हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/प्रथम खंड/चौथा प्रकरण - आर्यभाषा परिवार

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चौथा प्रकरण
आर्य भाषा परिवार ।

हिन्दी के विकास के विषय में और बातों के लिखने के पहिले यह आवश्यक जान पड़ता है कि आर्यभाषा परिवार की चर्चा की जावे । क्योंकि इससे हिन्दी सम्वन्धी बहुतसी बातों पर प्रकाश पड़नेकी सम्भावना है। डाकर जी० ए० ग्रियर्सन ने लन्दन के एक बुलेटिन में इस विषय पर एक गवेषणापूर्ण लेख सन १९१८ में लिखा है. उसी के आधार से मैं इस विषय को यहां लिखता हूं, कुछ और ग्रन्थों से भी कहीं कहीं सहायता ली गई है।

भारत की भाषाओं के तीन विभाग किये जा सकते हैं, वे तीन भाषायें ये हैं-

१ आर्यभाषायें २ द्रविड़भाषायें ३ और अन्य भाषायें । अन्य भाषाओं के अन्तर्गत मुण्डा और तिब्बत वर्मन भाषायें हैं, द्राविड़ भाषा मुख्यतः दक्षिण में बोली जाती है । आर्यभाषा उत्तरी मैदानों में फैली हुई है, गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्त में भी उसका प्रचलन है, उसके अन्तर्गत अधिकांश पहाड़ी भाषायें भी हैं। हिन्दूकुश के दक्षिणी पहाड़ी देशों में एक चौथी भाषा भी पाई जाती है, जिसको डार्डिक अथवा वर्तमानकालिक पिशाचभाषा कहते हैं।

१ मध्यदेशीय भाषा उत्तरीय भारत के मध्य में और उसके चारों ओर फैली हुई है, साधारणतया यह पश्चिमी हिन्दी कहलाती है। बांगड़ , व्रजभाषा, कन्नौजी, और बुन्देलखण्डी भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। बांगड़, या. हरियानी यमुना के पश्चिम में पूर्व दक्षिणी पंजाब की भाषा है, यह मिश्रित भाषा है, जिसमें हिन्दी, पंजाबी और राजस्थानी सम्मिलित हैं। ब्रजभाषा मथुरा के चारों ओर और गंगा दोआबा के कुछ भागों में बोली जाती है, इसका साहित्य भाण्डार वड़ा विस्तृत है। कन्नौज के आस पास [ ५४ ]

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और अन्तर्वेद में कन्नौजी भाषा का प्रचलन है, यह भाषा उत्तर में नैपाल की तराई तक फैली हुई है. इसमें और ब्रजभाषा में बहुत थोड़ा अन्तर है। बुन्देलखण्ड की बोली बुन्देली है, जो दक्षिणमें नर्वदा की तराई तक पहुंचती है, यह भाषा भी ब्रजभाषा से बहुत मिलती है।

पश्चिमी हिन्दी का एक रूप वह शुद्ध हिन्दी भाषा है, जो मेरठ और दिल्ली के आसपास बोली जाती है, इसको हिन्दुस्तानी भी कहते हैं। गद्य हिन्दी साहित्य और उर्दू रचनाओं का आधार आजकल यही भाषा है, आजकल यह भाषा बहुत उन्नत अवस्था में है, और दिन दिन इसकी उन्नति हो रही है। इसका पद्यभाग उर्दू सम्बन्धी तो बहुत बड़ा है, परन्तु हिन्दीमें भी आजकल उसका विस्तार वढ़ता जाता है। अधिकांश हिन्दी भाषा की कवितायें आजकल इसी भाषामें हो रही हैं, इसको खड़ी बोली कहा जाता है।

बांगड़ जिस प्रान्त में बोली जाती है, उस प्रान्त का नाम बांगड़ा है, इसी सूत्र से उसका यह नामकरण हुआ है । हरियाना प्रान्तमें इसे हरियानी कहते हैं-करनाटक में यह जाटू कही जाती है, क्योंकि जाटों की वह बोलचाल की भाषा है।

कन्नौजी में साहित्य का अभाव है, इसलिये दिन दिन यह भाषा क्षीण हो रही है, और उसका स्थान दूसरी बोलियाँ ग्रहण कर रही हैं। वुन्देल- खण्डी भाषा में कुछ साहित्य है, परन्तु व्रजभाषा का ही उसपर अधिकार देखा जाता है। साहित्य की दृष्टि से इन सब में व्रजभाषा का प्राधान्य है, जो कि शौरसेनी की प्रतिनिधि है।

'पंजाबी' हिन्दीभापा के उत्तर-पश्चिम ओर है, और इसका क्षेत्र पंजाब है। पूर्वीय पंजाब में हिन्दी है, और पश्चिमी पंजाब में लहँडा, जो बहिरंग भाषा है। पंजाबी के वर्ण राजपुताने के महाजनी और काश्मीर के शारदा से मिलते जुलते हैं। इसमें तीन ही स्वरवर्ण हैं, व्यञ्जनवर्ण भी स्थान स्थान पर कई ढंग से लिखे जाते हैं। गुरु अंगदजी ने इसका संशोधन ईस्वी

सोलहवें शतक में किया, उसी का परिणाम 'गुरुमुखी' अक्षर हैं। अमृतसर [ ५५ ]

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के चारों ओर उच्च-पंजाबी भाषा बोली जातो है। यद्यपि स्थान स्थान पर उसका कुछ परिवर्तित रूप मिलता है, पर वास्तव में भाषा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। 'डोगरी' जम्मूस्टेट और कुछ परिवर्तन के साथ कांगड़ा जिले में बोली जाती है। पंजाबी साहित्य कम है । दोनों ग्रन्थसाहब यद्यपि गुरुमुखी अक्षरों में लिखे गये हैं, परन्तु उनकी भाषा पश्चिमी हिन्दी है, कोई कोई रचना ही पंजाबी भाषा में है। पंजाबी भाषा में सँस्कृत शब्दों का बाहुल्य नहीं है, यद्यपि शनैः शनैः उसमें संस्कृत तत्सम का प्रयोग अधिकता से होने लगा है।

पंजाबियों की यह सम्मति है कि अमृतसर जिले की माझी बोली ही ऐसी है, जिसमें पंजाबी का ठेठ रूप पाया जाता है। मुसल्मानों ने गुजरातऔर गुजरानवाला में बोले जानी वाली पंजाबी के आधार से अपने साहित्य की रचना की है। इनकी भाषा हिन्दू लेखकों की अपेक्षा अधिक ठेठ है । इनकी भाषा में पश्चिमी हिन्दी का रंग भी पाया जाता है, इस भाषा में अब भी साहित्य की रचना होती है, इस मिश्रित भाषा का पुराना साहित्य भी मिलता है।

मौलवियाें और पादरियों ने भी अपने धर्म का प्रचार करने के लिये पंजाबी भाषा में रचना की है, इन में से अबदुल्ला आसो का बनाया हुआ 'अनवाअ बाराँ' बहुत प्रसिद्ध है।

मुसल्मानों ने कुछ जंगनामे और यूसुफ़जुलेखा की कहानी भी पंजाबी भाषा में पद्यवद्ध की है। हीरराँझे को प्रसिद्ध कथा भी पंजाबी पद्य का सुन्दर ग्रन्थ है, इसकी रचना सय्यद वारिस शाह ने की है, इसकी भाषा ठेठ पंजाबी समझी जाती है।

पंजाबी के दक्षिण में ‘राजस्थानी' हे, राजस्थानी द्वारा हिन्दी दक्षिण पश्चिम में फैली, हिन्दी ‘राजस्थानी' के क्षेत्र में पहुँच कर गुजरात के समुद्र तक बढ़ी और वहाँ गुजराती बन गई । इसीलिये राजस्थानी और गुजराती बहुत मिलती है। राजस्थानी में कई भाषायें अथवा बोलियां हैं, परन्तु उनके चार मुख्य विभाग हैं। उत्तर में 'मेवाती' दक्षिण पूर्व में 'मालवी' [ ५६ ]

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पश्चिम में "मारवाड़ी" और मध्यप्रदेश में 'जयपुरी' का स्थान है। प्रत्येक को बहुतसी उपभाषायें हैं 'दो महत्वपूर्ण विशेषताओं के कारण 'मारवाड़ी' और 'जयपुरी में भेद है । 'जयपुरी' में सम्बन्धकारक का 'चिन्क हो' और क्रिया का पुराना धातु 'अछ' है। परन्तु 'मारवाड़ी' में सम्बन्धकारक का चिन्ह 'रो और "है" धातु है । गुजराती में कोई निर्देश योग्य अवान्तर भेद नहीं है, परन्तु उत्तरी गुजराती दक्षिणी गुजराती से मुख्य बातों में भेद रखती है।'राजस्थानो' का स्थान समस्त राजपुताना और उसके आसपास के कुछ विभाग हैं, और गुजराती का स्थान गुजरात और काठियावाड़ हैं, जिनका प्राचीन नाम सौराष्ट्र है।

राजस्थान की बोलियों में 'मारवाड़ी' और 'जयपुरी' ही ऐसी हैं, जिनमें साहित्य पाया जाता है, 'मारवाड़ी' का साहित्य प्राचीन ही नहीं विस्तृत भी है। जिस मारवाड़ी भाषा में कविता लिखी गई है उसे 'डिङ्गल' कहते हैं, इसमें चारणों की बड़ी ओजस्विनी रचनायें हैं । 'जयपुरी' में दादूदयाल और उनके शिष्यों की वाणियां हैं। और इस दृष्टि से उसका साहित्य भी मूल्यवान है। ब्रजभाषा की कविता को पिंगल कहते हैं, उससे भेद करने के लिये ही 'डिंगल' नाम की कल्पना हुई है।

गुजराती साहित्य बड़ा विस्तृत है, इसके निर्माण में जैन साधुओं ने भी हाथ बँटाया है, उन्हों ने धार्मिक ग्रन्थ ही नहीं लिखे, बड़े बड़े काव्यों की भी रचना की है, जिन्हें रासो अथवा रास कहते हैं । गुजराती साहित्य में पारसी और मुसलमानों की भी रचनायें मिलती हैं, परन्तु उनमें फ़ारसी, अरबी शब्दों का प्रयोग अधिकतर हुआ है। गुजराती भाषा का प्रतिष्ठित और अधिक प्रसिद्ध कवि नरसिंह मेहता हैं, जो ईस्वी पन्द्रहवें शतक में हुये हैं। ये जाति के नागर ब्राह्मण थे, इनकी रचना भावपूर्ण ही नहीं भक्तिमयी भी है।

मध्यदेशके पूर्व में पूर्वी हिन्दी' है । पूर्वीय हिन्दी पर मध्यदेशीय अथवा .पश्चिमी हिन्दी का प्रभाव बराबर पड़ता रहा है। साथ ही बाहरी भाषाओं के संसर्ग से भी वह नहीं बची, इसलिये उस पर दोनों का अधिकार देखा [ ५७ ]

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जाता है । साधारणतः इसकी संज्ञाओं और विशेषणों का रूप पूर्व की वहिरंग भाषाओं से मिलता जुलता है, और क्रियाओं एवं धातुओं का रूप मध्यदेशीय हिन्दी से । पूर्वीय हिन्दी में तीन प्रधान भाषायें हैं । 'अवधी' 'वघेली' और 'छत्तीस गढ़ी'। अवधी को बैसवाड़ी भी कहते हैं. यह भाषा अवध के दक्षिण पश्चिम में बोली जाती है। कहा जाता है यह बैसवाड़ी राजपूतों की भाषा है । अवधी का दूसरा नाम 'कोशली' है। अवधी और बघेली में बहुत कम अन्तर है । छत्तीसगढ़ी पहाड़ी भाषा है, और अधिक स्वतंत्र है, उस पर कुछ उत्कल भाषा का प्रभाव भी पाया जाता है। यदि पश्चिमी हिन्दी की ब्रजभाषा भगवान् कृष्णचन्द्र की गुण गाथाओं से पूर्ण है, तो पूर्वी हिन्दी की अवधी भगवान रामचन्द्र के कीर्तिकलाप से उद्भासित है। यदि पश्चिमी हिन्दी के सर्वमान्य महाकवि प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी हैं, तो पूर्वी हिन्दी के सर्वोच्च महाकवि गोस्वामी तुलसीदास हैं। यदि उन्होंने प्रेमसिद्धान्त की पराकाष्ठा अपनी रचनाओं में दिखलाई, तो इन्होंने भक्तिरस की वह धारा बहाई, जिससे समस्त हिन्दी संसार आप्लावित है। अवधी भाषा के मलिक मुहम्मद जायसी भी आदरणीय कवि हैं, उनका 'पद्मावत' अवधी भाषा का बहुमूल्य ग्रन्थ है, उसमें अधिकतर बोलचाल की भाषा का प्रयोग देखा जाता है, अवधी भाषा में कुछ और ग्रन्थ भी पाये जाते हैं, परन्तु उनमें कोई विशेषता नहीं है। कबीर साहब को भी अवधी भाषा का कवि माना जाता है, उन्होंने स्वयं लिखा है, 'बोली मेरी पुरुब की, परन्तु उनकी रचनाओं के देखने में यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। उनके पद्यों की विचित्र भाषा है, उसमें किसी भाषा का वास्तव रूप नहीं दिखलाई देता। नागरी प्रचारिणी सभा से जो उनकी ग्रन्थावली निकली है,और जो उनके समय में लिखित पुस्तक के आधार से सम्पादित हुई है, उसमें पंजाबी भाषा का ढंग ही अधिक देखा जाता है । अवधी भाषा में साहित्य है, परन्तु ब्रजभापा के समान वह विस्तृत और विशाल नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास को छोड़कर हिन्दी संसार के जितने कवि और महाकवि हुये हैं, उन सबकी अधिक रचनायें ब्रजभाषामेंही हैं। एक से एक बड़े कवियों का सहारा पाकर पांच सौ वर्ष में ब्रजभाषाका [ ५८ ]

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साहित्य-भाण्डार जितना बड़ा और विशाल हो गया है, उतना बड़ा भाण्डार किसी दूसरी देशभाषा का नहीं है।

दक्षिण भारत में मराठी ही एक ऐसी भाषा है, जिसको आर्यभाषा परिवार की कह सकते हैं। मराठी को महाराष्ट्री प्राकृत की जेठी बेटी कह सकते हैं। वह दक्षिणी उपत्यका, पश्चिमीघाट और अरब समुद्र के मध्य भाग में बोली जाती है। यह बरार और उसके पूर्व के कुछ प्रदेशों की भी भाषा है, इसका प्रचार मध्यप्रान्त में भी देखा जाता है, परन्तु वहां उसका शुद्ध रूप अधिक सुरक्षित नहीं मिलता। बस्तर राज्य में से होते हुये, यह उड़िया भाषा की कुछ भूमि में भी प्रवेश कर जाती है । इसके दक्षिण में द्राविड़ भाषायें हैं, और उत्तर पश्चिम में राजस्थानी, गुजराती, और पूर्वी एवं पश्चिमी हिन्दी हैं। मराठी अपने पूर्व की छत्तीसगढ़ी हिन्दी से बहुत कुछ समानता रखती है।

मराठी में तीन प्रधान भाषायें अथवा बोलियाँ हैं। पहली देशी मराठी है, जो पूना के चारों ओर शुद्धतापूर्वक बोली जाती है। उत्तरी और मध्य कोकण में यही भाषा अनेक रूपों में दिखलाई देती है, पर सच्ची कोकणी ही दुसरी भाषा है जो कोकण के दक्षिण भाग में पाई जाती है, और इन सबों से भिन्नता रखती है। तीसरी बरारी और नागपुरी है जो बरार और मध्यप्रान्त के कुछ भाग में प्रचलित है, शुद्ध मराठी में और इसमें उच्चारण सम्बन्धी भिन्नता है । वस्तर में बोली जानेवाली भाषा को 'हलाबी कहते हैं, इसमें मराठी और द्राविड़ी का मिश्रण देखा जाता है। पहली मराठी ही शिष्टभाषा समझी जाती है, और साहित्य इसी भाषा में है। मराठी साधारणतः नागरी अक्षरों में लिखी जाती है, कोकणी भाषा के लिखने में कनारी वर्णों से काम लिया जाता है। मराठी का साहित्य-भाण्डार बड़ा है, और इसमें मूल्यवान कविता पाई जाती है। एक बात में मराठी कुल आर्यपरिवार की भाषाओं से पृथक् है, वह यह कि मगठी के उच्चारण पर वैदिककाल का प्रभाव देखा जाता है, जब कि अन्य भाषाओं ने अपने उच्चारण को स्वतंत्र कर लिया है। [ ५९ ]

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मराठी का पुराना रूप ताम्रपत्रों और शिला-लेखों में पाया जाता है, ईस्वी बारहवें शतक के कुछ ऐसे ताम्रपत्र और शिलालेख पाये गये हैं । ईस्वी चौदहवें शतक में ज्ञानदेव नामक एक प्रसिद्ध महात्मा हो गये हैं. उन्होंने भगवद् गीता पर मराठी में ज्ञानेश्वरी टीका लिखी है। उन्हीं के समय में नामदेवजी भी हुये, जिनकी हिन्दी रचना भी पाई जाती है । मराठी के अभंगों के रचयिताओं में एकनाथ और तुकाराम का नाम अधिक प्रसिद्ध है। स्वामी रामदास का 'दासबोध' भी प्रसिद्ध ग्रन्थ है। ईस्वी उन्नीसवें शतक में मोरोपन्त एक बड़े प्रसिद्ध कवि हो गये हैं।

पूर्वी हिन्दी के पूर्व में बिहारी भाषा है, आजकल बिहारी भाषा भी हिन्दी ही मानी जाती है। बिहारी कुल बिहार छोटानागपुर और संयुक्तप्रान्त के कुछ पूर्वी भागों में बोली जाती है। अबतक इसमें मागधी प्राकृत की दो विशेषतायें पाई जाती हैं। 'स' का श में बदल जाना और अकारान्त शब्दों का एकारान्त हो जाना। बिहारी की तीन प्रधान भाषायें हैं, मैथिली, मगही और भोजपुरी। ईम्वी पन्द्रहवीं शताब्दी से मैथिली में कुछ साहित्य पाया जाता है। 'मगही' प्राचीन मागधी प्राकृत की प्रतिनिधि है,और उसी के अपभ्रंश से वर्त्तमान रूप में परिणत हुई है । मैथिली और मगही के व्याकरण और शब्दों में बहुत समानता है, पर मगही में साहित्य का अभाव है। भोजपुरी का इन दोनों से अधिक अन्तर है. यह दोनों से सीधी है। मगही को तिरहुतिया भी कहते हैं। हानल महोदय ने बिहारी को पूर्वी हिन्दी कहा है ।

मैथिल कोकिल विद्यापति मैथिली भाषा के बहुत बड़े कवि हुये हैं, इनकी रचनायें बड़ी ही मधुर एवं भावमयी हैं । उनकी पदावली बहुत ही सरस है, उसमें श्रीमती राधिका के मधुर भावों का बड़ा हृदयग्राही चित्रण है । उनकी रचना की जितनी ममता हिन्दी भाषावालों को है, उतनी ही बँगला भाषियों को। ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग उनकी रचनाओं में बड़ी ही रुचिरता के साथ किया गया है । भोजपुरी में भी साहित्य नहीं मिलता, परन्तु इस भाषा में लिखे गये ग्रामीण गीन प्रायः सुन जाते हैं, जो बड़े ही [ ६० ]

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मनोहर होते हैं । पं० रामनरेश त्रिपाठी ने हाल में जो ग्राम्य गीतों का संग्रह प्रकाशित किया है. उसमें भोजपुरी गीतों का भी पर्याप्त संग्रह हो गया है।

बिहारी के दक्षिण पूर्व में बोली जानेवाली भाषा उड़िया कहलाती है। मागधी अपभ्रंश से ही इसकी उत्पत्ति भी मानी जाती है, जहां पर यह मराठी भाषा के समीप पहुंचती है, वहां इसमें उसका मिश्रण भी देखा जाता है। बंगाल के समीप पहुंच कर यह बंगाली भाषा से भी प्रभावित है । उड़िया को उत्कली और उड़ी भी कहते हैं । इसमें साहित्य भी पाया जाता है. और इस भाषा के भी अच्छे अच्छे कवि हुये हैं।अधिकांश रचनायें इसकी कृष्णलीलामयी हैं, और उनमें यथेष्ट सरसता है।

यह भाषा उड़ीसा में, बिहार, मद्रास' एवं मध्यप्रान्त के कुछ भागों में बोली जाती है, महाराज नरसिंह देव द्वितीय के एक शिला लेख में इसके प्राचीन स्वरूप का कुछ पता चलता है, यह शिला लेख विक्रमी चौदहवें शतक का है। इसका आदि कवि उपेन्द्र भन्ज समझा जाता है । कृष्ण दास का रसकल्लोल नामक ग्रन्थ भी प्रसिद्ध है। इस भापा का आधुनिक साहित्य भी विशेष उन्नत नहीं है।

बंगाल की भाषा बँगला है। ईस्वी चौदहवें शतक के उपरान्त, इसका साहित्य बढ़ने लगा, और इस समय बहुत ही समुन्नत है। इसकी बोल चाल को भाषा के प्रधान रूप तीन हैं. पूर्वी, पश्चिमीय और उत्तरीय । प्रत्येक में अलग २ कई बोलियां हैं । हुगली के चारों ओर पश्चिमीय है, और गंगा के उत्तर प्रदेश में उत्तरोय. जो कि उड़िया भापा से मिलती जुलती है। ढाका के आस पास पूर्वीय भाषा है. जो स्थान स्थान पर परस्पर बड़ी भिन्नता रखती है। रंगपुरी भाषा आसाम के पश्चिमी छोर पर है. और उत्तरी बंगाल से लगे हुये हिस्सों में बोली जाती है । चटगाँव के आस पास उच्चारण की । विशेषताओंके कारण बिल्कुल एक नये ढंगकी बोली बन गई है, जो कठिनता से बँगला कही जा सकती है। बँगला में 'सका उन्धारण 'श' होता है इस विषय में वह मागधी में मिलती है। प्राचीन बंगाली कविता में मागधी प्राकृत के कर्ता का चिन्ह 'ए. भी सुरक्षित पाया जाता है । जैसे 'इष्टदेव' [ ६१ ]

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और 'नयनम्' के स्थान पर नयने आदि । यह चिन्ह वर्तमान बँगला गद्य में भी पाया जाता है।

बँगला भाषा इस समय आर्य परिवार की समस्त भाषाओं से उन्नत है। उसका साहित्य भाण्डार सर्व विषयों से परिपूर्ण है । प्रत्येक विषय के ग्रन्थों की रचना उसमें हुई है, और होती जा रही है। विश्वकवि श्री युत रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं में उसको बहुत बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। जैसे कृतविद्य लेखक इस समय बँगला भाषा में हैं, भारतीय किसी भाषा में नहीं हैं। बँगला के साहित्य में मानिकचन्द के गीत सब से प्राचीन हैं। चण्डी दास और कीर्तिवास भी बहुत बड़े कवि हो गये हैं। आधुनिक कवि और लेखकों में बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी और माइकेल मधुसूदनदत्त आदि ने भी बड़ी कीर्ति पाई है ।

आसाम में बोलीजानेवाली भापा आसामी कहलाती है, यह आय्यपरिवारकी एक भाषा है। इसदेश में रहनेवाली बहुतसी जातियाँ तिब्बती वर्मन भाषा में बातचीत करती हैं। मगध की मागधी प्राकृत का पता तीन धाराओं से लगाया जा सकता है। पहली धारा है दक्षिण में बोलीजानेवाली उड़िया, दूसरी है दक्षिण और पूर्व की पश्चिमीय और पूर्वीय बँगला, तीसरी उत्तर पूर्व की आसामी । बँगला भाषा ही अधिक उत्तर पूर्व में पहुंच कर आमामी बन गई है । यद्यपि कि आसामी तिब्बती वर्मन भाषा के प्रभाव और संसर्ग के कारण व्याकरण और उच्चारण दोनों में बँगला से बहुत भिन्नता रखती है, परन्तु बँगला से परिवर्तित होकर वर्तमान रूप धारण करने के प्रमाण उसमें बहुत अधिक मौजूद हैं । इस का साहित्य भी उन्नत है, और इसमें बहुत से ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं, जिनको आसामी 'बूरजी, कहते हैं। कुछ काल तक पादरियों की चेष्टा से आसामी भाषा अपने मुख्यरूप में बँगला से अधिक उन्नत हो गई थी, पर अब फिर उसमें संस्कृत शब्दों का अधिक प्रवेश हो रहा है ।

आसाम को ही संस्कृत में कामरूप कहा गया है, बंगाली उस 'ओशोम. कहते हैं, इसी 'ओशोम' से पहले 'ओशोमी' और बाद को आसामी उसकी भाषा का नाम पड़ा। इसमें दूसरे प्रकार के साहित्य भी हैं । आसामी भापा [ ६२ ]

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का सब से प्राचीन ग्रन्थ भागवत का अनुवाद है, जो कि ईस्वी चौदहवें शतक में हुआ था। श्री शंकर नामक एक प्रसिद्ध विद्वान् ने यह अनुवाद किया था।

कुछ पहाड़ी भाषायें भी ऐमी हैं कि जिनका सम्बन्ध आर्यपरिवार की भाषा से है। इस प्रकार की भाषायें तीन हैं. और वे पूर्व में नैपाल से लेकर पश्चिम में पंजाब की पहाड़ियों तक फैली हुई हैं। इनकी संज्ञा है (१) पूर्वीय पहाड़ी (२) मध्यपहाड़ी (३) और पश्चिमीय पहाड़ी ।

योगेपियन लोग नेपाली भाषा को पूर्वीय पहाड़ी भाषा कहते हैं. परन्तु यह ठीक नहीं । नेपाल की भाषा का नाम 'नेवारी' है । पूर्वीय पहाड़ी के और भाषाओंका नाम, पार्वतीय, पहाडी भाषा और खसकुरा है। यह 'खस- कुरा, खसों की भाषा है, और नागरी लिपि में लिखी जाती है।

गढ़वाल और कुमायूं के ब्रिटिश जिलों की और गढ़वाल रियासत की भाषा मध्यपहाड़ी कहलाती है । इसकी दो प्रधान शाखायें हैं. कमायूनी और गढ़वाली । इन दोनों भाषाओं में साहित्य बहुत कम है, इनी गिनी पुस्तकें ही इसमें मिलती हैं।

शिमला और उसके आस पास की पहाड़ियों में एक दूसरे से मिलती जुलती कई भाषायें हैं, जिन्हें पश्चिमी पहाड़ी कहते हैं। इन भाषाओं में कोई साहित्य नहीं है । इनका क्षेत्र पश्चिमोत्तर प्रदेश में जौंसार और बावर से प्रारंभ होकर पंजाव की रियासतों सिरमौर, मण्डी, चम्बा. तथा शिमला पहाड़ी, और कुल्हू होते हुये पश्चिममें काश्मीर तक विस्तृत है । इन भाषाओं में, जौंसारी, किउँथली. कुल्हुई, चमिआल्ही आदि प्रधान हैं।

ए पहाड़ी भाषायें राजस्थानी भाषासे मिलती जुलती हैं । इनमें गुजराती भाषा का भी पुट है। कारण इसका यह है कि सोलहवें ईस्वी शतक में और उससे कुछ पहले भी विशेष कर मुसल्मानों के समय में राजस्थान अथवा गुजरात से कुछ विजयिनी जातियां मुख्यतः राजपूत इन प्रदेशों में

आये, और वहां की मुण्डा तथा तिब्बती वर्मन आदि जातियों को जीत [ ६३ ]

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कर वहां अपना राज्य स्थापित किया। उनके प्रभाव से ही जनता में उनका धर्म और भाषा भी फैली । कुछ कालोपरान्त इस प्रदेश में लगभग सभी हिन्दू धर्मावलम्बी हो गये. और सभी की भापा थोड़े परिवर्तन से राजस्थानी बन गई । मैं पहले लिख आया हूं कि गुजरातो और राजस्थानी में थोड़ा ही अन्तर है, यहा बात यहां के भाषा में भी पाई जाती है।

उत्तरी पश्चिमीय समूहकी भाषा लहन्दी और सिन्धी भी आर्य परिवारकी है । लहन्दा पश्चिमी पंजाब को भाषा है, उसको पश्चिमीय पंजाबी, जाटकी, उच्ची और हिन्दकी भी कहते हैं। लहन्दा का शब्दार्थ है, सूर्य का डूबना, अथवा पश्चिम । जटकी का अर्थ है जाटों की भाषा । उच्ची का अर्थ है उच्च नगर की भाषा । 'हिन्दकी, हिन्दुओं की भाषा है, यह पश्चिमी भाग में बोली जाती है, यहां पश्तो बोलनेवाले मुसल्मान रहते हैं ।

लहन्दा को तीन बोलियां है। दक्षिणीय या मुलतानी, उत्तरीय पूर्वी या पोठवारी, उत्तरीय पश्चिमी या धन्नी । लहन्दा में ग्राम्यगीतके अतिरिक्त और कोई साहित्य नहीं है । ईम्वी सोलहवं शतककी लिखी हुई गुरु नानक देवकी एक जन्म साखी ( जीवन चरित्र ) और कुछ साधारण कवितायें जहां तहां मिल जाती हैं । मुसल्मानों को कुछ रचनाय पोठहारी बोली में पाई जाती हैं । परन्तु उसको लोग पंजाबी भाषा में लिखी गई मानते हैं ।

सिन्धी सिन्ध की भाषा है, दक्षिणमें यह समुद्र तक फैली हुई है, उत्तरमें आकर यह लइन्द्रा में मिल जाती है। सिन्ध में प्राचीन काल का ब्राचड देश था, प्राकृत वैयाकरणाने यहां ब्राचड़ अपभ्रंश और ब्राचड़ पशाची का होना स्वीकार किया है। सिन्धी की पांच भापायें हैं. १- विचोली, सिरादकी, लाड़ी, थरेली, ओर कच्छी। विचोली भाषा मध्य सिंध की है, साहित्यिक यही भाषा है, और इसी में साहित्य है। सिग्दकी- विचोली का एक रूप है वास्तव में उसकी भिन्न सत्ता नहीं है। केवल थोड़ा बहुत ऊचारण का अन्तर है। सिंधी सगदकी को सब में शुद्ध समझते हैं। लाड़ी लाड़ प्रदेश की भाषा है - इसमें भद्दापन है । लाड़ का शब्दार्थ है ढालुवां । बिचोली और इसमें यह अन्तर है कि इसमें बहुत से प्राचीन रूप पाये जाते हैं, [ ६४ ]

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वर्तमान पिशाच भाषा की विशेषतायें भी इसमें मिलती हैं । थरेली और कच्छी दोनों मिश्रित भाषायें हैं । पहली भाषा थारू में बोली जाती है, और यह परिवर्तनशील है, क्योंकि सिंधी भाषायें धीरे धीरे राजस्थानी मारवाड़ी द्वारा प्रभावित होती जाती हैं । कच्छी कच्छ में बोली जाती है, इसमें सिन्धी और गुजराती का मिश्रण है। सिन्धी में साहित्य है, परन्तु थोड़ा । थरेली को 'बरोची, और ढाटका भी कहते हैं, थलसे थरु शब्द बना है, इस शरु में बोले जाने के कारण ही 'थरेली, नाम की रचना हुई है । सिरादकी को कुछ सिंधी पृथक् बोली मानते हैं। अब्दुल लतीफ़ नाम का एक प्रसिद्ध कवि ईस्वी अठारहवीं सदी में हो गया है। उसने जो ग्रन्थ रचा है, उसका नाम 'शाहजी रिसालो. है। इसमें सूफी मत के सिद्धान्तों की छोटी छोटी कथायें लिख कर समझाया गया है । सिंधी इसको सिंध का हाफ़िज़ कहते हैं । इस भाषा में वीररस की कुछ सुन्दर कवितायें भी मिलती हैं ।

पैशाची भाषाके विषय में पहले कुछ चर्चा हो चुकी है, उसके सम्बन्ध की विशेषता यहां लिखी जाती है । वर्तमान पिशाच भापा के बोलनेवाले दक्षिण में काबुलनदी के पास और उत्तर पश्चिम और हिमालय की नीची श्रेणियों में और उत्तर में हिन्दूकुश एवं मुस्तग श्रेणियों के बीच में रहते हैं। इसके तीन विभाग हैं, काफिर, खोआर और डर्ड । काफ़िरके बोलनेवाले काफ़िरिस्तान में रहते हैं, बशगली इनकी प्रसिद्ध भाषा है, डेविडसन ने इस पर एक अच्छा व्याकरण लिखा है, कोनो ने इस भाषा का एक कोश भी लिख दिया है। इसके बोलनेवाले काफिरिस्तान की वशगल नामक तराई में रहत हैं, इसीसे इसका नाम वशगली है । इसके दक्षिण में वाई-काफ़िर रहते हैं, जिनकी बोली बाई-अला है. इसमें और वशगली में बड़ी घनिष्टता है । 'वेरों' बशगली के पश्चिम की दुगम घाटियों में रहनेवाले प्रेशओं की भाषा है, इसमें और बशगली में बड़ा अन्तर है। वेरों में जैसी कि स्थिति संकेत करती है, अन्य भाषा की अपेक्षा ईरानियन प्रभाव ही अधिक है-जैसे कि 'ड' का 'ल' में बदल जाना। परन्तु दूसरी ओर यह उच्चारण में डार्ड भापा से मिलती है, जो बात और काफ़िर भाषाओं में नहीं पाई जाती। गवरवटी या गत्रभाषा गबेरों की भाषा है जो कि [ ६५ ]

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नसरत देश की एक जाति है, यह देश बशगल और चित्राल नदियों के संगम पर है 'कलाशा' कलाशा-काफिरों की भाषा है. यह भी इन्हीं दोनों नदियों के दोआबमें बोलो जाती है। विडल्फने गवरबटी भाषाका शब्दकोष बनाया है, लेटनर का डार्डिस्तान, कलाशा के विषय में बहुत कुछ बतलाता है। 'पशाई' पैशाची से निकली है, और लगमन के देहकानों की बोली है । पशाई पर जो कि सबस दक्षिण की भाषा है, पश्चिमो पंजाब के एण्डोएरियन भाषाओं का प्रभाव है। दूसरी ओर कलाशा लोअर भाषा सं प्रभावित है। कुल काफ़िर भाषाओं पर पास की पडतो भापा का बहुत बड़ा असर देखा जाता है।

खोआर 'खोयाको' जाति को भाषा है, इसका स्थान वर्तमान पिशाच भाषाओं के काफ़िर और डाड समूह के मध्य में है । यह अपर चित्राल और यासोन के एक भाग की भाषा है। इसे चित्राली या चत्रारी भी कहते हैं। लेटनर के डार्डिस्तान' नामक ग्रन्थ में इसके विषय में बहुत कुछ लिखा हुआ है, इस भाषा पर विडल्फ और जीयेन ने व्याकरण भी बनाया है।

डार्ड भापा समूह में सबसे प्रधान शिना है । यह शिन जाति की भाषा है। ये लोग काश्मीर के उत्तर के रहनेवाले हैं। विडल्फ की ट्राइस आव दि हिन्दुकुश और लेटनर, के 'डार्डिस्तान' के देखने में इस बड़ी जाति और इसकी भाषा के विषय का पूरा ज्ञान होता है। मेगस्थिनीज ने इनको डग्डेई' कहा है, और महाभारत में इन्हें डारडस लिखा गया है । शिना की बहुत सी बोलियां हैं, उनमें सबसे मुख्य 'जिलजित' घाटी की 'जिलनित' भापा है । अस्तोर घाटी में बोली जाने वाली भापा अम्तोरी कहलाती है । चिलासी, गुरेज़ी, ट्रास और डाहहनू की दो दो भापायें हैं, जिनके साथ बालती' का व्यवहार भी किया जाता है । यूरोपियनों ने 'डार्ड' शब्द का प्रयोग हिन्दुकुश के दक्षिण में बोली जानेवालो कुल इण्डोरियन भाषाओं के लिये किया है। डार्डिक शब्द इसी से निकला है, जो वर्त्तमान पिशाची भाषा का भी वोधक है।

काश्मीरी अथवा काशीरू काश्मोर की भाषा है, इसका आधार शिना [ ६६ ]

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की तरह की एक भाषा है। काश्मीरी के बहुत से शब्द-जैसे व्यक्तिवाचक, सर्वनाम अथवा घनिष्टताबोधक-प्रायः शिना के समान हैं । बहुत पहले से ही संस्कृत के प्रभाव में रहकर इसने अपने साहित्य का विकास अधिक किया है, इस कारण इसके शब्द भाण्डार पर संस्कृत या उसके अन्य अंगों का बहुत प्रभाव पड़ा है । विशेप करके पश्चिम पंजाब की लहन्दा भाषा का जो कि काश्मीर के दक्षिणी सीमा पर प्रचलित है । ईस्वी चौदहवें शतक से अट्ठारहवें शतक के आरम्भ तक काश्मीर मुसल्मानों के अधिकार में रहा है । इन पांच सौ वर्षों में बहुत लोग मुसल्मान हो गये, और इसी सूत्र से काश्मीरी भाषा में अनेक अरबी, फ़ारसी के शब्द भी सम्मिलित हो गये इसका प्रभाव बचे हिन्दुओं की भाषा पर भी पड़ा है। काश्मीरी में आदरणीय साहित्य है । १८७५ ई० में ईश्वर कौल ने संस्कृत भाषा के व्याकरणकी प्रणाली पर काश्मीर शब्दामृत नामक एक व्याकरण भी बनाया है। इन्हों ने इस भाषा की उच्चारण प्रणाली को बहुत सुधारा है, फिर भी वह सर्वथा निर्दोष नहीं हुई है । स्थान स्थान पर काश्मीरी भाषामें भिन्नता भी है. इसकी सबसे प्रधान भाषा काष्टवारी है । स्थानीय भाषाओं के नाम ‘दोड़ी' रामबनी और ‘पौगुली' है । काश्मीरी ही एक ऐसी पैशाची भाषा है, कि जिसके लिखने के वर्ण निजके हैं, उसे शारदा कहते हैं । प्राचीन पुस्तके इसी वर्ण में लिखी हुई हैं।

'मैया' एक और भाषा है. जो वास्तवमें बिगड़ी हुई शिना है, यही नहीं, कोहिस्तान में शिनाके आधारसे बनी हुई, बहुतसी बोलियां बोली जाती हैं। परन्तु दक्षिणी भागमें लहन्दा और पश्तो का अधिक प्रभाव देखा जाता है। ये सब भाषायें कोहिस्तानी कहलाती हैं, परन्तु इनमें 'मैया' को प्रधानता है। इन भाषाओं का उल्लेख विडल्फ ने अपने ग्रन्थ ट्राइब्स आव दि हिन्दुकुश, में किया है । इनमें से किसी में न तो साहित्य है. और न लिखने के वर्ण । कोहिस्तान पर बहुत समय तक अफ़गानों का अधिकार रहा है, इसीलिये वहां अब पश्तो का ही अधिक प्रचार है, कोहिस्तानी उन मुसल्मानों की ही भाषा रह गई है, जिनको अपनी प्राचीन भाषा से प्रेम है। [ ६७ ]

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सिंध नदी के इस कोहिस्तान के पश्चिम में स्वातनदी का कोहिस्तान है, यहां की प्रधान भाषा भी पश्तो ही है, पर यहां भी अब तक कुछ ऐसी जातियां हैं, जो शिना के आधार पर बनी हुई बोलियाँ बोलती हैं । प्रधान भाषा गरबी, और अन्य भाषायें तोरवाली या तोरवल्लाव और वाश्कारिक हैं। बिडल्फ ने इन बोलियों का भी वर्णन किया है । मैया और गरबी दोनों मिश्रित भाषायें हैं ।

अन्त में यह कह देना आवश्यक है कि प्राचीन पैशाची के बहुत से शब्द और रूप वर्तमान पैशाची की बिबिध शाखाओं में अब तक थोड़े से परिवर्तन के साथ पाये जाते हैं। जैसे कलाशा में ककबक, बेरों में ककोकु, वशगली में ककक इत्यादि, इस शब्द का अर्थ है चिड़िया । वैदिक संस्कृतमें इसको 'कृकवाक कहते हैं । खोआरमें द्रोखम शब्द मिलता है, जो संस्कृत का द्रम है, जिसका अर्थ है चांदो । संस्कृत क्षीर वशगली का शीर है, जिसका अर्थ श्वेत है। संस्कृत का स्वसार खोआर का इस्युसार है, जिसका अर्थ बहिन होता है।

हिन्दूकुश में दो छोटे छोटे राज्य हैं, हुञ्जा और नागर । यहां के रहनेवालों की एक अलग भाषा है, परन्तु यह आर्य भाषा नहीं है । इसका सम्बन्ध किसी भी भाषा के वंश के साथ अब तक नहीं हुआ है । यह भाषा अपने प्राचीन रूप में, वर्तमान पिशाच भाषा बोले जानेवाले देशों में, और बलतिस्तान के पश्चिम में जहां कि अब तिब्बतीवर्मन भाषा बोली जाती है, एक समय में बोली जाती थी। ए अनार्य भाषायें 'वुरूशस्की, 'विद्दल्प, की वूरीश्की और लेतनेट की खजुवा हैं। लगभग कुल वर्त्तमान पिशाच भाषाओं में इसके फुटकल शब्द पाये जाते हैं । जैसे-बर्मी शब्द, चोमार, जिसका अर्थ लोहा है, काश्मीरी के सिवा प्रत्येक वर्तमान पिशाच भाषाओं में बोला जाता है । यह शायद इसी भाषा का प्रभाव है, कि वर्तमान पिशाच भाषा में 'र' अक्षर का विचित्र प्रयोग है। इन सब भाषाओं में यह 'र' अक्षर तालव्य होने की ओर झुकाव रखता है। इस झुकाव की उत्पत्ति वर्तमान पिशाच भाषा से नहीं हुई है । क्यों कि इसका सम्बन्ध केवल इसी भाषा से [ ६८ ]

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नहीं है, और न यह किसी एक समूह की सम्बन्धित भाषाओं की विशेषता है। वरन् यह एक देश की भाषा विशेष की विशेषता है, अर्थात् कुल वर्त्तमान पिशाच भाषाओं और निकटके बलनिस्तान भर में इसका प्रचार है । तिब्बती वर्मन भाषा बालतो में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं, जो कि पूर्वी तिब्बती वर्मन भाषाओं में (जैसे पुरिक और लद्दाखी) में नहीं दिखाई देते । तिब्बती वर्मन भाषा बालती और वर्तमान आर्य भाषा पैशाचो की अर्थात दोनों की यह विशेषता एक ही उद्गम से आई है, और इस देश में वही इनका पूर्वज है। खास बुरुशस्की में परिवर्तन के इस तरह के उदाहरणों का मिलना असंभव है, क्योंकि उसके आम पास कोई ऐसी भाषा नहीं है, जिस से उस की तुलना की जा सके । यह अकेली है, और जाने हुये इसके एक भी सम्बन्धी नहीं हैं।

कहा जाता है पैशाची भाषा में गुणाय नामक एक विद्वानने 'बड्डकथा' अर्थात 'वृहत्कथा' नामक एक ग्रन्थ लिखा था. यह ग्रन्थ अब नहीं प्राप्त होता । इसका संस्कृत अनुवाद पाया जाता है, जो काश्मीर के दो विद्वानों का किया हुआ है ; इनका नाम क्षेमेन्द्र और सोमदेव था। इस संस्कृत ग्रन्थ का नाम 'कथासरित्सागा' है। 'वडकथा, पैशाची भाषा के साहित्य का प्रधान ग्रन्थ है । इसके अतिरिक्त काश्मोरी भाषामें कुछ और ग्रन्थ हैं, परन्तु उनमें कोई विशेष प्रसिद्ध नहीं है।

काश्मीरी भाषा की प्रथम कवि एक स्त्री है, जिसका नाम लल्ला अथवा लालदेव था, वह चौदहवी इम्बी शताब्दी में हुई है । मुसल्मान कवियों में महमूद गाभी प्रसिद्ध है, यह अठारहवें शतक में था, इसने 'यूसुफ़जुलंग्या' 'लैलामजनू' और 'गोरफरहाद' नाम की पुस्तक फारसी ग्रन्थों के आधार से लिखी हैं ।

हेमचन्द्र ने दो प्रकार की पैशाची का वर्णन अपने प्राकृत व्याकरण में किया है पहली को केवल पैशाची और दूसरी को चूलिकापैशाची लिखा है। पैशाची का वर्णन पाद ४ के ३०३ से ३२४ तक के सूत्रों में और 'चूलिका पैशाची का निरूपण ३२५ से ३२८ तक के सूत्रों में किया गया [ ६९ ]

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है। रामशोर्म्मा ने अपने प्राकृत कल्पतरु में पैशाची के दो भेद लिखे हैं, (१) शुद्ध और (२) संकीर्ण । शुद्ध के सात और संकीण के चार उपभेद उन्हों ने बतलाये हैं—शुद्ध के सात भेद ये हैं -

(१) मगधपैशाचिका (२) गौड़ पेशाचिका (३) शौरसेनी पैशाचिका ४) केकयपैशाचिका (५) पांचाल पैशाचिका (६) प्राचडपैशाचिका (७) सूक्ष्मभेदपैशाचिका।

संकीर्ण के चार उपभेद ये हैं -

(१) भाषाशुद्ध (२) पदशुद्ध (३) अर्द्धशुद्ध (४) चतुष्पद शुद्ध ।

आर्यभाषा परिवार में सिंहली और जिप्सी भाषाओं की भी गणना की जाती है।

अब से ढाई सहस्र वर्ष पहले विजयकुमार अपने अनुयायियों के साथ सिंहल गया था, और वहां उसने बुद्ध धर्म के साथ आर्य भाषा का भी प्रचार किया था। उसीकी संतान सिंहली है, जो अब तक वहां प्रचलित है। सिंहली का प्राचीन रूप ईस्वो दशवें शतक का है, उसको ‘इलू' कहते हैं। इस सिंहली का प्रभाव मालद्वीपभापा पा भी पड़ा है। इस भाषा में थोड़ा बहुत साहित्य भी है। किन्तु कोई प्रसिद्ध ग्रन्थ नहीं है।

पश्चिमी एशिया एवं यूरप के कई भागों में फिरने वाली कुछ जातियां 'जिप्सी' कहलाती हैं, ये किसी स्थान विशेष में नहीं रहती, यत्र तत्र सकुटुम्ब पर्यटन करती रहती हैं। इनकी भाषा का नाम भी जिप्सी है। ईस्वी पाँचवी शताब्दी में जो प्राकृत रूप आर्यभापा का था, इनकी भाषा उसी की संतान है। यद्यपि भिन्न भिन्न स्थानों में भ्रमण करते रहने और अनेक भाषाभाषियों के संसग से उनके भाषा में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है। परन्तु उनको भापा के शब्द भाण्डार पर आर्यभाषा की छाप लगी स्पष्ट दृष्टिगत होती है।