साहित्य सीकर/१—वेद

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आलोचना व निबन्ध

साहित्य-सीकर

१—वेद

वेद शब्द "विद्" धातु से निकला है। इस धातु से जानने का अर्थ निकलता है। अतएव वेद वह धर्म्म-ग्रन्थ है जिसकी कृपा से ज्ञान की प्राप्ति होती है—जिससे सब तरह की ज्ञान की बातें जानी जाती हैं।

वेद पर सनातनधर्म्मावलम्बी हिन्दुओं का अटल विश्वास है। वेद हम लोगों का सब से श्रेष्ठ और सबसे पुराना ग्रन्थ है। वह इतना पुराना है कि किरिस्तानों का बाइबिल, मुसलमानों का कुरान, पारसियों का जेन्द-आवेस्ता और बौद्धों के त्रिपिटक आदि सारे धर्म-ग्रन्थ प्राचीनता में कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकते। इसी से वेद को अन्य धर्म्मावलम्बी विद्वान् भी आदर की दृष्टि से देखते हैं। जर्मनी में तो कुछ विद्वानों ने केवल वेद-विषयक साहित्य के परिशीलन में अपनी सारी उम्र खर्च कर दी है। वेद यद्यपि एकमात्र हमारे पूर्वजों की सम्पत्ति है; तथापि कोई ५०-६० वर्षों से उसकी चर्चा इस देश की अपेक्षा पश्चिमी देशों ही में अधिक है। हाँ, अब कुछ दिनों से यहाँ के भी कोई कोई विद्वान् वैदिक साहित्य के अध्ययन, अध्यापन, समालोचन और प्रकाशन में दत्तचित्त हुए हैं। [  ]मुसल्मान उल्मा समझते हैं कि त्रिलोक का ज्ञान उनके कुरान में भरा है। इससे सब लोगों को उसी का मनन और निदिध्यासन करना चाहिए। और किसी धर्म-पुस्तक के पढ़ने की जरूरत नहीं। जिस मुसल्मान-नरेश ने अलेग्जांड्रिया का विश्वविख्यात पुस्तकालय जलाकर खाक कर दिया उसकी भी यही समझ थी। इससे जब पुस्तकालय के अधिकारी उससे पुस्तकालय छोड़ देने के लिए प्रार्थना करने गये तब, आप जानते हैं, उसने क्या उत्तर दिया? उसने कहा कि पुस्तकालय में संग्रह किये गये लाखों ग्रन्थों में ज्ञान-कथा है वह हमारे कुरान में है। सच्चे ज्ञान की कोई बात उससे नहीं छूटी। इसलिए इन इतने ग्रन्थों के संग्रह की कोई ज़रूरत नहीं और यदि इनकी कोई बात कुरान में नहीं है तो वह सच्चे ज्ञान की बोधक नहीं। अतएव इस तरह भी इन ग्रन्थों की कोई ज़रूरत नहीं। इन सब का काम अकेले हमारे कुरान शरीफ से चल सकता है। सो इसी सच्चे ज्ञान की बदौलत इस देश के वेद ग्रन्थों का एक बड़ा अंश नष्ट हो गया। वेदों की कितनी ही शाखायें, अनुक्रमणिकायें और ब्राह्मण लोप हो गये। जब अंगरेज़ों को वेद ग्रन्थों की चाह हुई तब उनका मिलना मुश्किल हो गया। जयपुर पर मुसल्मान बादशाहों की दया-दृष्टि रही है। इससे वहाँ का वेद-ज्ञान-भण्डार "पलीता" लगाने से बच गया।

१७७९ ईसवी में कर्नल पोलियर ने तत्कालीन जयपुर-नरेश से वेद चतुष्टय की नकल माँगी। उन्होंने इस बात को स्वीकार करके वेदों की नकल की जाने की आज्ञा दे दी। एक वर्ष में नकल तैयार हुई। पर साहब लोग समझे थे कि वेदों का नाश हो चुका है। इससे उनके वेद होने में उन्हें विश्वास न हुआ। वे समझे थे कि बनावटी वेद हैं। इस कारण कर्नेल पोलियर ने उस समय के प्रसिद पण्डित राजा आनन्दराम को वह नकल दिखाई। उन्होंने उस ग्रन्थ को यथार्थ वेद बतलाया। [  ]तब वह लन्दन के "ब्रिटिश म्यूजियम' नामक पुस्तकालय को भेजा गया। वहाँ उसकी और भी कितनी ही कापियाँ हुईं। इस प्रकार योरप में वेदों का प्रचार हुआ।

इसके पहले कोलव्रुक साहब ने भी वेद-प्राप्ति की चेष्टा की थी; पर किसी दक्षिणी पंडित ने स्तुतियों से पूर्ण एक ग्रन्थ उन्हें दे दिया और कहा, यही वेद है। भला म्लेच्छों को कहीं दक्षिणात्य पंडित वेद दे सकते हैं? ऐसा ही धोखा एक और साहब को भी दिया गया था। मदरास के किसी शास्त्री ने सत्रहवीं शताब्दी में एक कृत्रिम यजुर्वेद की पुस्तक फादर राबर्ट डी नोविली नामक पादरी को देकर उससे बहुत सा रुपया ऐंठ लिया। यह ग्रन्थ १७६१ ईसवी में पेरिस के प्रधान पुस्तकालय में पहुँचा। वहाँ पहले इसकी बड़ी कदर हुई। पर सारा भेद पीछे से खुल गया। अब इस तरह की धोखेबाजी का कोई डर नहीं। अब तो इङ्गलेंड, फ्रांस और जर्मनी में बड़े-बड़े वेदज्ञ पंडित हैं। वेदों के सम्बन्ध में वे नई-नई बातें निकालते जाते हैं, नये नये ग्रन्थ और टीका-टिप्पणियाँ प्रकाशित करते जाते हैं। वेदाध्ययन में वे अहर्निश रत रहते हैं। क्या ही उत्तम बात हो जो पंडित सत्यव्रत सामश्रमी की तरह इस देश के भी पंडित वैदिक ग्रन्थों के परिशीलन और प्रकाशन में परिश्रम करें।

वेद को हिन्दूमात्र आदर की दृष्टि से देखते हैं, और देखना ही चाहिये। वेद हमारा अति प्राचीन धर्म-ग्रन्थ है। यथा-शास्त्र वेदगान सुन कर अपूर्व आनन्द होता है। वेदों की भाषा यद्यपि बहुत पुरानी, अतएव क्लिष्ठ है, तथापि उसका कोई-कोई अंश बहुत ही सरस है—ऐसे अंशों के पाठ से कविता-प्रेमी जनों को वही आनन्द मिलता है जो कालिदास और भवभूति आदि के ग्रन्थों से मिलता हैं। वेदों की "त्रयी" संज्ञा है। त्रयी कहने से ऋक्, यजु और साम, इन्हीं तीन [  ] वेदों का ज्ञान होता है। अथर्ववेद एक प्रकार का परिशिष्ट है। ऋग्वेद में तीन ही वेदों का उल्लेख है। यथा—

"अहे वुध्निय मन्त्र मे गोपाया
यमृपयस्त्रयी वेदा विदुः।
ऋचो यजूँषि सामानि।"

मनुस्मृति में भी मनु ने "ददोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्" कह कर तीन ही वेदों का नाम लिया है। परन्तु पीछे चार वेद माने जाने लगे। श्रीमद्‌भागवत और विष्णुपुराण आदि पुराणों में तो सर्वत्र ही चार वदों का उल्लेख है—लिखा है कि ब्रह्मा के एक-एक मुँह से एक-एक वेद निकला है।

सनातनधर्म्मावलम्बी हिन्दुओं का पक्का विश्वास है कि वेद नित्य है। वे ईश्वर-प्रणीत है। कपिल ने सांख्य दर्शन में ईश्वर की स्थिति में तो सन्देह किया है—"प्रमाणाभावाम्न तत्सिद्धिः"; पर वेदों के ईश्वर प्रणीत होने में कोई सन्देह नहीं किया। यथा—

"न पौरुषेयत्वं तत्कर्त्तः पुरुषस्यासम्भवात्"।

न्याय-दर्शन के कर्त्ता गौतम को छोड़ कर सब दर्शनकारों की यही राय है। सब वेदों को ईश्वर-कृत मानते हैं। अकेले गौतम ही ने उन्हें पौरुषेय अर्थात् पुरुषकृत लिखा है। अब नहीं कह सकते, इस 'पौरुषेय' से उनका क्या मतलब था? वेदों को साधारण, हम तुम सदृश पुरुषों के रचे हुए मानते थे या पुरुष-प्रकृति वाले "पुरुष" (ईश्वर) से उनका मतलब था। यदि उन्हें पिछली बात अभीष्ठ थी तो यह कहना चाहिये कि सभी दर्शनकारों की इस विषय में एकता है। किसी किसी मुनि की तो यहाँ तक राय है कि वेद नित्य है और उन्हीं के अनुसार ईश्वर सृष्टि की रचना करता है। सो वेद ईश्वर के भी पथ-प्रदर्शक हुये। वेद नित्य हैं, इससे कल्पान्त में वे हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) को आप ही आप प्राप्त हो जाते हैं। सृष्टि के आदि में हिरण्यगर्भ ही पहले पैदा होते [  ]है। वेद उनके पूर्वाभ्यस्त रहते हैं। इससे स्मरण करते ही उन्हें वे आप ही याद हो जाते हैं। सोकर जगने पर क्या पूर्वाभ्यस्त बातें किसी को भूल भी जाती हैं? फिर हिरण्यगर्भ को वेद कैसे भूल सकते हैं? इस तरह के शास्त्रार्थ से कितने ही प्राचीन ग्रन्थ भरे पड़े हैं।

इस समय आर्य्य-समाज में वैदित बातों पर बहुधा विचार हुआ करता है। इस समाज में कोई-कोई अनुयायी वेद का यथार्थ अर्थ जानने की चेष्टा भी करते हैं। "त्रिवेद निर्णय" नामक पुस्तक इसका प्रमाण है। वे भी वेदों को ईश्वरोक्त मानते हैं। परन्तु वेदों को विचारपूर्वक पढ़ने से यह बात नहीं पाई जाती। इसी से इस समय के अच्छे अच्छे विद्वान् वेदों के कर्तृत्व-विषय में वाद-विवाद नहीं करते। वे इसकी जरूरत ही नहीं समझते। वे जानते हैं वेद मनुष्य निर्मित हैं। परन्तु सर्वसाधारण ऐसा नहीं मानते। इससे जो कोई वेदों के ईश्वर प्रणीत होने में शंका करता है उसे वे घोर पापी और अधर्मी समझते हैं। इसे हम बखूबी जानते हैं। तिस पर भी जो हम सर्वसाधारण के विश्वास के विरुद्ध लिख रहे हैं उसका कारण—"सत्ये नास्ते भयं क्वचित्"।

वेदाध्ययन से नहीं, वेदपाठ ही से मालूम होता है कि वैदिक ऋषि ही वेद प्रणेता हैं। वैदिक सूक्तों ही में प्रणेता ऋषियों के नाम विद्यमान हैं। इन्हीं ऋषियों ने अनेक प्रकार के छन्दों में स्तोत्र आदि बनाकर देवताओं की स्तुति और प्रार्थना की है। यह सब उन्होंने अपने-अपने अभीष्ट-साधन के लिये किया था। लिखा भी—"अर्थ पश्यन्तु ऋषयो देवताश्छन्दोभिरभ्यधावन्"। जैसे पीछे के संस्कृत-कवियों ने गणेश, दुर्गा, शिव, विष्णु, सूर्य आदि की स्तुतियों से पूर्ण स्तोत्र बनाये हैं वैसे ही अग्नि, सोम, वरुण, सविता, इन्द्र आदि की स्तुतियों से परिपूर्ण स्तोत्र वैदिक ऋषियों के बनाये हुये हैं। यहाँ पर कोई यह कह [ १० ]सकता है कि वैदिक ऋषि मन्त्रद्रष्टा थे। उन्होंने योगबल से ईश्वर से प्रत्यादेश की तरह बैदिक-मंत्र प्राप्त किये हैं। यदि यह बात है तो इन सूक्तों में इन ऋषियों की निज की दशा का वर्णन कैसे आया? ये मंत्र इनकी अवस्था के ज्ञापक कैसे हुए? ऋग्वेद का कोई ऋषि कुयें में गिर जाने पर उसी के भीतर पड़े-पड़े स्वर्ग और पृथ्वी आदि की स्तुति कर रहा है। कोई इन्द्र से कह रहा है, आप हमारे शत्रुओं का संहार कीजिए। कोई सविता से प्रार्थना कर रहा है कि हमारी बुद्धि को बढ़ाइए। कोई बहुत सी गायें माँग रहा है, कोई बहुत से पुत्र। कोई पेड़, सर्प अरण्यानी इल और दुन्दुभी पर मंत्र रचना कर रहा है। कोई नदियों को भला बुरा कह रहा है कि ये हमें आगे बढ़ने में बाधा डालती हैं। कहीं मांस का उल्लेख है, कहीं सुरा का। यहीं धूत का। ऋग्वेद के सातवें मंडल में तो एक जगह एक ऋषि ने बड़ी दिल्लगी की है। सोमपान करने के अनन्तर वेद पाठ-रत ब्राह्मणों की वेद-ध्वनि की उपमा आपने बरसाती मेंढकों से दी है। ये सब बातें वेद के ईश्वर प्रणीत न होने की सूचक हैं। ईश्वर के लिए गाय, भैंस, पुत्र, कलत्र, दूध, दही माँगने की कोई जरूरत नहीं। यह ऋग्वेद की बात हुई। यजुर्वेद का भी प्रायः वही हाल है। सामवेद के मंत्र तो कुछ को छोड़ कर शेष सब ऋग्वेद ही से चुने गए हैं। रहा अथर्ववेद, सो वह तो मारण मोहन, उच्चाटन, और वशीकरण आदि मंत्रो से परिपूर्ण हैं। स्त्रियों को वश में करने और जुवे में जीतने तक के मंत्र ऋग्वेद में हैं। अतएव इस विषय में विशेष वक्तव्य की जरूरत नहीं। न ईश्वर जुवा खेलता है, न वह स्त्रेणा ही है और न वह ऐसी बातें करने के लिये औरों को प्रेरित ही करता है। ये सब मनुष्यों ही के काम हैं, उन्होंने वेदों की रचना की है।

परन्तु ईश्वर-प्रणीत न होने से वेदों का महत्व कुछ कम नहीं हो सकता। चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से देखिए, चाहे धार्मिक दृष्टि से देखिए, [ ११ ]चाहें विद्या विषयक दृष्टि से देखिए, वेदों की बराबरी और किसी देश का कोई ग्रन्थ नहीं कर सकता। प्राचीन समय की विद्या, सभ्यता और धर्म का जैसा उत्तम चित्र वेदों में पाया जाता है अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता। वैदिक समय में भारतवासियों की सामाजिक अवस्था कैसी थी वे किस तरह अपना जीवन निर्वाह करते थे, कहाँ रहते थे, क्या किया करते थे—इन सब बातों का पता यदि कहीं मिल सकता है तो वेदों ही में मिल सकता है। अतएव वेदाध्ययन करना हम लोगों का बहुत बड़ा कर्त्तव्य है।

जिस रूप में आजकल वेद ग्रन्थ देखे जाते हैं वह उनका आदिम रूप नहीं। उनका वर्त्तमान रूप वेदव्यासजी की कृपा का फल है। व्यासजी के पहले वैदिक स्तोत्र-समूह एक जगह एकत्र न था। वह कितने ही भिन्न भिन्न अंशों में प्राप्य था। क्योंकि सारे स्तोत्र समूह की रचना एक ही समय में नहीं हुई। कुछ अंश कभी बना है, कुछ कभी। किसी की रचना किसी ऋषि ने की है, किसी की किसी ने। उन सब बिखरे हुए ग्रन्थों को कृष्ण द्वैपायन ने एक प्रणाली में बन्द कर दिया। तभी से वेदों के नाम के आगे "संहिता" शब्द प्रयुक्त होने लगा। उसका अर्थ है—"समूह", "जमाव", "एकत्रीकरण"। वर्त्तमान रूप में वेद-प्रचार करने ही के कारण बादरायण का नाम वेदव्यास पड़ा। उन्होंने समग्र वेद अपने चार शिष्यों को पढ़ाया। बहवृच नामक ऋग्वेद संहिता पैल को; निगद नामक यजुर्वेद संहिता वैशम्पायन को, छन्दोग नामक सामवेद संहिता जैमिनी को और अङ्गिरसी नामक अथर्व संहिता सुमन्तु को। इन चारों शिष्यो ने अपने-अपने शिष्यों को नई प्रणाली के अनुसार वेदाध्ययन कराया। इस प्रकार वेद-पाठियों की सख्या बढ़ते-बढ़ते वेदों की अनेक शाखायें हो गईं—मन्त्रों में कहीं-कहीं पाठ भेद हो गया। किसी ऋषि के पढ़ाये शिष्य [ १२ ]एक तरह का पाठ पढ़ने लगे, किसी के और तरह का। यह पाठ-भेद यहाँ तक बढ़ गया कि सामवेद की सौ तक शाखायें हो गईं! परन्तु अब ये सब शाखा पाठ नहीं मिलते! कुछ ही मिलते हैं।

वेदों के व्याख्यान अर्थात् टीका का नाम "ब्राह्मण" है। बहुत लोग संहिता और ब्राह्मण दोनों को "वेद" संज्ञा मानते हैं। ये कात्यायन के "मन्त्र ब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्" इस वाक्य का प्रमाण देते हैं। परन्तु यह बात विचारणीय है! ब्राह्मण ग्रन्थों में वैदिक मंत्रों का मतलब समझाया गया है। और, और भी कितनी ही बातें हैं। अतएव उनकी रचना वेदों के साथ ही हुई मानी जा सकती। वैदिक मन्त्रों का आशय समझने में जब कठिनाई पड़ने लगी होगी तब "ब्राह्मण" बनाये गये होंगे, पहले नहीं। ऋग्वेद के ब्राह्मणों में विशेष करके होता के कामों का विधान है। यजुर्वेद के ब्राह्मणों में अध्वर्यु के और सामवेद के ब्राह्मणों में उद्‌गाता के। यज्ञ-सम्बन्धी बातों को खूब समझाने और यज्ञ-कार्य्य का सम्बन्ध वैदिक मन्त्रों से अच्छी तरह बतलाने ही के लिये ब्राह्मणों को सृष्टि हुई है! संहिता पद्य में है, ब्राह्मण गद्य में हैं। गद्य के बीच में कहीं कहीं "गाथा" नामक पद्य भी ब्राह्मणों में है।

ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्त में "अरण्यक" है। जो घर छोड़कर बन चले गये हैं, अतएव जिन्होंने यज्ञ करना बन्द कर दिया है, ये "आरण्यक" ग्रन्थ उन्हीं के लिये हैं। उन्हीं के काम की बातें इनमें हैं। "आरण्यक" से उतर कर उपनिषद् हैं। वे सब ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत हैं।

यश सम्बन्धी क्रिया-कलाप, अर्थात् कर्म्मकाण्ड का, विषय जब बहुत पेचीदा हो गया और साधारण आदमी ब्राह्मण ग्रन्थों का ठीक-ठीक मतलब समझने अथवा तदनुसार क्रिया निर्वाह करने में असमर्थ होने लगे, तब श्रौत; गृह्य और धर्म-सूत्रों की उत्पत्ति हुई। इन ग्रन्थों में [ १३ ]सब बातें थोड़े में समझाई गई हैं। श्रौत-सूत्रों में श्रुति (यहाँ "ब्राह्मण" से मतलब है) में उल्लिखित बड़े-बड़े यज्ञों के विधान आदि हैं। गृह्य सूत्रों में जनन, मरण, विवाह आदि संस्कारों की विधि है, और धर्म-सूत्रों में धर्म-सम्बन्धी, अर्थात् धर्मशास्त्रों या स्मृतियों की बातें हैं। इनके सिवा "अनुक्रमणी" नामक ग्रन्थों की गिनती भी वैदिक-साहित्य में की जाती है। इन ग्रन्थों में वेदों के पाठ आदि का क्रम लिखा है। यह इसलिए किया गया है जिसमें वेदों का कोई अंश खो न जाय, अथवा उसमें पाठान्तर न हो जाय। एक अनुक्रमणी में तो ऋग्वेद के सूक्तों की, मन्त्रों की, शब्दों की यहाँ तक कि अक्षरों तक की गिनती भी दी है।

प्रातिशाख्य, परिशिष्ट, वृहद्‌देवता, निरुक्त आदि भी वैदिक साहित्य के अङ्ग हैं।

ऋग्वेद सब वेदों से पुराना है। वही सब से अधिक महत्व का भी है। मण्डल नामक १० अध्यायों में वह विभक्त है। कोई १५ प्रकार के वैदिक-छन्दों में उसकी रचना हुई है। ऋग्वेद का कोई चतुर्थांश गायत्री नामक छन्द में है। ऐसे तीन ही छन्द हैं जिनका प्रयोग अधिकता के साथ किया गया है और छन्दों का कम प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना भिन्न-भिन्न ऋषियों के द्वारा भिन्न भिन्न समय में हुई है। इस वेद के ऋषि प्रतिभाशाली कवि थे—कवि नहीं श्रेष्ठ कवि थे। इसके अधिकांश मंत्रों की रचना वैदिक देवताओं को उद्देश करके की गई है। उनमें अनेक बल-वीर्य, शक्ति, प्रभुता, औदार्य आदि की प्रशंसा है। इन मंत्रों के रचयिता ऋषियों ने देवताओं की स्तुति और प्रशंसा के द्वारा उनसे लौकिक सुख प्राप्ति के लिये प्रार्थना की है। बहुत से पशु, बहुत से पुत्र-पौत्र, बहुत सा ऐश्वर्य्य, दीर्घायु और शत्रुओं पर विजय प्राप्ति के लिए उन्होंने देवताओं की स्तुति की है। लौकिक सुख-प्राप्ति की तरफ उनका ध्यान [ १४ ]अधिक था, पारलौकिक की तरफ कम। यज्ञों के सम्बन्ध में अग्नि और सोम आदि देवताओं के लम्बे-लम्बे स्तोत्रों से ऋग्वेद भरा हुआ है। बीच-बीच में याज्ञिक विषयों के आने से स्तोत्र-जनित रसानुभव में यद्यपि कुछ विधात होता है तथापि जिस सादगी और जिस भक्ति-भाव पुरातप्त ऋषियों ने अपने विचार प्रकट किये हैं वह अवश्य प्रशंसनीय है। इन्द्र, वरुण, अग्नि, मातरिश्वम्, सविता, पूषण, ऊषा आदि जितने देवताओं की स्तुति की गई है प्रायः उन सब से मतलब किसी न किसी प्राकृतिक पदार्थ से है। अर्थात् प्राकृतिक वस्तुओं और प्राकृतिक दृश्यों ही को देवता मान कर, या उन पर देवत्य का आरोप करके, उनका स्तवन किया गया है। एक ऋषि आश्चर्यपूर्वक कहता है, ये तारे दिन में कहाँ चले जाते हैं? तीसरे को यह विस्मय हो रहा है कि बड़ी-बड़ी अनेक नदियों के गिरने पर भी क्यों समुद्र अपनी हद से बाहर नहीं जाता? इसी तरह आश्चर्य और कौतुक के वशीभूत होकर प्राचीन ऋषियों ने प्राकृतिक पदार्थों को देवता मानना आरम्भ कर दिया। इस आरम्भ का अन्त कहाँ जाकर पहुँचा, इसे कौन नहीं जानता? ऋग्वेद के ३३ देवता बढ़ते-बढ़ते ३३ करोड़ हो गये।

मीमांसा-दर्शन के कर्त्ता जैमिनि का मत है कि "देवता" नाम के कोई सजीव पदार्थ नहीं। "इन्द्र" कहने से इस शब्द ही को देवता मान लेना चाहिये। अपने दर्शन के छठे अध्याय में—

"फलार्थत्वात् कम्मणः शास्त्रं सर्वाधिकारं स्यात्"

इस सूत्र से आरम्भ करके आपने देवता विषयक बहुत सी बातें लिखी हैं। आपके कथन का सारांश यह है कि वैदिक देवताओं के न जीव हैं, न शरीर। यदि ये देवता शरीरी होते तो यज्ञ के समय आकर जरूर उपस्थित होते। सो तो होना नहीं। यदि यह कहें कि वे आते तो हैं, पर अपनी महिमा के बल से हम लोगों की आँखों से [ १५ ]अदृश्य रहते हैं तो भी ठीक नहीं। क्योंकि, इस दशा में, यदि दस जगह भिन्न-भिन्न यज्ञ होंगे तो एक शरीर को लेकर वे कहाँ-कहाँ जायँगे? अतएव मन्त्र को ही देवता मान लेना चाहिए। परन्तु इस विषय में और अधिक न लिखना ही अच्छा है।

वैदिक समय में पशु-हिंसा बहुत होती थी। यज्ञों में पशु बहुत मारे जाते थे। उनका मांस भी खाया जाता था। उस समय कई पशुओं का मांस खाद्य समझा जाता था। उनके नाम निर्देश की आवश्यकता नहीं। इस विषय के उल्लेख जो वदों में पाये जाते हैं उन्हें जाने दीजिये। महाभारत में जो चर्म्मण्वती नदी और रन्तिदेव राजा का जो वृत्तान्त है उसे ही पढ़ने से पुराने जमाने की खाद्याखाद्य चीज़ों का पता लग जाता है। सोमरस का पान तो उस समय इतना होता था जिसका ठिकाना नहीं। पर लोगों को सोमपान की अपेक्षा हिंसा अधिक खलती थी। इसी वैदिकी हिंसा को दूर करने के लिए गौतम बुद्ध को "अहिंसा परमोधर्म्मः" का उपदेश देना पड़ा।

सामवेद के मन्त्र प्रायः ऋग्वेद ही से लिए गये हैं। सिर्फ उनके स्वरों में भेद है। वे गाने के निमित्त अलग कर दिये गये हैं। सोमयज्ञ में उद्‌गाताओं के द्वारा गाने के लिए ही सामवेद को पृथक करना पड़ा है। सामवेद भी यज्ञ से सम्बन्ध रखता है और यजुर्वेद भी। सामवेद का काम केवल सोमयज्ञ से पड़ता है। यजुर्वेद में सभी यज्ञों के विधान आदि हैं। साम की तरह यजुर्वेद भी ऋग्वेद से उद्‌धृत किया गया है, पर, हाँ, साम की तरह प्रायः बिल्कुल ही ऋग्वेद से नकल नहीं किया गया। यजुर्वेद (वाजसनेयि-संहिता) का कोई एक चतुर्थांश मन्त्र भाग ऋग्वेद से लिया गया है। शेष यजुर्वेद ही के ऋषियों की रचना है। यजुर्वेद में गद्य भी है, साम में नहीं। क्योंकि यह गाने की चीज है। यजुर्वेद के समय में ऋग्वेद के समय की जैसी [ १६ ]मनोहारिणी वाक्य रचना कम हो गई थी। उस समय स्तुति-प्रार्थना की तरफ ऋषियों का ध्यान कम था। यज्ञ-सम्बन्धी सूक्ष्म नियम बनाकर उसी के द्वारा अपने सौख्य-साधन की तरफ उनका ध्यान अधिक था। इसी से जरा-जरा सी बातों के लिए भी उन्हें विधि-विधान बनाने पड़े थे। लौकिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति की कुञ्जी यज्ञ ही समझा गया था।

[सितम्बर, १९०८