सत्य के प्रयोग/ वह सप्ताह!-१

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४८३ ]४६६ ‘आत्म-कथा : भाग ५ श्रान चलती थी । छठी तारीख तक हड़तालकी मुद्दत बढ़ा दी जाने की खबर दिल्लीमें देरसे पहुंची थी । दिल्लीमें उस दिन जैसी हड़ताल हुई, वैसी पहले कभी न हुई थी । हिंदू और मुसलमान दोनों एक दिल होने लगे । श्रद्धानंदजी को जुमा मस्जिदमें निमंत्रण दिया गया था और वहां उन्हें भाषण करने दिया गया था । ये सब बातें सरकारी अफसर सहन नहीं कर सकते थे । जलूस स्टेशनकी ओर चला जा रहा था कि पुलिसने रोका और गोली चलाई । कितने ही आदमी जख्मी हुए, और कुछ खून हुए। दिल्लीमें दमन-नीति शुरू हुई। श्रद्धानंदजीने मुझे दिल्ली बुलाया । मेंने तार किया कि बंबईमें छठी तारीख मना कर मैं तुरंत दिल्ली रवाना होऊंगा । जैसा दिल्लीमें हुआ, वैसा ही लाहौरमें और अमृतसरमें भी हुआ था । अमृतसरसे डा०. सत्यपाल और किचलूके तार मुझे जरूरीमें वहां बुला रहे थे । उस समय इन दोनों भाइयोंको जरा भी नहीं पहचानता था । दिल्लीसे होकर जानेके निश्चयकी खबर मैंने उन्हें दी थी । छठीको बंबईमें सुबह हजारों आदमी चौपाटीमें स्नान करने गये और वहांसे ठाकुरद्वार जानेके लिए जलूस निकला । उसमें स्त्रियां और बच्चे भी थे । मुसलमान भी अच्छी तादादमें शामिल हुए थे । इस जलूसमेंसे हमें मुसलमान भाई एक मस्जिदमें ले गये । वहां श्रीमती सरोजिनी देवीसे तथा मुझसे भाषण कराये । यहां श्री विट्ठलदास जेराजाणीने स्वदेशीकी तथा हिंदु-मुसलमानऐक्यकी प्रतिज्ञा लिवानेके लिए सुझाया । मैंने ऐसी उतावलीमें प्रतिज्ञा लिवाने से इन्कार कर दिया । जितना हो रहा था उतनेसे ही संतोष माननेकी सलाह दी । प्रतिज्ञा लेनेके बाद नहीं टूट सकती । हमें अभी स्वदेशीका अर्थ भी समझना चाहिए । हिंदू-मुसलमान-ऐक्यकी जिम्मेदारी का खयाल रखना चाहिए वगैरा कहा और सुझाया कि जिन्हें प्रतिज्ञा लेनेकी इच्छा हो, वे कल सवेरे भले ही चौपाटीके मैदानमें आ जायं । । बंबईकी हड़ताल सोलहों. आना संपूर्ण थी । यहां कानूनके सविनय भंगकी तैयारी कर रक्खी थी । भंग हो सकने लायक दो-तीन वस्तुएं थीं । ये कानून ऐसे थे, जो रद्द होने लायक थे और इनको सब लोग सहज ही भंग कर सकते थे । इनमेंसे एकको ही चुननेका निश्चय हुआ [ ४८४ ]अध्याय ३१ : वह सप्ताह !--१ ४६७ था । नमकपर लगनेवाला कर बहुत ही अखरता था । उसे उठवानेके लिए बहुत प्रयत्न हो रहे थे । इसलिए मैंने यह सुझाया था कि सभी कोई अपने घरमें बिना परवानेके नमक बनावें । दूसरा कानूनभंग सरकारकी, जब्त की हुई पुस्तकें छपाने व बेचनेके संबंधमें था । ऐसी दो पुस्तकें खुद मेरी ही थीं--'हिंद स्वराज्य' और ‘सर्वोदय' । इन पुस्तकोंको छपाना और बेचना सबसे सरल सविनय-भंग जान पड़ा । इसलिए इन्हें छपाया और सांझका उपवास छूटनेपर और चौपाटीकी विराट सभा विसर्जन होने के बाद इन्हें बेचनेका प्रबंध हुआ । सांझको बहुतसे स्वयंसेवक ये पुस्तकें बेचने निकल पड़े । एक मोटरमें मैं और दूसरीमें श्रीमती सरोजिनी नायडू निकली थीं । जितनी प्रतियां छपाई थीं उतनी बिक गईं । इनकी जो कीमत आती वह लड़ाईके खर्चमें ही काम आनेवली थी । प्रत्येक प्रतिकी कीमत चार आना रक्खी गई थी; किंतु मेरे या सरोजिनीदेवीके हाथमें शायद ही किसीने चार आने रक्खे हों । अपनी जेबमें जो कुछ मिल जाय, सभी देकर पुस्तक लेनेवाले बहुत आदमी पैदा हो गये । कोई दस रुपयेका तो कोई पांच रुपयेका नोट भी देते थे । मुझे याद है कि एक प्रतिके लिए तो ५०) का भी एक नोट मिला था । लोगोंको समझाया गया कि पुस्तक लेनेवालोंके लिए भी जेल जानेका खतरा है; किंतु थोड़ी देरके लिए लोगोंने जेलका भय छोड़ दिया था । सातवीं तारीखको मालूम हुआ कि जो किताब बेचनेकी मनाह़ी सरकारने की थी, सरकारकी दृष्टिसे वे बिकी हुई नहीं मानी जा सकतीं । जो बिकीं, वे तो उसकी दूसरी आवृति मानी जायगी, जब्त किताबोंमें वे नहीं ली जायंगी । इसलिए इस नई आवृत्तिको छापने, बेचने और खरीदनेमें कोई गुनाह नहीं माना जायगा । । लोग यह खबर सुनकर निराश हुए । इस दिन सवेरे चौपाटीपर लोगोंको स्वदेशी-व्रत तथा हिंदू-मुस्लिमऐक्यके के लिए इकट्ठा होना था । विट्ठलदासको यह पहला अनुभव हुआ कि उजला रंग होनेसे ही सब-कुछ दूध नहीं हो जाता । लोग बहुत ही कम इकट्ठे हुए थे । इनमें दोचार बहनोंका नाम मुझे याद हो आता है । पुरुष भी थोड़े ही थे । मैंने व्रतका मजमून गढ़ रक्खा था । उनका अर्थ उपस्थित लोगोंको खूब समझाकर उन्हें व्रत लेने दिया । थोड़े लोगोंकी मौजूदगीसे मुझे आश्चर्य न [ ४८५ ]४६८ आत्म-कथा : भाग ५ हुआ, न दुःख ही हुआ; किंतु तभीसे जोशीले काम और धीमे रचनात्मक कामके भेदका और पहलेके प्रति लोगोंके पक्षपात तथा दूसरेके प्रति अरुचिका अनुभव मैं बराबर करता आया हूं । किंतु इस विषयके लिए एक अलग ही प्रकरण देना ठीक रहेगा । । सातकी रातको मैं दिल्ली और अमृतसरके लिए रवाना हुआ । आठको मथुरा पहुंचते ही कुछ भनक मिली कि शायद मुझे पकड़ लें । मथुराके बाद एक स्टेशनपर गाड़ी खड़ी थी । वहींपर मुझे आचार्य गिडवानी मिले । उन्होंने मुझे यह विश्वस्त खबर दी कि “आपको जरूर पकड़ेंगे और मेरी सेवाकी जरूरत हो तो मैं हाजिर हूं । ” मैंने उपकार माना और कहा कि जरूरत पड़नेपर आपसे सेवा लेना नहीं भूलूंगा । पलवल स्टेशन आनेके पहले ही पुलिस-अफसरने मेरे हाथमें एक हुक्म लाकर रक्खा । “ तुम्हारे पंजाबमें प्रवेश करनेसे अशांति बढ़नेका भय है, इसलिए तुम्हेंहुक्म दिया जाता है कि पंजाबकी सीमामें दाखिल मत होओ । ”हुक्मका आशय यह था । पुलिसने हुक्म देकर मुझे उतर जानेके लिए कहा । मैंने उतरनेसे इन्कार किया और कहा-- “ मैं अशांति बढ़ाने नहीं, किंतु आमंत्रण मिलनेसे अशांति घटानेके लिए जाना चाहता हूं । इसलिए मुझे खेद है कि म इस हुक्मको नहीं मान सकता ।” पलबल आया । महादेव देसाई मेरे साथ थे । उन्हें दिल्ली जाकर श्रद्धानंदजीको खबर देने और लोगोंको शांतिका संदेश देनेके लिए कहा । हुक्मका अनादर करनेसे जो सजा हो, उसे सहनेका मैंने निश्चय किया है तथा सजा होनेपर भी शांत रहनेमें ही हमारी जीत है, यह समझानेके लिए कहा । पलबल स्टेशनपर मुझे उतारकर पुलिसके हवाले किया गया । दिल्लीसे आनेवाली किसी ट्रेनके तीसरे दर्जेके डिब्बेमें मुझे बैठाया । साथमें पुलिसकी पार्टी बैठी । मथुरा पहुंचनेपर मुझे पुलिस-बैरकमें ले गये । यह कोई भी अफसर नहीं बता सका कि मेरा क्या होगा और मुझे कहां ले जाना है । सवेरे ४ बजे मुझे उठाया और बंबई ले जानेवाली एक मालगाड़ीमें ले गये । दोपहरको सवाई माधोपुरमें उतार दिया । वहां बंबईकी मेल ट्रेनमें लाहौरसे इंसपेक्टर बोरिंग आये मैं उनके हवाले किया गया । अब मुझे पहले दर्जेमें बैठाया गया । साथमें साहब [ ४८६ ]अध्याय ३१ : बहं सप्ताह !--१ ४६९ बैठे ! अबतक मैं मामूली कैदी था । अबसे जेंटिलमैन' कैदी गिना जाने लगा ! साहबने सर माइकेल श्रोडवायर के बखान शुरू किये । उन्होंने मुझसे कहा कि हमें तो आपके खिलाफ कोई शिकायत नहीं है; किंतु आपके पंजाब में जानेसे अशांतिका पूरा भय है ।” और इसलिए मुझसे अपने आप ही लौट जानेका और पंजाब की सरहद पार न करने का अनुरोध किया । मैंने उन्हें कह दिया कि मुझसे इस हुक्मका पालन नहीं हो सकेगा और मैं स्वेच्छासे लौट जानेको तैयार नहीं हूं । इसलिए साहबने लाचारीसे कानूनको काममें लाने की बात कही । मैंने पूछा--“पर यह भी कुछ कहोगे कि आखिर मेरा करना क्या चाहते हो ?” उसने जवाब दिया-- " मुझे कुछ मालूम नहीं है । मुझे कोई दूसरा हुक्म मिलेगा । अभी तो मैं आपको बंबई ले जाता हूं }” सूरत आया । वहांपर किसी दूसरे अफसरने मेरा जिम्मा लिया उसने रास्तेमें मुझे कहा, “आप स्वतंत्र हैं, किंतु आपके लिए मैं बंबईमें मरीनलाइन्स स्टेशनपर गाड़ी खड़ी कराऊंगा । कोलाबापर ज्यादा भीड़ होनेकी संभावना हैं ।” मैंने कहा--“ जैसी आपकी मरजी हो । ” वह खुश हुआ और मुझे धन्यवाद दिया । मरीनलाइंस में उतरा । वहां किसी परिचित सज्जनकी घोड़ागाड़ी देखी । बह मुझे रेवाशंकर जौहरी के घर पर छोड़ गई । रेवाशंकरभाई ने मुझे खबर दी--“आपके पकड़े जानेकी खबर सुनकर लोग उत्तेजित हो गये हैं । पायधुनी के पास हुल्लड़का भय है । वहां पुलिस और मजिस्ट्रेट पहुंच गये हैं । ” मेरे घरपर पहुंचते ही उमर सुबानी और अनसूया बहन मोटर लेकर आये और मुझसे पायधुनी चलने की बात कही- “ लोग अधीर हो गये हैं और उत्तेजित हो रहे हैं । हम किसीके किये वे शांत नहीं रह सकते । आपको देख लेनेपर ही शांत होंगे ।” में मोटरमें बैठ गया । पायधुनी पहुंचते ही रास्ते में बहुत बड़ी भीड़ दीखी । मुझे देखकर लोग हर्षोंन्मत्त हो गये । अब खासा जलूस बन गया । ‘वंदे मातरम्', 'अल्लाहो अकबर'की आवाज से आसमान फटने लगा । पायधुनी-पर मैंने घुड़सवार देखे । ऊपरसे ईटोंकी वर्षा होती थी । मैं लोगों से शांत होने के लिए हाथ जोड़कर प्रार्थना करता था । किंतु ऐसा जान पड़ा कि हम भी इस ईटोंकी वर्षा से न बच सकेंगे । [ ४८७ ]आत्म-कथा : ग ५ | अब्दुल रहमान गलीमेंसे क्रॉफर्ड मार्केटकी ओर जाते हुए जलूसको रोकनेके लिए घुड़सवारोंकी टुकड़ी सामने आ खड़ी हुई । जलूसको फोर्टकी ओर जाने से रोकने के लिए वे महाप्रयत्न कर रहे थे। लोग समाते न थे । लोगोंने पुलिसक लाइनको चीरकर आगे बढ़ना शुरू किया। हालत ऐसी न थी कि मेरी आवाज सुनाई पड़े। इसपर घुड़सवारोंकी टुकड़ीके अफसरने भीड़को तितर-बितर करनेका हुक्म दिया और इस टुकड़ीने भाले तानकर एकदम धोड़े छोड़ दिये । मुझे भय था कि इनमें से कोई भाला हममें से भी किसीका काम तमाम कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं; किंतु इस भयके लिए कोई आधार नहीं था । बंगलसे होकर सभी भाले रेलगाड़ीकी चालसे बढ़े चले जाते थे। लोगोंके झुंड टूट गये। भगदड़ मच गई । कई कुचल गये, कई घायल हुए ! घुड़सवारोको निकलनेके लिए रास्ता न था। लोगोंके इधर-उधर हुटनेको जगह न थी । वे अगर पीछे भी फिरना चाहें तो उधर भी हजारोंकी जबरदस्त भीड़ थी। सारा दृश्य भयंकर लगा। घुड़सवार और लोग दोनों ही उन्मत्त जैसे मालूम हुए। घुड़सवार न तो कुछ देखते और न देख ही सकते थे । वे तो अांखें मूंदकर सरपट घोड़े दौड़ा रहे थे। जितने क्षण इस हजारोंके झुडको चीरने में लगे, उतनेतक तो मैंने देखा कि वे अंधाधुंध हो रहे थे। लोगोंको यों बिखेरकर आये जानेसे रोक दिया। हमारी मोटरको आगे जाने दिया। मैंने कमिश्नरके दफ्तरके आगे मोटर रुकवाई और मैं उनके पास पुलिसके व्यवहारके लिए शिकायत करने उतरा । वह सप्ताह !---२ मैं कमिश्नर ग्रिफिथ साहबके दफ्तरमें गया। उनकी सीढ़ी के पास जाते ही मैंने देखा कि हथियारबंद सोल्जर तैयार बैठे थे, मानो किसी लड़ाईपर जाने के लिए ही तैयार हो रहे हों ! बरामदेमें भी हलचल मच रही थी। मैं खबर भेजकर दफ्तरमें घुसा तो कमिश्नरके पास मि० बोरिंगको बैठे हुए देखा ।

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।