सत्य के प्रयोग/ अमृतसर-कांग्रेस

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ५०३ ]४८६ आत्म-कथा : भाग ५

समयतक जेल में नहीं रख सकती थी। अतः कांग्रेसके अधिवेशनके पहले ही बहुतेरे कैदी छूट गये थे । लाला हरकिशनलाल इत्यादि सब नेता रिहा कर दिये गये थे और कांग्रेसका अधिवेशन हो ही रहा था कि अली-भाई भी छूटकर आ पहुंचे । इससे लोगोंके हर्षकी सीमा न रही । पंडित मोतीलाल नेहरू जो अपनी वकालत बंद करके पंजाबमें डेरा डाले बैठे थे, कांग्रेस अध्यक्ष थे। स्वामी श्रद्धा-नंदजी स्वागत-समितिके सभापति थे।

अबतक कांग्रेसमें मेरा काम इतना ही रहता था--हिंदीमें एक छोटा-सा भाषण करके हिंदीकी वकालत करना और प्रवासी भारतवासियोंका पक्ष उपस्थित कर देना। अमृतसरमें मुझे यह पता न था कि इससे अधिक कुछ करना पड़ेगा; परंतु अपने विषयमें मुझे जैसा पहले अनुभव हुआ है उसी के अनुसार यहां भी एकाएक मुझपर एक जिम्मेदारी आ पड़ी ।

सम्राट्की नवीन सुधारोंके संबंध घोषणा प्रकाशित हो चुकी थी । यह मेरे नजदीक पूर्ण संतोषजनक नहीं थी । औरोंको तो बिलकुल ही पसंद नहीं आई। सुधारोंमें भी खामी थी; परंतु उस समय मेरा यह खयाल हुआ कि हम उनको स्वीकार कर सकते हैं। सम्राट्के घोषणापत्रमें मुझे लार्ड सिंहका हाथ दिखाई दिया था। उसकी भाषामें, उस समय, मेरी आंखें आशाकी किरणें देख रही थीं; हालांकि अनुभवी लोकमान्य, चितरंजन दास इत्यादि योद्धा सिर हिला रहे थे। भारत-भूषण मालवीयजी मध्यस्थ थे ।

मेरा डेरा उन्होंने अपने ही कमरे में रखा था। उनकी सादगीकी झलक मुझे काशी विश्वविद्यालयके शिलारोपणके समय हुई थी; परंतु इस समय तो उन्होंने मुझे अपने ही कमरेमें स्थान दिया था। इसलिए मैं उनकी सारी दिनचर्या देख सका और मुझे आनंदके साथ आश्चर्य हुआ था। उनका कमरा मानो गरीबकी धर्मशाला थी। उसमें कहीं भी रास्ता नहीं छूटा था, जहां-तहां लोग डेरा डाले हुए थे। न उसमें एकति की गुंजाइश थी, न फैलाव की । जो चाहता वहां आ जाता और उनका मनमाना समय ले जाता। इस दरबे के एक कोनेमें मेरा दरबार अर्थात् खटिया लगी हुई थी।

पर यह अध्याय मुझे मालवीयजीके रहन-सहनके बर्णन खर्च नहीं करना है। इसलिए अपने विषयपर आ जाता हूँ । [ ५०४ ]अध्याय ३७ : अमृतसर-काँग्रेस ४८७


इस स्थितिमें मालवीयजी के साथ रोज संवाद हुआ करता था और वह मुझे सब पक्षोंकी बातें उस तरह प्रेमपूर्वक समझाते, जैसा कि बड़ा भाई छोटेको समझाता है । मुझे यह जान पड़ा कि सुधार-संबंधी प्रस्तावमें मुझे भाग लेना चाहिए ! पंजाब हत्याकांड संबंधी कांग्रेसकी रिपोर्ट की जिम्मेदारी में मेरा हाथ था ही । पंजाबके संबंधमें सरकारसे काम भी लेना' था । खिलाफत का मामला था ही। यह भी मेरी धारणा थी कि मांटेगू हिंदुस्तानके साथ दगा नहीं होने देंगे । कैदियोंके और उसमें भी अली-भाइयोंके छुटकारेको मैंने शुभ चिह्न माना था। इसलिए मैंने सोचा कि सुधारोंको स्वीकार करनेका प्रस्ताव होना चाहिए। किंतु चित्तरंजन दासकी मजबूत राय थीं कि सुधारोंको बिलकुल असंतोषजनक और अधूरा मान उनको रद कर देना चाहिए। लोकमान्य कुछ तटस्थ थे; परंतु देशबंधु जिस प्रस्तावको पसंद करें उसके पक्षमें अपनी शक्ति लगानेका निश्चय उन्होंने किया था ।

ऐसे भुक्तभोगी सर्वमान्य लोकनायकोंसे मेरा मतभेद मुझे असह्य हो रहा था। दूसरी ओर मेरा अन्तर्नाद स्पष्ट था। मैंने कांग्रेसके अधिवेशन से भाग जानेका प्रयत्न किया। पंडित मोतीलालजी नेहरू और मालवीयजीको मैने सुझाया कि मुझे अधिवेशनमें गैरहाजिर रहने देने से सब काम सध जायंगे और मैं महान् नेताओंके इस मतभेदसे भी बच जाऊंगा ।

पर यह बात इन दोनों बुजुर्गों को न पटीं । लाला हरकिशनलालके कानपर बात आते हीं उन्होंने कहा- “ यह कभी नहीं हो सकता । पंजाबियों को इससे बड़ी चोट पहुंचेगी।' लोकमान्य और देशबंधु के साथ मशवरा किया ।श्री जिनासे भी मिला। किसी तरह कोई रास्ता नहीं निकला। मैंने अपनी वेदना मालवीयजी के सामने रक्खी।

“समझौतेके असार मुझे नहीं दिखाई देते; यदि मुझे अपना प्रस्ताव पेश करना ही पड़े तो अंतको मत तो लेने हीं पड़ेगे । मत लिये जाने की सुविधा यहां मुझे दिखाई नहीं देती। आजतक भरी सभामें हम लोग हाथ हीं ऊंचे उठवाते आये हैं। दर्शकों और सदस्योंका भेद हाथ ऊंचा करते समय नहीं रहता। ऐसी विशाल सभामें मत गिनने की सुविधा हमारे यहां नहीं होती, इसलिए यदि मैं अपने प्रस्तावके संबंध मत लिवाना चाहूं भी तो उसका प्रबंध नहीं ।” मैंने कहा। [ ५०५ ]४८८ आत्म-कथा : भाग ५

लाला हरकिशनलालने इसकी संतोषजनक सुविधा कर देनेका बीड़ा उठाया। उन्होंने कहा कि जिस दिन मत लेना हो उस दिन दर्शकोंको न आने देंगे, सिर्फ प्रतिनिधि ही आयेंगे और मत गिना देने का जिम्मा मेरा; पर आप कांग्रेसकी बैठकमें गैरहाजिर नहीं रह सकते ।

अंतको मैं हारा। मैंने अपना प्रस्ताव बनाया और बड़े संकोच के साथ उसे पेश करता स्वीकार किया। श्री जिना और मालवीयजी समर्थन करनेवाले थे । भाषण हुए। मैं देख सकता था कि यद्यपि हमारे मतभेदमें कहीं कटुता न थी, भाषणमें भी दलीलोंके सिवा और कुछ न था, फिर भी सभा इतने मतभेद को सहन नहीं कर सकती थी, और उसे दुःख हो रहा था । सभा एकमत चाहती थी।

उधर भाषण हो रहे थे, पर इधर भेद मिटाने के प्रयत्न चल रहे थे। आपसमें चिठियां आ-जा रहीं थी। मालवीयजी तो हर तरहसे समझौता करने के लिए मिहनत कर रहे थे। इतनेमें जयरामदासने अपना सुझाव मेरे हाथमें रक्खा और बड़े मधुर शब्दों में मत देने के संकटसे प्रतिनिधियोंको बचा लेनेका अनुरोध मुझसे किया। मुझे वह पसंद आ गया । मालवीयजी की नजर तो चारों ओर आशाकी खोजमें फिर रही थी। मैंने कहा कि यह संशोधन दोनोंको स्वीकार हो सकता है । लोकमान्यको बताया, उन्होंने कहा, दासको पसंद हो तो मुझे आपत्ति नहीं है देशबंधु पिघल गये। उन्होंने विपिनचंद्र पाल की ओर देखा । मालवीयजीको अब पूरी आशा बंध गई और उन्होंने चिट्ठी हाथ से छीन ली। देशबंधुके मुंह से 'हाँ' शब्द अभी पूरा निकला ही नहीं था कि वह बोल उठे- " सज्जनों, आप यह जानकर प्रसन्न होंगे कि समझौता हो गया है।" फिर तो क्या पूछना था ? तालियोंकी हर्षध्वनिसे सारा मंडप गूंज उठा और लोगोंके चेहरोंपर जहां गंभीरता थी वहां खुशी चमक उठी।

यह प्रस्ताव क्या था, उसकी चर्चा करनेकी यहां जरूरत नहीं, क्योंकि यह प्रस्ताव कैसे हुआ, यही बताना मेरे इन प्रयोगोंका विषय है।

समझौतेने मेरी जिम्मेदारी बढ़ा दी ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।