हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/प्रथम खंड/प्रथम प्रकरण - भाषा की परिभाषा

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हिन्दीभाषा

और

उसके साहित्य का विकास।

प्रथम खण्ड

प्रथम प्रकरण

भाषा की परिभाषा

भाषा का विषय जितना सरस और मनोरम है, उतना ही गंभीर और कौतूहल जनक। भाषा मनुष्यकृत है, अथवा ईश्वरदत्त, उसका आविर्भाव किसी काल विशेष में हुआ, अथवा वह अनादि है। वह क्रमशः विकसित होकर नाना रूपों में परिणत हुई, अथवा आदि कालसे ही अपने मुख्य रूप में वर्त्तमान है। इन प्रश्नों का उत्तर अनेक प्रकार से दिया जाता है। कोई भाषा को ईश्वरदत्त कहता है, कोई उसे मनुष्यकृत बतलाता है। कोई उसे क्रमशः विकाश का परिणाम मानता है, और कोई उसके विषय में 'यथा पूर्वमकल्पयत्' का राग अलापता है। मैं इसकी मीमांसा करूँगा। मनुस्मृतिकार लिखते हैं—

सर्वेषांतु सनामानि कर्माणि च पृथक पृथक्।
वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थांश्च निर्ममे।१।२१।
तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधमेव च।
सृष्टिं ससर्ज चैवेमां स्रष्टुमिच्छन्निमा प्रजाः।१।२५।

'ब्रह्मा ने भिन्न भिन्न कर्मों और व्यवस्थाओं के साथ साथ सारे नामों का निर्माण सृष्टि के आदि में वेदशब्दों के आधार से किया'। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से परमात्मा ने, तप, वाणी, रति, काम और क्रोध को उत्पन्न किया। [  ]पवित्र वेदों में भी इस प्रकार के वाक्य पाये जाते हैं—यथा

"यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः"

'मैंने कल्याणकारीवाणीमनुष्यों को दी'

अध्यापक मैक्समूलर इस विषय में क्या कहते हैं, उसको भी सुनिये—"भिन्न भिन्न भाषा परिवारों में जो ४०० या ५०० धातु उनके मूलतत्व-रूप से शेष रह जाते हैं, वे न तो मनोराग व्यञ्जकध्वनियाँ हैं, और न केवल अनुकरणात्मक शब्द ही। हम उनको—वर्णात्मक शब्दों का साँचा कह सकते हैं। एक मानसविज्ञानी या तत्वविज्ञानी उनकी किसी प्रकार की व्याख्या करे—भाषाके विद्यार्थी के लिये तो ये धातु अन्तिम तत्व ही हैं। प्लेटो के साथ हम यह कह सकते हैं कि वे स्वभाव से ही विद्यमान हैं, यद्यपि प्लेटो के साथ हम इतना और जोड़ देंगे कि, 'स्वभाव से' कहने से हमारा आशय है 'ईश्वर की शक्ति से'"[१]

प्रोफ़ेसर पाट कहते हैं

"भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया, केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, पर किसी भी पिछली जाति ने एक धातु भी नया नहीं बनाया। हम एक प्रकार से वही शब्द बोल रहे हैं, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुँह से निकले थे" २ जैक्सन-डेविस कहते हैं—भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदिम है। "भाषा के मुख्य उद्देश्य में उन्नति होना कभी संभव नहीं। क्योंकि उद्देश सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता। वे सदैव अखण्ड और एक रस रहते हैं"।[२]

इस सिद्धान्त के विरुद्ध जो कहा गया है, उसे भी सुनिये—

डार्विन और उसके सहयोगी, 'हक्सले' 'विजविड' और 'कोनिनफ़ार' यह कहते हैं "भाषा ईश्वर का दिया हुआ उपहार नहीं है, भाषा शनैः शनैः ध्वन्यात्मक शब्दों और पशुओं की बोली से उन्नति करके इस दशा को पहुंची है" [  ]'लाक' 'एडम्‌स्मिथ' और 'ड्‌यूगल्ड स्टुअर्ट' आदि की यह सम्मति है—

"मनुष्य बहुत काल तक गूंगा रहा, संकेत और भ्रूप्रक्षेप से काम चलाता रहा, जब काम न चला तो भाषा बना ली और परस्पर सम्बाद कर के शब्दों के अर्थ नियत कर लिये"[३]

तुलनात्मक भाषा शास्त्र के रचयिता अपने ग्रन्थ के पृष्ट १९९ और २०१ में इस विषय में अपना यह विचार प्रकट करते हैं—

"पहिला सिद्धान्त यह है कि पदार्थों के और क्रियाओं के पहले नाम जड़- चेतनात्मक बाह्य जगत की ध्वनियों के अनुकरण के आधार पर रखे गये। पशुओं के नाम उनकी विशेष आवाज़ों के ऊपर रखे गये होंगे। कोकिल या काक शब्द स्पष्ट ही इन पक्षियों के बोलियों के अनुकरण से बनाये गये हैं। इसी प्रकार प्राकृतिक या जड़ जगत की भिन्न भिन्न ध्वनियों के अनुसार जैसे वायु का सरसर बहना, पत्तियों का मर्मर रव करना, पानीका झरझर गिरना या बहना, भारी ठोस पदार्थों का तड़कना या फटना इत्यादि के अनुकरण से भी अनेक नाम रखे गये। इस प्रकार अनुकरण के आधार पर मूल शब्दों का पर्याप्त कोश बन गया होगा। इन्हीं बीज रूप मूल शब्दों से धीरे २ भाषा का विकास हुआ है। इस सिद्धान्त को हम शब्दानुकरण-मूलकता-वाद नाम दे सकते हैं।

दूसरे सिद्धान्त इस प्रकार हैं। हर्ष शोक आश्चर्य आदि के भावोंके आवेग में कुछ स्वाभाविक ध्वनियाँ हमारे मुंह से निकल पड़ती हैं, जैसे हाहा, हाय हाय! वाह वाह इत्यादि। इस प्रकार की स्वाभाविक ध्वनियाँ मनुष्यों में ही नहीं और प्राणियों में भी विशेष विशेष रूप की पाई जाती हैं। प्रारम्भ में ये ध्वनियाँ बहुत करके हमारे मनोरागों की ही व्यञ्जक रही होंगी, विचारों की नहीं। भाषा का मुख्य उद्देश्य हमारे विचारों को प्रकट करना होने से इन ध्वनियों ने भाषा के बनाने में जो भाग लिया, उसके लिये यह आवश्यक था, कि ये ध्वनियां मनोरागों के स्थान में विचारों की द्योतक समझी जाने लगी हों। इन्हीं ध्वनियों के दोहराने, कुछ देर तक बोलने, और स्वरके उतार चढ़ाव द्वारा इनके अर्थ या अभिधेय का क्षेत्र


[  ]विस्तीर्ण होता गया होगा। धीरे धीरे वर्णात्मक स्वरूप को धारण करके यही

ध्वनियां मानवीभाषा के रूपको प्राप्त हो गई होंगी। इस प्रकार हमारी भाषा की नींव आदि में इन्हीं स्वाभाविक ध्वनियों पर रखी गई होगी। इस सिद्धान्त का नाम हम मनोराग-व्यञ्जक-शब्द-मूलकता-वाद रख सकते हैं"।

उभय पक्षने अपने अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में ग्रन्थ के ग्रन्थ लिख डाले हैं, और बड़ा गहन विवेचन इस विषय पर किया है। परन्तु आजकल अधिकांश सम्मति यही स्वीकार करती है कि भाषा मनुष्यकृत और क्रमशः विकास का परिणाम है। श्रीयुत बाबू नलिनी मोहन सान्याल एम॰ ए॰ अपने भाषा विज्ञान की प्रवेशिका में यह लिखते हैं—

"मैक्समूलर ने कहा है कि हम अभी तक नहीं जानते कि भाषा क्या है यह ईश्वर दत्त है, या मनुष्यनिर्मित या स्वभावज। परन्तु उन्होंने पीछे से इसको स्वभावज माना है, और बाद के दूसरे विद्वानों ने भी इसको स्वभावज प्रमाणित किया है"।

भाषा चाहे स्वभावज हो अथवा मनुष्यकृत, ईश्वर को उसका आदि कारण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि स्वभाव उसका विकास है और मनुष्य स्वयं उसकी कृति है। मनुष्य जिन साधनों के आधार से संसार के कार्यकलाप करने में समर्थ होता है, वे सब ईश्वरदत्त हैं, चाहे उनका सम्बंध बाह्य जगत् से हो अथवा अन्तर्जगत् से। जहां पंचभूत और समस्त दृश्यमान जगत में उसकी सत्ता का विकास दृष्टिगत होता है, वहां मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ज्ञान विवेक विचार आदि अन्तः प्रवृत्तियों में भी उसकी शक्ति कार्य करती पाई जाती है। ईश्वर न तो कोई पदार्थविशेष है, न व्यक्तिविशेष, वरन जिस सत्ता के आधार से समस्त संसार, किसी महान् यंत्र के समान परिचालित होता रहता है, उसीका नाम है ईश्वर। संसार स्वयं विकसित अवस्था में है, किसी बीज ही से इसका विकास हुआ है, इसी प्रकार मनुष्य भी किसी विकास का ही परिणाम है, किन्तु उसका विकास संसार विकास के अन्तर्गत है। कहने वाले कह सकते हैं कि मनुष्य लाखों वर्ष के विकास का फल है, अतएव वह ईश्वर कृत नहीं। किन्तु यह कथन ऐसा ही होगा, जैसा बहुवर्ष व्यापी विकास के परिणाम किसी पीपल के प्रकाण्ड वृक्ष को देख कर कोई [  ]यह कहे कि इसका सम्बन्ध किसी अनन्तकाल व्यापी बीज से नहीं हो सकता। भाषा चिरकालिक विकास का फल हो, और उसके इस विकास का हेतु मानव समाज ही हो, किन्तु जिन योग्यताओं और शक्तियों के आधार से वह भाषा को विकसित करने में समर्थ हुआ, वे ईश्वर दत्त हैं, अतएव भाषा भी ईश्वर कृत है, वैसे ही जैसे संसार के अन्य वहुविकसित पदार्थ। भगवान मनु के ऊपर के श्लोकों का यही मर्म है। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से जिस प्रकार परमात्मा ने तप, रति, काम, और क्रोध को उत्पन्न किया, उसी प्रकार वाणी को भी, यही उनका कथन है। जैसे कोई तप और काम को आदि से मनुष्य कृत नहीं मानता, उसी प्रकार वाणी को भी मनुष्य कृत नहीं कह सकता। मनुष्य की वाणी ही भाषा की जड़ है, वाणी ही वह चीज़ है, जिससे भाषा पल्लवित हो कर प्रकाण्ड वृक्ष के रूप में परिणत हुई है, फिर वह ईश्वर कृत क्याें नहीं?

'यथेमां वाचं कल्याणी मा वढानि जनेभ्यः, इस श्रुति में भी 'वाचं शब्द है, भाषा शब्द नहीं। प्रथम श्लोक के वेद शब्देभ्य, वाक्य में भी शब्द का ही प्रयोग है, उस शब्द का जो आकाश का गुण है, और आकाश के समान ही व्यापक और अनन्त है। वाणी मनुष्य समाज तक परिमित है, किन्तु शब्द का सम्बन्ध प्राणिमात्र से है, स्थावर और जड़ पदार्थो में भी उसकी सत्ता मिलती है। यही शब्द भाषा का जनक है, ऐसी अवस्था में यह कौन नहीं स्वीकार करेगा। कि भाषा ईश्वरीय कला की ही कला है। कोलरिक, कहता है—

भाषा मनुष्य का एक आत्मिक साधन है, इसकी पुष्टि महाशय ट्रीनिच ने इस प्रकार की है "ईश्वर ने मनुष्य को वाणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुद्धि दी है, क्यों कि मनुष्य का विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है" १

मैं ने मनुभगवान के विचारों को स्पष्ट करने और भाषा की स्टष्टि पर प्रकाश डालने के लिये अब तक जो कुछ लिखा है; उससे यह न समझना

१ देखो स्टडी आफ़ वर्डस् आर. सी. ट्रीनिच. डी. डी. [  ]चाहिये कि ईश्वर और मनुष्य की कृति में जो विभेद सीमा है, मैं उसको मानना नहीं चाहता। गजर को हाथ में लेकर कौन यह न कहेगा कि यह माली का बनाया है, परंतु जिन फूलों से गजरा तैयार हुआ उनको उसने कहां पाया, जिस बुद्धि विचार एवं हस्तकौशल से गजरा बना, उन्हें उसने किससे प्रान किया। यदि यह प्रश्न होने पर ईश्वर की ओर दृष्टि जाती है और उसके प्राप्त साधनों और कार्यों में ईश्वरीय विभूति देख पड़ती है, तो गजरे को ईश्वर कृत मानने में आपत्ति नहीं हो सकती, मेरा कथन इतना ही है। अनेक आविष्कार मनुष्यों के किये हैं, बड़े २ नगर मनुष्यों के बनाये और वसाये हैं। उसने बड़ी बड़ी नहरे निकाली; बड़े बड़े व्योमयान बनाये, रेल तार आदि का उद्भावन किया, उंची ऊंची मीनारे खड़ी की; सहस्रों प्रकाण्ड प्रकाशम्तम्भ निर्माण किये, इसको कौन अम्वीकार करेगा। मनुष्य विद्याओं का आचार्य है, अनेक कलाओं का उद्भावक है, वरन यह कहा जा सकता है कि ईश्वरीय स्टष्टि के सामने अपनी प्रतिभा द्वारा उसने एक नयी स्टष्टि ही खड़ी कर दी है, यह सत्य है, इसको सभी स्वीकार करेगा। परन्तु उसने ऐसी प्रतिभा कहां पाई, उपयुक्त साधन उसको कहां मिले, जब यह सवाल छिड़ेगा, तो ईश्वरीय सत्ता की ओर ही उंगली उठेगी, चाहे उसे प्रकृति कहें या और कुछ। इसी प्रकार यह सत्य है कि संसार की समस्त भाषायें क्रमश; विकाम का फल हैं, देश काल और आवश्यकतायें ही उनके सृजन का आधार है, मनुष्य का सहयोग ही उनका प्रधान सम्वल है, किन्तु सब में अन्तर्निहित किसी महानशक्ति का हाथ है यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। ऐसा कह कर न तो मैंने ईश्वर दत्त मनुष्य की बुद्धि और प्रतिभा आदिका तिरस्कार किया, और न उनकी महिमा ही कम की। न वादग्रस्त विषय को अधिक जटिल बना दिया और न सुलझे हुये बिषय को और उलझन में डाला। वरन वास्तविक बात बतला, जहां मानव की आन्तरिक प्रवृत्तियों को ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न कहा, और इस प्रकार उन्हें विशेष गौरव प्रदान किया। वहां दो परस्पर टकराते और उलझते हुये विषयों के बीच में ऐसी बातें रखीं जिनसे वर्द्धमान जटिलता बहुत कुछ कम हो सकती है, और उभयपक्ष अधिकतर सहमत हो सकते हैं। संसार में जितनी भाषायें [  ]यथा समय विकसित होकर इस समय जीवित, और कर्मक्षेत्र में उतर कर रातदिन कार्य्यरत हैं, उन्हीं में से एक हमारी हिन्दी भाषा भी है। यह कैसे विकसित हुई, इसमें क्या क्या परिवर्तन हुए, इसकी वर्तमान अवस्था क्या है? और उन्नति पथ पर वह किस प्रकार दिन प्रतिदिन अग्रसर हो रही है,मैं क्रमशः इन बातों का वर्णन करूंगा। आशा है यह वर्णन रोचक होगा।

  1. देखो मैक्समूलर—के 'लेकचर्स आन दि साइन्स आफ़लांगवेज का पृष्ट ४३९
  2. देखो अक्षर, विज्ञान, का पृष्ट ३३-३४
  3. देखो हारमोनिया भाग ५ पृष्ट ७३