सत्य के प्रयोग/ मिल गया

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ४० : मिल गया ४९३


लोगोंको, जो इस संबंधमें कुछ बातें कह सकते, मैं पूछता; लेकिन कातनेका इजारा तो स्त्रियोंका ही था । अतः कातनेवाली स्त्री तो कहीं किसी स्त्रीको ही मिल सकती थी । सन् १९१७की भड़ौंचकी शिक्षा-परिषद् गुजराती भाई मुझे घसीट ले गये । वहां महासाहसी विधवा बहन गंगाबाई हाथ लगीं। वह बहुत पढ़ीलिखी नहीं थी, लेकिन उनमें साहस और समझ शिक्षित बहनोंमें साधारणतः जितनी होती है, उससे अधिक थी। उन्होंने अपने जीवनमेंसे छुआछूतकी जड़ खोद डाली थी और वह निडर होकर अंत्यजोंसे मिलती तथा उनकी सेवा करती थीं। उनके पास रुपया-पैसा था; लेकिन उनकी अपनी आवश्यकता बहुत थोड़ी थी । उनका शरीर सुगठित था और चाहे जहां अकेले जानेमें वह तनिक भी संकोच नहीं करती थीं। वह तो घोड़ेकी सवारी के लिए भी तैयार रहतीं । इस बहनसे मैंने गोधराकी परिषदमें विशेष परिचय बढ़ाया। मैंने अपनी व्यथा उन्हें कह सुनाई और जिस तरह दमयंती नलकी तलाश में घूम रही थी उसी तरह चरखेकी खोजमें घूमनेकी बात स्वीकार करके उन्होंने मेरा बोझ हलका कर दिया। ४०

मिल गया

गुजरातमें खूब घूम चुकनेके बाद गायकवाड़ी राज्यके बीजापुर गांवमें गंगाबहनको चरखा मिला। वहां बहुतसे कुटुंबोके पास चरखा था, जिसे उन्होंने टाँडपर चढ़ाकर रख छोड़ा था; लेकिन अगर कोई उनका कता सूत ले ले और उन्हें पूनियां. बराबर दी जाये तो वे कातने के लिए तैयार थे । गंगाबहनने मुझे खबर दी और मेरे हर्षका पार न रहा। पूनी पहुंचानेका काम कठिन जान पड़ा। स्वर्गीय भाई उमर सुवानीसे बातचीत करने पर उन्होंने अपनी मिलसे पूनियां पहुंचानेकी जिम्मेदारी अपने सिर ली। मैंने ये गंगाबहनके पास भेजीं। इसपर तो सूत इतनी तेजीसे तैयार होने लगा कि मैं थक गया ।

भाई उमर सुबानीकी उदारता विशाल होते हुए भी आखिर उसकी [ ५११ ]________________

४९४ आत्म-कथा : भाग ५

सीमा थी । पूनियां खरीदकर लेने में मुझे संकोच हुआ। और मिलकी पूनियां लेकर कातने में मुझे बहुत दोष प्रतीत हुआ। अगर मिलकी पूनियां लेते हैं तो फिर सूत लेने में क्या बुराई है ? हमारे पुरखाओंके पास मिलकी पूनियां कहां थीं ? किस तरह पूनियां तैयार करते होंगे ? मैंने गंगाबहनको सुझाया कि वह पूनियां बनानेवाले को ढूंढ़े । उन्होंने यह काम अपने सिर लिया । एक पिंजारेको ढूंढ निकाला। उसे हर महीने ३५) या इससे भी अधिक वेतनपर नियुक्त किया । उसीने बालकोंको पून बनाना सिखलाया। मैंने रुईकी भीख मांगी । भाई यशवंतप्रसाद देशाईने रुईकी गांठे पहुंचानेका काम अपने जिम्मे लिया । अब गंगाबहनने काम एकदम बढ़ा दिया । उन्होंने बुनकरोंको आबाद किया और कते हुए सुतको बुनवाना शुरू किया । अब तो बीजापुरकी खादी मशहूर हो गई ।

दूसरी ओर अब आश्रममें भी चरखा दाखिल करनेमें देर न लगी । मगनलाल गांधी ने अपनी शोधक शक्तिसे चरखे में सुधार किये और चरखे तथा तकले आश्रममें तैयार हुए। आश्रमकी खादी के पहले थानपर फी गज १) खर्च आया। मैंने मित्रोंके पास मोटी, कच्चे सूतक खाद के एक गज टुकड्के १) बसूल किये, जो उन्होंने खुशी-खुशी दिये ।

बंबईमें मैं रोग शैय्यापर पड़ा हुआ था; लेकिन सबसे पूछा करता। वहां दो कातनेवाली बहनें मिलीं। उन्हें एक सेर सूतपर एक रुपया दिया। मैं अभीतक खादीशास्त्रमें अंधे जैसा था । मुझे तो हाथ-कता सुत चाहिए था और कातनेवाली स्त्रियां चाहिए थीं । गंगाबहन जो दर देती थीं उससे तुलना करते हुए मुझे मालूम हुआ कि मैं ठगा जा रहा हूं। वे बहुत कम लेनेको तैयार न थीं, इसलिए उन्हें छोड़ देना पड़ा; लेकिन उनका उपयोग तो था ही। उन्होंने श्री अवंतिकाबाई, रमाबाई कामदार, श्री शंकरलाल बैंकर की माताजी और श्री वसुमती बहनको कातना सिखाया और मेरे कमरेमें चरखा गूंज उठा। अगर मैं यह कहूं कि इस यंत्रने मुझे रोगी से निरोगी बनाने में मदद पहुंचाई, तो अत्युक्ति न होगी। यह सच है कि यह स्थिति मानसिक है । लेकिन मनुष्यको रोगी या नीरोग बनाने में मनका हिस्सा कौन कम है ? मैंने भी चरखेको हाथ लगाया; लेकिन इस समय मैं इससे आगे नहीं बढ़ सका था ।

अब सवाल यह उठा कि यहां हाथकी पूनियां कहांसे मिलें ? श्री रेवाशंकर [ ५१२ ]________________

४९५ अध्याय ४०: मिल गया

जौहरीके बंगलेके पाससे तांतकी आवाज करता हुआ एक धुनिया रोज निकला करता था। मैंने उसे बुलाया । वह गद्दे-गद्दियोंकी रुई धुनता था। उसने पूनियां तैयार करके देना मंजूर किया; लेकिन भाव ऊंचा मांगा और मैंने दिया भी । इस तरह तैयार सूत मैंने वैष्णवोंको ठाकुरजीकी मालाके लिए पैसे लेकर बेचा। भाई शिवजीने मंबईमें चरखाशाला खोली । इस प्रयोगमें रुपये ठीक-ठीक खर्च हुए। श्रद्धालु देशभक्तोंने रुपये दिये और मैंने उन्हें खर्च किया । मेरी नम्र सम्मतिमें यह खर्च व्यर्थ नहीं गया। उससे बहुत कुछ सीखनेको मिला; साथ ही मर्यादाकी माप मिली।

अब मैं एकदम खादीमय होनेके लिए अधीर हो उठा। मेरी धोती देसी मिलके कपड़े की थी। बीजापुरमें और आश्रममें जो खादी बनती थी वह बहुत मोटी और तीस इंचके अर्जकी होती थी। मैंने गंगानको चेताया कि अगर वह पैंतालीस इंच अर्ज की खादीकी धोती एक महीने के भीतर न दे सकेंगी तो मुझे मोटी खादीका पंचा पहनकर काम चलाना पड़ेगा। गंगाबहन घबराईं, उन्हें यह मीयाद कम मालूम हुई, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने एक महीने भीतर ही मुझे पचास इंच अर्जका धोती-जोड़ा ला दिया और मेरी दरिद्रता दूर कर दी ।

इसी बीच भाई लक्ष्मीदास लाठीगांव से अंत्यज भाई रामजी और उनकी पत्नी गंगाबहनको आश्रममें लाये और उनके द्वारा लंबे अर्जकी खादखादी बुनवाई । खादीके प्रचारमें इस दंपतीका हिस्सा ऐसा-वैसा नहीं कहा जा सकता। उन्हींने गुजरात और गुजरातके बाहर हाथ-कते सूतको बुननेकी कला दूसरोंको सिखाई है। यह निरक्षर लेकिन संस्कृत बहन जब करघा चलाने बैठती हैं तो उसमें इतनी तल्लीन हो जाती हैं कि इधर-उधर देखने की या किसी के साथ बात करने की भी फुरसत अपने लिए नहीं रहने देतीं । [ ५१३ ]________________

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आत्म-कथा: भाग ५

एक संवाद

जिस समय' स्वदेशीके नामपर यह प्रवृत्ति शुरू हुई उस समय मिलमालिकोंकी ओरसे मेरी खुब टीका होने लगी । भाई उमर सुबानी स्वयं होशियार और सावधान मिल-मालिक थे, इसलिए वह अपने ज्ञानसे तो मुझे फायदा पहुंचाने ही थे; लेकिन साथ ही वह दूसरोंके मत भी मुझे सुनाते थे । उनके एक मिल मालिककी दलीलका असर भाई उमर सुबानीपर भी पड़ा और उन्होंने मुझे उनके पास ले चलने की बात कही। मैंने उनकी इस बात स्वागत किया और हम उन मिल-मालिक के पास गये । वह कहने लगे-

" यह तो आप जानते हैं न कि आपका स्वदेशी आंदोलन कोई पहला आंदोलन नहीं है ?"

मैंने जवाब दिया- "जी हां ।"

" आप यह भी जानते हैं कि बंग-भंगके दिनोंमें स्वदेशी-आंदोलनने खूब जोर पकड़ा था ? इस आंदोलनसे हमारी मिलोंने खूब लाभ उठाया था और कपड़े की कीमत बढ़ा दी थी, जो काम नहीं करना चाहिए, वह भी किया था ।"

" मैंने यह सब सुना हैं, और सुनकर दुःखी हुआ हूं।" | " मैं आपके दुःखको समझता हूं; लेकिन उसका कोई कारण नहीं हैं । हम परोपकारके लिए अपना व्यापार नहीं करते हैं। हमें तो नफा कमाना है। अपने मिलके भागीदारों (शेयर होल्डरों) को जवाब देना है। कीमतका आधार तो किसी चीजकी मांग है। इस नियमके खिलाफ कोई क्या कह सकता है ? बंगालियोंको यह अवश्य ही जान लेना चाहिए था कि उनके आंदोलनसे स्वदेशी । कपड़ेकी कीमत जरूर ही बढ़ेगी ।"

" वे तो बेचारे मेरे समान शीघ्र ही विश्वास कर लेनेवाले ठहरे, इसलिए उन्होंने यह मान लिया था कि मिल-मालिक एकदम स्वार्थी नहीं बन जायंगे; ‘दगा तो कभी देंगे ही नहीं, और न कभी स्वदेशीके नामपर विदेशी वस्त्र ही बेचेंगे।"

“ मुझे यह मालूम था कि आप ऐसा मानते हैं इसीलिए मैंने आपको

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