हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/द्वितीय खंड/२- हिन्दी साहित्य का पूर्वरूप और आरंभिक काल

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(दूसरा प्रकरण)
हिन्दी साहित्य का पूर्व रूप और आरम्भिक काल

आविर्भाव-काल ही से किसी भाषा में साहित्य की रचना नहीं होने लगती। भाषा जब सर्वसाधारण में प्रचलित और शब्द सम्पत्ति सम्पन्न बन कर कुछ पुष्टता लाभ करती है तभी उसमें साहित्य का सृजन होता है। इस साहित्य का आदिम रूप प्रायः छोटे छोटे गीतों अथवा साधारण पद्यों के रूप में पहले प्रकटित होता है और यथा काल वही विकसित हो कर अपेक्षित विस्तार-लाभ करता है। हिन्दी भाषा के लिये भी यही बात कही जा सकती है। इतिहास बतलाता है कि उसमें आठवीं ईस्वी शताब्दी में साहित्य-रचना होने लगी थी। इस सूत्र से यदि उसका आविर्भाव-काल छठी या सातवीं शताब्दी मान लिया जाय तो मैं समझता हूं, असंगत न होगा। हमारा विषय साहित्य का विकास ही है इसलिये हम इस विचार में प्रवृत्त होते हैं कि जिस समय हिन्दी भाषा साहित्य रूपमें गृहीत हो रही थी उस समय की राजनैतिक धार्म्मिक और सामाजिक परिस्थिति क्या थी।

हमने ऊपर लिखा है हिन्दी-साहित्य का आविर्भाव-काल अष्टम शताब्दी का आरम्भ माना जाता है। इस समय हिन्दी साहित्य के विस्तार-क्षेत्र की राजनैतिक, धार्म्मिक एवं सामाजिक दशा समुन्नत नहीं थी। सातवें शतक के मध्यकाल में ही उत्तरीय भारत का प्रसिद्ध शक्तिशाली सम्राट हर्षवर्धन स्वर्गगामी हो गया था। और उसके साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने से देश की उस शक्ति का नाश हो गया था जिसने अनेक राजाओं और महाराजाओं को एकतासूत्र में बाँध रखा था। उस समय उत्तरीय भारत में एक प्रकार की अनियन्त्रित सत्ता राज्य कर रही थी और स्थान स्थान पर छोटे छोटे राजे अपनी अपनी क्षीण-क्षमता का बिस्तार कर रहे थे। यही नहीं, उनमें प्रतिदिन कलह की मात्रा बढ़ रही थी और वे लोग परस्पर एक दूसरे को द्वेष की दृष्टि से देखते थे। जिससे वह संगठन देश में नहीं [ १११ ]था जो उनको सुरक्षित और समुन्नत बनाने के लिये आवश्यक था। यह बात सर्वजन विदित है कि जहां छोटे मोटे राजे परस्पर लड़ते रहते हैं वहां की साधारण जनता न तो अपना शान्तिमय जीवन बिता सकती है और न वह विभूति लाभ कर सकती है जिसे पाकर प्रजा-वृन्द समुन्नति-सोपान पर आरोहण करता रहता है। राजनैतिक अवस्था जैसी दुर्दशा ग्रस्त थी धार्मिक अवस्था उससे भी अधिक संकटापन्न थी। इन दिनों बौद्ध-धर्म का अपने कदाचारों के कारण प्रतिदिन पतन हो रहा था और प्राचीन वैदिकधर्म उत्तरोत्तर बलशाली बन रहा था। इस कारण वैदिक धर्मावलम्बियों और बौद्धों में ऐसा संघर्ष हो रहा था जो देश के लिये बांछनीय नहीं कहा जा सकता।

जिस समय विशाल दो धार्मिक दलों में इस प्रकार द्वन्द्व चल रहा था उस समय उत्तरीय भारत की सामाजिक अवस्था कितनी दयनीय होगी, इसका अनुभव प्रत्येक विचार-शील सहज ही कर सकता है। सामाजिकता अधिकतर धार्म्मिक भावों और पारस्परिक सम्बन्ध सूत्रों, व्यवहारों, एवं रीति रवाजों पर निर्भर रहती है। जिस स्थान की धार्मिकता कलह जाल में पड़ कर प्रतिदिन उच्छृङ्खलित और आडम्बर-पूर्ण बनती रहती है। जहां का पारस्परिक सम्बन्ध, व्यवहार, अथच रीति-नीति कपटा-चरण का अवलम्बन करती है। वहाँ की समाजिकता कितनी विपन्न अवस्था को प्राप्त होगी, इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। भारतवर्ष का पतन उस समय से आज तक जिस प्रकार क्रमशः होता आता है, वही उसका प्रबल प्रमाण है।

जिस समय उत्तरीय भारत इस प्रकार विपत्तिग्रस्त था उस समय विजयोन्मत्त अरब निवासियों की विजय-वैजयन्ती ईरान में फहरा चुकी थी और वे क्रमशः भारत की ओर विभिन्न मार्गों से अग्रसर होने का पथ ढूंढ़ रहे थे। इस समय के बहुत पहले से अरब के व्यापारियों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध चला आता था और इस सूत्र से अरब के मुसल्मानों को स्वर्णप्रसू भारत वसुन्धरा का बहुत कुछ ज्ञान था। वे वाणिज्य [ ११२ ]विस्तार के लिये भारत के किसी सामुद्रिक प्रदेश में एक बन्दरगाह बनाना चाहते थे। इसलिये सिन्ध प्रदेश पर पहले पहल उनकी आंखें गड़ीं और ईस्वी नवीं शताब्दी में मुहम्मदबिन क़ासिम ने नाना प्रपञ्चों से उस पर अधिकार कर लिया। कहते बड़ी व्यथा होती है कि वैदिक-धर्मावलम्बियों और बौद्धों का पारस्परिक कलह ही मुसल्मानों के इस विजय का कारण हुआ। इस विषय में अरब के ग्रन्थकारों के आधार से मौलाना मुहम्मद सुलेमान नदवीने अपने व्याख्यान में जो कुछ कहा है उसके हिन्दी अनुवाद का कुछ अंश अरब और भारत के सम्बन्ध नामक पुस्तक से नीचे उद्‌धृत किया जाता है:—

"सिन्ध का सबसे पहला और पुराना इस्लामी इतिहास जो साधारणतः 'चचनामा' के नाम से प्रसिद्ध है (जिसके दूसरे नाम तारीख़ुलहिन्द वल्‌सन्द और मिनहाजुल ममालिक हैं) उसको देखने से भलीभांति यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस समय सिन्ध में बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच विरोध और शत्रुता चल रही थी। यह भी पता चलता है कि कुछ घरानों में ये दोनों धर्म इस प्रकार फैले हुये थे कि उनमें से एक हिन्दू था तो दूसरा बौद्ध। सिन्ध के राजाओं के विवरण पढ़कर इसी आधार पर मुझे यह निर्णय करना पड़ा है कि राजा चच हिन्दू ब्राह्मण थे। उसने लड़भिड़ कर छोटे छोटे बौद्ध राजाओं को या तो मिटा दिया था या उन्हें अपना करद बना लिया था। यह राजा ई॰ छठी शताब्दी के अन्त में सिन्ध का शासक था उसके बाद उसका भाई चन्द्र राजा हुआ। यह बौद्ध मत का कट्टर अनुयायी था। जिन लोगों ने पहले अपना धर्म छोड़ दिया था, उन्हें इसने बलपूर्वक बौद्ध बनाया था, यह देख हिन्दू ब्राह्मणों ने सिर उठाया, वह बिबश होकर लड़ने के लिये निकला, पर सफल नहीं हुआ। उसके बाद चच का लड़का दाहर उसके स्थान पर राजा हुआ।"

"ऐतिहासिक अनुमानों से यह जान पड़ता है कि जिस समय मुसलमान लोग सिन्ध की सीमा पर थे उस समय देश में इन दोनों धर्म्मों में भारी लड़ाई हो रही थी और बौद्ध लोग ब्राह्मणों का सामना करने में अपने [ ११३ ]आपको असमर्थ देखकर मुसल्मानों की ओर मेल और प्रेम का हाथ बढ़ा रहे थे। हम देखते हैं कि ठीक जिस समय मुहम्मदबिन क़ासिम की विजयी सेना नयरूँ नगर में पहुँचती है उस समय वहां के निवासियों ने अपने बौद्ध पुजारियों को उपस्थित किया था। उस समय पता चला था कि इन्होंने अपने विशेष दूत इराक़ के हज्जाज़ के पास भेजकर उससे अभय दान प्राप्त कर लिया था, इसलिये नयरूं के लोगों ने मुहम्मद का बहुत अच्छा स्वागत किया। उसके लिये रसद की व्यवस्था की, अपने नगर में उसका प्रवेश कराया और मेल के नियमों का पूरा पूरा पालन किया। इसके बाद जब इस्लामी सेना सिन्ध की नहर को पार करके सदउसान पहुँचती है तब फिर बौद्धलोग शान्ति के दूत बनते हैं। इसी प्रकार सेवस्तान में होता है कि बौद्धलोग अपने राजा विजयराम को छोड़कर प्रसन्नता-पूर्वक मुसल्मानों का साथ देते हैं और उनका मान हृदय से करते हैं।" ऐसा जान पड़ता है कि जब सिन्ध के बौद्धों ने एक ओर मुसल्मानों को और दूसरी ओर ब्राह्मणों को तौला तब उन्हें मुसल्मान अच्छे, जान पड़े। दूसरा कारण यह हो सकता है कि इससे पहले तुर्किस्तान और अफ़गानिस्तान के बौद्धों के साथ मुसल्मानों ने जो अच्छा व्यवहार किया था और उनमें से बहुत अधिक लोगों ने जिस शीघ्रता से इस्लामधर्म ग्रहण किया था उसका प्रभाव इस देश के बौद्धों पर भी पड़ा था।"

सिन्ध पर अधिकार होने के बाद अरब विजेताओं ने भारत के बिभिन्न प्रान्तों पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। इस कारण से उस समय भारत का कुछ उत्तरीय और दक्षिणी प्रान्त रणक्षेत्र बन गया और ऐसी अवस्था में आक्रमित प्रान्तों में युद्धोन्माद का आविर्भाव होना स्वाभाविक था। ये झगड़े नवीं और दशवीं शताब्दी में उत्तरोत्तर वृद्धि पाते रहे। इसीलिये हिन्दी साहित्य की अधिकांश आदिम रचनायें वीर-गाथाओं से ही सम्बन्ध रखती हैं। इन दोनों शताब्दियों में जितने साहित्य-ग्रन्थ रचे गये उनमें से अधिकतर में रण-भेरी-निनाद ही श्रवणगत होता है। खुमानरासो आदि इसके प्रमाण हैं। वीर गाथाओं का काल आगे भी बढ़ता है और तेरहवीं शताब्दी तक पहुंचता है। कारण इसका [ ११४ ]यह है कि विजयी मुसल्मानों की विजय-सीमा ज्यों ज्यों बढ़ती गई त्यों त्यों वे प्रबल होते गये और क्रमशः भारत के अनेक प्रदेश उनके अधिकार में आते गये, क्योंकि उस समय हिन्दू जाति असंगठित थी और उसमें कोई ऐसा शक्ति सम्पन्न सम्राट् नहीं था जो जाति-मात्र को केन्द्रीभूत कर दुर्दान्त यवन दल का दलन करता। इसलिये विजयोत्साही मुसल्मान विजेताओं और विजित भारतीयों का युद्ध क्रम लगातार चलता ही रहा और इसी आधार से वीर गाथाओं की रचना भी होती रही क्योंकि उस समय हिन्दू जाति की सुप्त-शक्ति को जागरित करने की आवश्यकता थी। मेरे इस कथन का यह भाव नहीं है कि नौ सौ से तेरहवीं शताब्दी तक साहित्य के दूसरे ग्रन्थ रचे ही नहीं गये वरन् मेरा कथन यह है कि इस काल के जितने प्रसिद्ध और मान्य काव्य-ग्रन्थ हैं, उनमें वीर-गाथामय ग्रन्थों ही की अधिकता और विशेषता है। हिन्दी साहित्य का पहला उल्लेखयोग्य ग्रन्थ खुमान रासो है जो नवें शतक में लिखा गया। इसके पहले का पुष्प कवि कृत एक अलंकार ग्रन्थ बतलाया जाता है जो आठवीं शताब्दी में रचा गया है। किन्तु उसका उल्लेख मात्र है, ग्रन्थ का पता अब तक नहीं चला। यह नहीं कहा जा सकता कि पुष्प का अलंकार ग्रन्थ किस रस में लिखा गया। कविराज भूषण के "शिवराज भूषण" ग्रन्थ के समान उसका ग्रन्थ भी केवल वीर रसात्मक हो सकता है। यदि यह अनुमान सत्य हो तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा के साहित्य का आरम्भ बीर रस से ही होता है, कारण वे ही हैं जिनका निर्देश मैंने ऊपर किया है। ब्रह्मभट्ट कबि का खुमान रासो, चन्द कबि कृत पृथ्वीराज रासो, जगनिक का आल्ह खंड, नरपति नाल्ह कृत बीसलदेव रासो और सारंगधर-कृत हम्मीर रासो नामक उल्लेखनीय ग्रन्थ भी इसके प्रमाण हैं।

आरम्भिककाल मैंने आठवीं शताब्दीसे तेरहवीं शताब्दी तक माना है। इन पांच सौ वर्षों में बीर-गाथा-कार कवियों और लेखकों के अतिरिक्त अन्य विषयों के ग्रन्थकार और रचयिता भी हुये हैं, अतएव मैं उन पर भी विचार करना चाहता हूं। जिससे यह निश्चित हो सके कि हिन्दी साहित्य की आरम्भिक रचनाओं के विषय में मेरा जो कथन है वह कहां तक युक्ति[ ११५ ]संगत है। मिश्र बन्धुओं का विवरण यह है[१]

दशवीं शताब्दी में भुआल कवि ने भगवद्‌ गीता का अनुवाद पद्य-बद्ध हिन्दी भाषा में किया। यह ग्रन्थ उपलब्ध है।

ग्यारहवीं शताब्दी में कालिंजर के राजा नन्द ने कुछ कवितायें की हैं, किन्तु पुस्तक अब अप्राप्य है।

बारहवीं शताब्दी में जैन श्वेताम्बराचार्य जिन वल्लभ सूरी ने "वृद्ध नवकार" नामक ग्रन्थ बनाया जो जैन हिन्दी साहित्य में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसी शताब्दी में महाराष्ट्र में चालुक्य वंशी सोमेश्वर नामक राजा, मसऊद कुतुब अली, साँईदान चारण और अकरम फ़ैज़ ने भी रचनायें कीं। इनमें से सोमेश्वर, मसऊद और कुतुब अली के ग्रन्थ नहीं मिलते। शेष लोगों में से साँईदानचारण ने "सामन्तसार” नामक ग्रन्थ की रचना की। और अकरम फ़ैज़ ने "वर्त्तमाल" नामक ग्रन्थ बनाया। एवं संस्कृत के वृत्तरत्नाकर नामक ग्रन्थ का अनुवाद किया॥

डाक्टर जी॰ ए॰ ग्रियर्सन ने भी इस काल के कुछ कवियों के नाम-लिखे हैं[२]। वे हैं केदार, कुमारपाल और अनन्यदास। (१) केदार कवि का समय सन् ११५० ई॰ के लगभग है। डाक्टर साहब ने इसके किसी ग्रन्थ का नाम नहीं लिखा किन्तु कहा जाता है कि इसने "जयचन्द-प्रकाश" नामक महाकाव्य की रचना की थी, जो अब नहीं मिलता। (२) कुमारपाल बारहवें शतक में हुआ इसने "कुमारपाल चरित्र" की रचना की, जो उपलब्ध है। (३) अनन्यदास बारहवीं शताब्दी में हुआ, इसका "अनन्य-जोग" नामक ग्रन्थ प्राप्य है।

पं॰ रामचन्द्र शुक्ल ने अपने "हिन्दी माहित्य का इतिहास" नामक ग्रंथ में एक नवीन कवि मधुकर का भी नाम बतलाया है जो बारहवीं शताब्दी में था। वे कहते हैं इसने "जय मयंक जस चन्द्रिका" नामक ग्रन्थ की रचना की' किन्तु वह ग्रन्थ प्राप्य नहीं है। [ ११६ ]

जिन ग्रन्थकारों का नाम ऊपर लिया गया, इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके किसी ग्रन्थ का नाम तक नहीं बतलाया गया, कुछ ऐसे हैं जिनके ग्रन्थों का नाम लिखा गया पर वे अप्राप्य हैं, जिन लोगों के ग्रन्थ मिलते हैं, जिनका नाम भी बतलाया गया, वे उस कोटि के कवि और ग्रन्थकार नहीं ज्ञात होते, जिनकी रचनाओं का विशेष स्थान होता है। भुआल कवि की भगवद्गीता ही को लीजिये। प्रथम तो वह अनुवाद है, दूसरे उसके अनुवाद की भाषा ऐसी है कि जिस पर दृष्टि रख कर पं॰ रामचन्द्र शुक्ल[३] उसे दशवीं शताब्दी का ग्रन्थ मानने को तैयार नहीं हैं। अन्य प्राप्य ग्रन्थों के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं; उनमें कोई ऐसा नहीं जो उल्लेखयोग्य हो अथवा जिसने ऐसी ख्याति लाभ की हो जैसी बीर-गाथा-सम्बन्धी ग्रन्थों को प्राप्त है। किम्बा जिनमें वे विशेषतायें हों जो किसी काव्य अथवा कृति को विद्वन्मण्डली में वा सुपठित जनता की दृष्टि में समादृत बनाती हो। इसलिये मेरा यह कथन ही युक्ति-संगत ज्ञात होता है कि हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल में बीर गाथा सम्बन्धी ग्रन्थों की ही प्रधानता रही और इन बातों पर दृष्टि रख कर डा॰ जी॰ ए॰ ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने जो आरम्भिक काल को बीर-गाथा-काल माना है वह असंगत नहीं। इन समस्त ग्रन्थों में 'खुमान रासो' ही ऐसा है जो सबसे प्राचीन और उपलब्ध ग्रन्थ है, उसमें वीररस की ही प्रधानता है, अतएव यह कौन नहीं स्वीकार करेगा कि हिन्दी साहित्य की आदि रचना वीर गाथा से ही प्रारम्भ होती है।

कहा जाता है कि खुमानरासो में सोलहवीं शताब्दी तक की रचनायें सम्मिलित हैं, जैसा कि ग्रियर्सन साहब के निम्न लिखित उद्धरण से सिद्ध होता है।[४] [ ११७ ]

"यह (खुमान रासो) मेवाड़ का अत्यन्त प्राचीन पद्य-बद्ध इतिहास है, नवीं शताब्दी में लिखा गया है। इसमें खुमान रावत और उनके परिवार का वर्णन है। महाराणा प्रताप के समय में (सन् १५७५) इसमें बहुत से परिवर्तन किये गये। वर्त्तमान रूप में इसमें अकबर के साथ प्रतापसिंह के युद्धों का वर्णन भी मिलता है। तेरहवीं शताब्दी में चित्तौड़ पर किये गये अलाउद्दीन ख़िलजी के आक्रमण का भी इसमें विस्तृत वर्णन है।"

परन्तु इस कथन का यह अर्थ नहीं है कि खुमान रासो की आदिम रचना की भाषा आदि भी बदल दी गई है। ग्रियर्सन साहब के लेख से इतना ही प्रकट होता है कि उसमें अलाउद्दीन ख़िलजी और अकबर के समय तक की कथायें भी सम्मिलित कर दी गई हैं। ऐसी अवस्था में न तो उसके आदिम रचना होने का महत्व नष्ट होता है और न उसकी भाषा को सन्दिग्ध कहा जा सकता है। जिस समय उसकी रचना हुई थी उस काल का वातावरण ही ऐसा था कि इस प्रकार के ग्रन्थों की सृष्टि होती। क्योंकि यह असम्भव था कि उत्तरोत्तर मुसल्मान पवित्र भारत वसुन्धरा के विभागों को अधिकृत करते जावें और जिन सहृदय हिन्दुओं में देशानुराग था वे अपने सजातियों को देश और जाति-रक्षा के लिये विविध रचनाओं द्वारा उत्तेजित और उत्साहित भी न करें। यह सत्य है कि भारतवर्ष की सार्वजनिक शक्ति किसी काल में मुसल्मानों का विरोध करने के लिये कटिबद्ध नहीं हुई और न समस्त हिन्दू जाति किसी काल में उनसे लोहा लेने के लिये केन्द्रीभूत हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि मुसल्मानों की विजय प्राप्ति में कम बाधायें नहीं उपस्थित की गईं और यह इस प्रकार की कृतियों और रचनाओं का ही अंशतः परिणाम था। जिस काल में हिन्दू जाति की संगठन शक्ति सब प्रकार छिन्न भिन्न थी उस समय बीरगाथा सम्बन्धी रचनाओं ने जो कुछ लाभ पहुंचाया उसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर मैं पहले कह आया हूं कि वे तात्कालिक वातावरण और संघर्षण से ही उत्पन्न हुई थीं। वास्तव बात यह है कि सामाजिक रुचियों और भावों ही [ ११८ ]का परिणाम किसी काल का साहित्य होता है। उनका बीररस प्रधान होना भी हमारे कथन की पुष्टि करता है।

अब मैं भाषा विकास सम्बन्धी विषय पर प्रकाश डालना चाहता हूँ, अतएव इसी कार्य में प्रवृत्त होता हूँ। भाषा-विकास के प्रकरण में मैं यह लिख आया हूँ कि अपभ्रंश भाषा से क्रमशः विकसित हो कर हिन्दी भाषा वर्त्तमान रूप में परिणत हुई। इस लिये पहले मैं कुछ ऐसे पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ जो अपभ्रंश भाषा के हैं। इन पद्यों की रचना प्रणाली और उनके शब्द-विन्यास का ज्ञान हो जाने पर आप लोग उस रीति से अभिज्ञ हो जावेंगे जिसको ग्रहण कर हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी भाषा को आधुनिक रूप दिया। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों को देखिये:—

१—बिट्टीए मइ भणिय तुहुं मा कुरु वङ्को दिट्ठी।
पुत्ति सकर्णी भल्लि जिवॅं मारइ हियइ पविट्ठि॥

बिट्टीए=बिटिया। मइ=मैंने। भणिय=कहा। तुहूं=तू। मा=मत। कुरु=कर। बङ्को=बाँकी। पुत्ति=पुत्री। सकर्णी=कानवाली, नुकीली। भल्लि=भाला। जिवॅं=जैसे। मारइ=मारती है। हियइ=हिये में। पविट्ठि=प्रविष्ट होकर, पैठ कर।

बेटी! मैंने कहा, तू बाँकी दृष्टि न कर, हे पुत्री! नुकीला भाला हृदय में पैठ कर मार देता है।

२—जे महुं दियणादियहड़ा दइये पबसन्तेण।
ताण गणन्तिय अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेण॥

जे=जो। महुं=हमको। दियण=दिया। दियहड़ा=दिवस। दइयें=दयित, प्यारा। पवसन्तेण=प्रवास में जाता हुआ। ताण=तिन्हें, तिनको। गणन्तिय=गिनती हुई। अंगुलिउ=अँगुली। जजरियाउ=जर्जरितहो गई। नहेण=नख से॥

प्रवास करते हुये प्यारे ने जो दिन मुझको दिये उनको उंगलियों पर गिनने से वे नखों से जर्जर हो गईं॥ [ ११९ ]

३—सायर उप्परि तणु धरइ तलि घल्लै रैणाइॅं।
सामि सुभुच्चुभि परिहरइ सम्माणे ख़ल्लाइॅं॥

सायर=सागर। उप्परि=ऊपर। तगु=तृण। धरइ=रखता है। तलि=नीचे। घल्लै=डालता है। रैणाइँ=रत्नों को। सामि=स्वामी। सुभुच्चुभि=सुन्दर भृत्य को। परिहरइ=त्यागता है। सम्माणे=सम्मान करता है। खलाइं=खलों को।

सागर ऊपर तृण धारण करता है और नीचे रत्नों को डाल देता है। इसी प्रकार स्वामी सुन्दर भृत्यों को छोड़ देता है और खलों का सम्मान करता है।

४—वायसु उड्डावन्तिए पिउ दिट्ठउ सहसत्ति।
अद्धा बलया महिहि गय अद्धा फुट्टु तड़त्ति॥

वायसु=कौवा। उड्डावन्तिए=उड़ाती हुई। पिउ=पति। दिट्ठउ=देखा। सहसत्ति=सहसा इति, एकबएक। अद्धा=आधा। बलया=कड़ा (चूड़ी)। महिहि=पृथ्वी पर। गय=गिरगई। फुट्‌टु=फूटगई। तड़त्ति=तड़ से।

कौआ उड़ाने वाली स्त्री ने सहसा प्यारे को देखा, आधी चूड़ी पृथ्वी पर गिर गई और आधी तड़ से फूट गई॥

५—भमरु म रुणि झुणि अण्णदइ सा दिसि जोइ मरोइ।
सा मालइ देसन्तरिय जसु तुहुँ मरइ वियोइ॥

भमरू=भ्रमर। म=मत। रुणिझुणि=रुनझुन शब्द कर। अण्णदइ=अरण्य में। सा=वह। दिशि=दिशा। जोइ=देख कर। रोइ=रो। मालइ=मालती। देसन्तरिय=देशान्तरित हो गई। जसु=जिसके लिये। तुहुँ=तू। मरइ=मरता है। वियोइ=वियोग में।

भ्रमर! अरण्य में रून झुन शब्द मत कर। उस दिशा को देख कर मत रो। वह मालती देशान्तरित हो गई जिसके वियोग में तू मरता है॥

सब से प्राचीन पुस्तक पुण्ड या पुष्प के अलंकार ग्रन्थ अथवा खुमान रासों के पद्यों का कोई उदाहरण अब तक प्राप्त नहीं हो सका। इस लिये इनकी रचनाओं के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। भुआल कवि का [ १२० ]गीता का अनुबाद दसवें शतक का बतलाया जाता है, परन्तु उसकी भाषा बिल्कुल माध्यमिक काल की मालूम होती है। इस लिये पं॰ रामचन्द्र शुक्ल से सहमत हो कर मैं उसको आरम्भिक काल का कवि नहीं मानता। सब से पहले आरम्भिक काल की प्राप्य रचना का उदाहरण मेरे विचारानुसार, जिन बल्लभ सूरि का है जो बारहवें शतक के आरम्भ में हुआ। उसकी रचना के कुछ पद्य ये हैं:—

किं कप्पतरु रे अयाण चिन्तउ मणभिन्तरि।
किं चिंतामणि कामधेनु आराहउ बहुपरि।
चित्राबेली काज किसे देसंतर लंघउ।
रयण रासि कारण विसेइ सायर उल्लंघउ।

इस पद्य को आप ऊपर के उन पद्यों से मिलाइये जो अपभ्रंश भाषा के हैं, तो यह ज्ञात हो जायगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से क्रमशः हिन्दी भाषा का विकास होरहा था। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार हो जाता है। इस पद्य में भी आप देखेंगे कि 'अयाण', 'मण', 'रयण' आदि में इसी प्रकार का प्रयोग हुआ है। अपभ्रंश के पांचवें पद्य में 'देसन्तरिय' का जैसा प्रयोग है, इस पद्य के 'देसन्तर' का भी वैसा ही प्रयोग है। 'भिंतरि','लंघउ', 'उल्लंघउ', 'सायर' इत्यादि शब्दों का भी व्यवहार अपभ्रंश रचना के अनुसार ही हुआ है। प्राकृत में, और अपभ्रंश में भी 'ध' का 'ह' हो जाता है । इस पद्य में भी 'आराधउ' का 'आराहउ' लिखा गया। 'कल्पतरु' के स्थान पर 'कप्पतरु' का प्रयोग भी प्राकृत भाषा के नियमानुसार है। यह सब होने पर भी उक्त पद्य में हिन्दीपन की झलक भी 'कामधेनु' 'काज' और 'किस' आदि शब्दों में मिलती है जो विकास प्रणाली का प्रत्यक्ष उदाहरण है।

इसी शताब्दी के दूसरे कवि नरपति नाल्ह की भी कुछ रचनाओं को देखिये। यह कवि बीसलदेव रासो नामक ग्रन्थ का रचयिता है। अधिकतर, विद्वानों ने इसकी रचना को कुछ तर्क-वितर्क के साथ बारहवें शतक का माना है। [ १२१ ]

एक उड़ीसा को धनी बचन हमारइ तू मानि जु मानि।
ज्यों थारइ सांभर उग्गहइ राजा उणि भरि उगहइ हीरा खानि।
जीभ न जीभ विगोयनो दव दाधा का कुपली मेल्हइ।
जीभ का दाधा नुपाँगुरइ नाल्हकहइ सुण जइ सब कोइ।

इस पद्य में भी अपभ्रंश की झलक बहुत कुछ मौजूद है। इसमें अधिकांश राजस्थानी भाषा का रंग है। इसी कारण अपभ्रंश की भाषा से वह बहुत कुछ मिलती जुलती है। अब तक राजस्थानी भाषा पर अपभ्रंश भाषा का बहुत कुछ प्रभाव अवशिष्ट है। फिर भी उसमें ब्रजभाषा के शब्दों का इतना मेल है कि उसको अन्य भाषा नहीं कह सकते। पंडित रामचन्द्र शुक्ल बीसल देव रासो की भाषा के विषय में यह लिखते हैं:—

"भाषा की परीक्षा कर के देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं राजस्थानी है, जैसे 'सूकइ छै' (सूखता है), पाटण थीं (पाटन से), भोजतण (भोज का), खण्ड खण्ड रा (खण्ड खण्ड का), इत्यादि। इस ग्रन्थ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्य-भाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा हिन्दी ही थी जो पिंगल भाषा कहलाती थी। बीसल देव रासो में बीच बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखायी पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि गाने की चीज़ होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिये देखिये 'मेलबि'=मिलाकर, जोड़ कर। चितई=चित्त में। रणि=रण में। प्रापिजयि=प्राप्त हो या किया जाय। ईणी विधि=इस विधि। ईसउ=ऐसा। बालहो=बाला का। इसी प्रकार नयर (नज़र), पसाउ (प्रसाद), पयोहर (पयोधर) आदि प्राकृत शब्द भी हैं जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रंश काल से ले कर पीछे तक होता रहा।"[५]

  1. देखिये 'मिश्र बंधु विनोद' पृष्ठ ९२
  2. देखिये माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर आव दी हिन्दुस्थान पृ॰ २
  3. देखिये हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ॰ ३०
  4. "This is the most ancient poetic chronicle of Mewar, and was written in the ninth century. It gives a history of Khuman Raut and of his family. It was recast during the reign of Partap Singh (fl. 1575), and, as we now have it, carries the narrative down to the wars of that prince with Akbar, devoting a great portion to the seige of Chitcaur by Alāu'd-din Khilji in the thirteenth century. Modern Vernacular Literature Hindustan. p. 3
  5. देखिये हिन्दी साहित्य के इतिहास का पृष्ठ ३० और ३१