सत्य के प्रयोग/ असहयोगका प्रवाह

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ४२ : असहयोगका प्रवाह तो चल ही रहा था । स्वर्गीय मौलाना अब्दुल बारी वगैरा उलेमाशोंके साथ इस विषयमें खूब बहस हुई है। इस बारेमें खास तौरपर तरह-तरहसे विचार होते रहे कि मुसलमान शांति और अहिंसाका किस हद तक पालन कर सकते हैं और आखिर यह फैसला हुआ कि एक हदतक बतौर एक नीतिके उसका पालन करनेमें कोई हर्ज नहीं और यह भी तय हुआ कि जो एक बार अहिंसा की प्रतिज्ञा ले ले, वह सचाईसे उसका पालन करने के लिए बंधा है । आखिर असहयोगका प्रस्ताव खिलाफत कन्फ्रेन्समें पेश किया गया और लंबी बहसके बाद वह पास हुआ । मुझे याद है कि एक बार उसके लिए इलाहाबाद सारी रात सभा होती रही । शुरू-शुरूमें स्व० हकीम साहब को शांतिपूर्ण असहयोगकी शक्यता के संबंधों शंका थी, लेकिन उनकी शंका दूर हो जाने पर वह उसमें शामिल हो गये और उनकी मदद बहुत कीमती साबित हुई|

इसके बाद गुजरातमें राजनैतिक परिषद्की बैठक हुई। इस परिषद् मैंने असहयोगका प्रस्ताव रक्खा । परिषदमें प्रस्तावका विरोध करनेवालेकी पहली दलील यह थी कि जबतक कांग्रेस असहयोगका प्रस्ताव पास नहीं करती है तबतक प्रांतीय परिषदको उसके पास करने का अधिकार नहीं । मैंने जवाबमें कहा कि प्रांतीय-परिषदें पीछे पैर नहीं हटा सकतीं; लेकिन आगे कदम बढ़ानेका अधिकार तो तमाम अधीन संस्थाको है; यही नहीं, बल्कि अगर उनमें हिम्मत हो तो ऐसा करना उनका धर्म भी है। इससे तो प्रधान संस्थाका गौरव बढ़ता है। इसके बाद प्रस्तावके गुणदोषोंपर भी अच्छी और मीठी बहस हुई। फिर मत लिये गए और बड़े बहुमतसे असहयोगका प्रस्ताव भी पास हो गया। इस प्रस्तावके पास होने में अब्बास तैयबजी और वल्लभभाईका बहुत बड़ा हिस्सा था। अब्बास साहव अध्यक्ष थे और उनका झुकाव असहयोग प्रस्तावकी ओर ही था ।

महासमितिने इस प्रश्नपर विचार करनेके लिए कांग्रेसकी एक खास वैठक १९२०के सितंबर महीनेमें बुलानेका निश्चय किया । बहुत बड़े पैमानेपर तैयारियां हुई। लाला लापतराय अध्यक्ष चुने गये । बंबईसे खिलाफत और कांग्रेस स्पेशले छूटीं । कलकत्तेमें सदस्यों और दर्शकोंका बहुत बड़ा समुदाय इकट्ठा हुआ ।

मौलाना शौकतअलीके कहनेपर मैंने असहयोगके प्रस्तावका मसविदा [ ५१७ ]________________

जा-कथा : भाग ५ रेलमें तैयार किया। इस समयतक मेरे मसविदोंमें शांतिमय शब्द प्रायः नहीं अाता था। मैं अपने भाषणोंमें उसका उपयोग करता था । लेकिन जहां अकेले मुसलमान भाइयोंकी सभा होती वहां शांतिमय शब्दसे मैं जो-कुछ समझाना चाहता, समझा नहीं सकता था; इसलिए मैंने मौलाना अबुलकलाम आजादसे इसके लिए दूसरे शब्द पूछे। उन्होंने ‘बागमन' शब्द बतलाया और असहयोगके लिए ‘तकें भुवालात' शब्द सुझाया । इस तरह जब गुजरातीमें, हिंदीमें, हिंदुस्तानीमें असहयोगकी भाषा मेरे दिमागमें तैयार हो रही थी। उसी समय, जैसा कि मैं ऊपर कह चुका हूं, कांग्रेसके लिए एक प्रस्ताव तैयार करनेका काम मेरे जिम्मे आया । उस प्रस्तावमें ‘शांतिमय' शब्द नहीं आ पाया था। प्रस्ताव तैयार कर चुकने पर ट्रेन में ही मैंने उसे मौलाना शौकतअलीके हवाले कर दिया था। रातमें मुझे खयाल आया कि खास शब्द 'शांतिमय' तो प्रस्तावके मसविदेमॅसे छूट गया है। मैंने महादेवको उसी समय जल्दी से भेजा और कहलवाया कि छापनेके पहले उसमें शांतिमयू शब्द भी जोड़ दिया जाय । मुझे याद आ रहा है कि इस शब्दके जुडेनेके पहले ही प्रस्ताव छप चुका था । उस रातको विषय-समिति की बैठक थी, इसलिए बादमें मुझे मसविदे में शांतिमय' शब्द जोड़ना पड़ा। साथ ही मैंने यह भी महसूस किया कि अगर मैंने पहले से ही प्रस्ताव तैयार न कर लिया होता तो बड़ी कठिनाई होती। । तिसपर भी मेरी हालत त दयाजनक ही थी। मुझे इस बातकर प्रता भी नहीं था कि कौन तो मेरे प्रस्तावको पसंद करेंगे और कौन उसके विरोधमें वोलेंगे । मुझे इस बातका भी विलकुल पता न था कि लालजीका झुकाव किस तरफ हैं। कलकत्तैमें पुराने अनुभवी योद्धागण एकत्र हुए थे। विदुषी एती बेसेंटे, पंडित मालवीयजी, विजयराघवाचार्य, पंडित मोतीलालजी, देशबंधु वगैरा नेता उनमें मख्य थे ।

मेरे प्रस्तावमें खिलाफत' और पंजाबके अन्यायों को लेकर हु असंयोग करने की बात कही गई थी । श्री विजयराघवाचार्यको इतने से संतोष न हुआ । उनका कहना था, “अगर अंसहयोग करना है तो फिर किसी खास अन्यायको लेकर ही क्यों किया जाय ? स्वराज्यको अभाव तो बड़े-से-बड़ा अन्याय है, इसे लेकर [ ५१८ ]
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अध्याय ४२ : असहयोगका प्रवाह

ही असहयोग किया जाना चाहिए। मोतीलालजी भी यह जोड़ना चाहते थे । मैंने तुरंत ही यह सुझाव मंजूर कर लिया और प्रस्तावमें स्वराज्यकी मांग भी जोड़ दी। लंबी, गंभीर और कुछ तेज बहस के बाद असहयोगका प्रस्ताव पास हो गया ।

सबसे पहले मोतीलाल आंदोलनमें शामिल हुए। उस समय मेरे साथ उनकी जो मीठी बहस हुई थी, वह मुझे अबतक याद है। कहीं थोड़े शब्दोंको बदल देने की बात उन्होंने कही थी और मैंने बह मंजूर कर ली थी । देशबंधुको राजी कर लेनेका बीड़ा उन्होंने उठाया था। देशबंधुका दिल असहयोगकी तरफ था, लेकिन उनकी बुद्धि उनसे कह रही थी कि जनता असहयोगके भारको सह नहीं सकेगी । देशबंधु और लालाजी पुरे असहयोगी तो नागपुरमें बने थे । इस विशेष अधिवेशनके अवसरपर मुझे लोकमान्यकी अनुपस्थिति बहुत ज्यादा खटकी थी। आज भी मेरा यह मत हैं कि अगर वह जिंदा रहते तो अवश्य ही कलकत्तेके प्रसंग का स्वागत करते । लेकिन अगर यह नहीं होता और वह उसका विरोध करते, तो भी मुझे वह अच्छा लगता और मैं उससे बहुत-कुछ शिक्षा ग्रहण करता । मेरा उनके साथ हमेशा मतभेद रहा करता। लेकिन यह मतभेद मधुर होता था। उन्होंने मुझे सदा यह मानने दिया था कि हमारे बीच निकटका संबंध हैं। ये पंक्तियां लिखते हुए उनके अवसानका चित्र मेरी आंखोंके सामने घूम रहा है। आधी रात के समय मेरे साथी पटवर्धनने टेलीफोन द्वारा मुझे उनकी मृत्युकी खबर दी थी। उसी समय मैंने अपने साथियोंसे कहा था---- “मेरी बड़ी ढाल मुझसे छिन गई ! इस समय असहयोगका आंदोलन पूरे जोर पर था। मुझे उनसे आश्वासन और प्रेरणा पानेकी आशा थी । आखिर जब असहयोग पूरी तरह मूर्तिमान हुआ था तब उनका क्या रुख होता सो तो दैव ही जाने; लेकिन इतना मुझे मालूम है कि देशके इतिहासकी इस नाजुक घड़ी में उनका न होना सबको खटकता था ।

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