सत्य के प्रयोग/ रौलट-ऐक्ट और मेरा धर्म-संकट

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४७६ ]अध्याय २६ : रौलट-ऐक्ट और मेरा धर्म-संकट ४५९ हों या गलत, मैंने तो उन्हें उनके उपचारों का प्रयोग अपने शरीर पर करने दिया । बाह्य उपचारों से अच्छा होना मुझे पसंद था । फिर ये तो बरफ अर्थात् पानी के उपचार थे । उन्होंने मेरे सारे शरीर पर बरफ मलना शुरू किया । यद्यपि इसका फल मुझपर उतना नहीं हुआ, जितना कि वह मानते थे, तथापि जो मैं रोज मृत्यु की राह देखता पड़ा रहता था सो अब नहीं रहा । मुझे जीने की आशा बंधने लगी । कुछ उत्साह भी मालूम होने लगा । मन के उत्साह के साथ-साथ शरीर में भी कुछ ताजगी मालूम होने लगी । खूराक भी थोड़ी बढ़ी । रोज पांच-दस मिनट टहलने लगा । “ अगर आप अंडे का रस पियें तो आपके शरीर में इससे भी अधिक शक्ति आ जावेगी, इसका मैं आपको विश्वास दिला सकता हूं । और अंडा तो दूध के ही समान निर्दोष वस्तु होती है । वह मांस तो हर्गिज नहीं कहा जा सकता । फिर यह भी नियम नहीं है कि प्रत्येक अंडे में बच्चे पैदा होते ही हों। मैं साबित कर सकता हूं कि ऐसे निर्जीव अंडे सेये जाते हैं, जिनमें से बच्चे पैदा नहीं होते ।” उन्होंने कहा । पर ऐसे निर्जीव अंडे लेने को भी मैं तो राजी न हुआ । फिर भी मेरी गाड़ी कुछ आगे चली और मैं आस-पास के कामों में थोड़ी बहुत दिलचस्पी लेने लगा ।

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रौलट-ऐक्ट और मेरा धर्म-संकट

माथेरान जाने से शरीर जल्दी ही पुष्ट हो जायगा, ऐसी मित्रों से सलाह पाकर मैं माथेरान गया । परंतु वहां का पानी भारी था । इसलिए मुझ जैसे बीमार के लिए वहां रहना मुश्किल ही पड़ा । पेचिशके कारण गुदा-द्वार बहुत ही नाजुक पड़ गया था और वहां चमड़ी फट जाने से मल त्याग के समय बड़ा दर्द होता था । इसलिए कुछ भी खाते हुए डर लगता था । अतः एक सप्ताह में ही माथेरान से लौट आया । अब मेरे स्वास्थ्य की रखवाली का काम श्री शंकरलाल ने अपने हाथ में ले लिया । उन्होंने डा० दलाल की सलाह लेने पर बहुत जोर दिया । डा० दलाल आये । उनकी तत्काल निर्णय करने की शक्ति ने मुझे मोह लिया । [ ४७७ ]४६० आत्म-कथा : भाग २ उन्होनें कहा-- “ जबतक आप दूध न लेंगे तबतक आपका शरीर नहीं पनपेगा । शरीर की पुष्टि के लिए तो आपको दूध लेना चाहिए और लोहे व संखिये की पिचकारी (इंजेक्शन) लेनी चाहिए । यदि आप इतना करें तो में आपका शरीर फिर से पुष्ट करने की 'गैरंटी' लेता हूं ।” “ आप पिचकारी भले ही दें, लेकिन मैं दूध नहीं लूंगा । ” मैंने जवाब दिया । “ आपकी दूध की प्रतिज्ञा क्या है ?” डाक्टर ने पूछा । “गाय-भैंस के फूका लगाकर दूध निकालने की क्रिया की जाती है। यह जानने पर मुझे दूध के प्रति तिरस्कार हो आया, और यह तो मैं सदा मानता ही था कि वह मनुष्य की खूराक नहीं है, इसलिए मैंने दूध छोड़ दिया है ।” मैंने कहा । “ तब तो बकरी का दूध लिया जा सकता है । ” कस्तूरबाई, जो मेरी खाट के पास ही खड़ी थीं, बोल उठीं ।

“ बकरी का दूध लें तो मेरा काम चल जायगा । ” डाक्टर दलाल बीच में ही बोल उठे ।

मैं झुका । सत्याग्रह की लड़ाई के मोह ने मुझमें जीवन का लोभ पैदा कर दिया था और मैंने प्रतिज्ञा के अक्षरों के पालन से संतोष मानकर उसकी आत्माका हनन किया । दूध की प्रतिज्ञा लेते समय यद्यपि मेरी दृष्टि के सामने गाय-भैंस का ही विचार था, फिर भी मेरी प्रतिज्ञा दूध मात्र के लिए समझी जानी चाहिए, और जबतक मैं पशु के दूध-मात्र को मनुष्य की खूराक के लिए निषिद्ध मानता हूं तबतक मुझे उसे लेने का अधिकार नहीं है । यह जानते हुए भी बकरी का दूध लेने के लिए मैं तैयार हो गया । इस तरह सत्यके एक पुजारी ने सत्याग्रह की लड़ाई के लिए जीवित रहने की इच्छा रखकर अपने सत्य को धब्बा लगाया । मेरे इस कार्य की वेदना अबतक नहीं मिटी है और बकरी का दूध छोड़ने की धुन अब भी लगी ही रहती है । बकरी का दूध पीते वक्त रोज में कष्ट अनुभव करता हूं । परंतु सेवा करने का महासूक्ष्म मोह जो मेरे पीछे लगा है, मुझे छोड़ नहीं रहा है। अहिंसा की दृष्टि से खूराक के अपने प्रयोग मुझे बड़े प्रिय हैं। उनमें मुझे आनंद आता है और यही मेरा विनोद भी है । परंतु बकरी का दूध मुझे इस [ ४७८ ]अध्याय २९ : रौलट-ऐक्ट और मेरा धर्म-संकट ४६१

दृष्टि के कारण नहीं अखरता । वह तो मुझे सत्य की दृष्टि से अखरता है। अहिंसा को जितना मैं जान सका हूं उसके बनिस्बत मैं सत्यको अधिक जानता हूं, ऐसा मेरा खयाल है । और यदि मैं सत्य को छोड़ दूं तो अहिंसा की बड़ी उलझनें मैं कभी भी न सुलझा सकूंगा, ऐसा मेरा अनुभव है । सत्य के पालन का अर्थ है लिये गए व्रतोंके शरीर और आत्मा की रक्षा, शब्दार्थ और भावार्थ का पालन । यहां पर मैंने आत्माका--भावार्थका नाश किया है । यह मुझे सदा ही अखरता रहता है । यह जानने पर भी व्रत के संबंध में मेरा क्या धर्म है, मैं यह नहीं जान सका अथवा यों कहिए कि मुझमें उसके पालन करने की हिम्मत नहीं है । दोनों एक ही बात है, क्योंकि शंका के मूल में श्रद्धा का अभाव होता है । ईश्वर, मुझे श्रद्धा दे । बकरी का दूध शुरू करने के थोड़े दिन बाद डा० दलाल ने गुदा-द्वार में ऑपरेशन किया और वह बहुत कामयाब साबित हुआ । अभी यों मैं बीभारी से उठने की आशा बांध ही रहा था और अखबार पढ़ना शुरू किया था कि इतने में ही रौलट-कमिटी की रिपोर्ट मेरे हाथ लगी। उसमें जो सिफारिश की हुई थीं उन्हें देखकर मैं चौंक उठा। भाई उमर और शंकरलाल ने कहा कि इसके लिए तो कुछ जरूर करना चाहिए । एकाध महीने में मैं अहमदाबाद गया । वल्लभभाई मेरे स्वास्थ्य के हाल-चाल पूछने करीब-करीब रोज आते थे । मैंने इस बारे में उनसे बातचीत की और यह सूचित भी किया कि कुछ करना चाहिए । उन्होंने पूछा-- “ क्या किया जा सकता है ?” जवाब में मैंने कहा-- “ अगर कमिटीकी सिफारिशों के अनुसार कानून बन ही जाय, और यदि इसके लिए प्रतिज्ञा लेनेवाले थोड़े से भी मनुष्य मिल जायं तो हमें सत्याग्रह करना चाहिए । अगर मैं रोग-शैय्या पर न रहा तो मैं अकेला भी लड़ पडू और यह आशा रक्खूं कि पीछे से और लोग भी मिल रहेंगे । पर मेरी इस लाचार हालत में अकेले लड़ने की मुझमें बिलकुल ही शक्ति नहीं है । ” इस बातचीत के फलस्वरूप ऐसे लोगों की एक छोटी-सी सभा करने का निश्चय हुआ, जो मेरे संपर्क में ठीक-ठीक आये थे । रौलट-कमिटी को मिली गवाहियों पर से मुझ यह तो स्पष्ट मालूम हो गया था कि उसने जैसी सिफारिश की है वैसे कानून की कोई जरूरत नहीं हैं, और मेरे नजदीक यह बात भी उतनी ही स्पष्ट थी कि ऐसे कानून को कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र स्वीकार नहीं कर सकता । [ ४७९ ]४६२ आत्म-कथा : भाग ५ सभा हुई । उसमें शायद ही कोई बीस मनुष्यों को निमंत्रण दिया गया होगा । मुझे जहां तक स्मरण है, उसमें वल्लभभाई के सिवा श्रीमती सरोजिनी नायडू, मि० हार्निमेन, स्व० उमर सुबानी, श्री शंकरलाल बैंकर, श्रीमती अनसूया बहन इत्यादि थे । प्रतिज्ञापत्र तैयार किया गया और मुझे ऐसा स्मरण है कि “जितने लोग वहां मौजूद थे सभी ने उसपर दस्तखत किये थे । इस समय मैं कोई अखबार नहीं निकालता था । हां, समय-समयपर अखबारों में लिखता जरूर था । वैसे ही इस समय भी मैंने लिखना शुरू किया और शंकरलाल बैंकर ने अच्छी हलचल शुरू कर दी । उनकी काम करने की और संगठन करने की शक्ति का उस समय मुझे अच्छा अनुभव हुआ । मुझे यह असंभव प्रतीत हुआ कि उस समय कोई भी मौजूदा संस्था सत्याग्रह जैसे शस्त्र को उठा ले, इसलिए सत्याग्रह-सभा की स्थापना की गई । उसमें मुख्यतः बंबई से नाम मिले और उसका केंद्र भी बंबई में ही रक्खा गया । प्रतिज्ञा-पत्र पर दस्तखत होने लगे और जैसा कि खेड़ाकी लड़ाई में हुआ था इसमें भी पत्रिकायें निकाली गई और जगह-जगह सभायें की गई । इस सभा का अध्यक्ष मैं बना था । मैंने देखा कि शिक्षित-वर्ग से मेरी पटरी अधिक न बैठ सकेगी । सभा में गुजराती भाषा ही इस्तेमाल करने का मेरा आग्रह और मेरी दूसरी कार्य-पद्धति को देखकर वे चक्कर में पड़ गये । मगर मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि बहुतेरोंने मेरी कार्य-पद्धति को निभा लेने की उदारता दिखाई । परंतु आरंभ ही में मैंने यह देख लिया कि यह सभा दीर्घकाल तक नहीं चल सकेगी। फिर सत्य और अहिंसा पर जो मैं जोर देता था वह भी कुछ लोगों को अप्रिय हो पड़ा था । फिर भी शुरूआत में तो यह नया काम बड़े जोरों से चल निकला ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।