सत्य के प्रयोग/ वह अद्भुत दृश्य

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४८० ]अध्याय ३० : वह अद्भुत दृश्य ४६३ ३० वह अद्भुत दृश्य । एक ओर रौलट-कमिटी के विरुद्ध आंदोलन बढ़ता चला और दूसरी ओर सरकार उसकी सिफारिशों पर अमल करने के लिए कमर कसती गई । रौलट-बिल प्रकाशित हुआ । मैं धारा-सभाकी बैठक में सिर्फ एक ही वार गया हूं । सो भी रौलट-बिलकी चर्चा सुनने । शास्त्रीजी ने बहुत ही धुंआधार भाषण किया और सरकार को चेतावनी दी । जब शास्त्रीजी की वाग्धारा चल रही थी, उस समय वाइसराय उनकी ओर ताक रहे थे । मुझे तो ऐसा लगा कि शास्त्रीजी के भाषण का असर उनके मन पर पड़ा होगा । शास्त्रीजी पूरे-पूरे भावावेश में आ गये थे । किंतु सोये हुएको जगाया जा सकता है । जागता हुआ सोने का ढोंग करे तो उसके कान में ढोल बजाने से भी क्या होगा । धारा-सभा में बिलों की चर्चा करने का प्रहसन तो करना ही चाहिए । सरकार ने वह प्रहसन खेला । किंतु जो काम उसे करना था उसका निश्चय तो हो ही चुका था ।इसलिए शास्त्रीजी की चेतावनी बेकार साबित हुई। और इसमें मुझ जैसे की तूतीकी आवाज तो सुनता ही कौन ? मैने वाइसराय से मिलकर खूब विनय की, खानगी पत्र लिखे, खुली चिट्ठियां लिखीं, उनमें मैनें यह साफ-साफ बतलाया था कि सत्याग्रह के सिवाय मेरे पास दूसरा रास्ता नहीं है । किंतु सब बेकार गया । अभी बिल गजटमें प्रकाशित नहीं हुआ था । मेरा शरीर था तो निर्बल, किंतु मैंन लंबे सफर का खतरा मोल लिया । अभी ऊंची आवाज से बोलने की शक्ति नहीं आई थी । खड़े होकर बोलने की शक्ति जो तब से गई सो अबतक नहीं आई है । खड़े होकर बोलते ही थोड़ी देर में सारा शरीर कांपने लगता और छाती और पेट में घबराहट मालूम होने लगती है । किंतु मुझे ऐसा लगा कि मद्रास से आये हुए निमंत्रण को अवश्य स्वीकार करना चाहिए । दक्षिण प्रांत उस समय मुझे घरके ही समान लगते थे । दक्षिण अफ्रीका के संबंध के कारण [ ४८१ ]। ४६४ ।।स्क्ष्वि आत्म-कथा : भाग ५ मैं मानता आया हूं कि तामिल-तेलगू आदि दक्षिण प्रांतके लोगोंपर मेरा कुछ हक है, और आवतक ऐसा नहीं लगा है कि मैंने यह विचार करनेमें जरा भी भुल की है । आमंत्रण स्वर्गीय श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगरकी ओरसे आया था । मद्रास जाते ही मुझे जान पड़ा कि इस आमंत्रणके पीछे श्री राजगोपालाचार्य थे । श्री राजगोपालाचार्यके साथ मेरा यह पहला परिचय माना जा सकता है ? पहली ही बार हम दोनोंने एक दूसरेको यहां देखा । सार्वजनिक काममें ज्यादा भाय लेनेके इरादेसे और श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगर आदि मित्रोंकी मांगसे वह सेलम छोड़कर मद्रास वकालत करने वाले थे । । मुझे उन्हींके साथ टहरानेकी व्यवस्था की गई थी । मुझे दो-एक दिन बाद मालूम हुआ कि मै उन्हींके घर ठहराया गया हूं । वह् बंगला श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगरका होनेके कारण मैंने यही मान लिया था कि मैं उन्हींका अतिथि हूं । महादेव देसाईने मेरी यह भूल सुधारी । राजगोपालाचार्य दूर-ही-दूर रहते थे । किंतु महादेवने उनसे भलीभांति परिचय कर लिया था । महादेवने मुझे चेताया, “ आपको श्री राजगोपालाचार्यसे परिचय कर लेना चाहिए । " मैंने परिचय किया । उनके साथ रोज ही लड़ाईके संगठनकी सलाह किया करता था । सभाओंके अलावा मुझे और कुछ सूझता ही नहीं था । रौलट- बिल अगर कानून बन जाय तो उसका सविनय भंग कैसे हो ? सविनय भंगका अवसर तो तभी मिल सकता था, जब सरकार देती । दूसरे किन कानूनोंका सविनय भंग हो सकता है ? उसकी मर्यादा क्या निश्चित हो ? ऐसी ही चर्चाएं होती थीं । श्री कस्तूरीरंगा ऐयंगरने नेताओंकी एक छोटी-सी सभा की । उसमें भी खूब चर्चा हुई । उसमें श्री विजयराघवाचार्य खूब हाथ बंटाते थे । उन्होंने यह सुझाया कि तफसीलसे हिदायतें लिखकर मुझे सत्याग्रहका एक शास्त्र लिख डालना चाहिए । पर मैने कहा कि यह काम मेरी शक्तिके बाहर है । यों सलाह-मशवरा हो रहा था इसी बीच खबर आई कि बिल कानून बनकर गजटमें प्रकाशित हो गया है। जिस दिन यह खबर मिली, उस रातको में विचार करता हुआ सो गया । भोरमें बड़े सवेरे उठ खड़ा हुआ । अभी अर्धनिद्रा होगी कि मुझै सप्नमै एक विचार सूझा । सएरे ही मैंने श्रि राजगोपालाचार्य को [ ४८२ ]अध्याय ३१ : वह सप्ताह !--१ ४६५ बुलाया और बात की-- “मुझे रातको स्वप्नमें विचार आया कि इस कानूनके जवाबमें हमें सारे देशसे हड़ताल करनेके लिए कहना चाहिए । सत्याग्रह आत्मशुद्धिकी लड़ाई है । यह धार्मिक लड़ाई है । धर्म-कार्यको शुद्धिसे शुरू करना ठीक लगता है । एक दिन सभी लोग उपवास करें और कामधंधा बंद रक्खें । मुसलमान भाई रोजाके अलावा और उपवास नहीं रखते; इसलिए चौबीस घंटेका उपवास रखनेकी सलाह देनी चाहिए । यह तो नहीं कहा जा सकता कि इसमें सभी प्रांत शामिल होंगे या नहीं। बंबई, मद्रास, बिहार और सिंधकी आशा तो मुझे अवश्य है । पर इतनी जगहोंमें भी अगर ठीक हड़ताल हो जाय तो हमें संतोष मान लेना चाहिए ।” यह तजवीज श्री राजगोपालाचार्यको बहुत पसंद आई । फिर तुरंत ही दूसरे मित्रोंके सामने भी रक्खी । सबने इसका स्वागत किया । मैंने एक छोटा-सा नोटिस तैयार कर लिया । पहले सन् १९१९के मार्चकी ३० तारीख रक्खी गई थी, किंतु बादमें ६ अप्रैल कर दी गई । लोगोंको खबर बहुत थोड़े दिन पहले दी गई थी । कार्य तुरंत करनेकी आवश्यकता समझी गई थी । अतः तैयारीके लिए लंबी मियाद देनेकी गुंजाइश ही नहीं थी । पर कौन जाने कैसे सारा संगठन हो गया ! सारे हिंदुस्तानमें-- शहरोंमें और गांवोंमें-हड़ताल हुई । यह दृश्य भव्य था ! - ३१ वह सप्ताह !-१ दक्षिणमें थोड़ा भ्रमण करके बहुत करके मैंचौथी अप्रैलको बंबई पहुंचा । श्री शंकरलाल बैंकरका ऐसां तार था कि छठी तारीख का कार्यक्रम पूरा करनेके लिए मुझे बंबईमें मौजूद रहना चाहिए । किंतु उससे पहले दिल्लीमें तो ३० मार्चको ही हड़ताल मनाई जा चुकी थी उन दिनों दिल्लीमें स्व० स्वामी श्रद्धानंदजी तथा स्व० हकीम अजमलखां साहबकी

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