टिपात करते जाते थे जिसमें समालाप करने [ ८६ ]का कोई अवसर हस्तगत हो परन्तु जितनाही वे उसको खोजते थे उतनाही वह उनसे दूर भागता था। निदान इसी तर्क वितर्क में दोनो ने अपना बहुतसा समय जो दैवात् हस्तगत हुआ था खोया।

कुछ क्षण बाद रोजाविला इस सन्नाटेके निवारण करने के लिये अचाञ्चक बोल उठी "यह कितना सुन्दर कुसुम है" और फिर उसने झुककर अत्यन्त अनुराग से एक लालाका कुसुम तोड़ लिया। इसके उत्तर में फ्लोडोआर्डो ने अत्यन्त गम्भीरता से कहा "यह फूल निस्सन्देह सुन्दर है" परन्तु इसी के साथ वह स्वयं अपने पर अत्यन्त झुंझलाया कि ऐसा सूखा उत्तर मैंने क्यों दिया।

रोजाबिला―"कोई रंग इस बैंगनी रंग की समता नहीं कर सकता। इसमें नीला और लाल रंग दोनों ऐसे मिले हैं कि कोई चित्रकार लाख चाहे यह बात पैदा नहीं कर सकता"।

फ्लोडोआर्डो―"लाल और नीला"? एक हर्ष का चिह्न और दूसरा प्रीतिका। हाय! रोजाबिला वह कौन ऐसा भाग्यवान होगा जिसको आप अपने कोमल करसे यह फूल प्रदान करेंगी आप जानती हैं कि हर्ष और प्रीति उस लाला के नीले और लाल रंग की अपेक्षा कहीं बिशेषता के साथ एक दूसरे से सम्मिलित हैं"।

रोजाबिलो―"महाशय आपने तो उस कुसुम की पदवी इतनी बढ़ादी जिसके योग्य वह नहीं है"।

फ्लोडोआर्डो―"भला मुझे ज्ञात हो सकता है कि किसको आप वे बस्तुयें देंगी जो उस सुमन से प्रकट होती हैं? परन्तु यह एक ऐसी बात है जिसके विषय में मुझको कुछ बात चीत न करनी चाहिये। न जाने मुझे आज क्या हो गया है कि प्रत्येक कार्य्य में मुझसे चूक होती है, राजतनये आप [ ८७ ]मेरे इस अपराध को क्षमा करें, अगत्यो मैं कभी ऐसे प्रश्न न करूँगा"।

यह कह कर वह चुप हो गया और रोजाबिला भी चुप रही। उस समय उन दोनों प्रेमियों के हृदयके अतिरिक्त प्रत्येक ओर सन्नाटा था, यद्यपि वे अपनी रसना से निज प्रच्छन्न प्रीतिका भेद नहीं कहते थे, यद्यपि रोजाबिला ने अपने मुख से न कहा था कि फ्लोडोआर्डो तूही वह पुरुष है जिसे यह सुमन मिलेगा, और यद्यपि फ्लोडोआर्डो की जिह्वासे न निकला था कि रोजा- विला वह लाला और जो वस्तुयें उससे प्रकट होती हैं मुझी को दो। तथापि उनकी आँखें चुप न थीं। इन कुटनियोंने जो लोगों के विचारों को तत्काल समझ लेती हैं एकद्वितीक्लय से बहुत कुछ भेद जो उनके हृदयोने अद्यावधि स्वयं उन पर प्रकट नहीं किये थे, कह दिये। फ्लोडोआर्डो और रोजाबिला एक द्वितीय को ऐसी दृष्टियों से अवलोकन कर रहे थे कि समालाप को कोई आवश्यकता न थी। जब फ्लोडोआर्डो की आंख रोजाबिला पर पड़ती थी तो वह एक अत्यन्त प्रिय कटाक्ष के साथ जिससे सर्वथा प्रीति टपकती थी मुसकराती थी और फ्लोडोआर्डो भय और आशा की दृष्टि से उसके अर्थ का अनुधा- वन करता था। निदान उसने उसके अभिप्रायको समझ लिया जिससे उसके हृदय की उद्विग्नता और बढ़ गई और चक्षुओं पर एक मद सा छा गया। यह दशा देख कर रोजाविला काँपने लगी क्योंकि उसकी आँखें उसकी दृष्टि की तीव्रता को नहीं सहन कर सकती थीं। इसी अशक्तता की दशा में फ्लोडोआर्डो रोजाविला के जलजात पदों पर गिरकर अत्यन्त विनीत और नम्रता और गिड़गिड़ाहट के साथ कहा "रोजाविला परमेश्वर के लिये मुझे वह पुष्प प्रदान करो।" [ ८८ ]रोजाविला ने कुछ उत्तर न दिया और कुसुम को अपने हाथ में दृढ़ता के साथ पकड़े रही।

फ्लोडोआर्डो―"इस सरस कुसुम के बदले में तुम जो कुछ चाहो मांगो, यदि इसके बदले में राज्य की भी याचना करोगी तो प्रदान करूँगा, अथवा उसकी खोज में अपना प्रिय प्राण नष्ट करूँगा परन्तु परमेश्वर के लिये रोजाविला यह पुष्प मुझे प्रदान करो"।

रोजाविलाने एकवार तिरछी चितवन से उस स्वरूपमान युवक की ओर देखा, परन्तु पुनरावलोकन का साहस न हुआ।

फ्लोडोआर्डो―"मेरा सुख, मेरा हर्ष, मेरा जीवन, बरन मेरा महत्व, ये सब वस्तुयें उस प्रसून के हस्तगत होने पर निर्भर हैं। केवल उसे मुझे दो और मैं संसार की सकल बहु- मूल्य वस्तुओं से इसी समय बिरक्त होता हूँ"।

उसकी इस प्रेम भरी और मोहमयी बातचीत से रोजा- विला का करकंज जिसमें वह प्रसून था काँपने लगा और चुटकी भी कुछ ढीली हो चली।

फ्लोडोआर्डो―"क्यों रोजाविला तुम कुछ मेरी भी सुनती हो? मैं तुम्हारे चरणकमलों पर निज शिर रक्खे हुए हूँ। क्या तुम मेरी याचना को जिसको मैंने भिक्षुकों की भाँति की है पूरा न करोगी"?

इस भिक्षुक शब्द पर रोजाविला को कामिला की शिक्षा- ओं का तत्काल स्मरण हो आया और वह अपने मन में कहने लगी "ऐं मैं क्या कर रही हूँ अभी से मैंने अपना प्रण तज दिया? वस रोजाबिला यहीं से मुड़ नहीं तो इसी क्षण तू बात की झूठी होती है"। यह सोच के उसने कुसुम को खण्ड खण्ड करके पृथ्वी पर फेंक दिया। और फ्लोडोआर्डो से कहा "फ्लोडोआर्डो मैं तुम्हारा आंतरिक अभिप्राय समझ गई इस [ ८९ ]लिये तुमको सावधान और सतर्क करती हूँ कि पुनः ऐसा समालाप न करना। अब मैं गमन करती हूँ और तुम को जताये देती हूँ कि ऐसी धृष्टता से फिर मुझको कभी संतप्त न करना।

इतना कह कर वह उसके निकट से तिनक कर चली गई और वह दीन प्रेमपाश बद्ध अपने स्थान पर आश्चर्य्य और संताप के साथ चित्र बना बैठा रह गया।