स्वदेश/देसी रजवाड़े

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देसी रजवाड़े।

देश और विदेश के सभी लोग कहते हैं कि भारतवर्ष के देसी राज्य पिछड़े जाते हैं। इस बात को सभी स्वीकार करेंगे कि जगत् की उन्नतिकी दौड़ में पिछड़ जाना अच्छा नहीं; किन्तु उसके साथ ही यह बात विचारणीय है कि आगे बढ़ने के सभी उपाय समान रूपसे उपकारी नहीं हैं। अपनी शक्तिके द्वारा अग्रसर होना ही यथार्थ आगे बढ़ना है––उसमें यदि धीमी गति हो तो वह भी अच्छा है। दूसरे आदमीकी गोद में या पीठ पर चढ़कर आगे बढ़ने में कोई गौरव नहीं है––क्यों कि चलने की शक्ति पाना ही यथार्थ लाभ है; केवल किसी तरह आगे बढ़ने में ही कोई फायदा नहीं। यह सच है कि हम ब्रिटिश-राज्य में आगे बढ़े हैं; परन्तु उसमें हमारी खूबी कितनी है! उसके शासनकी और रक्षा की विधिव्यवस्था, अर्थात् राज्यप्रबन्ध, कितना ही अच्छा क्यों न हो, पर वह वास्तव में हमारा नहीं है। हमको स्मरण रखना चाहिए कि भूलचूक हानि कष्ट आदि के बीच होकर ही मनुष्य पूर्णताके मार्ग में आगे बढ़ता है। परन्तु ब्रिटिश-राज्यको इतना धैर्य नहीं है कि वह हमको भूल करने दे। इसी कारण वे लोग हमको भिक्षा दे सकते हैं, शिक्षा नहीं दे सकते। उन लोगोंका जो अपना है उसके उपयोग का सुभीता वे हमें दे सकते हैं, परन्तु उसका स्वत्वाधिकार नहीं दे सकते। मान लो कि कलकत्ता-म्युनिसिपालिटीके पहलेके कमि[ ११४ ]

शनर लोग नगर-सम्बन्धी कार्यों में स्वाधीनता पाकर उसके संपादन में यथेष्ट योग्यता नहीं दिखा सके, इसी अपराध से अधीर होकर सरकार ने उनकी वह स्वाधीनता छीन ली। संभव है कि इस समय कलकत्ते का नगर-सम्बन्धी कार्य पहले की अपेक्षा अच्छी तरह चलता हो; किन्तु मैं यह नहीं कह सकता कि यों "अच्छी तरह चलना" ही सबसे अच्छा है। मेरी समझमें तो यदि हमारी अपनी शक्ति से अबकी अपेक्षा खराब काम चले, तो भी वही हमारे लिए अच्छा होगा। हम लोग गरीब हैं और बहुत सी बातों में, इसी कारण, असमर्थ या नालायक हैं। हमारे देश के विश्वविद्यालयों का शिक्षा-कार्य्य धनी और ज्ञानी विलायती विश्वविद्यालयो से तुलना करने योग्य नहीं; इस कारण यदि राजा यहाँके शिक्षाविभाग में देसी लोगों के अधिकार घटाकर अपने जोर से केम्ब्रिज और आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की नकली प्रतिमा गढ़कर खड़ी कर दे तो उससे हमारा क्या उपकार होगा? हम लोग यदि गरीबके लायक अपना एक विद्यालय आप स्थापित कर सकें तो वही हमारी सम्पत्ति होगा। जो 'अच्छा' हमारे हाथमें नहीं है उसे अपना समझना ही मनुष्य के लिए भारी आफत है। कुछ दिन हुए, एक बंगाली डिपुटी मजिस्ट्रेट देसी रजवाड़ों के शासन-प्रबन्ध की बड़ी निन्दा कर रहे थे। उस समय मुझे स्पष्ट देख पड़ा कि वह समझते हैं कि ब्रिटिश राज्य-शासनकी सारी सुव्यवस्था मानों सब उन्हीं की की हुई व्यवस्था है। यदि वे यह समझते कि मैं तो एक साधारण बोझा ढोनेवाला कुली हूँ; मैं यन्त्र चलाने वाला नहीं, बल्कि उस यन्त्र-समूह का एक छोटा सा अङ्ग हूँ, तो कभी इस तरह शेखीके साथ देसी रजवाड़ों के प्रबन्ध की निन्दा न कर सकते। इस सत्य को ठीक तरह समझ लेना हमारे लिए कठिन हो गया है कि ब्रिटिश-राज्य में हमको [ ११५ ]

जो मिलता है वह हमारा नहीं है। इसी कारण हमलोग राजा से नित नये अधिकारो की लगातार प्रार्थना करते हैं। यह हम भूल जाते हैं कि अधिकार पाना और अधिकारी होना एक ही बात नहीं है।

देसी रजवाड़ों के शासन में भूलचूक और उनकी धीमी चाल होने पर भी उसमें सन्तोष की बात यही है कि उससे जो लाभ होता है वह वास्तव में हमारा निज का लाभ है। वह दूसरे के कन्धे पर चढ़कर चलने का लाभ नहीं, अपने पैरों चलने का लाभ है। इसी कारण भुझसे अपने बंगाल के इस छोटे से त्रिपुरा (टिपरा) राज्य पर उत्सुक दृष्टि डाले बिना नहीं रहा जाता। यही कारण है कि यहाँ की राज्य व्यवस्था में मुझे जब कोई कमी या विघ्न-बाधा देख पड़ती है तब उसे मैं सारे बंगाल-का अभाग्य समझता हूँ। इसीसे त्रिपुरा के राज्यशासन में यदि कोई असम्पूर्णता या प्रबन्धमे त्रुटि देखता हूँ तो शेखी के साथ उसकी आलोचना करनेको जी नहीं चाहता; मेरा सिर नीचा होजाता है। इसी कारण, यदि मुझे मालूम होता है कि तुच्छ स्वार्थपरता (खुदगरजी) अपने साधारण लाभके लिए––वर्तमान जरासी सुविधा के लिए, राज-लक्ष्मी के मन्दिर की नींव हिला देने में भी नहीं हिचकती, तब उस अपराध को एक छोटेसे राज्य को साधारण घटनामात्र मानकर मुझसे निश्चिन्त नहीं रहा जाता। इन देसी रजवाड़ों की लाजक्षको ही यदि हम अपना यथार्थ गौरव नहीं समझते तो देश के सम्बन्ध में हमने कुछ भी नहीं जाना।

पहले ही कहा जा चुका है कि भारतकी प्रकृति को शक्ति के द्वारा सबल बना ले सकने पर ही हम सच्ची उन्नति प्राप्त करनेकी आशा कर सकेंगे। ब्रिटिश-सरकार, इच्छा करने पर भी, इस विषयमें हम लोगों-की सहायता नहीं कर सकती। इसका कारण यह है कि ब्रिटिश जाति [ ११६ ]

अपनी महिमा को ही केवल महिमा समझती है। इसीसे वे लोग अच्छे मन से भी जो शिक्षा हमको देते हैं उस शिक्षा को पाकर हम अपने देश-पर घृणा करना सीखते हैं। हम लोगों में जो लोग पेट्रियट या देश-हितैषी के नाम से प्रसिद्ध हैं उनमें से कितने ही महाशय इस घृणा करनेवाली मण्डली के मुखिया हैं। इस प्रकार जो लोग सच्चे भारत का हृदय से अनादर करते हैं वे ही भारत को विलायत बनाने के लिए छटपटा रहे हैं। सौभाग्य की बात यही है कि उनकी यह असम्भव आशा सफल नहीं हो सकेगी।

हमारे देसी रजवाड़े पीछे पड़े रहें या चाहे जो हो, उन्हीं में हम अपने देश के यथार्थ रूप को देखना चाहते हैं। हम यही चाहते हैं कि विकार और अनुकरण की बीमारी उनमें न घुसने पावे। यह सच है कि ब्रिटिश सरकार हमारी उन्नति चाहती है; पर वह ब्रिटिश चाल से होनी चाहिए। ऐसी अवस्था में यह होता है कि कमल-पुष्प की उन्नति-प्रणाली से गुलाब की उन्नति की जाती है। किन्तु मैं यही चाहता हूँ कि ये देसी रजवाड़े, बाधा-रहित स्वाभाविक नियमसे देश की उन्नति के उपाय निश्चित करें।

इसका कारण यह नहीं कि हम भारतकी सभ्यताको ही सब सभ्य- ताओं से श्रेष्ठ समझते हैं। यूरोप की सभ्यता मनुष्यजाति को जो सम्पत्ति दे रही है उसके अमूल्य होने के बारे में सन्देह करना धृष्टता के सिवा और कुछ नहीं है।

अतएव मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि यूरोप की सभ्यता को, निकृष्ट मानकर, त्याग देना चाहिए। मेरा मतलब यह है कि वह हम लोगों के लिए अस्वाभाविक है; इसी से हमको अपने देश के आदर्श पर ध्यान देना-जी लगाना चाहिए। देसी और यूरोप के, दोनों आद[ ११७ ]

शोँकी तुलना करके बहस करने की मेरी इच्छा नहीं है; किन्तु यह तो कहना ही पड़ेगा कि दोनों आदर्श, स्वभावानुसार, मनुष्य जातिके लिए अत्यन्त आवश्यक हैं।

एक दिन यहाँके एक सज्जनने मुझसे पूछा था कि गवर्नमेन्ट-आर्ट- स्कूलकी गेलरीसे विलायती तसबीरोंका बिक जाना क्या आपकी समझमें अच्छा हुआ?

मैंने इसके उत्तरमें कहा था कि हाँ, अच्छा ही हुआ। इसका कारण यह नहीं कि विलायती चित्रकला अच्छी चीज नहीं है। बात यह है वह चित्रकला इतने कम दामोंमें हाथ नहीं लग सकती। हम अपने देशमें उस विलायती चित्रकलाका आदर्श कहाँ पावेंगे? यदि कोई विलायतवासी अँगरेज "हिलिमिलि पनिया चली" आदि दो-एक लखनऊकी ठुमरी सुनकर भारतकी सङ्गीत-विद्या में विज्ञता प्राप्त करना चाहे तो उसके बन्धुओं––इष्टमित्रों––का कर्तव्य है कि वे उसे मना करें। विलायती बाजारके कुछ सुलभ सस्ते कूड़ाकरकट, और उसके साथ ही दो एक अच्छे चित्र, आगे रखकर हम चित्रविद्याका यथार्थ आदर्श कैसे पावेंगे? इस उपायसे हम जो कुछ सीखते हैं वह कितना निकृष्ट है––यह भी ठीक ठीक समझनेका कोई उपाय हमारे देशमें नहीं है। जहाँ किसी चीजका कुछ सिर-पैर नहीं है, केवल कुछ इधर उधरके अस्तव्यस्त दृष्टान्त मात्र हैं, वहाँ उस चीजका पूर्ण परिचय पानेकी चेष्टा करना कोरी विडम्बना––अपनी हँसी कराना––है। यह अध-कचरी शिक्षा हमारी देखनेकी शक्तिको नष्ट कर देती है। फल यह होता है कि हम औरोंके देशकी अच्छाई तो सीख ही नहीं सकते, उलटे अपने देशकी अच्छाई देखने की शक्ति भी गवाँ बैठते हैं।

हम आर्ट-स्कूलमें भरती हुए हैं; किन्तु यह जानते ही नहीं कि हमारे देशमें शिल्प-कलाका आदर्श क्या है। यदि हम शिक्षाके द्वारा [ ११८ ]

इस आदर्श का परिचय पाते तो सचमुच एक शक्ति प्राप्त करने का सुभीता होता। क्योंकि यह शिल्पकला का आदर्श हमारे देश में ही है यदि एक बार हमारी आँखें खुल जातीं तो हम इस शिल्पकला के आदर्श को अपने सारे देश के बीच––थाली में, लोटे में, बटलोई, टोकरी में, डलिया में, मन्दिर में, मठ में, कपड़े में, गहने में, घर की दीवारों में––अनेक अङ्ग-प्रत्यङ्गों से पूर्ण एक समग्र मूर्ति के रूप में देख पाते; उसकी ओर अपने तत्पर चित्त को लगा सकते; अपने बापदादे की सम्पत्ति को पाकर उसे व्यवसाय की पूँजी बना सकते।

इसी कारण हमारे शिक्षा प्राप्त करने की अवस्था में विलायती चित्रों के शौक को जबरदस्ती जड़ से उखाड़ डालना अच्छा है। नहीं तो, अपने देश में क्या है––यह देखने की प्रवृत्ति ही न होगी; केवल अनादर की आँधी में अन्धे होकर हम अपने घर की सन्दूक में रक्खे हुए धनको भी गवौँ बैठेंगे।

मैंने देखा है कि जापान के एक सुप्रसिद्ध चित्रकलाकुशल विद्वान् इस देश के कीड़ोंके खाये हुए कई प्राचीन चित्र देखकर बहुत ही विस्मित और प्रसन्न हुए थे। वह यहाँसे एक चित्र-पट ले गये। जापान के अनेक कदरदानों ने उस चित्रको बहुत अधिक मूल्य देकर खरीदना चाहा; पर वह बेचनेको राजी नहीं हुए।

मैं यह भी देखता हूँ कि यूरोप के बहुतेरे चित्रकलारसिक विद्वान् हमारे देश की अनेक अप्रसिद्ध दूकानों और बाजारों में घूम फिर कर फटे मैले पुराने कागजों पर बने हुए चित्रोंको बहुमूल्य मालकी तरह बड़े यत्नसे खरीदकर ले जाते हैं। वे वही चित्र होते हैं जिनको देखकर हमारे आर्ट-स्कूल के विद्यार्थी नाक सिकोड़ा करते हैं। इसका कारण क्या है? इसका कारण यही है कि जिन्होंने ठीक रीतिसे कलाविद्याको [ ११९ ]

सीखा है वे विदेश के अपरिचित रीति से बने हुए चित्रों के सौन्दर्य को भी अच्छी तरह देख पाते हैं। उनमें एक प्रकार की शिल्पदृष्टि पैदा हो जाती ह। किन्तु जो लोग केवल नकल करके सीखते हैं उनको उस नकल के सिवा कुछ भी नहीं देख पड़ता।

हम यदि अपने देश की शिल्पकला को सम्पूर्ण रूप से, यथार्थ रूप से देखना सीखते तो हममें वही शिल्प-ज्ञान पैदा होता जिसकी सहायतासे शिल्प-सौन्दर्य के भव्य भवन के सब दरवाजे हमारे सामने खुल जाते। किन्तु विदेशी शिल्प की निपट अधकचरी शिक्षा में, जिसे हमने नहीं पाया उसको समझते हैं कि पा गये। फल यह होता है कि जो पराई तहबील में ही रह गया है उसको अपनी दौलत समझ कर हम घमण्ड में आजाते हैं।

'पिपर लोटी' यह कल्पित नाम देकर लेख लिखनेवाले प्रसिद्ध फरासीसी यात्री जब भारत में भ्रमण करने आये थे तब वे हमारे देशके राजभवना में विलायती सामान की भरमार देखकर बहुत ही खिन्न और हताश हुए थे। उन्होंने समझा था कि इस देश के बड़े-बड़े राजा-रजवाड़े भारी अशिक्षा और नासमझी के कारण ही विलायती सामान की बिलकुल घटिया और रद्दी चीजों से घर सजाकर उसी में अपना गौरव समझते हैं। सच बात तो यह है कि विलायती सामग्री को ठीक ठीक पहचानना और सीखना विलायत में ही सर्वथा सम्भव है। वहाँ शिल्प-कला में जान है। वहाँ के शिल्पी (कारीगर) नित्य नई तरकीबें निकाला करते हैं। वहाँ उनकी विचित्र शिल्प-पद्धतिका सिलसिलेवार इतिहास है। वहाँ के गुणी लोग उस इतिहास की हरएक पद्धति से देश-काल-पात्रका मिलान करना जानते हैं। और हम? हम उसमें से कुछ भी नहीं जानते; मूर्ख दूकानदार की सहायता से––अर्थात् उसके द्वारा–– [ १२० ]

बेसिर पैर का निकृष्ट विलायती सामान खरीद खरीदकर घरों में ढेर करते हैं और उसके बदले आँख मूँदकर रुपयों की थैलियाँ खाली करते जाते हैं। वह सामान कैसा है या क्या है, इस पर विचार करना हमारी शक्ति-के बाहर है।

भारत में जो ये निकृष्ट विलायती असबाब की दूकानें हैं इन्हें यदि लार्ड कर्जन महाशय जबरदस्ती बन्द कर जाते तो बहुत अच्छा होता। हम लोग फिर लाचार होकर अपने देश की चीजों को देखते और उनकी इज्जत करते। तब रुपये के बल से चीज खरीदने की चाल उठ-जाती; रुचिकी चर्चा होती। हम किसी रईस के घर जाकर वहाँ दूकान का परिचय न पाते; बल्कि मालिक-मकान के शिल्पज्ञान का परिचय पाते। और, यही हमारे लिए यथार्थ शिक्षा और यथार्थ लाभ होता। हम अपने भीतर और बाहर, अपने स्थापत्य (थवईगीरी) और भास्कर्य (नक्काशी) में, अपने घरकी दीवारों और बाजारों में स्वदेश को पाते।

दुर्भाग्यवश सभी देशों के नीचे दरजे के लोग अशिक्षित हुआ करते हैं। साधरण अँगरेजों को शिल्पसम्बन्धी अभिज्ञता नहीं है। इस कारण उनमें स्वदेशीभाव का अन्ध-संस्कार इतना प्रबल है कि वे उत्कृष्टता और निकृष्टता की विवेचना नहीं कर पाते। वे हमसे अपने ही अनुकरण की प्रत्याशा करते हैं। हमारी बैठक में अँगरेजी दूकानों का सामान देखने से ही वे खुश होते हैं––तभी वे समझते हैं कि हम लोग उनकी फरमाइश के माफिक बने हुए 'सभ्य-पदार्थ' हो रहे हैं। उन्हीं-की अशिक्षित रुचि के अनुसार हमारे देश का प्राचीन शिल्प-सौन्दर्य, आप हटकर, सस्ती और निकृष्ट नकलको जगह दे रहा है। इस देश के शिल्पी भी विदेशी रुपये के लालच में पड़कर अन्धे की तरह विदेशी रीति की अजीब नकल कर रहे हैं। [ १२१ ]

जैसे शिल्पके सम्बन्धमें हो रहा है वैसे ही और सब बातोंमें भी हम लोग विदेशी प्रणालीको ही एकमात्र प्रणाली समझते हैं। केवल बाहरी चीजों में ही नहीं, हम लोगों के मनमें, यहाँ तक कि हृदय में भी नकल का विषबीज घुस रहा है। देशके लिए इससे बढ़कर दूसरी विपत्ति हो ही नहीं सकती। इस महाविपत्तिसे छुटकारा पानेके लिए हम एक दृष्टिसे देसी रजवाड़ोंकी ही ओर ताक रहे हैं।

हम यह नहीं कहते कि विदेशी चीजोंको हम लेंगे ही नहीं। लेना तो जरूर ही होगा। किन्तु हम विदेशी चीजों को देसी ढंगसे लेंगे। दूसरे का अस्त्र खरीदनेमें हम अपना हाथ ही नहीं काट डालेंगे। एकलव्य की तरह धनुर्विद्याकी गुरुदक्षिणामें अपने दाहिने हाथका अँँगूठा नहीं दे देंगे। हमें यह याद रखना ही होगा कि अपनी प्रकृति, अर्थात् स्वभाव का उल्लंघन करनेसे दुर्बल हो जाना होता है। इसमें सन्देह नहीं कि शेर का भोजन बल बढ़ानेवाला होता है; मगर यदि कोई हाथी उसका लोभ करेगा तो वह अवश्य मरेगा। हमलोगों को लोभ में पड़कर प्रकृतिके विरुद्ध नहीं चलना चाहिए। किन्तु हम अपने धर्मकर्म में, रंगढगमें अर्थात् भाव-भेष-भोजन में नित्य वही करते चले जाते हैं। इसीसे हमारे जीवन-मरणकी समस्या दिनपर दिन जटिल होती जाती है। हम प्रकृतिके विरुद्ध चलकर कृतकार्य्य नहीं होते; उलटे बोझसे दबे जाते हैं। सच तो यह है कि जटिलता हमारे देशका स्वाभाविक धर्म नहीं है। सामानकी विरलता (कमी), अर्थात् जीवन-यात्राकी सरलता, ही हमारे देशकी अपनी सम्पत्ति है। इसीमें हमारा बल है; हमारा प्राण है; हमारी प्रतिभा है। यदि हम अपनी बैठकों से विलायती कारखानों का भारी जंजाल झाडूसे न बुहार फेकेंगे तो दोनों ही ओर से मरेंगे। अर्थात् विलायती कारखाने भी यहाँ नहीं चलेंगे, और बठकें भी हमारे बैठने या रहनेके लायक न रह जायँगी। [ १२२ ]

हमारे दुर्भाग्य के कारण इन विलायती कारखानों की धुआँ और धूल से भरी हुई गंदी हवा देसी रजवाड़ों में भी पहुँच गई है। उसने सहज रूप को अकारण जटिल बना दिया है। उसके कारण हमारा घर ही हमारे लिए विदेश बन रहा है। हमारे देशके जो महाशय अँगरेजों के हाथों आदमी बने हैं अर्थात् सभ्य हुए हैं, वे यह कभी सोच ही नहीं सकते कि अँगरेजों की चीज को लेना अगर आवश्यक ही हो तो उसे यदि हम अपने ढंग पर न लेंगे तो उससे भलाई के बदले बुराई ही होगी। अपने ढंग पर लेने या अपनाने का केवल यही एक उपाय है कि उसको अपनी प्रकृति के अनुकूल बना लेना––उसको ज्योंका त्यों न रखना। हमारा भोजन अगर जैसे का तैसा ही पेट में बना रह जाय तो उससे पुष्टि होना या बल बढ़ना तो दूर रहे, उलटे अजीर्ण रोग पैदा हो जाता है। भोजन, जब अपने असली रूपको, छोड़कर खून बनकर, हमारे शरीरमें मिल जाता है––और जो मिलने की चीज नहीं वह 'मल' होकर निकल जाती है तभी उससे हमारे प्राणों की रक्षा हो सकती है। इसी प्रकार, विलायती सामग्री भी जब हमारे हृदयसे मिल जाय तभी उससे हम लाभ उठा सकते हैं। जबतक उसमें तीव्र विदेशीपन बना रहेगा तबतक वह हमको लाभ न पहुँचाकर हमारी हानि ही करेगी।

किन्तु विलायती सरस्वती (अंगरेजी) के उपासक अथवा गोद- लिये लड़के इस बात को किसी तरह समझ ही नहीं सकते, पुष्टि की ओर उनकी दृष्टि नहीं है; वे लादनेको ही परमार्थ समझे बैठे हैं। यही कारण है कि हमारे देसी रजवाड़े भी विदेशी चालचलन और शौकीनी के असङ्गत और अनावश्यक भारी जंजाल के जाल में अकारण ही अपनी शक्ति को उलझा रहे हैं। विदेशी बोझ को यदि हम अना[ १२३ ]

यास ही, सहज में, ग्रहण कर सकते; यदि, वह हम को बोझ सा न दिखाई देता; रजवाड़े अगर एक तरह के आफिस-मात्र बन जाने की चेष्टा में हरदम सिरतोड़ प्रयत्न न करते; और, जिसका हमारे सजीव अन्तःकरण से सन्बन्ध था उसे अब कल के नल से जोड़ने की––हमतक पहुँचाने की––चेष्टा न होती; तो आपत्ति करने की कोई बात न थी।

हमारे रजवाड़े क्लर्को से चलनेवाले कम्पनियों के कारखाने नहीं हैं––भूल और विकार से रहित कल के एंजिन नहीं हैं––उनके प्रजा के साथ जो सम्बन्ध-सूत्र हैं वे लोहे की जंजीरें नहीं हैं, ये हृदय की रगें हैं––जब जब वे नसें सूखने लगती हैं तब तब राजलक्ष्मी रस सींचती है, कठिन को कोमल बनाती है, तुच्छ को सौन्दर्य से मढ़ देती है, देन लेनके मामले को कल्याणकी कान्ति से उज्जवल बना देती है और भूल-चूक को क्षमा के अश्रुजल से धो देती है––माफ कर देती है।

हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हमारा अभाग्य हमारे इन दे सी रजवाड़़ो को विदेशी आफिस के साँचे में ढालकर उन्हें एक मेशीन ना बना डाले। इन्हीं रजवाड़ों में हम लोग स्वदेशलक्ष्मी के स्तन्य-सिक्त स्निग्ध हृदय का सजीव और कोमल स्पर्श पा सकते हैं। हम चाहते हैं कि इन्हीं रजवाड़ों के भीतर देश की भाषा, देश का साहित्य, देशका शिल्प, देश की रुचि और कान्ति माता की गोद में आश्रय पावें और देश की शक्ति, मेघ-मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की तरह, अपने को, अत्यन्त सहज और अत्यन्त सुन्दर भाव से प्रकाशित कर सके।