साहित्य सीकर/६—योरप के विद्वानों के संस्कृत-लेख और देवनागरी लिपि

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६—योरप में विद्वानों के संस्कृत-लेख और देव-नागरी-लिपि

हिन्दुस्तान में हजारों लोग ऐसे हैं जिन्होंने अंगरेजी जैसी क्लिष्ट और विदेशी भाषा में बड़े-बड़े गहन ग्रन्थ लिखे हैं, जो अंगरेजी के प्रतिष्ठित पत्रों और सामयिक पुस्तकों का बड़ी ही योग्यता से सम्पादन करते हैं, जो अंगरेजी में धारा प्रवाह वक्तृता देते हैं और जिन्हें अंगरेजी भाषा मातृ भाषा ही सी हो रही है। कितने ही भारतवासियों की लिखी हुई अंगरेज़ी पुस्तकें विलायत तक के पुस्तक प्रकाशक बड़े ही आग्रह और उत्साह से प्रकाशित करते हैं और लेखकों को हज़ारों रुपया पुरस्कार भी देते हैं। इस देश के कितने ही वक्ताओं की मनोमोहनी और अविश्रान्त वाग्धारा के प्रवाह ठेठ विलायत की भूमि पर भी सैकड़ों-हज़ारों दफे बहे हैं और अब भी, समय समय पर, बहा करते हैं। हम लोगों की अंगरेज़ी को "बाबू इंगलिश" कह कर घृणा प्रकाशित करने वालों की आँखों के सामने ही ये सब दृश्य हुआ करते हैं। परन्तु आज तक इंगलिस्तान वालों में से ऐसे कितने विद्वान् हुये हैं जिन्होंने हमारी हिन्दी या संस्कृत भाषा में पुस्तकें लिखी हों, अथवा इन भाषाओं में कभी वैसी वक्तृता दी हो जैसी कि बाबू सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी या पंडित मदन-मोहन मालवीय देते हैं। ढूँढने से शायद दो ही चार विद्वान ऐसे मिले होंगे। विलायत वाले चाहे संस्कृत में कितने ही व्युत्पन्न क्यों न हों [ ५५ ]जाँय, पर, यदि उसके विषय में भी कुछ कहेंगे तो अपनी ही भाषा में, लिखेंगे तो अपनी ही भाषा में, व्याख्यान देंगे तो भी अपनी ही भाषा में। संस्कृत पढ़कर ये लोग अधिकतर भाषा विज्ञान और संस्कृत शास्त्रों के सम्बन्ध ही में लेख और पुस्तकें लिखते हैं। कोई प्राचीन पुस्तकों के अनुवाद करते हैं, कोई वैदिक-साहित्य-सागर में गोता लगा कर नये नये तत्वरत्न ढूँढ निकालते हैं; कोई साहित्य की अन्य शाखाओं का अध्ययन करके उसकी तुलनामूलक समालोचना करते हैं। परंतु यह सब वे अपनी ही मातृभाषा में करते हैं। उन्हें संस्कृत साहित्य से सम्बन्ध रखनेवाली बातें संस्कृत ही में लिखने की आवश्यकता भी नहीं। संस्कृत में लिखने से कितने आदमी उनके लेख और पुस्तकें पढ़ सकें? बहुत ही कम। और जो पढ़ भी सके उनमें से भी बहुत ही कम भारतवासी पंडित ऐसी पुस्तकें मोल ले सकें। शायद इसी से योरप के संस्कृतज्ञ संस्कृत भाषा और देवनागरी-लिपि में अपने विचार प्रकट करने का अभ्यास नहीं करते। अतएव यदि कोई यह कहे कि उनमें संस्कृत लिखने का माद्दा ही नहीं तो उसकी यह बात न मानी जायगी। अभ्यास से क्या नहीं हो सकता? योरपवाले सैकड़ों काम ऐसे करते हैं जिन्हें देखकर अथवा जिनका वर्णन पढ़कर हम लोगों को अपार आश्चर्य है। अतएव अभ्यास करने से अच्छी संस्कृत लिख लेना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं। वह उनके लिये सर्वथा साध्य है। जो लोग भारत आते हैं और यहाँ कुछ समय तक रहते हैं उनके लिए तो यह बात और भी सहल है।

इस पर भी कई विद्वान् योरप में ऐसे हो गये हैं, और अब भी कई मौजूद हैं, जिनकी लिखी संस्कृत-भाषा देखकर मालूम होता है कि वह उन्हें करतलगत आमलकवत् हो रही है। डाक्टर बूलर और पिटर्स बिना रुके संस्कृत में बातचीत कर सकते थे। कुछ समय हुआ, रूस के एक विद्वान् भारत आये थे वे भी अच्छी संस्कृत बोल लेते थे। [ ५६ ]विदेशियों की संस्कृत बोली में यदि कोई विलक्षणता होती है तो उस उच्चारण सम्बन्धिनी है। परन्तु इस प्रकार की विलक्षणता स्वाभाविक है। हम लोगों की अँगरेजी भी तो विलक्षणता से खाली नहीं।

कोई साठ वर्ष हुए जेम्स राबर्ट बालेंटाइन नामक एक विद्वान्, बनारस के गवर्नमेंट कालेज में, प्रधान अध्यापक थे, वे संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। अरबी फारसी में भी उनकी गति थी! संस्कृत वे बोल भी सकते थे और लिख भी सकते। संस्कृत-भाषा और देवनागिरी लिपि के बड़े भारी पक्षपाती थे। वे चाहते थे कि अंगरेजी में जो ज्ञान-समूह है उससे भारतवासी लाभ उठावें और संस्कृत में जो कुछ ज्ञेय है उससे अंगरेजी जाननेवाले लाभ उठावें। इसी से उन्होंने बनारस-कालेज के संस्कृत-विभाग में पढ़नेवालों को अंगरेजी भाषा सीखने का भी प्रबन्ध किया था। अपनी उद्देश्य सिद्धि के लिए उन्होंने गवर्नमेंट की आज्ञा से, कुछ उपयोगी पुस्तकें भी प्रकाशित की थीं। उनमें से एक पुस्तक का नाम है—Synopsis of Science उसमें योरप और भारत के शास्त्रों का सारांश अङ्गरेज़ी और संस्कृत-भाषाओं में है। बालेंटाइन साहब की यह पुस्तक देखने लायक है। इस पुस्तक को छपे और प्रकाशित हुये पचास वर्ष से अधिक समय हुआ। इसका दूसरा संस्करण जो हमारे सामने है, मिर्जापुर के आर्फन-स्कूल-प्रेस का छपा हुआ है। न्याय, सांख्य, वेदांत, ज्यामिति, रेखागणित, बीजगणित, प्राणिशास्त्र, रसायनशास्त्र, समाजशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, कीटपतङ्गशास्त्र, भूगोल विद्या, भूस्तरविद्या, राजनीति-विज्ञान, यहाँ तक कि सम्पत्ति-शास्त्र तक के सिद्धान्तों का इसमें वर्णन है। पुस्तक दो भागों में विभक्त है। प्रथमार्द्ध में पूर्वोक्त शास्त्रों का सारांश, अंगरेज़ी में दिया गया है, और उत्तरार्द्ध में संस्कृत में। गौतमीय न्यायशास्त्र के आधार पर साध्य की सिद्धि की गई है [ ५७ ]योरप और भारत के शास्त्रीय सिद्धांतों में जहाँ-जहाँ विरोध है वहाँ-वहाँ योग्यतापूर्वक वह विरोध स्पष्ट करके दिखलाया गया है। परन्तु किसी के मत सिद्धान्त या विवेचन पर कटाक्ष नहीं किया गया। एक उदाहरण लीजिये। गौतम-सूत्रों के आधार पर बालेंटाइन साहब ने एक जगह अपवर्ग, अर्थात् मोक्ष की व्याख्या करके यह लिखा—

"पुनर्दुंःखोत्पत्तिर्यथा न स्यात् विमोक्षो विध्वंसः तथा च पुनर्दुंखोत्पत्तिप्रतिबन्धको दुखध्वंसः परमपुरुषार्थस्तत्वज्ञानेन प्राप्तव्य इति गौतममतम।"

इसके आगे ही आपने अपने, अर्थात् योरप के तत्वज्ञानियों के मत का इस प्रकार निदर्शन किया—

"अस्मन्मतं तु नैवंविधदुःखध्वसमात्र परमपुरुषार्थः। तस्याभावरूपतया तुच्छत्वेन स्वतो मनोहरत्वाभावात्। किन्तु परमपुरुषार्थे दुःखध्वसादन्यत् किमपि स्पृहणीयमस्ति। यद्वा तद्वा तदस्तु, तत् सर्वथा सर्वज्ञस्य परमदयालोः परमेश्वरस्यैव प्रसादेन तद्‌भक्तैः प्राप्यमस्तीति।"

इसी तरह बराबर आप, जहाँ जहाँ आवश्यकता थी, अपना मत देते गये हैं। पर कहीं भी अनुचित आक्षेप किसी धर्म, मत या सिद्धान्त पर नहीं किया।

बालेंटाइन साहब की पूर्वोक्त पुस्तक के आरम्भ में जो उपोद्घात, अँगरेज़ी में है उसमें आपने कितनी ही ज्ञातव्य बात का समावेश किया है। उसमें आपके उदारतापूर्ण विचारों की बड़ी ही भरमार है। आपने तत्वज्ञान को सब ज्ञानों से श्रेष्ठ समझ कर पहले उसी का विचार किया है। पुस्तक के उत्तरार्द्ध के आरम्भ में आपकी लिखी हुई एक छोटी सी भूमिका, संस्कृत में भी है। उससे भी आपके हृदय के औदार्य्य का सोता सा बह रहा है। उसका कुछ अंश हम नीचे उद्धृत करते हैं— [ ५८ ]

"सुनिपुणनांम बुद्धिमतांमविचारे परस्परविरोधः केवलं दुःखहेतुः। वादिप्रतिवाद्यभिमतार्थत्याभेदेऽपि यदि तयोर्भाषाभेदमात्रेण भेदावभासः तहि सोऽपि तथैव। अन्योन्यमतपरीक्षणात्पूर्व परस्परनिन्दादिकं निष्फलत्वादनुचितम्। अपि च यत्र केवलं विवदमानतोर्द्वयोरपि भ्रान्तिमूलकविवाददूरी करणार्थः प्रयत्नो महाफलत्वात्प्रशस्यस्तत्र भूखंडद्वयनिवासियाबद्‌व्यक्तीनां परस्परं विवाददूरीकरणार्थप्रयत्ना प्रशंसायोग्य इति किं वक्तव्यम्। एतादृशप्रयत्नकारी पुरुषः संपूर्णफलप्राप्तावपि न निन्द्यः। भारतवर्षीयार्यजनाना प्राचीनमतग्रन्थपरपालन तत्प्रेम च ऐषां महास्तुतिकारणम्। एवं प्रतिदिनं वर्द्धमानस्वमतग्रंथाभ्यासजनितसततज्ञान वृद्धया सन्तुष्यन्तो यूरोपीयलोका अपि न निन्द्याः। यदि कश्चिद् यूरोपीयजनोभारतवर्षीयार्योक्तं वास्तवमपि तदीयव्यवहार तन्मत तत्त्वश्च तथाथतोऽविज्ञाय निन्देत्तदनुचितमेव। एवं यदि भारतीयजनो यूरोपीयमतमविज्ञाय निन्देत्तदपि तथैव। एवं चान्यतर भ्रान्तिजनितमतविरोधप्रयुक्तदुःखस्य हेयतथा तद्‌दूरीकरणायावश्यं कश्चिदुपयोचितमतस्वीकारे सतिसत्फलसम्भवोऽअनीप्सितदुष्टकलसम्भवश्च। अतो विचारिणोर्द्वयोरेकविषये मतभेदे सदसन्निर्णयाय वादः समुचितः। परन्तु यावत्सम्यक् प्रकारेख मतभेदो नावधृतस्तावद्वादोऽपि न समीचीनः। प्रथमता मतयोर्यथासम्भवं साम्य निर्णीय तदुत्तरं भेदनिर्णयः कर्तव्यो येन मतैक्य विवादो न भवेत्।"

इसीलिये आपने वह उभयभाषात्मक न्याय कौमुदी नामक शास्त्रसंग्रह ग्रन्थ लिखकर प्रकाशित किया। आपकी पुस्तक के इस अवतरण में कितनी ही बातें ऐसी हैं जिनसे हम लोगों को बहुत कुछ शिक्षा और उपदेश की प्राप्ति हो सकती है। इस इतने बड़े अवतरण देने का मतलब [ ५९ ]यह है कि पाठक बालेंटाइन साहब के उस उद्देश को भी समझ जायँ जिससे प्रेरित होकर उन्होंने यह ग्रन्थ लिखा और साथ ही उनकी संस्कृतज्ञता का अन्दाजा भी उन्हें हो जाय। आपकी संस्कृत बड़ी ही सरल और सुबोध है। पुस्तक भर में आपने इसी तरह की प्राञ्जल भाषा लिखी है। आपको संस्कृत में पद्य-रचना का भी अभ्यास था। पाठक कह सकते हैं कि, सम्भव है, उन्होंने इस पुस्तक को किसी बनारसी पण्डित की सहायता से लिखा हो। ऐसी शङ्का के लिये जगह अवश्य है। काशी में, विशेष करके कालेज में, पण्डितों के बीच रह कर उन्होंने पण्डितों से सहायता ली हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। परन्तु बालेंटाइन साहब की संस्कृत पण्डितों की जैसी लच्छेदार संस्कृत नहीं। वह इतनी सरल और स्वाभाविक है कि प्रकाण्ड पाण्डित्य की गन्ध उससे जरा भी नहीं आती। वह पुकार पुकार कर कह रही है कि मैं काशी के पण्डितों की करामात नहीं। इस भीतरी साध्य के सिवा हमारे पास पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र का भी साक्ष्य है। वे बालेंटाइन साहब के समय ही में बनारस-कालेज में थे और बालेंटाइन साहब ही की सूचना के अनुसार लघुकौमुदी का अनुवाद उन्होंने हिन्दी में किया था। इस प्रबन्ध के लेखक ने उनके मुख से सुना था कि बालेंटाइन साहब अच्छे संस्कृतज्ञ ही न थे, किन्तु अच्छे संस्कृत-वक्ता और अच्छे संस्कृत लेखक भी थे।

१८४४ ईसवी में जे॰ म्यूर साहब बनारस-कालेज के प्रधानाध्यापक थे। वे भी संस्कृत में अच्छी योग्यता रखते थे। यह बात उनके एक ग्रन्थ से प्रमाणित है। यह ग्रन्थ बड़ी बड़ी पाँच जिल्दों में है। इसका नाम है—"Original Sanskrit Texts on the Origin and History of the People of India, their Religion and Institutions." इसके सिवा बालेंटाइन साहब ने भी [ ६० ]म्यूर साहब की संस्कृतज्ञता और योग्यता की गवाही दी है। अपनी न्याय कौमुदी की अँगरेजी-भूमिका में उन्होंने लिखा है—

"Mr. Muir delivered lectures, in Sanskrit. on Morai and intellectual philosophy, and the sentiments which he then inclucated have often, since that time furnished topics for discussion in the College"

म्यूर साहब जब संस्कृत में लेकचर दे सकते थे तब वे अवश्य ही अच्छी तरह संस्कृत बोल लेते रहे होंगे। यह उनकी संस्कृतज्ञता और सम्भाषणशक्ति का प्रमाण हुआ। यह बात तो डाक्टर टीवो और वीनिस साहब आदि संस्कृत विद्वानों में पाई जाती है। म्यूर साहब में एक और विशेषता थी। वे संस्कृत लिखते भी थे। गद्य ही नहीं, पद्य भी। उनकी लिखी हुई मत परीक्षा नामक एक बहुत बड़ी पुस्तक संस्कृत पद्य में हैं। उससे दो चार श्लोक हम नीचे उद्धृत करते हैं—

यः पूर्वभूतवृत्तान्तः पारम्पर्येण लभ्यते।
स जातुः प्रत्ययाहोऽस्ति जातु नास्तीति बुध्यते॥
वृत्तान्तः कश्चिदेको हि सप्रमाणः प्रतीयते!
प्रमाणवर्जितोऽन्यस्तु प्रतितभाति परीक्षणात्॥
अतोऽमुका पुरावृत्तकथा विश्वासमर्हति।
न वेत्वतदिवेकाय तद्विशेपो विचार्यताम॥
असो कया कद्वा कुत्र कस्थ वक्त्रादजायत।
श्रोतारश्चादिमास्तस्याः कीदृशाः कति चाभवन्॥

इन पद्यों की रचना कह रही है कि ये म्यूर साहब ही के लिखे हुये। अतएव इसमें सन्देह नहीं कि वे संस्कृत बोल भी सकते थे और लिख भी सकते थे। [ ६१ ]

The Light of Asia, India Poetry, Secret of Death आदि पुस्तकों के लेखक सर एडविन आर्नल्ड का नाम पाठकों में से बहुतों ने सुना होगा। आपकी भी गिनती संस्कृतज्ञों में है। १८९६ में आपने चौरपञ्चाशिका का पद्यात्मक-अनुवाद अंगरेज़ी में करके मूल-सहित उसे प्रकाशित किया परन्तु टाइप में नहीं, लीथो में। प्रत्येक पृष्ठ को अपने ही हाथ से खींचे गये चित्रों से भी अलंकृत किया। ऐसा करने में किसी किसी पद्य के भाव को आपने चित्र में भी अलंकृत कर दिया। आपकी लिखी हुई चौरपञ्चाशिका की कापी लीथो में छपी हुई हमने खुद देखी और पढ़ी है। आपके नकल किये हुए पद्यों में से कई त्रुटियाँ हैं। परन्तु वे क्षम्य हैं।

फ्रेडरिक विनकाट, भट्ट मोक्षमूलर और अध्यापक मुग्धानलाचार्य की नागरी-लिपि के नमूने तो "सरस्वती" में निकल ही चुके हैं। डाक्टर ग्रियर्सन भी अच्छी देवनागरी लिपि लिख सकते हैं। उनसे और इन पक्तियों के लेखक से, एक दफे कविता की भाषा के संबंध में पत्र-व्यवहार हुआ। इस विषय में आपने अपने हाथ से बाबू हरिश्चन्द्र की सर्वश्रुति सम्मति लिख भेजी—"भाव अनूठी चाहिये, भाषा कोऊ होय"।

आपकी भी वही राय है जो बाबू हरिश्चन्द्र की थी। डाक्टर साहब अनेक पूर्वी भाषाओं और बोलियों के ज्ञाता है। हिन्दी भी आप बहुत अच्छी जानते हैं; परन्तु लिखते नहीं। हमारी प्रार्थना करने पर भी आपने हिन्दी में लेख लिखने की कृपा न की। कुछ भी हो, देवनागरी आप सफाई और शुद्धता के साथ लिख सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं।

आर॰ पी॰ ड्यू हर्स्ट साहब इन प्रान्तों में सिविलियन हैं। कुछ समय पहले आप रायबरेली में डेपुटी कमिश्नर थे। आप हिन्दी, उर्दू और फारसी के अच्छे पण्डित हैं। शायद आप अरबी भी जानते हैं। [ ६२ ]बड़े विद्वान्, बड़े विद्याव्यसनी और बड़े पुरातत्वप्रेमी हैं। आपके लेख एशियाटिक सोसाइटी आदि के जर्नलों से निकला करते हैं। आपकी देगनागरी लिपि बड़ी सुन्दर और स्पष्ट होती है। शुद्ध भी होती है। मार्च १९०७ में इस लेखक के पत्र के उत्तर में आपने कृपा करके एक पत्र लिख था! उसके लिफाफे पर अंगरेज़ी के सिवा देवनागरी में भी पता लिखने की आपने कृपा की थी।

जो कुछ यहाँ तक लिखा गया, उससे सिद्ध हुआ कि योरप के विद्वान् यदि अभ्यास करें तो पूर्वी देशों की भाषायें और लिपियाँ उसी तरह लिख सकें जिस तरह की भारतवासी अँगरेज़ी भाषा और रोमन लिपि लिख सकते हैं।

[अगस्त, १९१२