साहित्य सीकर/११—नया कापी-राइट ऐक्ट

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११—नया कापी राइट ऐक्ट

गवर्नर-जनरल के कौंसिल की जो बैठक देहली में, २४ फरवरी १९१४ को हुई उसमें नया कापी राइट ऐक्ट "पास" हो गया। यह वही ऐक्ट है जिसके विषय में एक लेख पहले ही दिया जा चुका है। इँगलैंग में जो नया कापी-राइट ऐक्ट जारी हुआ है वही अब बाकायदा भारत में भी जारी किया गया। पर भारतीय ऐक्ट में विलायती ऐक्ट से कुछ विशेषताये हैं उनमें से अनुवाद के सम्बन्ध की विशेषता बड़े महत्व की है। उसका तथा और दो-चार बातों का सारांश नीचे दिया जाता है।

जब तक कापी-राइट का कानून १८४७ ईसवी के ऐक्ट २० और १८३७ के ऐक्ट २५ के अनुसार बर्ताव में आता था। वह अब रद हो गया। इन ऐक्टों में बयान किये गये कानून की पाबन्दी किये बिना ही कितने ही लेखक और प्रकाशक अपनी-अपनी पुस्तकों पर बहुधा छाप दिया करते थे—"हक महफूज", "हकूक महफूज", "स्वत्व रक्षित", "सर्वाधिकार रक्षित"। कोई-कोई तो बड़ी-बड़ी धमकियाँ तक पुस्तक [ ८६ ]के टाइटिल पेज पर छाप देते थे। परन्तु यदि फीस देकर किसी पुस्तक की बाकायदा रजिस्टरी न कराई गई हो तो इस तरह की धककियाँ और इस तरह की सूचनायें व्यर्थ थीं। इनसे कुछ भी लाभ न था। जिस पुस्तक की रजिस्ट्री न हुई हो उसे जिसका जी चाहे छाप सकता था।

अब यह कानून बदल गया। रजिस्ट्री कराने की कोई जरूरत नहीं रही टाइटिल पेज के अनुसार जो जिस पुस्तक का लेखक है उसी का उस पर पूरा हक समझा जायगा। जब तक वह जिन्दा है तभी तक नहीं, उसके मरने के ५० वर्ष बाद तक भी कोई उसकी पुस्तक को, किसी रूप में, न प्रकाशित कर सकेगा। उसकी अथवा उसके वारिसो की रजामन्दी ही से वह ऐसी पुस्तक को छपा कर बेच सकेगा।

इस नये कानून से एक और भी सुभीते की बात हो गई है। विलायत की छपी हुई किसी पुस्तक को यदि इस देश में कोई छपाकर प्रकाशित करना चाहे तो खुशी से कर सकता है। विलायती ऐक्ट की दफा १४ देखिये। विलायती ग्रन्थकार या उनके वारिस सिर्फ इतना कर सकते हैं कि सरकारी अफसरों से कह कर उस पुस्तक की कापियों का विलायत जाना रोक दे सकते हैं। इसी तरह भारत में छपी हुई पुस्तके वे लोग वहाँ छाप सकते हैं और भारतीय ग्रन्थकार या उनके वारिस उन पुस्तकों को वहाँ आने से रोक सकते हैं। यह कानून हम लोगों के बड़े काम का है। क्योंकि हमी को विलायती पुस्तकें छापने या उनका अनुवाद करने की अधिक जरूरत रहती है।

इस नये कानून में एक बात बे-सुभीते की भी हैं। गवर्नमेंट हर साल सैकड़ों रिपोर्टे और सैकड़ों तरह की पुस्तकें प्रकाशित करती है। उनमें से कितनी ही पुस्तकें प्रजा के बड़े काम की होती हैं। विलायती ऐक्ट की दफा १८ के मुताबिक उनका कापी-राइट गवर्नमेंट ने अपने ही हाथ में रखा है। गवर्नमेंट की प्रकाशित किसी पुस्तक के पहली [ ८७ ]दफे निकलने के ५० वर्ष बाद तक किसी को उसे छापने और ४० वर्ष बाद तक उस का अनुवाद करने का अधिकार नहीं। यदि दफा १८ का वही मतलब है जैसा कि हमने समझा है तो यह कानून बहुत हानिकारक है। गवर्नमेंट की प्रकाशित पुस्तकें प्रजा ही के रुपये से प्रकाशित होती हैं। अतएव प्रजा को भी उनके प्रकाशन का हक होना चाहिये। आशा है, कोई वकील महाशय उदारतापूर्वक इस दफा का ठीक-ठीक आशय समझाने की कृपा करेंगे। अगर कोई मसकटरी रेगुलेशन, या पेनलकोड, या गैजिटिर या और कोई ऐसी ही पुस्तक या उसका अनुवाद प्रकाशित करना चाहे तो कर सकता है या नहीं। क्या इस तरह की पुस्तकें "Government Publication" की परिभाषा में नहीं? यदि हैं तो यह कानून प्रजा के हित का बहुत बड़ा बाधक है। कल्पना कीजिए कि गवर्वमेंट ने एक पुस्तक अँगरेजी में प्लेग पर प्रकाशित की और उसमें प्लेग से बचने के उपाय बतलाये। ऐसी पुस्तक की जितनी ही अधिक कापियाँ छपाई और बेची या वितरण की जायँ उतना ही अच्छा। ऐसी पुस्तक के अनुवाद देशी भाषाओं में प्रकाशित करने की तो और भी अधिक आवश्यकता है। पर कानून की रूप से मूल पुस्तक तद्वत् छपाने के लिये ५० वर्ष और अनुवाद के लिए १० वर्ष ठहरना चाहिये और इतने दिन ठहरने से उद्देश्य की सिद्धि ही नहीं हो सकती। रही गवर्नमेंट से अनुमति लेने की बात। सो ऐसी अनुमति शीध्र और सहज में नहीं प्राप्त हो सकती। इस दशा में इस नये कानून का यह अंश प्रजा के लिये बड़ा हानिकारक है। बड़े दुःख की बात है कि इस कानून का मसविदा महीनों विचाराधीन रहा। कौंसिल के देशी मेम्बरों में से अनेक वकील और बैरिस्टर हैं। उन्होंने उसे पढ़ा और उस पर विचार भी किया। फिर भी यह दोष किसी के ध्यान में न आया। बड़ी अच्छी बात हो जो हमने इसका आशय समझने में भूल की हो—दफा १८ की वह मंशा [ ८८ ]न हो जो हमने समझी है।

इस ऐक्ट के "पास" हो जाने से अब अनुवादकों की खूब बन आवेगी। विलायत में छपी हुई पुस्तकों का अनुवाद करने की तो कोई रोक-टोक रही ही नहीं। इस देश में भी छपी हुई पुस्तकों का अनुवाद, मूल पुस्तक के पहले पहल प्रकाशित होने के दस वर्ष बाद, जिसका जी चाहे अन्य किसी भाषा में आनन्द से कर सकेगा। बङ्किमचन्द्र और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के ग्रन्थ अब सर्व-साधारण का माल हो गये, उनका अनुवाद करने के लिये अब किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं। रमेशचन्द्रदत्त और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जिन ग्रन्थों को निकले दस वर्ष हो चुके उनका भी हिन्दी अनुवाद पुस्तक-प्रकाशक मंडलियाँ, कम्पनियाँ और परिपदें अब निडर होकर कर सकती है।

इस सम्बन्ध में एक बात हमें कहना है। यदि कोई किसी की पुस्तक का ऐसा भ्रष्ट अनुवाद करे जिससे मूल पुस्तक का आशय कुछ का कुछ प्रकट होने लगे और जिससे मूल ग्रंथकार के गौरव की हानि हो तो उसका क्या इलाज होगा? कानून में तो कुछ इलाज तजबीज किया गया नहीं। हम देखते है कि कोई-कोई अनुवादक अपने अनुवाद में मूल पुस्तक के आशय की बड़ी ही दुर्दशा करते हैं। इतनी दुर्दशा कि अनुवाद पढ़ते समय मूल पुस्तक के लेखक पर तरस आता है। ऐसे अनुवादकों के पंजे से ग्रन्थकारों को बचाने का इस कानून में काई उपाय नहीं बताया गया। यह दुःख की बात है।

लेने वाले या तैयार कराकर बेचने वालों के फोटो भी अब उनकी अनुमति के बिना, ५० वर्ष तक, कोई कहीं निकाल सकता। चोरी या सीनेजोरी की तो बात ही और है।

यदि कोई किसी अखबार या सामयिक पुस्तक में काई लेख प्रका- शित करें तो उस लेख को वहाँ से उठाकर पुस्तकाकार प्रकाशित करने का किसी और आदमी को अधिकार नहीं। लेखक की जिन्दगी के बाद [ ८९ ]५० वर्ष बीतने की कैद यहाँ भी हैं। उसका अनुवाद प्रकाशित करने के लिये पूर्वोक्त १० वर्ष तक ठहरना पड़ेगा।

किसी के लेख या पुस्तक की समालोचना करने या उसका सारांश ("News paper Summary") प्रकाशित करने की तो रोक-टोक नहीं। पर इससे दूर जाने की आज्ञा क़ानून नहीं देता। इस दशा में बिना लेखक की अनुमति के उसके लेख को अखबारों, सामयिक पुस्तकों में प्रकाशित करने, अथवा उनका अनुवाद छापने, अथवा दो चार शब्द अदल-बदल कर संस्कृत शब्दों की जगह उर्दू-फारसी के और उर्दू-फारसी के शब्दों की जगह संस्कृत शब्द रख कर उसे अपना बना लेने की चेष्टा करना भी क़ानून की दृष्टि से जुर्म है।

इस क़ानून के खिलाफ काम करने वाले पर तीन वर्ष के भीतर ही मुकद्दमा चलाने से चल सकेगा। उसके आगे नहीं। अब तक इस तरह के मुकद्दमें केवल हाईकोर्ट में होते थे। अब पहले दरजे के मैजिस्ट्रैटों को भी ऐसे मुकद्दमे सुनने का अख्तियार दे दिया गया है।

कापी-राइट का कानून तोड़ने वालों पर लेख, पुस्तक, या फोटों की फी कापी के लिए २० रुपये तक जुर्माना किपा जा सकेगा। शर्त यह है कि जुरमाने की कुल रकम ५०० रुपये से अधिक न हो। वही जुर्म, दुबारा करने वालों पर एक महीने की सादी कैद या एक हज़ार रुपये तक जुरमाने की सजा, या दोनों सजाये एक ही साथ, दी जा सकेगी।

अपील के लिये एक महीने की मुद्दत दी गई है।

लेखकों, अनुवादकों, और प्रकाशकों को सावधान हो जाना चाहिये।

[अप्रैल, १९१४