साहित्य सीकर/१०—कापी-राइट ऐक्ट

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१०—कापी राइट ऐक्ट

अब तक भारतवर्ष में पुस्तकों के स्वत्वाधिकार का जो कानून (ऐक्ट २०, सन् १८४७ ईसवी का) प्रचलित था वह रद हो गया समझिये। अब उसकी जगह पर इँगलैंड का एक नया कानून (कापीं राइट ऐक्ट, सन् १९११ ईसवी का) इस देश में प्रचलित हुआ है। इस कानून का घनिष्ट सम्बन्ध पुस्तकों के लेखकों और प्रकाशकों से है और उसका जानना उनके लिये बहुत आवश्यक भी है। अतएव उसका सारांश लिखना हम यहाँ पर उचित समझते हैं।

इस कानून का नाम सन् १९११ ईसवी का कापी राइट ऐक्ट है। यह १६ दिसम्बर सन् १९११ ईसवी को पास हुआ था। इँगलैंड में यह पहली जुलाई सन् १८१२ ईसवी से प्रचलित हुआ और भारतवर्ष में भारत-गवर्नमेंट के आज्ञानुसार, ३० अक्तूबर सन् १९१२ ईसवी से जारी हुआ। इस कापी-राइट ऐक्ट को बाकायदा भारतवर्ष का कानून बनाने के लिए इस विषय का एक मसविदा तैयार किया गया है। उस पर बड़े व्यवस्थापक कौंसिल में शीघ्र ही विचार होगा और विचार होकर वह 'पास' किया जायगा। उस समय, सम्भव है, इस ऐक्ट में विलायती ऐक्ट की अपेक्षा कुछ विशेषता भी रक्खी जाय! [ ८२ ]इस कानून में सब मिलाकर ३७ दफा हैं और मूल ग्रन्थ, अनुवाद, संग्रह कोष, सामयिक पुस्तक समाचार-पत्र आदि सब के साथ इसका सम्बन्ध है।

जो मनुष्य जिस ग्रंथ की रचना करता है उसको प्रकाशित करने का उसे पूर्ण अधिकार होता है। उसके सिवा अन्य किसी को यह अधिकार प्राप्त नहीं कि उस ग्रन्थ को प्रकाशित करे या उसका नवीन संस्करण निकाले या उसका अनुवाद करें। यहाँ तक कि असली ग्रन्थकर्त्ता को छोड़कर दूसरों की यह भी मजाल नहीं कि अन्य व्यक्ति के बनाये हुये ग्रन्थ का नाटक के रूप में लिखे अथवा ग्रामोफोन में भरकर सर्वसाधारण को सुना सकें। परन्तु यह अधिकार सबको प्राप्त है कि दूसरों के बनाये हुये ग्रन्थों की समालोचना करे या उनका सारांश लिखें।

ग्रन्थकर्त्ता और उसके उत्तराधिकारियों का ग्रन्थकर्त्ता के जीवनकाल में तथा पचास वर्ष बाद तक ग्रन्थ के ऊपर स्वत्वाधिकार प्राप्त है। तदनन्तर जो चाहे वह उस ग्रन्थ को छाप सकता है। इस मियाद के अन्दर ग्रन्थकर्त्ता और उसके उत्तराधिकारियों को यह अधिकार है कि वे अपनी पुस्तक का प्रकाशित करने या उसके अनुवाद करने का स्वत्वाधिकार दूसरे के हाथ बेंच डाले। इस दशा में पुस्तक का स्वत्वाधिकार केवल पच्चीस वर्ष तक खरीदनेवाले को प्राप्त रहता है। उसके बाद उसका यह अधिकार नष्ट हो जाता है। अर्थात् वह पुस्तक का स्वत्वाधिकार खरीदने की तारीख से पच्चीस वर्ष के बाद उसे प्रकाशित नहीं कर सकता और न उससे कोई लाभ उठा सकता है। उस समय यह अधिकार ग्रन्थकर्त्ता या उसके अधिकारियों को फिर प्राप्त हो जाता है।

यह हम ऊपर लिख चुके हैं कि ग्रन्थकर्त्ता के मरने के बाद से लेकर पचास वर्ष पीछे तक उसके उत्तराधिकारियों को पुस्तक पर [ ८३ ]सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त रहता है और केवल वही उसको प्रकाशित कर सकते हैं। परन्तु यदि ग्रन्थकर्त्ता के उत्तराधिकारी इस अवधि के अन्दर पुस्तक प्रकाशित न करें तो अदालत के आज्ञानुसार अन्य लोग उस ग्रन्थ को प्रकाशित कर सकते हैं। इस दशा में इस कानून के अनुसार उनका यह कर्त्तव्य है कि वे ग्रन्थकर्त्ता के वारिसों को प्रकाशित पुस्तक के मूल्य का दसवाँ हिस्सा दें। यदि कोई मनुष्य पुस्तकों के स्वत्वाधिकार या कापीराइट के कानून को तोड़े, अर्थात् दूसरे की बनाई पुस्तक का बिना उसकी आज्ञा के प्रकाशित या अनुवादित करे, तो पुस्तक के स्वत्वाधिकारी को यह अधिकार है कि वह इस अपराध के तीन वर्ष के अन्दर अदालत में हरजे का दावा करे। यदि अदालत को वह निश्चय हो जायगा कि मुद्दई ही वास्तव में उस पुस्तक का स्वत्वाधिकारी है तो वह इस प्रकार कानून के विरुद्ध प्रकाशित की हुई पुस्तक की सम्पूर्ण प्रतियां प्रकाशक से छीनकर वास्तविक स्वत्वाधिकारी को दे देगी। परन्तु यदि प्रकाशक अर्थात् मुद्दाइलेह इस बात को साबित कर दे कि वह नेकनियती के साथ इस बात पर विश्वास करता था कि पुस्तक पर किसी को भी कानूनी स्वत्वाधिकार प्राप्त नहीं है और उसने वास्तव में गलती से ऐसा काम किया है तो अदालत मुद्दई को केवल हरजाना दिलावेगी और प्रकाशित पुस्तक की सारी प्रतियाँ मुद्दाइलेह की रहेंगी।

यदि इस कानून के विरुद्ध कोई पुस्तक अन्य देशों में प्रकाशित की जाय तो वह पुस्तक के स्वत्वाधिकारी के निवेदन करने पर, सरकारी आज्ञानुसार, देश के अन्दर न आने पावेगी।

यदि एक ग्रन्थ को कई मनुष्य मिलकर लिखें तो सब लेखकों को उस पर स्वत्वाधिकार प्राप्त होगा। यह अधिकार उस आंशिक ग्रंथकार के जीवनकाल तक जो पहले मरे तथा उसके बाद पचास वर्ष तक अन्यकर्त्ताओं को प्राप्त रहेगा। अथवा केवल उस आंशिक ग्रन्थकर्त्ता [ ८४ ]के जीवन-पर्यन्त यह अधिकार सब को प्राप्त रहेगा जो सब से पीछे मरे। इन दोनों अवधियों में से कौन प्रामाणिक मानी जायगी इस बात का निर्णय करने के लिए इस कानून में यह लिखा है कि दोनों अवधियों में से जो सब से अधिक लम्बी होगी वही ठीक मानी जायगी। यदि ऐसे शामिलाती ग्रन्थकारों में से कोई कापी राइट के नियमों की पाबन्दी न करे तो इससे अन्य आंशिक ग्रन्थकारों के स्वत्वों में कोई अंतर न पड़ेगा। यदि काई ग्रन्थ ग्रन्थकार के मरने के बाद प्रकाशित किया जाय तो उसके वारिसों को ग्रन्थ प्रकाशन के बाद पचास वर्ष तक उस पर अधिकार रहेगा। जो पुस्तके गवर्नमेंट प्रकाशित करती है उन पर भी केवल पचास वर्ष तक अधिकार रहेगा। इसी प्रकार फोटोग्राफरों को अपने लिये हुये फोटों पर, निगेटिव तैयार करने के पचास वर्ष बाद तक ही, अधिकार रहेगा।

पुस्तक के संशोधित और परिवर्धित संस्करण निकालने का अधिकार भी केवल उसी को प्राप्त है जिसके नाम कापी-राइट हो। यदि कोई मनुष्य किसी पुस्तक के लिखने या संग्रह करने में दूसरों से सहायता ले अथवा अन्य लोगों को पुरस्कार देकर अपने लिए कोई पुस्तक लिखावे तो उसको उस पुस्तक पर पूरा-पूरा स्वत्वाधिकार प्राप्त होगा। परन्तु यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे की बनाई हुई पुस्तक के आधार पर उस का सारांश अपने ढंग पर और अपने शब्दों में लिखता है और उस पुस्तक के अनावश्यक और अनुपयोगी अंशों को छोड़ देता है तो उसकी वह पुस्तक इस कानून के अनुसार नई समझी जायगी और यह माना जायगा कि उसने कापी-राइट के नियमों को नहीं तोड़ा। इस दशा में असली पुस्तक का स्वत्वाधिकारी सारांश लेखक पर किसी प्रकार का दावा न कर सकेगा। पर यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे के ग्रन्थ का सारांश अपने शब्दों में और अपने ढंग पर न लिखकर असली ग्रन्थकर्त्ता ही की लिखी हुई मुख्य-मुख्य बातों [ ८५ ]को अपनी पुस्तक में लिख दे और अपनी तरफ से उसमें कुछ न लिखे तो यह समझा जायगा कि उसने कापी-राइट के कानून को तोड़ा है और उसका यह काम चोरी का काम माना जायगा।

बस वह कापी राइट ऐक्ट, सन् १९११, का सारांश है। भारत- वर्ष की वर्तमान दशा के लिये यह बहुत ही उपयोगी और आवश्यक है। आजकल इस देश में जिस प्रकार की साहित्य-सम्बिन्धिनी चोरियाँ दिन-दहाड़े होती रहती हैं उनको दूर करने में इस कानून के द्वारा बहुत सहायता मिलेगी। जिन लोगों को साहित्य-सम्बन्धी डाके डालने की आदत पड़ रही है उन्हें अब खबरदार हो जाना चाहिये।

[अप्रेल, १९१३