सत्य के प्रयोग/ खिलाफतके बदलेमें गोरक्षा?

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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। ५ इस निमंत्रण-पत्रमें यह भी लिखा गया था कि इसमें खिलाफतके प्रश्नकी चर्चा की जायगी और साथ ही गो-रक्षाके विषयपर भी विचार किया जायगा, एवं यह सुझाया गया था कि गो-रक्षाको साधनेका यह बड़ा अच्छा अवसर है। मुझे यह वाक्य खडका । इस नियंत्रण-पत्रके उत्तरमें मैंने लिखा था कि अनेक यत्न करूंगा और साथ ही यह भी सूचित किया था कि खिलाफत और गोरक्षाको एक साथ मिलाकर उन्हें परस्पर बदलेका सवाल न बनाना के महत्त्वका निर्णय उनके गुणदोषको देखकर करना चाहिए सभा में गया । उपस्थिति अच्छी थी। फिर भी ऐसा दृश्य नहीं था कि हजारों लोग पीछेसे धक्का-मुक्की करते हों। इस सभामें श्रद्धानंदज़ी उपस्थित थे। उनके साथ इस विषयपर मैंने बातचीत कर ली। उन्हें मेरी दलील पसंद आई और उन्होंने कहा कि आप इसे सभामें पेश करें। हकीम साहबके साथ भी मशवरा कर लिया था। मेरा कहना यह था कि दोनों प्रश्नोंका विचार उनके गुण-दोषके अनुसार अलग-अलग होना चाहिए। यदि खिलाफतके प्रश्नमें तथ्य हो, उसमें सरकारकी ओरसे अन्याय होता हो, तो हिदुओंको मुसल- मानोंका साथ देना चाहिए, और इसके साथ गो-रक्षाको नहीं मिला सकते । और यदि हिंदू ऐसी कोई शर्त रक्खें तो वह जेबा नहीं देगी । मुसलमान खिलाफत में मदद लेनके लिए, उसके एवज में, गोवध बंद करें तो इसमें उनकी शोभा नहीं; . एक तो पड़ोसी, फिर एक ही भूमिके रहनेवाले होनेके कारण हिंदुञोंके मनोभावोंका आदर करनेके लिए यदि वे स्वतंत्ररूपसे गोवध बंद करें तो यह उनके लिए शोभाक बात होगी । यह उनका कर्तव्य है; पर यह प्रश्न स्वतंत्र है। यदि वास्तव में यह उनका कर्तव्य है, और इसे वे अपना कर्तव्य समझे भी, तो फिर हिंदू खिलाफत में मदद करें या न करें, पर मुसलमानोंको गोवध बंद कर देना उचित है। इस । तरह दोनों प्रश्नोंपर स्वतंत्र रीतिसे विचार होना चाहिए और इस कारण सभामें तो सिर्फ खिलाफतके विषयपर ही विचार होना उचित है । यह मेरी दलील , थी। सभाको वह पसंद आई। गो-रक्षाके सवालपर सभा में चर्चा न हुई । परंतु मौ० अब्दुल बारी साहबने कहा-- हिंदू लोग चाहे खिलाफतमें मदद करें या न करें, हम चूंकि एक ही मुल्कके हैं, मुसलमानोंको हिंदुअोंके जजवातके खातिर गोकुशी बंद कर देनी चाहिए। और एक बार तो ऐसा ही प्रतीत हुआ, मानो मुसल[ ५०० ]अध्याय ३६ : खिलाफतके बदलेमें गोरक्षा ? ४८३ मान सचमुच ही गो-वध बंद कर देंगे । कई लोगोंने तो यह भी सुझाया कि पंजाबके सवालको भी खिलाफतके साथ मिला देना चाहिए। मैंने इसका विरोध किया। मेरी दलील यह थी--पंजाबका मसला स्थानिक है, पंजाब कष्टोके कारण हम सरकारके संधि-उत्सव- से अलग नहीं रह सकते। इसलिए पंजाबके मामलेको खिलाफतके साथ जोड़ देने से हम नादानीके इल्जामके पात्र बन जायंगे । मेरी यह राय सबको पसंद आई । '

इस सभामें मौलाना हसरत मोहानी भी थे। उनसे जान-पहचान तो हो ही गई थी । पर वह कैसे लड़वैया हैं, इस बातका अनुभव मैंने यहीं किया। मेरे उनके दरमियान यहींसे मत-भेद शुरू हुआ और वह अनेक बातोंमें अंततक कायम रहा ।

अनेक प्रस्तावों में एक यह भी था कि हिंदू-मुसलमान सब स्वदेशी-व्रतका पालन करें और उसके लिए विदेशी कपड़ेका बहिष्कार किया जाय । खादीका पुनर्जन्म अभी नहीं हो सका था। हसरत साहवको यह प्रस्ताव मंजूर नहीं हो सकता था। वह तो चाहते थे कि यदि अंग्रेजी सल्तनत खिलाफतके बारेमें इंसाफ न करे तो उसका मजा उसे चखाया जाय, अतएव उन्होंने तमाम ब्रिटिश मालका यथासंभव बहिष्कार सूझाया। मैंने समस्त ब्रिटिश मालके बहिष्कारकी अशक्यता और अनौचित्य के संबंधमें अपनी दलीलें पेश कीं, जो कि अब तो प्रसिद्ध हो चुकी हैं। अपनी अहिंसा-वृत्तिका प्रतिपादन मैंने किया। मैंने देखा कि सभापर मेरी बातोंका गहरा असर हुआ। हसरत मोहानीकी दलीलें सुनते हुए लोग इतना हर्षनाद करते थे कि मुझे प्रतीत हुआ कि यहां मेरी तूतीकी आवाज कौन सुनेगा ? पर यह समझकर कि मुझे अपने धर्मसे न चूकना चाहिए, अपनी बात छिपा न रखनी चाहिए, मैं बोलनेके लिए उठा । लोगोंने मेरे भाषणको खूब ध्यानसे' सुना। सभा-मंचपर तो मेरा पूरा-पूरा समर्थन किया गया और मेरे समर्थनमें एक के बाद एक भाषण होने लगे। अग्रणी लोग जान गये कि ब्रिटिश मालके बहिष्कारके प्रस्तावसे मतलब तो कुछ भी नहीं सधेगा, उलटे हंसी होकर रह जायगी। सारी सभामें शायद ही कोई ऐसा आदमी दिखाई पड़ता था, जिसके बदनपर कोई-न-कोई ब्रिटिश वस्तु न थी। सभामें उपस्थित रहनेवाले लोग भी जिस बातको करनेमें असमर्थ थे उसका प्रस्ताव करनेसे लाभके [ ५०१ ]आत्म-कथा : भाग ५ बदले हानि ही होगी---- इस बातको बहुतेरे लोग समझ गये । ‘हमें तो आपके विदेशी वस्त्र बहिष्कारसे संतोष हो ही नहीं सकता । किस दिन हम अपने लिए सारा कपड़ा यहां बना सकेंगे, और कब विदेशी वस्त्रका बहिष्कार होगा ? हम तो कोई ऐसी चीज चाहते हैं, जिससे ब्रिटिश लोगोंपर तुरंत असर हो । आपके बहिष्कारसे हमारा झगड़ा नहीं; पर हमें तो कोई तेज और तुरंत असर करने वाली चीज बताइए।' इस आशयका भाषण मौलानाने किया। इस भाषणको मैं सुन रहा था। मेरे मनमें विचार उठा कि विदेशी वस्त्रके बहिष्कारके साथ ही कोई और नवीन बात पेश करनी चाहिए। उस समय मुझे यह तो स्पष्ट मालूम होता था कि विदेशी वस्त्रका बहिष्कार तुरंत नहीं हो सकता । सोलहों आना खादी उत्पन्न करनेकी शक्ति यदि हम चाहें तो हमारे अंदर हैं, यह बात जो मैं आगे चल कर देख पाया सो उस समय न देख पाया था । अकेली मिलें वक्तपर दगा देंगी, यह मैं तब भी जानता था। जिस समय मौलाना साहबने अपनी भाषण पूरा किया, उस समय में जवाब देनेके लिए तैयार हो रहा था ।

मुझे उस नई चीजके लिए उर्दू-हिंदी शब्द न सूझा । मुसलमानोंकी

ऐसी खास' सभा युक्ति-युक्त भाषण करनेका यह मुझे पहला ही अनुभव था । कलकत्तेमें मुस्लिम-लीगकी सभा में कुछ बोला था; पर वह तो कुछ ही मिनटके लिए और सो भी वहां हृदयस्पर्शी भाषण करना था। यहां तो मुझे ऐसे समाजको समझाना था, जो मुझसे विपरीत मत रखता था; पर अब मेरी झेप मिट गई थी । देहलीके मुसलमानोंके सामने सकील उर्दू में लच्छेदार भाषण नहीं करना था। बल्कि अपना मत टूटी-फूटी हिंदीमें समझाना था । यह काम मैं अच्छी तरह कर सका । हिंदी-उर्दू ही राष्ट्रभाषा हो सकती है, इसका यह सभा प्रत्यक्ष प्रमाण : थी । यदि मैंने अंग्रेजीमें वक्तृता दी होती तो मेरी गाड़ी आगे नहीं चल सकती थी। और मोलाना साहबने जो पुकार की उसका समय न आया होता और यदि आता तो मुझे उसका उत्तर न मिलता ! उर्दू अथवा गुजराती शब्द न सूझ पड़ा, इससे मुझे शर्म मालूम हुई; पर उत्तर तो दिया ही। मुझे नॉन-कोअपरेशन' शब्द हाथ लगा। जब मौलाना साहब भाषण कर रहे थे तब मेरे मनमें यह भाव उठ रहा था कि हम खुद कई [ ५०२ ]• अध्याय ३७ : अमृतसर-कांग्रेस ४८५ बातोंमें जिस सरकारका साथ दे रहे हैं उसीके विरोधकी जो ये सब बातें करते हैं, सो व्यर्थ है । तलवारके द्वारा प्रतिकार नहीं करना है, तो फिर उसका साथ न देना ही उसका प्रतिकार करना है, यह मुझे सूझा और मेरे मुखसे पहली बार नॉन-कोप्रॉपरेशन' शब्दका उच्चार उस सभामें हुश्रा । अपने भाषणमें मैंने उसके समर्थनमें अपनी दलीलें पेश कीं । इस समय मुझे इस बातका खयाल न था कि इस शब्दमें क्या भाव श्रा जाते हैं । इस कारण में उनकी तफसीलमें नहीं गया । मुझे इतना ही कहा याद पड़ता हैं-- “मुसलमान भाइयोंने एक और भी मार्केका फैसला किया है। खुदा न खास्ता अगर सुलहकी शर्ते उसके खिलाफ गईं तो सरकारकी सहायता करना बंद कर देंगे । मैं समझता हूं, लोगोंका यह हक है । सरकारी खिताबोंको रखने या सरकारी नौकरी करनेके लिए हम बंधे हुए नहीं हैं। जबकि खिलाफतके जैसे मजहबी मामलेमें हमें नुकसान पहुंचता हो तो हम उसकी मदद कैसे करेंगे ? इसलिए अगर खिलाफतका फैसला हमारे खिलाफ जाय तो सरकारको मदद न देनेका हमें हक हैं । ” पर उसके बाद तो कई महीनेतक इस बातका प्रचार नहीं हुश्रा । महीनोंतक यह शब्द इस सभामें ही छिपा पड़ा रहा । एक महीनेके बाद जब अमृतसरमें कांग्रेस हुई तब मैंने उसमें असहयोग संबंधी प्रस्तावका समर्थन किया था । क्योंकि उस समय मैने यही आशा रक्खी थी कि हिंदू-मुसलमानोंको असहयोगका अवसर नहीं आयेगा । ३७ अमृतसर-कांग्रेस फौजी कानूनके अनुसार सैकड़ों निर्दोष पंजाबियोंको नाममात्रकी अदालतोंने नाममात्रके लिए सबूत लेकर कम या अधिक मियादके लिए जेलखानोंमें ठूस दिया था; परंतु पंजाब सरकार उन्हें जेलमें रख न सकी; क्योंकि इस घोर अन्यायके खिलाफ देशमें चारों ओर इतनी बुलंद आवाज उठी कि सरकार इन कैदियोंको अविक'

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