सत्य के प्रयोग/ देशकी ओर

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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देश की और

अब दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए मुझे तीन साल हो गये थे। लोगों से मेरी जान-पहचान हो गई थी। वे मुझे जानने-बुझने लगे थे। १८९६ ई० में मैने छ: महीने के लिए देश जाने की इजाजत चाहीं। मैंने देखा कि दक्षिण अफ्रीका मुझे बहुत समय तक रहना होगा। मेरी वकालत ठीक-ठीक चल निकली थी। सार्वजनिक कामों के लिए लोग मेरी वहां आवश्यकता समझते थे। मैं भी समझता था। इसलिए मैंने दक्षिण अफ्रिका में कुटुंब रहने का निश्चय किया और इसके लिए देश जाना ठीक समझा। फिर यह भी देखा कि देश जाने से कुछ यहाँ का काम भी हो जायगा। देश में लोगों के सामने यहां के प्रश्न की चर्चा करने से उनकी अधिक दिलचस्पी पदा हो सकेगी। तीन पौंडा कर एक बहता हुआ घाव था। जब तक वह उठ न जाता, जी को चैन नहीं हो सकती थी।

पर यदि मैं देश जाऊं तो फिर कांग्रेस का और शिक्षा-मंडल के काम का कौन जिम्मा ले ? दो साथियों पर नजर आई। आदमजी मियां खान और पारसी रुस्तमजी । व्यापारी-वर्गों से बहुतेरे काम करने वाले ऊपर उठ आये थे; पर उनमें प्रथम पंक्ति में आने योग्य यही दो सज्जन ऐसे थे जो मंत्री का काम नियमित रूप से कर सकले थे, और जो दक्षिण अफ्रीका में जन्मे भारतवासियों का मन हरण कर सकते थे। मंत्री के लिए मामूली अंग्रेजी जानना तो आवश्यक था ही। मैंने इनमें से स्वर्गीय आदमजी मियां खान को मंत्री-पद देने की सिफारिश की और वह स्वीकृत हुई। अनुभव से यह पसंदगी बहुत ही अच्छी साबित हुई। अपनी उद्योगशीलता, उदारता, मिठास और विवेक के द्वारा सेठ आदमजी मियां खान ने अपना काम संतोष जनक रीति से किया और सबको विश्वास हो गया कि मंत्री का काम करने लिए वकील-बैरिस्टर की' अथवा पदवीधारी बड़े अंग्रेजीदां की जरूरत न थी।

१८९६के मध्य में पोंगोला जहाज से देश को रवाना हुआ। यह कलकत्ता जानेवाला जहाज था।

जहाज में यात्री बहुत थोड़े थे। दो अंग्रेज अफसर थे। उनका मेरा [ १८९ ]अच्छा मेल बैठ गया। एक के साथ तो रोज १ घंटा शतरंज खेला करता था। जहाज के डाक्टर ने मुझे एक ‘तामिल-शिक्षक' दिया था और मैंने उसका अभ्यास शुरू कर दिया था।

नेटाल में मैंने देखा कि मुसलमान के निकट परिचय मैं आने के लिए मुझे उर्दू सीखनी चाहिए, तथा मदरासि से संबंध बांधने के लिए तामिल जान लेना चाहिए। उसके लिए मैंने अंग्रेज मित्र के कहने से डेक के यात्रियों में से एक अच्छा मुंशी खोज निकाला है, और हमलोगों की पढ़ाई अच्छी चलने लगी थी। अंग्रेज अफसर की' स्मरण-शक्ति मुझ से तेज थी। उर्दू अक्षरो को पहचानने में मुझे दिक्कत पड़ती थी; पर वह तो एक बार शब्द देख लेने के बाद उसे भूलता ही न था। मैंने अपनी मेहनत की मात्रा बढ़ाई भी; पर उसका मुकाबला न कर सका।

तामिल की पढ़ाई भी ठीक चली। उसमें किसी की मदद न मिल सकती थी। पुस्तक लिखी भी इस तरह गई थी कि बहुत मदद की जरूरत न थी।

मुझे आशा थी कि देश जाने के बाद यह पढ़ाई जारी रह सकेगी; पर ऐसा न हो पाया। १८९३ के बाद मुझे पुस्तकें पढ़ने का अवसर प्रधानतः जेलों मैं ही मिला है। इन दोनों भाषा को ज्ञान मैने बढ़ाया तो; पर वह सब जेल में ही हुआ--तमिल को दक्षिण अफ्रिका की जेलों,और उर्दू का यरवड़ा पर तामिल बोलने का अभ्यास कभी न हुआ। पढ़ना तो ठीक-ठीक आ गया था; किंतु पढ़ने का अवसर ने अपने से उसका अभ्यास छूट सा जाता हैं, इस बात का मुझे बराबर दुःख बना रहता हैं। दक्षिण अफ्रीका के मदरासी भाइयों से मैंने खब प्रेम-रस पिया हैं। उनका स्मरण मुझे प्रतिक्षण रहता है। जब-जब मैं किसी तामिल तेलगू को देखता हूं, तो उनकी श्रद्धा, उनकी उद्योगशीलता, बहुतों का नि:स्वार्थ त्याग, याद आये बिना नहीं रहता, और ये सब लगभग निरक्षर थे। जैसे पुरुष, वैसी ही स्त्रियां। दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई ही निरक्षरों की थी और निरक्षर ही उसके लड़ने वाले थे। वह गरीबों की लड़ाई थीं और गरीब ही उसमें जूझे।

इन भोले और भले भारतवासियों का चित्त चुराने के लिए भाषा की भिन्नता कभी बाधक न हुई। वे टूटी-फूटी हिंदुस्तानी और अंग्रेजी जानते थे और उससे हम अपना काम चला लेते थे; पर मैं तो इस प्रेम का बदला चुकाने के लिए तामिल सीखना चाहता था। अतः तामिल तो कुछ-कुछ सीख ली। तेलगू जानने का [ १९० ]प्रयत्न हिंदुस्थान किया; परंतु वर्णमालाले झागे न बढ़ सका।

इस तरह तामिल तेलगू न पढ़ पाया और अब शायद ही पढ़ पाऊं। इसलिए मैं यह आशा रख रहा हूं कि ये द्राविड़ भाषा-भाषी हिंदुस्तानी सीख लेंगे। दक्षिण अफ्रीका के द्राविड़-- 'मद्रासी' तो अवश्य थोड़ी-बहुत हिंदी बोलते हैं, मुश्किल है अंग्रेजी पढ़े-लिखों की । ऐसा मालूम होता है, मानो अंग्रेजी का ज्ञान हमें अपनी भाषायें सीखने में बाधक हो रहा है।

पर यह तो विषयांतर हो गया। हमें अपनी यात्रा पूरी करनी चाहिए। अभी पोंगला के कप्तान का परिचय करना बाकी है। अस्तु। हम दोनों मित्र हो गये थे। यह कप्तान प्लीमथ बंदके संप्रदाय का था । इसलिए जहाज-विद्या की अपेक्षा अध्यात्मिक विद्या की ही बातें हम दोनों में अधिक हुई। उसने नीति और धर्म-श्रद्धा फर्क बताया। उसकी दृष्टि से बाइबिल की शिक्षा लड़कों का खेल था। उसकी खूबी उसकी सरलता हैं। बालक, स्त्री-पुरुष, सब ईसाक और उसके बलिदान को मान लें कि बस, उनके पाप धुल जायेंगे। इस पलिम्थ ब्रदर ने मेरे प्रिटोरिया कै 'ब्रदर'की पहचान ताजा कर दी। जिस धर्म में नीति की चौकीदारी करनी पड़ती हो वह उसे नीरस मालूम हुई। इस मित्रता और अध्यात्मिक चर्चा की तह में था मेरा 'अन्नाहार में मांस क्यों नहीं खाता ? गो-मांस मैं क्या बुराई है ? वनस्पति की तरह क्या पशु-पक्षियों को भी ईश्वर मनुष्य आनंद तथा आहार के लिए नहीं बनाया है ? ऐसी प्रश्नमाला आध्यात्मिक वार्तालाप उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकती थी।

पर हम दोनों एक-दूसरे को समझा सके। मैं अपने इस विचार पर दृढ़ हुआ कि धर्म और नीति एक ही लस्तु के वाचक हैं। इधर कप्तान को भी अपनी धारणा की सत्यता पर संदेह न था।

चौबीस दिन के अंत में यह आनंददायक यात्रा पूरी हुई, और मैं हुगलीका सौंदर्य निहारता हु कलकत्ता उतरा। उसी दिन मैने बंबई जाके लिए टिकट कटाया।

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