सत्य के प्रयोग/ खादीका जन्म

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ५०८ ]अध्याय ३६ : खादीका जन्म

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दूसरा कोई संगठन-समितिमें न होना चाहिए, यह मैंने सुझाया । यह सूचना स्वीकृत हुई। लोकमान्यने श्री केलकरका और देशबंधुने श्री आई० बी० सेनका नाम दिया। यह विधान-समिति एक दिन भी साथ मिलकर न बैठीं । फिर भी हमने अपना कार्य चला लिया। इस विधानके संबंध में मुझे कुछ अभिमान है । मैं मानता हूं कि इसके अनुसार काम लिया जा सके तो आज हमारा बेड़ा पार हो सकता है । यह तो जब कभी हो; परंतु मैं मानता हूं कि इस जवाबदेही को लेने के बाद ही मैंने कांग्रेस में सचमुच प्रवेश किया ।

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खादीका जन्म

मुझे याद नहीं कि सन १९०८ तक मैंने चरखा अथवा करघा देखा हो । फिर भी मैंने ‘हिद-स्वराज्य में यह माना है कि चरखे द्वारा भारतकी गरीबी । मिटेगी। और जिस मार्ग से देशको भुखमरी मिटेगी उससे स्वराज्य भी मिलेगा। यह तो एक ऐसी बात है कि जिसे सब कोई समझ सकते हैं। जब मैं सन् १९१५ में दक्षिण अफ्रिकासे भारत आया, उस समय भी मैने चरखाके दर्शन नहीं किये थे । आश्रम खोलनेपर एक करघा ला रक्खा । करघा ला रखनेमें भी मुझे बड़ी कठिनाई हुई। हम सब उसके प्रयोगसे अपरिचित थे, अत: करघा प्राप्त कर लेने भरसे वह चल तो नहीं सकता था । हममें था तो कलम चलानेवाले इकट्ठे हुए थे, या व्यापार करना जाननेवाले थे; कारीगर कोई भी नहीं था। इसलिए करघा मिल जानेपर भी बताईका काम सिखानेवाले की जरूरत थी । काठियावाड़ और पालनपुरसे करघा मिला और एक सिखानेवाला भी आगया। पर उसने अपना सारा हुनर नहीं बताया; लेकिन मगनलाल गांधी ऐसे नहीं थे कि हाथमें लिये हुए कामको झट छोड़ दें। उनके हाथमें कारीगरी तो थी ही, अतः उन्होंने बनाईका काम पूरी तरह जान लिया और फिर एक-के-बाद-एक नये बुनकर आश्रम- में तैयार हो गये ।

हमें तो अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसलिए अबसे मिलके [ ५०९ ]________________

४६२ आत्म-कथा : भाग कपड़े पहनने बंद किये, आश्रमवासियोंने हाथके करघेपर देशी' मिलके सूतस बुना हुआ कपड़ा पहननेका निर्णय किया। इससे हमने बहुत कुछ सीखा । भारतके जुलाहोंके जीवनका, उनकी आमदनीका, सूत प्राप्त करने में होनेवाली उनकी कठिनाइयोका, वे उसमें किस तरह धोखा खाते थे और दिन-दिन किस तरह कर्जदार हो रहे थे, अादि बातोका हमें पता चला। ऐसी परिस्थिति तो थी नहीं कि शीघ्र ही हम अपने कपड़े आप बुन सके । अतः बाहरके बुननेवालोंसे हमें अपनी जरूरतके मुताबिक कपड़ा बुनवा लेना था; क्योंकि देशी मिलके सूतसे हाथबुना कपड़ा जुलाहोंके पाससे या व्यापारियोंसे शीध्र ही नहीं मिलता था। जुलाहे अच्छा कपड़ा तो सबका-सब विलायती सूतका ही बनते थे । इसका कारण यह है कि हमारी मिले महीन सूत नहीं करती थीं । आज भी महीन सूत वे कम ही कातती हैं। बहुत महीन तो वह कात ही नहीं सकतीं । बड़े प्रयत्नके बाद कुछेक जुलाहे हाथ लगे, जिन्होंने देशी सूतका कपड़ा बुन देने की मिहरबानी की । इन जुलाहोको आश्रमकी तरफसे यह वचन देना पड़ा था कि उनका कुना हा देशी मृतका कपडा खरीद लिया जायेगा। इस तरह खास तौरपर बताथा कपड़ा हमने पहुना और मित्रोंमें उसका प्रचार किया । हम सूत कातनेवाली मिलोंके बिना तनख्वाहके एजेंट बन गये । मिलोंके परिचयमें अनेसे उनके काम-काजका, उनकी लाचारीका हाल हमें मालूम हुआ ! हमने देखा कि, मिलोंका ध्येय खुद कोतकर खुद बुन लेना था। वे हाथकरघेकी इच्छा-पूर्वक सहायक नहीं थीं: बल्कि अनिच्छापूर्वक थीं ।। | यह सब देखकर हम हाथसे कातनेके लिए अधीर हो उठे। हमने देखा, कि जबतक हाथसे न कातेंगे तबतक हमारी पराधीनता बनी रहेगी । हमें यह प्रतीति नहीं हुई कि मिलोंके एजेंट बनकर हम देश-सेवा करते हैं । । लेकिन न तो चरखा था, न कोई चरखा चलानेवाला ही थी। कुकड़ियां भरनेके चरखे तो हमारे पास थे; लेकिन यह खयाल तो था ही नहीं कि उनपर सूत कत सकता है। एक बार कालीदास वकील एक महिलाको ढूंढ लाये । उन्होंने कहा कि यह कातकर बतलायेंगी। उसके पास नये कामोंको सीख लेने में प्रवीण एक आश्रमवासी भेजे गये; लेकिन हुनर हाथ न आया । :समय बीतने लगा। मैं अधीर हो उठा था। आश्रममें आनेवाले उन

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