साहित्य सीकर/३—संस्कृत-साहित्य का महत्व

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७—संस्कृत-साहित्य का महत्व

भारत में अँगरेज़ी राज्य स्थापित होने के बाद भारतवासियों को अँगरेज़ी शिक्षा दी जाने लगी। उसके द्वारा भारतवासी अँगरेज़ी साहित्य और विज्ञान आदि के मधुर और नवीन रसों का आस्वादन करने लगे। पहले पहल तो अँगरेज़ी की चमक दमक में वे इतने भूल गये और उसके द्वारा मिलनेवाले उन रसों में वे इतने लीन हो गये कि अपने घर की सभी बातें उनको निस्सार और त्याज्य जान पड़ने लगीं। विशेष कर बूढ़ी संस्कृत के साहित्य के विषय में तो उनके विचार इतने कलुषित हो गये जिसका कुछ ठिकाना ही नहीं। वे उसको अत्यन्त हेय दृष्टि से देखने लगे। नवविवाहिता वधू के लावण्य और हाव-भाव में भूलकर साधारण बुद्धिवाला युवक अपनी बूढ़ी माँ का अनादर करने लगता है। वह उसे अपने सुख में काँटा समझने लग जाता है। प्रायः ऐसी ही दशा उस समय के नवशिक्षित समाज की हो चली थी। यहाँ तक कि एक नामी भारतीय विद्वान् ने कोई पचास साठ वर्ष पहले, बड़े ज़ोर के साथ कह डाला था कि संस्कृत की शिक्षा से मनुष्य की आँखें मुँद जाती हैं। पर अँगरेज़ी शिक्षा उन्हें खोल देती हैं। इस दशा में यदि यूरोप के विद्वानों को संस्कृत-साहित्य के सम्बन्ध में भ्रम हो जाय तो आश्चर्य ही क्या? समय-समय पर इस प्रकार के कितने ही विलक्षण और निर्मूल आक्षेप संस्कृत पर किये गये हैं। हर्ष का विषय है ऐसे आक्षेपों का मुँह तोड़ उत्तर महामहोपाध्याय डाक्टर हर प्रसाद शास्त्री जैसे विद्वानों के [ २३ ]द्वारा दिया गया है। शास्त्रीजी नामी विद्वान् और पुरातत्वज्ञ हैं। आप संस्कृत साहित्य के पारदर्शी पण्डित हैं। संस्कृत-कालेज (कलकत्ता) के प्रधानाध्यापक रह चुके हैं। अब आप पेन्शन पाते हैं। काशी के हिन्दू विश्वविद्यालय के शिलारोपण सम्बन्धी महोत्सव के समय आपका भी एक व्याख्यान हुआ। उस व्याख्यान का मतलब सुनिए—

आरम्भ में शास्त्रीजी ने पूर्वोक्त विद्वान् के भ्रमपूर्ण वाक्य का उल्लेख किया। फिर कहा कि जिन दिनों की यह बात है उन दिनों संस्कृत साहित्य से पढ़े-लिखे लोगों का बहुत ही थोड़ा परिचय था। वे न जानते थे कि संस्कृत साहित्य कितने महत्व का है। उसमें भिन्न-भिन्न विषयों पर कितने ग्रन्थ अब भी विद्यमान हैं। उस समय अँगरेजी पाठशालाओं में संस्कृत की शिक्षा बहुत ही थोड़ी दी जाती थी। अँगरेजी ही का दौरदौरा था। इस कारण कुछ नव-शिक्षित लोग यह ख्याल कर बैठे थे कि अँगरेजी शिक्षा की बदौलत ही ज्ञान-सम्पादन हो सकता है। संस्कृत में धरा ही क्या है? व्याकरण रटते-रटते और कोष कण्ठ करते-करते जीवन व्यतीत हो जाता है; बाहरी व्यवहारिक ज्ञान ज़रा भी नहीं होता। अँगरेजी शिक्षा को देखिए। आठ ही दस वर्षों में विद्यार्थी केवल अङ्गरेजी भाषा में प्रवीणता नहीं प्राप्त कर लेता, किन्तु वह अनेक शास्त्रों के रहस्यों को भी जान जाता है, वह गणित इतिहास विज्ञान सम्बन्धिनी अनेक अनोखी बातों से भी अवगत हो जाता है। संस्कृत साहित्य से इतने ज्ञान-सम्पादन की आशा नहीं की जा सकती।

पर खुशी की बात है कि अब वह जमाना नहीं रहा। गत आठ ही वर्षों में जमीन आसमान का फर्क हो गया है। सन् १८७६ की एक बात मुझे याद आ गई। बङ्गाल के तत्कालीन छोटे लाट, सर रिचर्ड टेम्पल, ने एक बार कहा था— [ २४ ]

"The education of a Hindu gentleman can never be said to be complete without a thorough mastery of Sanskrit-lauguage and literature."

अर्थात् संस्कृत भाषा और संस्कृत-साहित्य का पूरा ज्ञान प्राप्त किये बिना किसी भी हिन्दू की शिक्षा पूरी नहीं होती। उसे अधूरी ही समझना चाहिये।


उस समय संस्कृत के हस्तलिखित ग्रंथों और शिला-लेखों की खोज का काम आरम्भ ही हुआ था। इन गत पचास-साठ वर्षों की खोज से संस्कृत साहित्य-सम्बन्धिनी मार्के की बातों का पता चल गया है। अब कोई यह नहीं कह सकता कि संस्कृत-साहित्य में धर्म ग्रंथों के सिवा और है क्या? अब तो यूरोप और अमेरिका तक के विद्वान् यह मानने लगे हैं कि संस्कृत में सैकड़ों व्यवहारोपयोगी ग्रन्थ भी हैं। खोज अब तक जारी है। कोई तीस वर्षो से मैं इस खोज का काम कर रहा हूँ। पर इतने ही से मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि संस्कृत साहित्य भारत की प्राचीनता के भिन्न-भिन्न स्वरूपों का प्रतिबिम्ब है। उसके अध्ययन से यह ज्ञान हो सकता है कि प्राचीन भारत-निवासी विद्या में कितने बढ़े-चढ़े थे, जीवनोपयोगिनी कितनी आवश्यक सामग्री उनके पास थी—कितनी बातें उन्हें मालूम थीं। अहा! सर रिचर्ड टेम्पल यदि इस समय जीवित होते तो वे अपने वाक्य से जरूर 'हिन्दू' शब्द निकाल देते। क्योंकि अब संस्कृत साहित्य का महत्व इतनी दृढ़ता से सिद्ध किया जा चुका है कि उसका पूर्ण अध्ययन किये बिना किसी भी मनुष्य की शिक्षा पूर्ण नहीं कही जा सकती। यदि मेरे वे पूर्वोक्त भारतीय मित्र आज विद्यमान होते देख लेते के संस्कृत-साहित्य भी अँगरेजी ही के सदृश मनुष्य की आँख खोल सकता है। इस समय उन्हें अपनी पहली सम्मति पश्चात्ताप पूर्वक वापस लेनी पड़ती। [ २५ ]

अँगरेज़ी के सिवा यूरोप की अन्य भाषाओं का साहित्य शृङ्खला-बद्ध नहीं। कहीं-कहीं उसका सिलसिला टूट गया है। पर अँगरेज़ी साहित्य इँगलैंड के आदि कवि चासर से लेकर आज तक—५०० वर्षों तक—रत्ती भर भी विशृड़्खल नहीं। इसी से टेन नाम का एक फ्रांस निवासी लेखक अँगरेजी साहित्य पर लट्टू हो गया है। सिर्फ ५०० वर्षों की अखण्डित शृङ्खला पर टेन महाशय इतना आश्चर्य करते हैं। यदि वे यह जानते कि संस्कृत साहित्य का सिलसिला उससे कई गुना अधिक समय से बराबर चला आ रहा है तो न मालूम उनके आश्चर्य का पारा कितनी डिग्री चढ़ जाता। सुनिये, हमारा संस्कृत साहित्य ईसा के कोई १५०० वर्ष पहले से, आज तक शृङ्खला-बद्ध है। अर्थात् संस्कृत साहित्य, अँगरेज़ी-साहित्य की अपेक्षा सात गुने समय से शृङ्खला-बद्ध है। हाँ, अध्यापक मैक्समूलर अलबत्ता कहते हैं कि कोई सात सौ वर्षों तक संस्कृत साहित्य सूना दिखाई देता है; उसकी शृङ्खला टूटी हुई दृष्टि पड़ती है। ईसा के पहले चौथी सदी से ईसा की चौथी सदी तक—बौद्ध धर्म के उदयकाल से गुप्त राजों के उदयकाल तक—वे उसे खण्डित कहते हैं। इन सात शतकों में लिखे गये जितने शिला-लेख पाये गये हैं व ऐसी भाषा में हैं जिसे प्राकृत के रूप में संस्कृत कह सकते हैं। वे चौथी सदी के बाद से संस्कृत का पुनरूजीवन मानते हैं।

परन्तु भाषा-सम्बन्धी परिवर्त्तन के कारण ही अध्यापक मैक्समूलर को यह भ्रम हुआ है। उनकी इस सम्मति का आदर विद्वानों ने नहीं किया। क्योंकि पूर्वोक्त अवधि में लिखे गये कितने ही ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं। ईसा के पहले दूसरी सदी में—पुष्यमित्र के राजत्वकाल में पतञ्जलि ने अपना महाभाष्य लिखा। चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर का समकालीन था। उसी चन्द्रगुप्त के मन्त्री, कौटिल्य (चाणक्य) ने अर्थशास्त्र की रचना की। प्रसिद्ध नाटककार भास की ख्याति कालिदास से कम [ २६ ]नहीं। इसी भास के नाटकों के अवतरण कौटिल्य के ग्रन्थ में पाये जाते हैं। इससे सिद्ध है कि कौटिल्य के पहले भास ने अपने ग्रथों की रचना की थी। कोहल, शाण्डिल्य, धूर्तित और वात्स्य ने नाट्य-शास्त्र पर बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे। वे सब ईसा के पहले दूसरी सदी ही में रचे गये। महाराज कनिष्क के गुरु अश्वघोष, बौद्ध धर्मीय महायान सम्प्रदाय के संस्थापक नागार्जुन, नागार्जुन के शिष्य आर्यदेव और मैत्रेयनाथ आदि ने ईसा की पहली से लेकर तीसरी सदी तक अपने ग्रन्थों की रचना की।

देखिए, संस्कृत-ग्रन्थों की रचना होती चली आई है। इन सदियों में भारत की राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, साम्पत्तिक तथा शिक्षा विषयक स्थितियों में बहुत कुछ उथल पुथल हुआ। तिस पर भी संस्कृत-साहित्य की शृङ्खला न टूटी। इस दृष्टि से संस्कृत-साहित्य का यह अटूट क्रम और भी आश्चर्यकारक है। वह कभी टूटा ही नहीं। कभी एक प्रान्त में तो कभी दूसरे प्रान्त में कहीं न कहीं, कोई न कोई ग्रन्थ लिखा ही गया। उत्तरी भारत में अफगानियों ने जो उत्पात तेरहवीं सदी में मचाया था वह दुनिया में अपना सानी नहीं रखता। पर उस समय भी गुजरात और मालवे में जैनियों ने साहित्य की वृद्धि की। भारत के पश्चिमी प्रान्तों में माधवाचार्य ने तथा दक्षिणी प्रान्तों और मिथिला में रामानुज के शिष्यों ने भी संस्कृत साहित्य के कलेवर को बढ़ाया। चौदहवीं सदी में सारा भारत मुगलों और पठानों के आक्रमणों से उच्छिन्न हो रहा था। तिस पर भी कर्णाटक देश में मध्वाचार्य द्रविड़ में वेदान्त-देशिक, मिथिला में चण्डेश्वर और उत्कल (उड़ीसा) में तो कितने ही लेखकों ने ग्रन्थ लिख-लिख कर साहित्य को पुष्ट किया।

इतना बड़ा और इतना अखण्डित ग्रन्थ संग्रह क्या हमारे लिये उपयोगी नहीं? ज़रूर है। उससे हमारी कल्पना शक्ति पुष्ट होती है; [ २७ ]विचार करने के लिए हमें वह साधन सामग्री देती है। उसे देखकर हमें अपने प्राचीन गौरव का अभिमान होने लगता है। उससे हम जान सकते हैं कि हमारा अस्तित्व कितना प्राचीन है। संस्कृत की वर्णमाला-रचना बड़ी विचित्र है। उसके उच्चारण की शैली अपूर्व है। उसका भाषा सौन्दर्य भी बहुत अधिक है। संस्कृत साहित्य के अवलोकन से हम यह जान सकते हैं कि बोल-चाल की भाषायें किस प्रकार बदलती रहती हैं और साहित्य की भाषा किस प्रकार अचल रहती है—उसका रूप जैसे का तैसे बना रहता है। संस्कृत साहित्य के अध्ययन से हमको प्राचीन इतिहास का ज्ञान होता है। वह हमें बताता है कि किस प्रकार प्राचीन आर्य, धीरे-धीरे अपनी मानसिक उन्नति करते गये; किस प्रकार वे क्रमाक्रम से एक से एक उत्तम तत्वों की खोज करते गये; किस प्रकार हाथियों की पूजा करने वाले प्राचीन आर्य, सृष्टि की उत्पत्ति पर भी विचार करके अखण्डनीय सिद्धान्तों का ज्ञान भी प्राप्त कर सके।

संस्कृत-साहित्य का विस्तार बहुत है। वह पुष्ट भी खूब है। अर्थात् उसमें ग्रंथों की संख्या भी बहुत है और वे ग्रंथ भी महत्वपूर्ण और उपयोगी विषयों पर लिखे गये हैं। पाली, मागधी, शौरसेनी आदि प्राचीन तथा वर्तमान देशी भाषाओं के साहित्य को छोड़ दें, तो भी उसका महत्व कम नहीं होता। लैटिन और ग्रीक—इन दोनों भाषाओं का साहित्य मिल कर भी संस्कृत साहित्य की बराबरी नहीं कर सकता। १८९१ ईसवी तक कोई चालीस हज़ार संस्कृत ग्रंथों की नामावली तैयार हो सकी थी। कितने ही ग्रंथ तो उसमें शामिल ही नहीं हुए। भारत के प्रत्येक कोने में संस्कृत के ऐसे बीसियों प्राचीन ग्रंथों के नाम सुनाई पड़ते हैं, जो अब उपलब्ध नहीं। यही नहीं, एशिया के दूर स्थानों में भी ऐसे ही अनेक नाम सुने जाते हैं। गोबी नाम के रेगिस्तान में गढ़ी हुई संस्कृत-साहित्य सम्बन्धिनी बहुत सी सामग्री मिली है। [ २८ ]चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत और मँगोलिया में भी संस्कृत-ग्रंथ पाये गये हैं। बौद्धों में पुण्डरीक नाम का एक बड़ा भारी विद्वान् हो गया है। उसे बौद्ध लोग अवलोकितेश्वर का अवतार मानते हैं। उसके एक ग्रंथ से पता चलता है कि रोम, नील नदी का प्रान्त, फारिस आदि देश भी संस्कृत-साहित्य के ऋणी हैं। मैडेगास्कर से फारमोसा टापू तक ही नहीं, उससे भी दूर दूर तक प्रचलित सैकड़ों भाषाओं और बोलियों का मूलाधार संस्कृत ही है।

यह तो संस्कृत-साहित्य के विस्तार की बात हुई। इतने से आपको उसके फैलाव की कुछ कल्पना-मात्र हो सकती है। पर उसकी निश्चित सीमा कोई नहीं बता सकता। जो संस्कृत-साहित्य आज उपलब्ध है वह बहुत प्राचीन नहीं। वह तो नई चीज़ है—किसी शास्त्र विशेष या कला विशेष से सम्बन्ध रखने वाली नवीन खोज का फल है। प्राचीन ग्रंथ तो भूतकालरूपी महा समुद्र में लुप्त हो गये। देखिए, पाणिनि अपने ग्रंथ में लिखते हैं कि उनके पूर्ववर्ती संस्कृत व्याकरण के २५ शाखा भेद थे। कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र में तत्पूर्ववर्ती अर्थशास्त्र के १० भेदों का उल्लेख है। कोहल के नाट्य-शास्त्र से भी पता चल सकता है कि इस शास्त्र के भी बहुत से शाखा भेद थे। प्रत्येक शाखा के सूत्र, भाष्य, वात्तिक और निरुक्त आदि अलग-अलग थे। वात्स्यायन के काम सूत्र में भी ऐसे ही उल्लेख पाये जाते हैं। उसमें काम-शास्त्र के पूर्व रचयिताओं का उल्लेख तो है ही, पर, उस शास्त्र के सातों अधिकरणों के पूर्ववर्ती आचार्यों का भी उल्लेख है। संस्कृत के किसी श्रौत या गृह्य सूत्र-ग्रंथ को ले लीजिये। आपको कितने ही लेखकों और ग्रंथों के नाम उसमें मिलेंगे। दर्शन, अलङ्कार, व्याकरण और छंद-शास्त्र का भी यही हाल है।

अतएव यही कहना पड़ता है कि संस्कृत-साहित्य बहुत विस्तृत है, वह खूब पुष्ट है, वह बहुत प्राचीन है। उसके भीतर भरी हुई सामग्री में [ २९ ]गजब की आकर्षण शक्ति है। उसके अध्ययन से मनुष्य बातें—बहुत उपयोगिनी बातें—सीख सकता है।

लोग कहते हैं कि संस्कृत जाननेवाले इतिहास के प्रेमी नहीं। उन्होंने कोई इतिहास नहीं लिखा। पर मैं कहता हूँ कि इतिहास से हम जो कुछ सीख सकते हैं उससे कहीं अधिक संस्कृत-साहित्य से सीख सकते हैं। पूर्ववालों ने तो उससे बहुत कुछ सीखा भी है। अब पश्चिमवाले भी उसका आदर करने लगे हैं। वे उसका अध्ययन करते हैं और उसकी शिक्षणीय बातों से अपने साहित्य को पुष्ट करते हैं। संस्कृत-साहित्य से हमें यह शिक्षा मिलती है कि खून खराबी और मार-पीट के बिना भी मनुष्य किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है। क्या हम इसे शिक्षा नहीं कह सकते? मैं तो कहता हूँ कि साहित्य इससे बढ़कर और क्या शिक्षा दे सकता है?

योरप के निवासी, और कुछ भारत-निवासी विद्वान् भी समझते हैं कि संस्कृत-साहित्य केवल ब्राह्मणों का धर्म-साहित्य है। ब्राह्मणों के उपयोगी धर्म ग्रन्थों के सिवा उसमें और कुछ नहीं। पर उन लोगों का यह ख्याल गलत है। संस्कृत-साहित्य में केवल ब्राह्मणों के धर्म ग्रन्थ ही नहीं हैं, जैनों और बौद्धों के धर्म-ग्रन्थ भी हैं। समस्त दक्षिणी और पूर्वी एशिया के धार्मिक जीवन पर संस्कृति-साहित्य का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है और पड़ता भी रहेगा।

धार्मिक साहित्य की बात जाने दीजिए। उसका प्रभाव तो प्रत्यक्ष ही दिखलाई दे रहा है। सांसारिक साहित्य को लीजिये। इसी के लिए बेचारे संस्कृत-साहित्य को लोग बदनाम कर रहे हैं। लोग संस्कृत-साहित्य के यथार्थ महत्व को नहीं जानते। सम्पत्ति-शास्त्र, विज्ञान, कला-कौशल, इतिहास, तत्वज्ञान, काव्य और नाटक आदि ही सांसारिक व्यवहारोपयोगी साहित्य के विभाग हो सकते हैं। अतएव अब मैं हर विषय पर विचार करके विपरीत मतवादियों का भ्रम दूर [ ३० ]करने की चेष्टा करता हूँ।

अर्थ-शास्त्र

सबके पहले मैं अर्थ-शास्त्र ही को लेता हूँ क्योंकि कितने ही लोग कहते हैं कि यह शास्त्र आधुनिक है। योरप के निवासी इसके जन्मदाता कहे जाते हैं। कोई दो ही सदियों में उन्होंने इसमें आश्चर्यजनक उन्नति कर दिखाई है।

भारत में शास्त्रों के मुख्य चार भाग किये गये हैं। (१) धर्म, (२) अर्थ, (३) काम और (४) मोक्ष। इनमें पहले तीन का सम्बन्ध सांसारिक बातो से है और अन्तिम का धार्मिक बातों से। पहले तीनों में से सम्पत्ति शास्त्र का सम्बन्ध सांसारिक बातों से बहुत अधिक है। संस्कृत-साहित्य में इस विषय पर बहुत बड़ा ग्रन्थ विद्यमान है। वह है कौटिल्य का अर्थशास्त्र। ईसा के पहले चौथी सदी में कौटिल्य ने उसकी रचना की। उसमें उसने अपने पूर्ववर्ती सम्पत्ति-शास्त्र के १० शाखा भेदों का उल्लेख किया है। इसी एक बात से यह ज्ञात हो सकता है कि इतने प्राचीन समय में भी भारत निवासी अच्छे राजनीतिज्ञ और सम्पत्ति-शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे। कौटिल्य ने अपने सम्पत्ति-शास्त्र में (१) राजनैतिक सम्पत्तिशास्त्र, (२) राजनैतिक तत्वज्ञान, (३) साधारण राजनीति, (४) युद्ध-कला, (५) सेना-सङ्गठन, (६) शासन-कला, (७) न्याय-शासन, (८) कोष (९) वाणिज्य-व्यवसाय और (१०) कल कारखानों तथा खानों आदि के प्रबन्ध का विवेचन किया है। इसे थोड़े में यों कह सकते हैं कि राज्य-प्रबंध के लिये सभी आवश्यक विषयों के समावेश उसमें हैं। गृह-प्रबंध-विषयक सम्पत्तिशास्त्र पर भी वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र के चौथे भाग में बहुत कुछ लिखा है। उस भाग का नाम है—भार्याधिकरण। उसे देखते ही ज्ञात हो जाता है कि प्राचीन समय में हमारे यहाँ गृह-प्रबंध कैसे होता था। उसमें गृह-पत्नी की व्याख्या दी गई है। चीज़ों की सँभाल किस तरह करनी चाहिये, [ ३१ ]नौकर-चाकरों के वेतन आदि का प्रबन्ध कैसे करना चाहिए, रसोई की व्यवस्था किस ढंग से होनी चाहिए, घर के आस-पास बाग बगीचे किस तरह लगाने चाहिएँ, बीजों की रक्षा किस तरह करनी चाहिए, परिवार के लोगों से गृह-पत्नी को कैसा व्यवहार करना चाहिए—इन्हीं सब बातों का वर्णन उसमें है। कृषि और वृक्ष-रोपण का वर्णन भी बराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में किया है। हमारे स्मृति-ग्रन्थों में तो कितने ही ऐसे संकेत हैं जिनसे ज्ञात होता है कि इन विषयों पर और भी बड़े-बड़े ग्रन्थ विद्यमान थे। पालकाप्य का हस्त्यायुर्वेद और शालिहोत्र का अश्व-शास्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि प्राचीन भारत-निवासी पशु-पालन और पशु चिकित्सा में भी प्रवीण हैं। इन ग्रन्थों से जाना जाता है कि प्राचीन ऋषियों ने कितनी चिन्ता और कितने परिश्रम से पशुओं के स्वभाव आदि का ज्ञान सम्पादन किया था, उनके जनन और पालन के नियम बनाये थे; उनके रोगों तथा उनकी चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त किया था। पाकशास्त्र पर तो कितनी ही पुस्तकें हैं। पेड़ों और वनस्पतियों के फलों, जड़ों, छालों, पत्तों, डंठलों, फूलों और बीजों तक के गुण धर्म का विवेचन इनमें मिलता है। भिन्न-भिन्न जन्तुओं के मांस के गुण-दोषों का भी उनमें वर्णन है।

शास्त्रीय विषय

शास्त्र का ज्ञान दो ही उपायों से प्राप्त किया जा सकता है। (१) निरीक्षण या (२) प्रयोग-द्वारा, कुछ लोगों का कहना है कि भारत-निवासियों ने शास्त्रीय विषयों पर कुछ विचार किया है। सही, पर प्रयोग करना वे न जानते थे। यह निरा भ्रम है। देखिए, गणित-शास्त्र में निरीक्षण ही प्रधान है। निरीक्षण ही के बल पर उसकी सृष्टि हुई है। भारत वासियों को प्राचीन समय की सब जातियों से अधिक [ ३२ ]गणित-शास्त्र का ज्ञान था। अंकगणित में दशमलव की रीति का आविष्कार उन्होंने किया। बीज-गणित में वर्ग समीकरण को हल करने की रीति का अनुकरण परिश्रमवालों ने भारतीयों ही से सीखा। हाँ, उसमें कुछ फेरफार उन्होंने जरूर कर लिया है। त्रिकोणमिति में आर्यों ने अच्छी उन्नति की थी। उनको अनेक प्रकार के कोणों का ज्ञान था। भारत में इस शास्त्र की उत्पत्ति नावों के कारण हुई। भारत-निवासियों को यज्ञ से बड़ा प्रेम था। इसी निमित्त उन्हें यज्ञवेदी बनानी पड़ती थी। वेदियाँ प्रायः पक्की ईटों से बनाई जाती थीं इसलिए उन्हें ईंटों और वेदी की भूमि को नापने की जरूरत पड़ती थी। इसी से इनको रेखा गणित-सम्बन्धिनी भिन्न भिन्न आकृतियों का ज्ञान हुआ। यज्ञों के लिए उन्हें समय ज्ञान की भी जरूरत पड़ती थी। इससे ज्योतिष-शास्त्र का उदय हुआ। ग्रीक तथा अन्य विदेशी जातियों के सम्पर्क से उन्हें इस शास्त्र के अध्ययन में और भी सहायता मिली। धीरे-धीरे उन्होंने इस शास्त्र से सम्बन्ध रखने वाली कितनी ही नई-नई बातें खोज निकाली। उन्होंने पृथ्वी की दैनिक गति का पता लगाया। ज्योतिष सम्बन्धी बड़े उपयोगी यन्त्रों का आविष्कार भी उन्होंने किया।

यह तो निरीक्षण-प्रधान शास्त्रों की बात हुई। अब प्रयोग-प्रधान शास्त्रों को लीजिए। आर्यों के आयुर्वेद को देखिए, सब बात स्पष्ट समझ में आ जायगी। इस शास्त्र का ज्ञान केवल निरीक्षण से साध्य नहीं। इसके लिए बड़ी दूरदर्शिता के साथ प्रयोग करने की आवश्यकता पड़ती हैं। आर्यों ने असंख्य जंगली जड़ी बूटियों के गुण दोषों का ज्ञान प्राप्त किया। इसके लिए उन्हें हिमालय जैसे अलंघ्य पर्वतों पर भी घूमना पड़ा। उन्होंने इस बात की गहरी खोज की कि किसी वनस्पति का कोई दोष अन्य वनस्पति के योग से दूर किया जा सकता है। इस निमित्त उन्होंने सैकड़ों वनस्पतियों के गुण दोषों की परीक्षा [ ३३ ]करके उनके योग से गोलियाँ, चूर्ण, घृत और तैल आदि तैयार करने की विधि निकाली। क्या यह सब बिना ही प्रयोग किये हो गया? ईसा के कोई एक हजार वर्ष पहले भी भारतवासियों को मनुष्य के शरीर की हड्डियों का ज्ञान था। वे जानते थे कि शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं, कौन हड्डी किस जगह है और उसका आकार कैसा है। जानवरों की नस नस का ज्ञान भी उन्हें था। अर्थात् वे शरीर-शास्त्र के भी ज्ञाता थे। वे जर्राही में भी बड़े चतुर थे। अस्थियाँ काटने में जिन यन्त्रों को वे उपयोग करते थे उनको देखने ही से यह बात सिद्ध है। चिकित्सा शास्त्र की सभी शाखाओं का ज्ञान उनको बहुत कुछ था। वे धातुओं और अन्य खनिज वस्तुओं का उपयोग भी जानते थे। उनसे वे अनेक प्रकार की औषधियाँ तैयार करते थे। अर्थात् रसायन-शास्त्र में भी उनका काफी दखल था। इस शास्त्र के प्रयोगों में प्राचीन भारतवासियों ने कितनी उन्नति कर ली थी, इसका वर्णन डाक्टर प्रफुल्लचन्द्र राय ने अपने ग्रन्थ में बहुत अच्छा किया है। उनके बताये हुये पारे के भिन्न-भिन्न उपयोग तो बहुत ही प्रशंसनीय हैं। प्राचीन भारतवासी भौतिक शास्त्र (Physics) में भी पीछे न थे। वैशेषिक-दर्शन और कारिकावलि अथवा शाखापरिच्छेद पढ़ते ही यह बात ध्यान में आ जाती है। उनमें अध्यात्म-विद्या का उतना विचार नहीं किया गया जितना पदार्थ विज्ञान का, वैशेषिक दर्शन का परमाणुवाद इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमारे पूर्वज पदार्थ-विज्ञान की उन कितनी ही शाखाओं पर विचार कर चुके थे, जिनमें इतने समय बाद योरोप ने अब कहीं विशेष उन्नति की है।

चन्द्रकीर्ति नाम के एक लेखक ने आर्यदेव के लिखे हुए चतुःशतिका नामक ग्रन्थ पर एक टीका लिखी है। आर्यदेव तीसरी सदी में और चन्द्रकीर्ति छठी सदी में हुये थे। उसमें दो कथायें हैं। उनको [ ३४ ]पढ़ने से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में आर्यों ने यंत्र निर्माण में भी यथेष्ट प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।

कला-कौशल

हमारे यहाँ चौसठ कलायें मानी जाती हैं। चौसठ कलाओं की कई नामावलियाँ मेरे देखने में आई हैं। पाञ्चालिकी एक नामावली है। एक और का नाम है मूल कला। वस्तु-कला, द्यूत-कला, शयन-कला आदि, इसके कितने ही भाग हैं। एक नामावली और भी है। उसका नाम है औपायिकी-कला। उसका टीकाकार कहता है कि कुल कलायें ५१८ हैं। खेद है, उनके नाम उसने नहीं गिनाये। मैं समझता हूँ, सभी औपायिकी-कलाओं पर पुस्तकें लिखी गई होंगी। कितनी ही औपायिकी कलाओं पर पुस्तकें मिलती भी हैं। उन्हें सब लोग जानते हैं। संगीत ही का उदाहरण लीजिये। उस पर कितनी ही पुस्तके हैं। बंगाल-निवासी भुदानन्द कविकण्ठाभरण ने हिन्दुओं के अठारहों शास्त्र पर टीकायें लिखी हैं। वे शेरशाह के समकालीन थे। उन्होंने संगीत-विद्या पर भी एक पुस्तक लिखी है। उसमें उन्होंने संगीत-शास्त्र पर पुस्तक-रचना करने वाले कितने ही प्राचीन लेखकों के नाम दिये हैं। कोहल ने अपने नाट्य-शास्त्र में अकेले नृत्य पर कितने ही अध्याय लिख डाले हैं। उनमें करण, अंगहार, नर्त्य आदि का विवेचन किया गया है। दशरूपक नामक ग्रन्थ में भी नर्त्य और नृत्य का भेद दिखाया गया है। कोहल ने, मेरे खयाल से, नाट्य-शास्त्र की रचना दूसरी शताब्दी में की। उसने नाट्य-शास्त्र के सभी अङ्गों और उपांगों का सविस्तार विवेचन किया है।

हाँ, चित्रकला पर अभी तक कोई पुस्तक नहीं मिली। पर ईसा के पूर्व दूसरी सदी की चित्रकारी के नमूने अलबत्ते मिले हैं। छठीं से [ ३५ ]दसवीं सदी की चित्रकारी तो बहुत ही उत्तम मिलती है—कहीं गुफाओं के भीतर मन्दिरों में, कहीं दीवारों पर, कहीं ताड़ के पत्तों पर लिखी हुई पुस्तकों पर। यहाँ की संगतराशी के काम की तो सारी दुनिया तारीफ करती है। उसके तो बौद्ध कालीन नमूने तक मिलते हैं। इनके सिवा प्राचीन भारत-निवासियों को और भी छोटी-मोटी अनेक कलायें ज्ञात थीं।

इतिहास

कितने ही पुराणों में बड़े-बड़े राजवंशों का विवरण है। प्राचीन लिपियों के संग्रह से भारत के प्राचीन इतिहासज्ञान की प्राप्ति में खूब सहायता मिल रही है। सातवीं सदी से हमारे यहाँ लिखे हुए इतिहास मिलते हैं। उनमें सबसे पहिला हर्षवर्द्धन का इतिहास है। तब से भिन्न-भिन्न रूपों में इतिहास का लिखना बराबर जारी रहा। नव-साह साङ्क चरित, विक्रमांकदेव-चरित, द्वयाश्रय, राम-चरित, पृथ्वीराज-चरित और राज तरंगिणी आदि देखने से यह बात समझ में आ सकती है कि किस प्रकार भिन्न-भिन्न ढंग पर इतिहास लिखे गये हैं। खोज करने से इस विषय में और भी अधिक बातें मालूम हो सकती हैं। कोई तीन सौ वर्ष पहले, पंडित जगमोहन नाम के एक लेखक ने एक इतिहास संग्रह किया था। उसमें लेखक ने कई पूर्ववती संग्रहकर्त्ताओं के नाम दिये हैं। एक ऐसा ग्रन्थ मिला भी है। वह है भविष्यपुराणान्तर्गत ब्राह्म-खण्ड। उसे देखने से इतिहास और भूगोल-संबन्धिनी अनेक बातें ज्ञात होती हैं। अतएव कहना पड़ता है, संस्कृत साहित्य में इतिहास का अभाव है, यह आक्षेप निराधार है।

तत्व-ज्ञान

भारतीय तत्व-ज्ञान छः भागों में बँटा हुआ है। पर इस विषय में भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत हैं। वे एक दूसरे से नहीं [ ३६ ]मिलते। खैर। वे दर्शन कहाते हैं। सभी दर्शनों में अध्यात्म-विद्या ही का वर्णन नहीं। वैशेषिक दर्शन में पदार्थ-विज्ञान के सिद्धान्त भरे पड़े हैं। न्याय में तर्क-शास्त्र का विवेचन किया गया है। मीमांसा में धर्म-कर्म संबंधिनी प्राचीन पद्धतियों की व्याख्या है। योग दर्शन में अन्तर्निहित शक्तियों के उद्‌बोधन का वर्णन है। हाँ, शङ्कर और बौद्ध धर्मीय महायान-सम्प्रदाय के लेखकों ने अध्यात्म-विद्या अर्थात् वेदान्त का खूब विवेचन किया है। महायान-सम्प्रदाय के अनुयायियों ने नीति शास्त्र—नैतिक तत्वज्ञान—के भी तत्वों का गहरा विचार किया है।

काव्य और नाटक

प्रत्येक मनुष्य-जाति में काव्य, थोड़ा बहुत अवश्य पाया जाता है। क्योंकि जीवन-कलह से त्रस्त मनुष्य के मन को शान्ति देने में उससे बड़ी सहायता मिलती है। एक देश या जाति-विशेष का काव्य-साहित्य दूसरे देश या जाति विशेष के काव्य-साहित्य से नहीं मिलता। किसी भी जाति में साहित्य का यह अङ्ग उतनी उन्नति को नहीं पहुँच पाया जितनी उन्नति को वह भारतवर्ष में पहुँचा है। किसी में एक बात की कमी है, तो किसी में दूसरी बात की। किसी में संगीत का अभाव है, किसी में नाटक का, किसी में पद्य का। पर प्राचीन भारत के काव्य-साहित्य में किसी बात का अभाव नहीं। गद्य-काव्य, पद्य-काव्य, चित्र-काव्य; उसी तरह दृश्य-काव्य और श्रव्य-काव्य; कहाँ तक गिनावें प्रत्येक प्रकार का काव्य मौजूद है और प्रत्येक बात काव्य से भरी हुई है। रामायण, महाभारत और रघुवंश पौराणिक काव्य के उत्तम नमूने हैं।

नाटक, अलंकार, चम्पू तथा अन्य छोटे-मोटे काव्य ग्रन्थों की तो बात ही जाने दीजिए। जगत्प्रसिद्ध कालिदास का रघुबंश तो दुनिया में अपना सानी नहीं रखता। पुराणों में प्रायः एक, दो अथवा इससे भी [ ३७ ]अधिक मुख्य पात्रों का वर्णन रहता है। पुराण के आरम्भ से अन्त तक उनका कार्य कलाप दिखलाया जाता है। रघुवंश में एक विशेषता है। वह यह कि उसके मुख्य पात्र बीच ही में लुप्त होते जाते हैं। फिर भी उनका उद्देश, उनका कार्य और उनकी नीति की एकता ज्यों की त्यों बनी रहती है। उनकी शृङ्ख‍ला खण्डित नहीं होती। यह विशेषता, यह चमत्कार, रघुवंश के सिवा और कहीं न पाइएगा।

अन्यान्य-विषय

जो साहित्य किसी मनुष्य जाति के सम्पूर्ण कार्यों और जीवन को प्रतिबिम्बित करता है वही पूर्ण और प्रभावशाली कहा जाता है। अर्थात् जिस साहित्य के अवलोकन से यह जाना जा सके कि अमुक जाति के कार्यों की दिशा और उसकी सभ्यता अमुक प्रकार की है और उसके जीवन में अमुक विशेषतायें हैं, वही साहित्य श्रेष्ठ है। यदि यह सिद्धान्त सच हो तो संस्कृत साहित्य ही ऐसा साहित्य है जिस पर यह लक्षण घटित होता है। अपने प्राचीन समय की याद कीजिए। उस समय न कागज ही मिलते थे, न छापने की कला ही का उदय हुआ था। पर हमारा संस्कृत-साहित्य तब भी पूर्णावस्था को पहुँच गया। और शास्त्रों की बात का तो कहना ही क्या है, संस्कृत साहित्य में चौर-शास्त्र तक विद्यमान है। भास और शूद्रक ने अपने ग्रन्थों में उसका उल्लेख किया है। चौर-शास्त्र पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी मिला है। उसका लेखक भी चौर ही था। उसने उसमें चौर कर्म का अच्छा वर्णन किया है। यह ग्रंथ ताड़-पत्र पर लिखा हुआ है। इसी तरह बाज पक्षी आदि पालने पर भी एक पुस्तक मिली है। इन पक्षियों की भिन्न-भिन्न जातियों, उनके पालन पोषण के नियमों तथा उनके उपयोगों का उसमें वर्णन है। [ ३८ ]

इस विवेचना से सिद्ध है कि संस्कृत साहित्य कितने ही आश्चर्यों से भरा हुआ है। उसके विस्तार, उसकी प्राचीनता, उसकी पुष्टि बहुत ही कुतूहल जनक है। ऐसे साहित्य का अध्ययन करने वालों के मन पर क्या कुछ भी असर नहीं पड़ सकता? जरूर पड़ सकता है। वह अध्ययनकर्त्ता के शील-स्वभाव को एकदम बदल सकता है। बुद्धि सम्बन्धिनी शिक्षा प्राप्त करने में इस साहित्य के अध्ययन से बढ़ कर अन्य साधन नहीं। खेद है, ऐसे उपयोगी, ऐसे परिपूर्ण, ऐसे प्रभावशाली साहित्य का बहुत ही कम सम्मान आजतक लोगों ने किया है। पर, अब, हम इसकी महत्ता समझने लगे हैं। इससे बहुत कुछ सन्तोष होता है।

[अप्रैल, १९१६