सत्य के प्रयोग/ एक संवाद

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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• अध्याय ४१ : एक संवाद

सावधान कर देनेका विचार किया और यहांतक आनेका कष्ट दिया, जिससे भोले-भाले बंगालियोंकी भांति आप भी भूलमें न रह जायं ।”

यह कहकर सेठने अपने एक गुमाश्तेको अपने नमूने लानेके लिए इशारा किया । नमूने रद्दी सूतसे बने हुए कंवलके थे। उन्हें लेकर उन्होंने कहा-

“ देखिए, यह नया माल हमने तैयार किया है। इसकी बाजारमें अच्छी खपत है; रद्दीसे बना है, इस कारण सस्ता तो पड़ता ही है। इस मालको हम ठेठ उत्तरतक पहुंचाते हैं। हमारे एजेंट चारों ओर फैले हुए हैं। इससे आप यह तो समझ सकते हैं कि हमें आपके सरीखे एजेंटों की जरूरत नहीं रहती । सच बात तो यह है कि जहां आप-जैसे लोगोंकी आवाज तक नहीं पहुंचती, वहां हमारे एजेंट और हमारा माल पहुंच जाता है। हां, आपको तो यह भी जान लेना चाहिए कि भारतको जितने मालकी जरूरत रहती हैं उतना तो हम बनाते भी नहीं। इसलिए स्वदेशीका सवाल तो, खासकर उत्पत्तिका सवाल है। जब हम आवश्यक परिमाणमें कपड़ा तैयार कर सकेंगे और जब उसकी किस्म सुधार कर सकेंगे, तब परदेशी कपड़ा अपने-आप आना बंद हो जायेगा । इसलिए मेरी तो यह सलाह है कि आप जिस ढंगसे स्वदेशी आंदोलनका काम कर रहे हैं, उस ढ़ंगसे मत कीजिए और नई मिलें खड़ी करनेकी तरफ अपना ध्यान लगाइए। हमारे यहां स्वदेशी मालको खपानेका आंदोलन आवश्यक नहीं है, आवश्यकता तो स्वदेशी माल उत्पन्न करनेकी है ।"

"अगर मैं यह काम करता होऊं तो आप मुझे आशीर्वाद देंगे न ?' मैंने कहा ।

“यह कैसे ? अगर आप मिल खड़ी करनेकी कोशिश करते हों तो आप धन्यवादके पात्र हैं।

" यह तो मैं नहीं करता हूँ । हां चरखे के उद्धार-कार्य में अवश्य लया हुआ हूँ। "

“यह कौनसा काम है ?"

मैंने चरखेकी बात सुनाई और कहां-

“ मैं आपके विचारोंसे सहमत होता जा रहा हूं। मुझे मिलकी एजेंसी नहीं लेनी चाहिए । उसमें तो लाभके बदले हानि ही है । मिलोंका माल ३२ [ ५१५ ]४९८ आत्म-कथा : भाग ५

यों ही नहीं पड़ा रहता । मुझ तो कपड़ा उत्पन्न करनेमें और तैयार कपड़ेको खपानेमें लग जाना चाहिए । अभी तो मैं केवल उत्पत्तिके काममें ही लगा हुआ हूं । मै इस तरहकी स्वदेशीमें विश्वास रखता हूं; क्योंकि उसके द्वारा भारतकी भूखों मरनेवाली आधी बेकार स्त्रियोंको काम दिलाया जा सकता है। वे जो सूत कातें उसे बुनवाना और इस तरह तैयार खादी लोगोंको पहनाना ही मेरा काम है और यही मेरा आन्दोलन है । चरखा-आन्दोलन कितना सफल होगा यह तो मैं नहीं कह सकता । अभी तो उसका श्रीगणेश-मात्र हुश्रा है; लेकिन मुझे उसमें पूरा विश्वास है । चाहे जो हो, यह तो निर्विवाद है कि इस आंदोलन से कोई हानि नहीं होगी । इस आंदोलनके कारण हिंदुस्तानमें तैयार होनेवाले कपड़ेमें जितनी वृद्धि होगी, उतना लाभ ही होगा । इसलिए इस कोशिशमें प्रापका बतलाया हुआ दोष तो नहीं हैं । ”

“ अगर आप इस तरह इस आंदोलनका संचालन करते हों तो मुझे कुछ भी कहना नहीं हैं । यह एक जुदी बात हैं कि इस यंत्रयुगमें चरखा टिकेगा या नहीं फिर भी, मैं तो आपकी सफलता ही चाहता हूं । "

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असहयोगका प्रवाह

इनके बाद खादीकी तरक्की किस तरह हुई, उसका वर्णन इन अध्यायोंमें नहीं किया जा सकता । यह बतला चुकने पर कि कौन-कौन चीज किस तरह जनताके सामने आई, उसके इतिहासमें उतरना इन अध्यायोंकी सीमाके बाहरकी बात है । ऐसा करनेसे तो उन-उन विषयोंकी एक-एक पुस्तक ही अलग तैयार हो जायगी । यहां मैं तो केवल यही बताना चाहता हूं कि सत्यकी शोध करते हुए किस तरह जुदी-जुदी बातें मेरे जीवनमें एक-के-बाद-एक अनायास आती गई ।

इसलिए मैं मानता हूं कि अब असहयोगके बारेमें कुछ बातें बतानेका समय आ गया है। खिलाफतके बारे में अली-भाइयों का जबरदस्त आंदोलन

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