शिवशम्भु के चिट्ठे/२-श्रीमान् का स्वागत

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श्रीमान् का स्वागत

जो अटल है, वह टल नहीं सकती। जो होनहार है, वह होकर रहती है। इसीसे फिर दो वर्षके लिए भारत के वैसराय और गवर्नर-जनरल होकर लार्ड कर्जन आते हैं। बहुत से विघ्नोंको हटाते और बाधाओं को भगाते फिर एक बार भारतभूमिमें आपका पदार्पण होता है। इस शुभयात्रा के [ २२ ]
लिए वह गत नवम्बर को सम्राट एडवर्डसे भी विदा ले चुके हैं। दर्शन में अब अधिक विलम्ब नहीं है।

इस समय भारतवासी यह सोच रहे हैं कि आप क्यों आते हैं और आप यह जानते भी हैं कि आप क्यों आते हैं। यदि भारतवासियोंका वश चलता तो आपको न आने देते और आपका वश चलता तो और भी कई सप्ताह पहले आ विराजते। पर दोनों ओर की बाग किसी और हीके हाथमें है। निरे बेबश भारतवासियोंका कुछ वश नहीं है और बहुत बातोंपर वश रखने वाले लार्ड कर्जनको भी बहुत बातों में बेबश होना पड़ता है और उक्त श्रीमान् को अपने चलने में विलम्ब देखना पड़ा है। कवि कहता है—

"जो कुछ खुदा दिखाये, सो लाचार देखना।"

"अभी भारतवासियोंको बहुत कुछ देखना है और लार्ड कर्जन को भी बहुत कुछ। श्रीमान् के नये शासन-कालके यह दो वर्ष निसन्देह देखनेकी वस्तु होंगे। अभीसे भारतवासियोंकी दृष्टियां सिमटकर उस ओर जा पड़ी हैं। यह जबरदस्त द्रष्टा लोग अब बहुत कालसे केवल निर्लिप्त निराकार तटस्थ द्रष्टाकी अवस्थामें अतृप्त लोचनसे देख रहे हैं और न जाने कब तक देखे जावेंगे। अथक ऐसे हैं कि कितने ही तमाशे देखे गये, पर दृष्टि नहीं हटाते हैं। उन्होंने पृथ्वीराज, जयचन्द की तबाही देखी, मुसलमानों की बादशाही देखी। अकबर, बीरबल, खानखाना और तानसेन देखे, शाहजहानी तख्ते-ताऊस और शाही जुलूस देखे। फिर वही तख्त नादिरको उठाकर ले जाते देखा। शिवाजी और औरंगजेब देखे। क्लाइव, हेष्टिंगससे वीर अंग्रेज देखे। देखते-देखते बड़े शौकसे लार्ड कर्जनका हाथियोंका जुलूस और दिल्ली दरबार देखा। अब गोरे पहलवान मिस्टर सेण्डोकी छातीपर कितने ही मन बोझ उठाना देखनेको टूटे पड़ते हैं। कोई देखानेवाला चाहिये, भारतवासी देखनेको सदा प्रस्तुत हैं। इस गुणमें वह मोंछ मरोड़कर कह सकते हैं कि संसारमें कोई उनका सानी नहीं। लार्ड कर्जन भी अपनी शासित प्रजाका यह गुण जान गये थे, इसीसे श्रीमान् ने लीलामय रूप धारण करके कितनी ही लीलाएं दिखायीं।

इसीसे लोग बहुत कुछ सोच-विचार कर रहे हैं कि इन दो वर्षों में भारत प्रभु लार्ड कर्जन और क्या-क्या करेंगे। पिछले पांचसालसे अधिक समयमें [ २३ ]
श्रीमान् ने जो कुछ किया, उसमें भारतवासी इतना समझने लगे हैं कि श्रीमान् की रुचि कैसी है और कितनी बातोंको पसन्द करते हैं। यदि वह चाहें, तो फिर हाथियोंका एक बड़ा भारी जुलूस निकलवा सकते हैं। पर उसकी वैसी कुछ जरूरत नहीं जान पड़ती। क्योंकि जो जुलूस वह दिल्ली में निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊंचे हाथी पर बैठ चुके हैं। उससे ऊंचा हाथी यदि सारी पृथ्वी में नहीं, तो भारतवर्ष में और नहीं है। इसीसे फिर किसी हाथी पर बैठने का श्रीमान् को और क्या चाव हो सकता है। उससे ऊंचा हाथी और नहीं है। ऐरावत का केवल नाम है, देखा किसीने नहीं है। मेमथकी हड्डियां किसी-किसी अजायबखाने में उसी भांति आश्चर्य्यकी दृष्टि से देखी जाती हैं, जैसे श्रीमान् के स्वदेशके अजायबखाने में कोई छोटा-मोटा हाथी। बहुत लोग कह सकते हैं कि हाथी की छोटाई-बड़ाई पर बात नहीं, जुलूस निकले तो फिर भी निकल सकता है। दिल्ली नहीं तो और कहीं सही। क्योंकि दिल्ली में आतशबाजी खूब चल चुकी थी, कलकत्ते में फिर चलायी गयी। दिल्लीमें हाथियोंकी सवारी हो चुकनेपर भी कलकत्ते में रोशनी और घोडागाड़ीका तार जमा था, कुछ लोग कहते हैं कि जिस काम को लार्ड कर्जन पकड़ते हैं, पूरा करके छोड़ते हैं। दिल्ली-दरबार में कुछ बातों की कसर रह गयी थी। उदयपुर के महाराणा न तो हाथियोंके जुलूसमें साथ चल सके, न दरबार में हाजिर होकर सालामी देने का मौका उनको मिला। इसी प्रकार बड़ौदा-नरेश हाथियोंके जुलूस में शामिन न थे। वह दरबार में भी आये, तो बड़ी सीधी-सादी पोशाकमें—इतनी सीधी-साधीमें, जितनी से आज कलकत्तेमें फिरते हैं। वह ऐसा तुमतराक और ठाठबाटका समय था कि स्वयं श्रीमान् वैसरायको पतलून तक कारचोबी पहनना और राजा-महाराजाओं को काठकी तथा ड्यूक आफ कनाट को चांदीकी कुरसीपर बिठाकर स्वयं सोने के सिंहासनपर बैठना पड़ा था। उस मौकेपर बड़ौदा-नरेशका इतनी सफाई और सादगीसे निकल जाना, एक नयी आन थी। इसके सिवा उन्होंने झुकके सलाम नहीं किया, बड़ी सादगी से हाथ मिलाकर चल दिये थे। यह कई एक कसरें ऐसी हैं, जिनको मिटानेको फिर दरबार हो सकता है। फिर हाथियोंका जुलूस निकल सकता है। [ २४ ]इन लोगोंके विचारमें कलाम नहीं। पर समय कम है, काम बहुत होंगे। इसके सिवा कई राजा-महाराजा पहले दरबारहीमें खर्च से इतने दब चुके हैं कि श्रीमान् लार्ड कर्जनके बाद यदि दो वैसराय और आवें और पांच-पांचकी जगह सात-सात साल तक शासन करें, तब तक भी उनका सिर उठाना कठिन है। इससे दरबार या हाथियों के जुलूसकी फिर आशा रखना व्यर्थ है। पर सुना है कि अबके विद्या का उद्धार श्रीमान् जरूर करेंगे। उपकारका बदला देना महत् पुरुषों का काम है। विद्याने आपको धनी किया है, इससे आप विद्याको धनी किया चाहते हैं। इसीसे कंगालों से छीनकर आप धनियों को विद्या देना चाहते हैं। इससे विद्या का वह कष्ट मिट जावेगा, जो उसे कंगालको धनी बनाने में होता है। नींव पड़ चुकी है, नमूना कायम होने में देर नहीं। अब तक गरीब पढ़ते थे, इससे धनियोंकी निन्दा होती थी कि वह पढ़ते नहीं। अब गरीब न पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़ें या न पढ़ें, उनकी निन्दा न होगी। इस तरह लार्ड कर्जन की कृपा उन्हें बेपढ़े भी शिक्षित कर देगी।

और कई काम हैं, कई कमीशनोंके कामका फैसिला करना है, कितनी ही मिशनोंकी कारवाईका नतीजा देखना है। काबुल है, काशमीर है। काबुल में रेल चल सकती है। काशमीरमें अंगरेजी बस्ती बस सकती है। चायके प्रचार की भांति मोटरगाड़ी के प्रचार की इस देशमें बहुत जरूरत है। बंगालदेश का पार्टीशन भी एक बहुत जरूरी काम है। सबसे जरूरी काम विक्टोरिया-मिमोरियल हाल है। सन् १८५८ ई॰ की घोषणाको अब भारतवासियों को अधिक स्मरण रखने की जरूरत न पड़ेगी। श्रीमान् स्मृतिमन्दिर बनवाकर स्वर्गीया महारानी विक्टोरिया का ऐसा स्मारक बनवा देंगे, जिसको देखते ही लोग जान जावेंगे कि महारानी वह थी, जिनका यह स्मारक है!

बहुत बातें हैं। सबको भारतवासी अपने छोटे दिमागोंमें नहीं ला सकते। कौन जानता है कि श्रीमान् लार्ड कर्जनके दिमाग में कैसे-कैसे आली खयाल भरे हुए हैं। आपने स्वयं फरमाया था कि बहुत बातों में हिन्दुस्थानी अंगरेजोंका मुकाबला नहीं कर सकते। फिर लार्ड कर्जन तो इंग्लैण्ड के रत्न हैं। उनके दिमागकी बराबरी करनेकी गुस्ताखी करने की यहां के लोगों [ २५ ]को यह बूढ़ा भंगड़ कभी सलाह नहीं दे सकता। श्रीमान् कैसे आली दिमाग शासक हैं, यह बात उनके उन लगातार कई व्याख्यानोंसे टपकी पड़ती है, जो श्रीमान् ने विलायत में दिये थे और जिनमें विलायतवासियों को यह समझाने की चेष्टा की थी कि हिन्दुस्थान क्या वस्तु है। आपने साफ दिखा दिया था कि विलायतवासी यह नहीं समझ सकते कि हिन्दुस्तान क्या है। हिन्दुस्थानको श्रीमान् स्वयं ही समझते हैं। समझते तो क्या समझते? विलायतमें उतना बड़ा हाथी कहां, जिसपर वह चंवर-छत्र लगाकर चढ़े थे? फिर कैसे समझा सकते कि वह किस उच्च श्रेणी के शासक हैं। यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिसमें वह एक बार भारतको विलायत में खींच ले जा सकते, तो विलायतवालोंको समझा सकते कि भारत क्या है और श्रीमान् का शासन क्या? आश्चर्य नहीं, भविष्यमें ऐसा कुछ उपाय निकल आवे, क्योंकि विज्ञान अभी बहुत कुछ करेगा।

भारतवासी जरा भय न करें, उन्हें लार्ड कर्जनके शासन में कुछ करना न पड़ेगा।आनन्द-ही-आनन्द है। चैन से भंग पियो और मौजें उड़ाओ। नजीर खूब कह गया है:—

कूंडीके नकारेपै खुतकेका लगा डंका।
नित भंग पीके प्यारे दिन-रात बजा डंका॥
पर एक प्याला इस बूढ़े ब्राह्मण को देना भूल न जाना।

(भारतमित्र २६ नवम्बर सन् १९०४)