सत्य के प्रयोग/ 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया'

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४९३ ]अल-कथा : भाग ५ नवजीवन' और 'यंग इंडिया एक ओर यह धीमी किंतु शांति-रक्षक हलचल' चल रही थी तो उधर दूसरी ओर सरकारकी दमन-नीति बड़े बेगसे चल रही थी । पंजाबमें उसका असर प्रत्यक्ष देखा गया। वहां फौजी-कानून यानी जो-हुक्मी शुरू हुई । नेताको पकड़ा। खास अदालतें अदालतें न रहीं, किंतु एक सुबाका हुक्म बजानेवाली संस्था बन गई। उन्होंने बिला सबूत ही सजायें ठोंक दीं। फौजी सिपाहियोंने निर्दोष लोगों को कीड़ोंकी तरह पेटके बल रेंगाया। इसके आगे तो मेरे सामने जलियांवाला बागके कत्लेआमकी कोई बिसात ही न थी। हालांकि जनताका तथा दुनियाका ध्यान उस कत्लने ही खींचा था । पंजाबमें चाहे जिस तरह हो, मगर प्रवेश करनेका दबाव मुझपर डाला गया । मैंने बाइसरायको पत्र लिखे, तार किये; किंतु इजाजत न मिली । इजाजत के बिना चला जाऊं तो अंदर तो जा ही नहीं सकता था। हां, सविनयं-भंग करनेका संतोष अलबत्ता मिल जाता। अब यह प्रश्न मेरे सामने आ खड़ा हुआ कि इस धर्म-संकटमें मुझे क्या करना चाहिए ? मुझे लगा कि अगर मैं मनाही हुक्मका अनादर करके प्रवेश करू तो यह सविनय अनादर नहीं समझा जायगा । शांतिकी जिस प्रतीतिकी मैं इच्छा करता था, वह मुझे अबतक नहीं हो रही थी । पंजाबकी नादिरशाहींने लोगोंकी अशांतिवृत्तिको वढ़ा दिया था। मुझे ऐसा लगा कि ऐसे समयमें मेरा कानून-भंग गमें घी डालनेके समान होगा । और मैंने सहसा पंजाबमें प्रवेश करनेकी सूचना नहीं मानी । यह निर्णय मेरे लिए एक कडुई घंट थी। रोज पंजाबसे अन्यायकी खबरें आतीं और रोज मुझे उन्हें सुनना, और दांत पीसकर बैठ रहना पड़ता था । इतनेमें प्रजाको सोता छोड़कर सरकार मि० हानिमैनको चुरा ले गई। मि०' हानिमैने ‘बंबई क्रानिकलको एक प्रचंड-शक्ति वना दिया था। इस चोरीमें । जो गंदगी थी उसकी बदबू मुझे अबतक आया करती है। मैं जानता हूं कि मि हानमैन अंधाधुंधी नहीं चाहते थे। मैंने सत्याग्रह कमिटी की सलाहके बिना ही [ ४९४ ]अध्याय ३४ : 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' ४७७ पंजाब-सरकारके हुक्मको तोड़ा था सो उन्हें पसंद नहीं था। मैंने सविनय-भंगको जो मुल्तवी किया, उससे वह पूरे सहमत थे । मेरे सत्याग्रह मुल्तबी रखनेका इरादा प्रकट करनेके पहले ही पत्र-द्वारा उन्होंने मुझे मुल्तवी रखनेकी सलाह दी थी और वह पत्र बंबई और अहमदाबादके फासलेके कारण, मेरा इरादा जाहिर कर चुकनेवे बाद, मुझे मिला था। इसलिए उनके देश-निकालेपर मुझे जितना आश्चर्य हुआ, उतना ही दुःख भी हुआ । इस घटनाके कारण ‘क्रानिकल के व्यवस्थापकोंने उसे चलानेका बोझा मुझपर डाला। मि० बरेलवी तो थे ही, इसलिए मुझे बहुत-कुछ करनेकी जरूरत नहीं थी; किंतु तो भी मेरे स्वभावानुसार यह जिम्मेदारी मेरे लिए बहुत हो गई थी। किंतु मुझे यह जिम्मेदारी बहुत दिन नहीं उठानी पड़ी। सरकारको मिहरबानीसे 'क्रानिकल’ बंद हो गया । . जो ‘क्रानिकल के संचालक थे वे ही 'यंग इंडिया की व्यवस्थाकी भी देखभाल करते थे..यानी उमर सुबान और शंकरलाल बैंकर। इन दोनों भाइयोंने 'यंग इंडिया की जिम्मेदारी लेनेका सुझाव किया और यंग इंडिया तथा 'क्रानिकल की घटी थोड़ी कम करने के लिए हफ्तेमें एक बारके बदले दो बार प्रकाशित करना उन्हें और मुझे ठीक लगा । मुझे सत्याग्रहका रहस्य लोगोंको समझानेका उत्साह था । पंजाबके बारेमें मैं और कुछ नहीं तो उचित टीका जरूर कर सकता था और यह सरकारको भी पता था कि उसके पीछे सत्याग्रह- की शक्ति मौजूद है। इसलिए मैंने इन मित्रोंका सुझाव मंजूर कर लिया। किंतु अंग्रेजी के जरिये भला सत्याग्रहकी तालीम कैसे दी जा सकती है ? मेरे कार्यका मुख्य क्षेत्र गुजरात था। भाई इंदुलाल याज्ञिक उस समय इसी टोलीमें थे। उनके हाथमें मासिक 'नवजीवन' था । उसका खर्च भी यही मित्र उठाते थे। यूह पुत्र भाई इंदुलाल और उन मित्रोंने मुझे सौंप दिया और भाई इंदुलालने उसमें काम करनेका भार भी अपने सिर लिया। इस मासिक को साप्ताहिक बनाया। इस बीच ‘क्रानिकल’ पुनर्जीवित हुआ । इसलिए यंग इंडिया' फिर साप्ताहिक हो गया और मेरे सुझावपर उसे अहमदाबाद ले गये। दो अखबार अलग-अलग शहरों में चले तो खर्च अधिक होता और मेरी असुविधा अधिक बढ़ती । नवजीवन' तो अहमदाबादसे ही निकलता था। यह अनुभव तो मुझे ‘इंडियन [ ४९५ ]आत्म-कथा : भाग ५ अोपनियन'से ही होगया था कि ऐसे अखबारोंके लिए निजका छापाखाना जरूर चाहिए । 'फिर उस समय अखबारोंके संबंधमें कानून-कायदे भी ऐसे थे कि मैं जो विचार करना चाहूं उन्हें व्यापारकी दृष्टिसे चलने वाले छापाखाने छापते हुए सकुचाते थे । स्वतंत्र छापाखाना खोलने का यह भी एक प्रबल कारण था । और हालत यह थी कि यह अहमदाबाद में ही आसानी से हो सकता था। इसलिए 'यंग इंडिया' को अहमदाबाद ले गये ।। . इन अखबारों के द्वारा मैंने सत्याग्नहकी तालीम लोगों को यथाशक्ति देना शुरू की। दोनों अखबारोंकी खपत पहले बहुत कम थी, बढ़ते-बढ़ते ४०,००० के आसपास जा पहुंची थी। नवजीवन की बिक्री एकदम बढ़ी, जबकि 'यंग- इंडिया' की धीरे-धीरे। मेरे जेल जानेके बाद उनकी बिक्रीमें घटी आई और आज दोनोंकी बिक्री आठ हजारसे नीचे चली गई है । • इन अखबारों में विज्ञापन न छापने का मेरा अाग्रह शुरूसे हीं था। मेरी धारणा है कि इससे कुछ भी हानि नहीं हुई है और अखबारोंक विचार-स्वतंत्रता बनाये रखनेमें इस प्रथाने बहुत मदद की है । | इन अखबारोके द्वारा मैं मनमें शांति प्राप्त कर सका। क्योंकि यद्यपि मैं तुरंत सविनय-भंग न कर सका, मुगर तो भी अपने विचार आजादीके साथ जनताके सामने रख सका । जो मेरी मुंह जोह रहे थे, उन्हें आश्वासन दे सका और मुझे लगता है कि दोनों पुत्रोंने उस कठिन प्रसंगपर जनताकी ठीक-ठीक सेवा की और फौज कानूनके जुल्मको हलका करनेमें अच्छा काम किया । ३५ पंजाबमें पंजाबमें जो कुछ हुआ, उसके लिए सर माइकेल ओड्वायरने मुझे गुनह- गार ठहराया था। इधर वहांके कई नौजवान फौजी कानूनके लिए भी मुझे गुनहगार ठहराने में हिचकते न थे । क्रोधके आवेशमें वे यह दलील देते थे कि यदि मैंने सविनय कानून-भंग मुल्तवी ने किया होता तो जलियांवाला बागमें कभी..

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