हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/प्रथम खंड/पाँचवाँ प्रकरण - अंतरंग और बहिरंग भाषा

विकिस्रोत से
[ ७० ]

(७०)

प्रकरण।
अन्तरंग और वहिरंग भाषा।

जिन आर्य परिवार की भाषाओं का वर्णन अभी हुआ, कहाजाता है, उनमें दो विभाग हैं। एक का नाम है अन्तरंगभाषा और दूसरी का बहिरंग। इनभाषाओं की मध्य की भाषा को मध्यवर्ती भाषा कहते हैं. और वह है अर्धमागधी से प्रसूत वर्तमान काल की पूर्वी हिन्दी । अन्तरंग भाषा में निम्नलिखित भाषाओं की गणना है १ पश्चिमी हिन्दी २ पूर्वी पहाड़ी ३ मध्यपहाड़ी ४ पंजाबी ५ राजस्थानी ६ गुजराती और ७ पश्चिमीय पहाड़ी।

निम्न लिखित भाषायें बहिरंग कहलाती हैं --

१ मराठी । २ उड़िया । ३ विहारी । ४ बंगाली . ५ आसामी । ६ सिंधी और ७ पश्चिमी पंजाबी।

हौर्नेलका विचार है कि आर्यों के भारत में दो दल आये एक पहले आया और दूसरा बाद को। जो दल पहले आया, वह मध्य देश में आकर वहीं बस गया । इस दल के पश्चात् दूसरा प्रबलदल आया, और उसने अपने सजातियों को मध्य देश से निकाल बाहर किया। निकाले जाने पर पहले दल वाले मध्यदेश के ही चारों ओर. अर्थात उसके पूर्व, पश्चिम उत्तर और दक्षिण ओर फैल गये, और वहीं बस गये। नवागत आयमध्य देश में बम जाने के कारण 'अन्तरंग', और प्रथमागत आर्य मध्यदेश के बाहर निवास करने के कारण 'विहिरंग' कहलाये। 'अन्तरंग' आर्यों में ही वैदिक संस्कृति और ब्राह्मण कालीन विचारों का विकास हुआ। भारत में दो भिन्न विरोधी दल आने के सिद्धान्त को डाक्टर जी० ए० ग्रियर्सन ने भी स्वीकार किया है। वे कहते हैं 'वहिरंग' आर्यों का 'डार्डिक' भाषाभाषियों से घनिष्ट सम्बन्ध था, और ऐसा ज्ञात होता है कि वे उन्हों की एक शाखा थे। मध्यदेश से चले जाने पर वहिरंग आर्य पंजाब, सिंध, गुजरात, राजपुताना, महाराष्ट्र प्रदेश, [ ७१ ]

(७१)

पूर्वीयहिन्दीक्षेत्र, विहार और उत्तर में हिमालय की तराइयों में बसे । मध्यदेश के अन्तरंग आर्यों की भाषा का वर्त्तमान प्रतिनिधि पश्चिमी हिन्दी है। अन्यप्रचलित आर्यभाषायें. 'वहिरंग' आर्यभाषा से विकसित हुई है"?

यहां यह प्रश्न हो सकता है कि जब पंजाब, गुजरात और राजपुताना वहिरंग आर्यों का ही निवास स्थान था. तो वहा की भाषायें अन्तरंग कैसे हो गई ? सिंध, महाराष्ट्र और बिहार के समान वहिरंग क्यों नहीं हुई? इसका उत्तर यह दिया जाता है कि प्रचारकों और विजेताओं द्वारा मध्यदेश की शौरसेनी भापाका बहुत बड़ा प्रभाव बाद को पंजाब, गुजरात और राजस्थान पर पड़ा, इसलिये इन स्थानों की भाषायें काल पाकर अन्तरंग बनगई। इसी प्रकार राजस्थान और गुजरात के कुछ विजयी आगन्तुकों के प्रभाव से हिमालय की तराइयों की भाषा भी अन्तरंग हो गई। डाः जी० ए० ग्रियर्सन लिखते हैं

'मध्यदेशनिवासी आर्यों के वहां से राजपुताना और गुजरात में आ बसने के विषय में बहुत सी प्रचलित कथायें हैं। पहली यह है कि महाभारत के युद्ध काल में द्वारिका की नींव गुजगत में पड़ी। जैनों के प्राचीन कथानकों के अनुसार गुजरात का सब से पहला चालुक्य गजा कन्नौज से आया। कहा जाता है नवों ईस्वी शताब्दी के प्रारम्भ काल में पश्चिमीय राजपुताने के भीलमाल अथवा भीनमाल नामक स्थान के एक गुर्जर राजपूत ने भी गुजरात को जीता। मारवाड़ के राठौर कहते हैं कि वे वहां पर बारहवों ईस्वी शताब्दी में कन्नौज से आये । जयपुर के कछवाहे अयोध्या से आने का दावा करते हैं। गुजरात और राजपुतानेका घनिष्ट राजनैतिक सम्बन्ध इस ऐतिहासिक घटना से भी प्रकट होता है कि मेवाड़ के गहलौत वहां पर सौराष्ट्र से आये"

."गुर्जरों ने हूण तथा अन्य आक्रमण कारियों के साथ ईस्वी छठवींशताब्दी में भारत में प्रवेश किया, और वे शीघ्र ही बड़े शक्ति शाली

| The origin and development of the Bengali Language ($ 29)p.30 [ ७२ ]

(७२)

हो गये। भारत के चार प्रदेशों ने इन्हीं के नाम के आधार से अपना नाम ग्रहण किया है, उन में से दो हैं गुजरात और गुजरानवाला, ये दोनों पंजाब के जिले हैं, तीसग है गुजरात प्रान्त । आलवरूनी जो दशवीं ईस्वी शताब्दी में यहाँ आया, चौथा नाम बतलाता है, यह वह प्रदेश है जो जयपुर के उत्तर पूर्वीय भाग तथा अलवर राज्य के दक्षिण भाग से मिलकर बना है, डाक्टर भाण्डारकर भी इस कथन की पुष्टि करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि पिछले गुर्जर हिमालय के उस भाग से आये जिसे सपादलक्ष कहते हैं। यह प्रदेश आधुनिक कमायूं गढ़वाल और उसका पश्चिमी भाग माना जासकता है। पूर्वीयराजपुताना उस समय इन गुर्जरों से भर गया था। १

इन पंक्तियों के पढ़ने से आशा है यह स्पष्ट हो गया होगा कि किस प्रकार मध्य देश के विजयी गुजरात और राजस्थान में पहुँचे. और कैसे उनके प्रभाव से प्रभावित होने के कारण इन प्रान्ताे में अन्तरंग भाषा का प्रचार हुआ। यहां मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूं कि गुर्जर विदशी भले ही हों, परन्तु वे मध्य देश वालों की सभ्यता के ही उपासक और प्रचारक थे. क्योंकि ब्राह्मणों द्वारा दीक्षित हो कर उन्होंने वैदिक धम में प्रवेश किया था। डाक्टर ग्रियर्सन लिखते हैं--

“अब इस बात को बहुत से विद्वानों ने स्वीकार किया है, कि कतिपय राजपूतों के दल परदेशी गुर्जरों के वंशज हैं, उनका केन्द्र आबू पहाड़ तथा उसके आस पास का स्थान था। प्रधानतः वे कृषक थे, पर उनके पास भी प्रधान लोग और योद्धा थे। जब यह दल गण्यमान हो गया, तो उनको ब्राह्मणों ने क्षत्रिय पदवी दी, और वे राजपुत्र अथवा राजपूत कहलाने लगे, कुछ उनमें से ब्राह्मण भी बनगये” २–गुर्जरों के ब्राह्मण क्षत्रिय बनने के सिद्धान्त का आजकल प्रवल खण्डन हो रहा है, परन्तु मुझ को इस वितण्डावाद में नहीं पड़ना है। मैं ने इन पंक्तियों

Bulletin of the School of Oriental Stude; London Institue(S13) p. 58

2 lbid. (S12) p. 57. [ ७३ ]

(७३)

को यहां इसलिये उठाया है, कि जिस से इस सिद्धान्त पर प्रकाश पड़ सके कि किस प्रकार गुजरात, राजस्थान और पूर्वीय पंजाब में अन्तरङ्ग भाषा का प्रचार हुआ। अब बिचारना यह है कि अन्तरंग और वहिरंग भाषाओं में कौनसी ऐशी विभिन्नतायें हैं, जो एक को दूसरी से अलग करती हैं। डाक्टर चटर्जी कहते हैं---

"डाक्टर ग्रियर्सन ने जिन कारणों के आधार से अन्तरंग और वहिरंग भाषाओं को माना है, वे प्रधानतः भाषा सम्बन्धी हैं। विचार करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि पश्चिमी हिन्दी तथा अन्य आर्य भाषाओं में कुछ विषमतायें हैं। उन्हों ने देखा कि ये विषमतायें जो कि सब 'वहिरंग' भाषाओं में एक ही हैं, प्राचीन आर्यभाषाओं के दोनों विभागों अर्थात् अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं के भेद से ही उत्पन्न हुई हैं। केवल इतना ही नहीं कि वहिरंग भाषाओं की पारस्परिक समानता उन्हीं बातों में है, जिनमें अन्तरंग भाषा से भिन्नता है, वरन् डार्डिक भाषायें प्रायः उन्हीं कुल विशेषताओं से भगे हैं, जिनसे कि वहिरंग भाषायें परिपूर्ण हैं। इस लिये अन्तरंग से उसकी भिन्नता और स्पष्ट हो जाती है" । १

कुछ मुख्य २ भिन्नतायें लिखी जाती हैं

"इन दोनों शाखाओं की भाषाओं के उच्चारण में अन्तर है । जिन वर्णों का उच्चारण सिसकार के साथ करना पड़ता है, उनको अन्तरंग भाषावाले बहुत कड़ी आवाज़ से बोलते हैं, यहां तक कि वह दन्त्य स हो जाता है। परन्तु वहिरंग भाषावाले ऐसा नहीं करते। इसी से मध्यदेश वालों के 'कोस' शब्द को सिन्धवालों ने 'कोह' कर दिया। पूर्व की ओर बंगाल में यह 'स' श' हो जाता है। आसाम में गिरते गिरते 'स' की आवाज़ 'च' की सी हो गई है। काश्मीर में तो उसकी कड़ी आवाज़ बिल्कुल जाती रही है, वहाँ भी अन्तरंग भाषा का 'स' बिगड़ कर 'ह' हो गया है।

| Dr. S. K. Chatterjee: The origin and development of the •

Bengali Language (S29)p.31. [ ७४ ]

(७४)

संज्ञाओं में भी अन्तर है, अन्तरंग भाषाओं की मूल विभक्तियां प्रायः गिर गई हैं, उनका लोप होगया है और धीरे धीरे उनकी जगह पर और ही छोटे छोटे शब्द मूल शब्दों के साथ जुड़ गये हैं, जो विभक्तियों का काम देते हैं। उदाहरण के लिये हिन्दी भाषा की 'का' 'को' 'से' आदि विभक्तियों को देखिये ए जिस शब्द के अन्त में आती हैं, उस शब्द का उन्हें मूल अंश न समझना चाहिये। ये पृथक शब्द हैं, और विभक्तिगत अपेक्षित अर्थ देने के लिये जोड़े जाते हैं। इसलिये वहिरंग भाषाओं को व्यवच्छेदक भाषायें कहना चाहिये । वहिरंग भाषायें जिस समय पुरानी संस्कृत के रूप में थीं, संयोगात्मक थीं। 'का' 'को' 'से' आदि से जो अर्थ निकलता है उसके सूचक शब्द उनमें अलग न जोड़े जाते थे। इस के बाद उन्हें व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हुआ, सिंधी और काश्मीरी भाषायें अब तक कुछ कुछ इसी रूप में हैं। कुछ काल बाद फिर ये भाषायें संयोगात्मक होगई, और व्यवच्छेदक अवस्था में जो विभक्तियां अलग हो गई थीं, वे इनके मूलरूप में मिल गई। बँगला में पष्ठी विभक्ति का चिन्ह “एर” इसका अच्छा उदाहरण है।

क्रियाओं में भी भेद है, वहिरंग भाषायें पुरानी संस्कृत की किसी ऐसी एक या अधिक भापाओं से निकली हैं, जिनकी भूतकालिक भाववाच्य क्रियाओं से सर्वनामात्मक कर्ता के अर्थ का भी बोध होता था। अर्थात् क्रिया और कर्ता एक ही में मिले होते थे। यह विशेषता वहिरंगभाषा में भी पाई जाती है । उदाहरण के लिये बँगलाभाषा का 'मारिलाम' देखिये। इसका अर्थ है मैं ने माग । परन्तु अन्तरंग भाषायें किसी ऐसी एक या अधिक भाषाओं से निकली हैं, जिनमें इस तरह के क्रियापद नहीं प्रयुक्त होते थे। उदाहरण के लिये हिन्दी का मारा लीजिये, इससे यह नहीं ज्ञात होता कि किसने मारा। मैंने मारा, तुमने मारा, उसने मारा, जो चाहिये समझ लीजिये। 'मारा' का रूप सब के लिये एकही होगा। इससे साबित है कि अन्तरंग और वहिरंगभाषायें प्राचीन आर्यभाषा की भिन्न भिन्न शाखाओं से निकली हैं, इनका उत्पत्तिस्थान एक नहीं है"। २

२ देखो हिन्दी भाषा की उत्पत्ति नामक ग्रन्थ का पृष्ट १४ । [ ७५ ]

(७५)

पहले पृष्टों में मैं ने इस सिद्धान्त को नहीं स्वीकार किया है, कि आर्यजाति बाहर से आई। मैंने प्रमाणों के द्वारा यह सिद्ध किया है कि आर्य जाति भारत के पश्चिमोत्तर भाग से ही आकर भारतवर्ष में फैली। यद्यपि इस सिद्धान्त के मानने से भी मध्यदेश में आर्यों के एक दल का पहले और दूसरे दल का बाद में आना स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु इस स्वीकृति की बाधक वह विचार-परम्परा है जो इस बात को भलीभांति प्रमाणित कर चुकी है कि पश्चिमागत आर्यजाति का समूह चिरकाल तक सप्रसिन्धु में रहा, और वहीं वैदिक संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ। मेरा विचार है पूर्वागत और नवागत आर्य समूह की कल्पना, और इस सिद्धान्त के आधार पर अन्तरंग और वहिरंग भाषाओं की सृष्टि युक्ति संगत नहीं, हर्ष है कि आजकल इस विचार का विरोध होने लगा है।

कुछ विवेचक भाषा विभिन्नता सिद्धान्त को साधारण मानते हैं, उनका कथन है कि विभिन्नतायें वे विशेषतायें नहीं बन सकतीं, जो किसी एक भाषा को दूसरी भाषा से अलग करती हैं । वहिगंगभाषा की जिन विभिन्न- ताओं के आधार पर अंतरंग भाषा को उससे अलग किया जाता है, वे स्वयं उसमें मौजूद हैं। इन लोगों ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं। अंतरंग और वहिरंग भाषा की उपरिलिखित विभि- न्नताओं की चर्चा करके "हिन्दी भाषा और साहित्य” नामक ग्रन्थ में यह लिखा गया है -

"इसमत का अब खण्डन होने लगा है। और दोनों प्रकार की भाषाओं के भेद के जो कारण ऊपर दिखाये गये हैं, वे अन्यथा सिद्ध हैं। जैसे----'स' का 'ह' हो जाना केवल वहिरंग भाषा काही लक्षण नहीं हैं, किन्तु अन्तरंग मानी जाने वाली पश्चिमी हिन्दी में भी ऐसा होता है । इसके तस्य-तस्स-तास-ताह-ता (ताको-ताहि इत्यादि ) करिष्यति- करिस्सदि-करिसद-करिहइ-करि है, एवं केसरी से केहरी आदि बहुत से

उदाहरण मिलते हैं। इसी प्रकार वहिरंग मानी जाने वाली भाषाओं में [ ७६ ]

७६

भी 'स' का प्रयोग पाया जाता है--जैसे राजस्थानी ( जयपुरी) करसी, पश्चिमी पंजाबी 'करेसी' इत्यादि । इसी प्रकार संख्यावाचकों में 'स' का 'ह' प्रायः सभी मध्यकालीन तथा आधुनिक आर्यभाषाओं में पाया जाता है। जैसे पश्चिमी हिन्दी में 'ग्यारहबारह' 'चौहत्तर' इत्यादि” । १

'अंतरंग वहिरंग भेद के संयोगावस्था के प्रत्ययों और वियोगावस्था के स्वतंत्र शब्दों के भेद की कल्पना भी दुर्बल है। अंतरंग मानी गई पश्चिमी हिन्दी तथा अन्य सभी आधुनिकभाषाओं में संयोगावस्थापन्नरूपों का आभास मिलता है। यह दूसरी बात है कि किसी में कोई रूप सुरक्षित है किसी में कोई। पश्चिमी हिन्दी और अन्य आधुनिक आर्यभाषाओं की रूपावली में स्पष्टतः हम यही भेद पाते हैं कि उसमें कारक चिन्हों के पूर्व विकारी रूप ही आते हैं । जैसे—'घोड़े का' में 'घोड़े। यह घोड़े, घोड़हि ( घोटस्य अथवा घोटक+ तृतीया बहुवचन विभक्ति, ('हि'-भिः ) से निकला है। यह बिकारी रूप संयोगावस्थापन्न होकर भी अन्तरंग मानी गई भाषाका है। इसके विपरीत वहिरंग मानीगई बँगला का घोड़ार, और विहारी का 'घोराक' रूप संयोगावस्थापन नहीं, किन्तु घोटक+कर और घोड़ार+क-क्क से घिस घिसाकर बना हुआ सम्मि- श्रण है । पुनश्च अंतरंग मानी हुई जिस पश्चिमी हिन्दी में वियोगावस्थापन्न रूप ही मिलने चाहिये, कारकों का बोध स्वतंत्र सहायक शब्दों के द्वारा होना चाहिये, उसी में प्रायः सभी कारकों में ऐसे रूप पाये जाते हैं जो नितान्त संयोगावस्थापन्न हैं। अतएव वे बिना किसी सहायक शब्द के प्रयुक्त होते हैं।

उदाहरण लीजिये-

कर्ता एकवचन-घोड़ो ( ब्रजभाषा ) घोड़ा ( खड़ीबोली ) घरु (ब्रजभाषा नपुंसकलिंग )।

१-देखो 'हिन्दी भाषा और साहित्य' पृष्ठ ३२ [ ७७ ]

(७७)

कर्ता बहुवचन-घोड़े (-घोड़ेह घोड़हि=तृतीया बहुवचन 'मैं' के समान प्रथमा में प्रयुज्यमान )।

करण-आंखों (=अक्खिहिं, खुसरूवाको आंखों दीठा-अमीर खुसरो) कानों ( कण्णहिं )

करण-( कर्ता )-मैं ( ढोला मइ तुहु वारिआ ) मैं सुन्यो साहिबिन . आँषिकीन—पृथ्वी ) तँ, मैं ने, तैं ने ( दुहरी विभक्ति) .

अपादान-एकवचन-भुक्खा (=भूखसे -- बांगडू ) भूखन, भूखों (ब्रज-भाषा, ( कनौजी)

अधिकरण - एकवचन-घरे-आगे-हिंडोरे ( बिहारी लाल ) माथे (सूरदास)

दूसरे वहिरंग मानी गई पश्चिमी पंजाबी में भी पश्चिमी हिन्दी के समान सहायक शब्दों का प्रयोग होता है। घोड़ेदा ( घोड़े का ) घोड़े ने घोड़े नू इत्यादि। इससे यह निष्कर्ष निकला, कि बँगला आदि में पश्चिमी हिन्दी से बढ़ कर कुछ संयोगावस्थापन्न रूपावली नहीं मिलती । अतः उसके कारण दोनों में भेद मानना अयुक्त है"। १

डाकर चटर्जी ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा है, और अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में बड़ा पाण्डित्य प्रदर्शन किया है। खेद है कि मैं उनके सम्पूर्ण विवेचन को स्थान की संकीर्णता के कारण यहां नहीं उठा सकता। परन्तु विवेचना के अन्तिम निर्णय को लिख देना चाहता हूँ, वह यह है और मैं उससे पूर्णतया सहमत हूं--

“पुरातत्व और मानव इतिहास के आधार पर 'वहिरंग' आर्योका 'अन्तरंग' आर्यों के चारों ओर वस जाने की बात को पुष्ट करने की चेष्ठा उसी प्रकार अप्रमाणित रह जाती है, जैसे भाषासम्बन्धी सिद्धान्त के सहारे से निश्चित की हुई बातें । २

"The attempt to establish on anthropometrical and etheological

ground is a ring of "Outer" Aryandom Round an "inner" core is as unconvincing as that on Iniguistic grounds."

१ देखो-'हिन्दी भाषा और साहित्य' पृ० १५१, १५२ ।

२ देखो-'ओरिजन एंड डिवलेपमेन्ट आफ बंगाली लांगवेज पृ० ३३ (३१)