हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/प्रथम खंड/सप्तम प्रकरण - हिन्दी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव

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सप्तम प्रकरणा।


हिन्दी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव

हिन्दी भाषा में सबसे अधिक संस्कृतके शब्द पाये जाते हैं । इस हिन्दी भाषा से मेरा प्रयोजन साहित्यिक हिन्दी भाषा से है । बोलचाल की हिन्दी में भी संस्कृतके शब्द हैं, परन्तु थोड़े उसमें तद्भव शब्दोंकी अधिकता है। हिन्दुओंकी बोलचालमें अब भी संस्कृतके शब्दोंके प्रयुक्त होनेका यह कारण है, कि विवाह यज्ञोपवीत आदि संस्कारोंके समय. कथा वार्ता ओर धर्मचर्चाओं में, व्याखानों और उपदेशों में, नाना प्रकार के पर्व और उत्सवों में, उनको पंडितों का साहाय्य ग्रहण करना पड़ता है। पण्डितों का भाषण अधिकतर संस्कृत शब्दों में होता है, वे लोग समस्त क्रियाओंको संस्कृत पुस्तकों द्वारा कराते हैं। अतएव उनके व्यवहार में भी संस्कृत शब्द आते रहते हैं । सुनते सुनते अनेक संस्कृत शब्द उनको याद हो जाते हैं, अतएव अवसर पर वे उनका प्रयोग भी करते हैं। जब पुलकित चित्त से भगवान का स्मरण करने केलिये गोस्वामी तुलसी दास के अथवा कविवर सूरदास के पदों को गाते हैं, अन्य भक्तों के भजनों को सुनते हैं उस समय भी अनेक संस्कृत शब्द उनकी जिह्वा पर आते रहते हैं, और उनके विषय में उनका ज्ञान बढ़ता रहता है । इसलिये हिन्दुओं की बोलचाल में संस्कृत शब्दों का होना स्वाभाविक है। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि इनकी संख्या अधिक नहीं है। जो सँस्कृत के शब्द अपने शुद्ध रूप में व्यवहृत होते हैं, उनको तत्सम कहते हैं, यथा हर्ष, शोक, कार्य, कर्म, व्यवहार, धर्म आदि। जो संस्कृत शब्द प्राकृत में होते हुए हिन्दी तक परिवर्तित रूप में पहुंचे हैं. उनको तद्भव कहते हैं । जैसे काम, कान, हाथ इत्यादि । हिन्दी भाषा इन तद्भव शब्दों से ही बनी है। तद्भव शब्द के लिये यह आवश्यक नहीं है, कि जिस रूप में वह प्राकृत में था उस रूपको बदल कर हिन्दी में आवे तभी तद्भव कहलावे यदि उसने अपना संस्कृत रूप बदल दिया है और प्राकृत रूप में ही हिन्दी में आया है तो भी तद्भव कहलावेगा। हस्त को लीजिये, जब तक इस शब्द [ ९३ ]का व्यवहार शुद्ध रूप में होगा, तब तक वह तत्सम है। प्राकृत में हस्त का रूप हत्थ हो जाता है और हत्थ हिन्दीमें हाथ हो जाता है। हिन्दी भाषा की रीढ़ ऐसे ही शब्द हैं, यह स्पष्ट तद्भव है। परन्तु यदि हत्थ के रूप में ही हिन्दी में लेलिया जाता तो भी तद्भव ही कहलाता । प्राकृत में लोचन, लोयन, बन जाता है । और हिन्दी में इसी रूप में गृहीत होता है. थोड़ा भी नहीं बदलता, तो भी तद्भव ही कहलाता है। क्योंकि लोचन से उत्पन्न होने के कारण लोयन में तद्भवता ( उत्पन्न होने का भाव) मौजूद है। तत्सम शब्द के आदि और मध्य का हलन्त वर्ण प्रायः हिन्दी में सस्वर हो जाता है, प्राकृत और अपभ्रंश में भी इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है, क्यों कि सुखमुखोच्चारण के लिये जन साधारण प्रायः संयुक्त वर्णो के हलन्त वर्णों को सस्वर कर देता है, संस्कृत में इसको युक्तविकर्ष कहते हैं, ऐसे ही शब्द अर्ध तत्सम कहलाते हैं। धरम, करम, किरपा, हिरदय, अगिन, सनेह आदि ऐसे ही शब्द हैं जो धर्म, कर्म, हृदय, अग्नि, स्नेह के वे रूप हैं जो जनता के मुखों से निकले हैं। अवधी और ब्रजभाषा में ऐसे शब्दों का अधिकांश प्रयोग मिलता है। इन भाषाके कवियों ने भी भाषा को कोमल करने के लिये ऐसे कुछ शब्द गढ़े हैं । परन्तु खड़ी बोलीके कवियोंका मार्ग बिलकुल उलटा है, वे अर्द्ध तत्सम शब्दों का प्रयोग करते ही नहीं । हिन्दी का गद्य तो उस को पास फटकने नहीं देता। १ तत्सम २ अर्थ तत्सम और ३ तद्भव के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में और एक प्रकार के शब्द पाये जाते हैं इनको ४ देशज कहते हैं । ये देशज वे शब्द हैं जिनके आधार संस्कृत अथवा प्राकृत शब्द नहीं हैं । वे अनार्यो अथवा विजातीय भाषाओं से हिन्दी में आये हैं। जैसे गोड़, टाँग, उर्दू आदि । किसी किसीकी यह सम्मति है कि ऐसे शब्दों के विषय में यह ठीक पता नहीं चलता, कि वे कहां से आये, इसलिये वे देशज मान लिये गये। कुछ अनुकरणात्मक शब्द भी हिन्दी में हैं जैसे खटखटाना, गड़वड़ाना, बड़वड़ाना, फड़फड़ाना, चटपट, झटपट, खटपट इत्यादि। कहा जाता है ऐसे कुल शब्द देशज हैं, परन्तु अनेक भाषा मर्मज्ञोंने इस प्रकार के बहुत से शब्दों की उत्पत्ति संस्कृत से ही बतलाई है । सोधा मार्ग देशज शब्दों के निर्धारण का यही ज्ञात होता है कि जो [ ९४ ]तत्सम, तद्भव, अर्द्ध तत्सम, तत्समाभास अथवा विदेशी शब्द नहीं हैं, उन्हें देशज मान लिया जावे। हिन्दी भाषा में कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त होते हैं, जो देखने में तत्सम ज्ञात होते हैं, परन्तु वास्तव में वे तत्सम शब्द नहीं होते। जिनको संस्कृत का ज्ञान साधारण होता है, आदि में उनके द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है. जब उनके अनुकरण से दूसरे लोग भी उनका व्यवहार करने लग जाते हैं. तो काल पाकर वे गृहीत हो जाते और भाषा में चल जाते हैं । इस प्रकार के शब्द हैं, हरीतिमा, लालिमा, सत्या- नाश, प्रण और मनोकामना आदि। कुछ संस्कृत के विद्वान इस प्रकार के शब्दों का व्यवहार करने के विरोधी हैं. उनके द्वारा अब भी इस प्रणाली का यथा समय विरोध होता रहता है, परन्तु मेरा विचार है कि ऐसे चल गये और व्यापक बन गये, शब्दों का विरोध सफलता नहीं लाभ कर सकता। कारण इसका यह है कि समस्त प्राकृतों और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति ही इस प्रकार हुई है। भाषा में जब स्थान मिल गया है तब इस प्रकार के शब्दों का निकाल बाहर करना साधारण बात नहीं, ऐसी अवस्था में उनको उस भाषा का स्वतंत्र प्रयोग मान लेना ही अधिक युक्ति-संगत ज्ञात होता है। अनेक व्याकरण रचयिताओं ने इस पथ का अवलम्बन किया है, ऐसे शब्दों को तत्समाभास कह सकते हैं।। हिन्दी शब्द-भाण्डार पर विदेशी भाषाओं के शब्द का भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है। 'नानक' शब्द का प्रयोग नामकरण के लिये प्रायः काम में लाया जाता है, नानकचंद, नानक वख्श् नाम अब भी रखे जाते हैं परन्तु वास्तव में 'नानक' यूनानी शब्द है। 'कचहरी' शब्द घर घर प्रचलित है, और साहित्यिक भाषा में भी चलता रहता है परन्तु है यह पुर्तगाली भाषा का शब्द। शक और हूणों के शब्द भी प्राकृत और अपभ्रंश से होकर हिन्दी में आये हैं, परन्तु सबसे अधिक उसमें फारसी, अरबी और अङ्गरेज़ी के शब्द पाये जाते हैं। ६०० ईस्वी के लगभग मुहम्मदबिन क़ासिम ने सिन्धु को जीता, भारत के एक बड़े प्रदेश में मुसल्मानों की यह पहली विजय थी, उसके बाद १०० वर्ष तक पंजाब में मुसल्मानों का राज्य रहा तदुपरान्त वे धीरे धीरे भारत भर में फैल गये और लगभग [ ९५ ]८०० वर्ष तक उनका शासन चलता रहा। विजेता की भाषाका कितना प्रभाव विजित जाति पर पड़ता है, यह अप्रकट नहीं। इस आठ सौ वर्ष के बहुव्यापी समय में उसने कितना अधिकार भारतीय भाषाओं पर जमाया, इसका प्रमाण वे स्वयं दे रही हैं। हिन्दी भाषा वहांकी भाषा थी, जहां पर मुसल्मानोंके साम्राज्य का केन्द्र था, और जहां उनकी विजय वैजयन्ती उस समय तक उड़ती, रही जबतक उनका साम्राज्य ध्वंस नहीं हुआ। इसीलिये हिन्दी भाषा पर उनकी भाषा का बहुत अधिक प्रभाव देखा जाता है । अरबी मुसल्मानों की धार्मिक भाषा थी। विजयी मुसल्मान भारत में अग्ब से ही नहीं, ईरान और तुर्किस्तान से भी आये। इसलिये हिन्दी भाषा पर अरबी, फ़ारसी और तुर्की तीनों का प्रभाव पड़ा । इन तीनों भाषाओं के शब्द अधिकता से उसमें पाये जाते हैं। अधिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण उर्दू है, जो कठिनता से हिन्दी कही जा सकती है।

इन भाषाओं के अधिकतर शब्द संज्ञा रूप में गृहीत हुए हैं। मुस- ल्मानों के साथ बहुत से ऐसे पदार्थ और सामान भारत में आये, जिनका कोई संस्कृत और देशज नाम नहीं था, इसलिये हिन्दी में उनका अरबी, फ़ारसी आदि नाम ही व्यवहार में आया । जैसे साबुन, चिलम, नैचा, हुक्का, रिकाबी, तश्तरी आदि । प्रायः देखा जाता है कि शिक्षितजन ही नहीं, अपठित लोग भी राजकीय भाषा बोलने में अपना गौरव समझते हैं, इस कारण अनेक संस्कृत और हिन्दी शब्दों के स्थान पर भी अरबी, फ़ारसी एवं तुर्की शब्दों का प्रचार हुआ । और यह दूसरा हेतु हिन्दीमें विदेशी शब्दों के आधिक्य का हुआ।

आज कल वायु, मसिभाजन, लेखनी आदि के स्थान पर हवा ‘दवात' और क़लम आदि का ही अधिक प्रयोग देखा जाता है । नीचे लिखे शब्दों जैसे अनेक शब्द ऐसे हैं, कि जिनके स्थान पर हम गढ़े शब्दों का ही प्रयोग कर सकते हैं, फिर भी वे इतने सुबोध न होंगे, इसलिये ऐसे शब्द ही प्रायः मुखों से निकलते, और उनकी ब्यापकता हिन्दी में बढ़ाते हैं--

मज़दूर, वकील, गुलाब, कोतल, परदा, रसद कारीगर आदि [ ९६ ]इस प्रकार के शब्दों को छोड़कर इन भाषाओं के कुछ संज्ञाओं को लेकर उन्हें क्रिया का रूप हिन्दी नियमानुसार दिया गया, और आज कल वे क्रियायें हिन्दी में निस्संकोच भाव से प्रचलित हैं। शरमाना, फरमाना कबूलना, बदलना, बख्शना, आदि ऐसी ही क्रियायें हैं। शर्म, फरमान, क़बूल, बदल, बख्श, आदि संज्ञाओं के अन्त में हिन्दी का धातु चिन्ह लगा कर इन्हें क्रिया का रूप दिया गया, और आज कल उनसे सब काल की क्रियायें हिन्दी व्याकरण के नियमानुसार बनती रहती हैं। इन भाषाओं के आधार से बहुत से ऐसे शब्द भी बन गये हैं. कि जिनका आधा हिस्सा हिन्दी शब्द है, और दूसरा आधा अरबी, फारसी इत्यादि का कोई शब्द। जैसे पानदान, पीकदान, हाथीवान, समझदार, ठीकेदार आदि । इस प्रकार की कुछ क्रियायें भी बनाली गई हैं। जैसे खुशहोना, रवानाहोना, दिल लगाना, ज़खम पहुंचाना, इलाज करना, हवा हो जाना आदि ।

मुसलमानों कः अदालत और दफ़तरों के काम पहले प्रायः हिन्दी में होते थे, परन्तु अकबर के समय में राजा टोडरमल ने दफतर को हिन्दी से फ़ारसी में कर दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू फ़ारसी पढ़ने के लिये बिवश हुए, और कचहरी एवं दफतरों का काम फ़ारसी में होने लगा। इससे भी प्रचुर फारसी अरबी आदि के शब्दों का प्रचार जन साधारण और हिन्दी में हुआ, और कानून एवं अदालत सम्बन्धी सैकड़ों पारिभाषिक शब्द ब्यवहार में आने लगे । काजी, नाजिम, कानूनगो, समन, नाबालिग, बालिग,दस्तावेज़, आदि ऐसे ही शब्द हैं ।

अरबी, फारसी में कुछ ऐसी ध्वनियां हैं, जो उनकी वर्णमाला में मौजूद हैं, परन्तु हिन्दी वर्णमाला में उनका अभाव है। जब फ़ारसी, अरबी, और तुर्की के शब्दों का प्रचार हुआ तो उनके शब्दगत अक्षरों की विशेष ध्वनियों की ओर भी लोगों की दृष्टि आकर्षित हुई, क्योंकि बिना उन ध्वनियों की रक्षा किये शब्दोंका शुद्धोच्चारण असंभव था। परिणाम यह हुआ कि कुछ विशेष चिन्ह के द्वारा इस न्यूनता की पूर्ति की गई। यह विशेष चिन्ह वह बिन्दु है जो अरबी के अपेक्षित अक्षरों के नीचे लगाया जाता [ ९७ ]है ७ की ध्वनियों की रक्षा अ, रा, क, ख, ज, फ, लिख कर की जाती है। किन्तु कुछ भाषा मर्मज्ञ इस प्रणाली के प्रतिकूल हैं। उनका यह कथन है कि ग्राहक भाषा सदा ग्राह्य भाषाओं के शब्दों को अपने स्वाभाविक उच्चारणों के अनुकूल बना लेती है। ऐसी अवस्था में हिन्दी वर्णों पर बिन्दु लगा कर अरबी फारसी के अक्षरों की ध्वनियों की रक्षा करना युक्तिमूलक नहीं। ऐसा करने से व्यर्थ वर्णमाला के वर्णों का विस्तार होता है। मेरा विचार है कि जब पठित समाज अरबी, फारसी के विशेष अक्षरों का उच्चारण उसी रूप में करता है, जिस रूप में उनका उच्चारण उन भाषाओं में होता है तो इस प्रकार के उच्चारणों की रक्षा के लिये हिन्दी भाषा के अक्षरों में विशेष संकेतों के द्वारा कुछ परिवर्तन करने को जो प्रणाली गृहीत है वह सुरक्षित क्यों न रखी जावें । उर्दू कोर्ट की भाषा है, कचहरी दरबार में उसी का प्रचार है। सरकारी दफ्तरों में उसीसेही काम लिया जाता है। उर्दू की लिपि वही है, जो अरबी, फारसीकी है, इसलिये अरबी फारसीके शब्द उसमें शुद्ध रूपमें लिखे जाते हैं । शुद्ध रूपमें लिखे जाने के कारण उनका उच्चारण भी शुद्ध रूप में होता है। सरकारी कचहरियोसे कुछ न कुछ सम्बन्ध प्रजा मात्रका होता है । मानकी रक्षा कौन नहीं करता । जब लोग देखते हैं कि अरबी फारसी शब्दों का शुद्ध उच्चा- रण न करने से प्रतिष्ठा में बट्टा लगता है, शिष्ट प्रणाली में अन्तर पड़ता है' अधिकारियों की दृष्टि से गिरना पड़ता है, तो उनको बिबश हो कर अरबी फारसी शब्दों के उच्चारण के समय उनकी विशेषताओं की रक्षा करनी पड़ती है। पठित समाज अवश्य ऐसा करता है, गँवार और मूर्खों की बात दूसरी है।, यदि आवश्यकतायें अथवा कारण विशेष हमको अरबी और फ़ारसी शब्दों का शुद्धोच्चारण करने के लिये विवश करते हैं । और सभा, समाज, पारस्परिक व्यवहार, एवं कुछ अंतर्जातीय लोगों से सम्मिलन के अवसरों पर हमको शुद्ध उर्दू बोलने की आवश्यकता होती है, तो उसके फ़ारसी अरबी के विशेष शब्दों को हिन्दी अक्षरों में शुद्ध लिखने की प्रणाली प्रचलित क्यों न रखी जावे । दूसरी बात यह कि पूर्णता लाभके. लिये जैसे भाषा की व्यापक और पूर्ण होने की आवश्यकता है, वैसे ही [ ९८ ]लिपि को । लिपि की अपूर्णता प्रायः भाषा की पूर्णता का बाधक होती है। यह ज्ञात है कि उर्दू अरबी लिपि में लिखी जाती है अरबी लिपि में हिन्दी का टवर्ग है ही नहीं, उसमें हिन्दी के ख, घ, छ, झ, थ, ध, क, भ अक्षरों का भी अभाव है। उर्दू वालों ने एक नहीं, अनेक चिन्हों का उद्भभावन कर अपने अभावों की पूर्ति की, और इस प्रकार अपनी लिपि को पूर्ण बना लिया है। रोमन अक्षरों को पूर्ण बनाने के लिये आये दिन इस प्रकार की उद्भभावनायें होती ही रहती हैं। फिर हिन्दी, वह हिन्दी पीछे क्यों रहे, जो सभी लिपियों से शक्तिशालिनी है। और जिसमें ही यह गुण है, कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है। यदि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करके, कोई लिपि पूर्ण बन सकती है, तो हिन्दी में यह शक्ति सबसे अधिक है । वह अपूर्ण क्यों रहे, और क्यों यह प्रकट करे कि वह न्यूनताओं से भरी है, और पूर्णता लाभ करने की उसमें शक्ति नहीं ।

अरबी फ़ारसी लिपियों में जो ऐसे वर्ण हैं, जिनका उच्चारण हिन्दी वर्णों के समान है, उनके लिखने में कुछ परिवर्तन नहीं होता, वरन् फ़ारसी अरबी के कई वर्णों के स्थान पर हिन्दी का एक ही वर्ण प्रायः काम देताहै। परिवर्तन उसी अवस्था में होता है. जब उनमें फ़ारसी अरबी वर्णों से अधिकतर उच्चारण की विभिन्नता पाई जाती है। नीचे कुछ इसका वर्णन किया जाता है।

अरबी में कुल २८ अक्षर हैं, इनमें फ़ारसी भाषा के चार विशेष अक्षरों पे, चे, ज़े, गाफ़ के मिलाने से वे ३२ हो जाते हैं उनको मैं नीचे लिखता हूं-- SasurbeFoorjaisireena इनमें से, से, हे, साद, जाद, तो, जो, जैन और काफ़ अरबी के विशेष अक्षर हैं—फारसी और अरबी के विशेष अक्षरों को, निम्न लिखित शेर में स्पष्ट किया है- सावो, हावो, सादो, ज़ादो, तावो. जावो, औन, क़ाफ़ । हर्फे ताज़ी [ ९९ ]फारसीदां, पे' वो, चे, वो, ज़, वो, गाफ़। इनमें से ݣݣݜ,ڱګتيذ ݺ ݷ के स्थान पर हिन्दी में, अ, ब, प, ज, च, द, र, श, क, ग, ल, म, न, व, य, लिखा जाता है। दोनों भाषाओं के उक्त अक्षरों का उच्चारण कुछ भिन्न ज्ञात होता है. परन्तु प्रयोग में कोई भिन्नता नहीं है, इसलिये फ़ारसी के इन तेरह अक्षरों के स्थान पर हिन्दी अक्षरों का व्यवहार बिना किसी परिवर्तन के होता है। फारसी के शेष अक्षरों में से कुछ अक्षर तो ऐसे हैं जिनमें से दो या तीन अक्षरों के स्थान पर हिन्दी का एक अक्षर काम देता है और कुछ ऐसे हैं जिनके लिये समान उच्चरित अक्षरों के नीचे बिन्दु लगाना पड़ता है, नीचे ऐसे अक्षर लिखे जाते हैं।

(१) ڏقغظغعد के स्थान पर क ख अग और फ लिखा जाता है जैसे لسصش का क़ौम, का खरबूज़ा ضشض का अनैक ݑځڂٻٻ का गायब और ڙخزدرص का फ़जूल आदि किन्तु, के स्थान पर प्रायः अ ही लिखने की प्रणाली है। कारण इस का यह है कि जैन का उच्चारण अधिकतर पठित समाज भी अ कासाही करता है, इसका प्रमाण यह है कि मअल्लूम के स्थान पर मालूम ही लिखा जाता है। ىوهرشظ को आम नहीं आम ही कहते और लिखते हैं।

(२) هو और ४ दोनों के स्थान पर हिन्दी का ह ही काम देता, है जैसे بؤجت का हाल और हवा का हवा। ت और ط का काम हिन्दी का त देता है। ذمط और صص तौर और तीर ही लिखे जाते हैं।

(३) شسش और ههنص हिन्दी में स बन जाते हैं। जैसे تللت का सूरत بذذس का सवाब और ,صر का सर इत्यादि।

طشضس इन पांचों अक्षरों का उच्चारण प्रायः ज़ के समान है, इसलिये हिन्दी में इनके स्थान पर ज़ ही लिखा जाता है जसे زسد का ज़ैल قلل का ज़ोर, صسذ का ज़ामिन سصسظ का ज़ाहिर इत्यादि।

फारसी में एक हे मुख़फ़ी कहा जाता है, ىس— رشض—ظح—ۑۆ के अन्त में जो हे है वही हे मुखफ़ी है। हिन्दी में यह आ हो जाता है जैसे गेज़ा कूज़ा सबज़ा, जग आदि। कुछ लोगों ने इस हे के स्थान पर विसर्ग लिखना प्रारम्भ किया था अब भी कोई कोई इसी प्रकार से लिखना [ १०० ]पसन्द करते हैं जैसे रोज़ः, कूज़ः, सब्ज़ः, ज़र्र: आदि। परन्तु अधिक सम्मति इसके विरुद्ध है, मैं भी प्रथम प्रणाली को ही अधिकतर युक्ति सम्मत समझता हूं।

हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप उर्दू है। दिल्ली मुसलमान सम्राटों की राजधानी अन्तिम समय तक थी। दिल्ली के आस पास और उसके समीपवर्ती मेरठ के भागोंमें जो हिन्दी बोली जाती है, उसीमें लश्करके लोगों की बोलचालका मिश्रण होनेसे जिस भाषा की उत्पत्ति हुई, शाहजहाँके समयमें उसी का नाम उर्दू पड़ा। कारण इसका यह है कि तुर्की भाषा में लश्कर को उर्दू कहते हैं। किसी भाषा में अन्य भाषा के कुछ शब्द मिल जायें तो इससे उस भाषा का कुछ रूप बदल जा सकता है. परन्तु वह भाषा अन्य भाषा नहीं बन जाती। उर्दू भाषा की रीढ़ हिन्दी भाषा के सर्वनाम, विभक्तियों, प्रत्यय और क्रियायें ही हैं, उसकी शब्द योजना भी अधिकतर हिन्दी भाषा के समान ही होती है, ऐसी अवस्था में वह अन्य भाषा नहीं कही जा सकती। मैंने चतुर्दश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापतित्व सूत्र से जो इस बारे में लिखा था, विषय को और स्पष्ट करने के लिये उसे भी यहां उद्धृत करता हूं।

“यदि अन्य भाषा के शब्द सम्मिलित होने से किसी भाषा का नाम बदल जाता है, तो फारसी अंगरेज़ी आदि बहुत सी भाषाओं का नाम बदल जाना चाहिये । फारसी में अरबी और तुर्की के इतने अधिक शब्द मिल गये हैं, कि उतने शब्द आज भी हिन्दी में इन भाषाओं अथवा फ़ारसी के नहीं मिले, फिर क्यों फ़ारसी फ़ारसी कही जाती है, और हिन्दी उर्दू कहलाने लगी। फ़ारस के बिख्यात महाकवि फ़िरदोसी ने अपने शाह- नामा में एक स्थान पर लिखा है,'फलक गु़फ्त अह्सन मलक गुफ़्त ज़ेह" अहसन और जेह अरबी शब्द हैं, अतएव उनसे प्रश्न हुआ कि आपने कुल किताब तो ख़ालिम फ़ारसी में लिखी, इस शेर में दो अरबी के शब्द कैसे ओ गये उन्हों ने कहा कि “फलक व मलक गुफ़्त न मन गुफ़्त" मतलब [ १०१ ]यह कि फ़लक और मलक ने कहा मैंने नहीं कहा १! कहाँ यह भाव और कहां यह कि एक तिहाई से अधिक अरबी शब्द फारसी में दाखिल हो गये, तो भी फ़ारसी का नाम फारसी ही रहा। उर्दू भाषा की प्रकृति आज भी हिन्दी है, व्याकरण उसका आज भी हिन्दी प्रणाली में ढला हुआ है, उसमें जो फारसी मुहावरे दाखिल हुए हैं, वे सब हिन्दी रंग में रंगे हैं। फारसी के अनेक शब्द हिन्दी के रूप में आकर उर्दू की क्रिया बन गये हैं। एक बचन बहुधा हिन्दी रूप में बहुवचन होते हैं, फिर उर्दू हिन्दी क्यों नहीं है? यदि कहा जावे फारसी, अरबी, और संस्कृत शब्दों के न्यूनाधिक्य से हो उर्दू हिन्दी का भेद स्थापित होता है, तो यह भी नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्यों कि अनेक उर्दू शायरों का बिल्कुल हिन्दी से लबरेज़ शेर उर्दू माना जाता है, और अनेक हिन्दी कवियों का फ़ारसी और अरबी से लबालब भरा पद्य हिन्दी कहा जाता है-कुछ प्रमाण लीजिये-

{{Block center|<poem>|{{तुम मेरे पास होते हो गोया। जब कोई दूसरा नहीं होता ॥}}

(मोमिन )

{{Block center|<poem>|{{लोग घबरा के यह कहते हैं कि मर जायेंगे। मर के गर चैन न पाया तो किधर जायेंगे।}}

(जौक़ )

{{Block center|<poem>|{{लटों में कभी दिल को लटका दिया । कभी साथ बालों के झटका दिया।}}

(मीरहसन)

हिन्दी भरी कविता आपने उर्दू की देख ली। अब अरबी फ़ारसी भरी हिन्दी की कविता देखिये-

१ मुसल्मानों का धार्मिक विश्वास है कि फलक (आकाश) और मलक (देवता)

की भाषा अरबी है। [ १०२ ]

जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक
तेहि मग फिरत सनेहिया किये गरेबां चाक। रसनिधि।
यों तिय गोल कपोल पर परी छूट लट साफ़
ख़ुशनवीस मुंशी मदन लिख्यो कांच पर काफ़

शृंगार सरोज़।

मैं यहाँ कुछ अङ्गरेज़ और भारतीय विद्वानों की सम्मति उठाना चाहता हूं—आप लोग देखें वे क्या कहते हैं:—

'उर्दू का व्याकरण ठीक हिन्दी के व्याकरण से मिलता है, उर्दू हिन्दी से भिन्न नहीं है"१ [१]

डाक्टर राजेन्द्र लाल मित्र

"उर्दू के बड़े प्रसिद्ध कवि वली और सौदा की भाषा, तथा हिन्दी के अति प्रसिद्ध कवि तुलसी दास और बिहारी लाल की भाषा में कुछ अन्तर नहीं है, दोनों ही आर्य-भाषा हैं। इसलिये हिन्दी उर्दू को अलग मानना वड़ी भारी भूल है"२ [२]

मिस्टरबीम्स

"जो भाषा आज हिन्दुस्तानी कहलाती है उसी का नाम हिन्दी [ १०३ ]उर्दू और रेखता भी है । इसमें अरबी, फारसी, संस्कृत भाषाके शब्द हैं"[३]

डाकर गिल क्राइस्ट

आज कल उदू अधिक बदल रही है, उस में फ़ारसी तरकीबों का अधिकतर प्रयोग होने लगा है। मेवा का मेवों, निशानका निशानों, मजदूर का मज़दूरों, शहर का शहरों, दवा का दवाओं और क़सबा का कसबों ही पहले लिखा जाता था, क्यों कि हिन्दी के नियमानुसार उनका वहुबचन रूप यही बनता है । परन्तु अव फ़ारसी के अनुसार उनका बहुवचन रूप मे-वात, निशानात, मज़दूगन् , शहरात, अदविया. कसबात अथवा क़सबाजात लिखना अधिक पसंद किया जाता है। इसी प्रकार हिन्दी के कुछ कारक चिन्हों का लोप करके फारसी शब्दों को फारसी तरकीब में ढाला जाने लगा है, रोज़ेसियह, इशरते क़तरा, नशयेइश्क, मुर्दादिल, गरीबुलवतनी, मसायलेतसव्वुफ़. आदि इसके प्रमाण हैं। लम्बे लम्बे समस्त पदों की भी अधिकता हो चली है-जैसे 'जेरे क़दमे वालिदा फिरदोस बरीं है, परन्तु तो भी उर्दू का अधिकांश प्रचलित रूप हिन्दी ही है।

इस प्रकार के प्रयोगों से हिन्दी में कुछ फ़ारसी शब्द अधिक मिलगये हैं, और उर्दू नाम करण ने विभेद मात्रा अधिक बढ़ा दी है; तथापि आज तक उर्दू हिन्दी ही है, कतिपय प्रयोगों का रूपान्तर हो सकता है भाषा नहीं बदल सकती। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हिन्दी भाषा पर अरबी फ़ारसी और तुर्की शब्दों का इतना अधिक प्रभाव है कि एक विशेष रूप में वह अन्य भाषा सी प्रतीत होती है।

सौ वर्ष के भीतर हिन्दी में बहुत से योरोपियन विशेप कर अंगरेज़ी शब्द भी मिल गये हैं, और दिन दिन मिलते जा रहे हैं। रेल, तार, डाक, मोटर आदि कुछ ऐसे शब्द हैं, जो शुद्ध रूप में ही हिन्दी में व्यवहृत हो रहे हैं, और लालटेन, लम्प आदि कितने ऐसे शब्द हैं, जिन्होंने हिन्दी रूप ग्रहण [ १०४ ]कर लिया है, और आज कल इनका प्रचार इसी रूप में है। बहुत से सामान पाश्चात्य देशों से भारत वर्ष में ऐसे आ रहे हैं, जिनका हिन्दी नाम है ही नहीं ऐसी अवस्था में उनका योरोपियन अथवा अमरीकन नाम ही प्रचलित हो जाता है। और इस प्रकार उन देशों की भाषा के अनेक शब्द इस समय हिन्दी भाषा में मिलते जा रहे हैं। यह स्वाभाविकता है, विजयी जाति के अनेक शब्द विजित जाति के भाषा में मिल जाते ही हैं, क्यों कि परिस्थिति ऐसा कराती रहती है। किन्तु इससे चिन्तित न होना चाहिये। इससे भाषा पुष्ट और व्यापक होगी, और उसमें अनेक उपयोगी विचार संचित हो जावेंगे। यत्न इस बात का होना चाहिये, कि भाषा विजातीय शब्दों, वाक्यों और भावों को इस प्रकार ग्रहण करे कि उसकी विजातीयता हमारी जातीयता के रंग में निमग्न हो जावे।

आज कल कुछ शब्द अन्य प्रान्तों के भी हिन्दी भाषा में गृहीत हो गये हैं। कुछ विचारमान पुरुष इसको अच्छा नहीं समझते, वे सोचते हैं, इससे अपनी भाषा का दारिद्रय सूचित होता है। मैं कहता हूं इस बिचार में गंभीरता नहीं है। प्रथम तो हिन्दी भाषा राष्ट्रीय पद पर आरूढ़ हो रही है, इस लिये राष्ट्र की सम्पत्ति उसी की है। दूसरी बात यह है कि राष्ट्रोपयोगी जो व्यापक शब्द हैं, अथवा जो कारण विशेष से ऐसे बन गये हैं, जो भावद्योतन में किसी हिन्दी शब्द से विशेष क्षमतावान हैं, तो वे क्यों न ग्रहण कर लिये जावें। यदि विदेशीय शब्दों का कुछ स्वत्व हिन्दी भाषा पर विशेष कारणों से है, तो ऐसे शब्दों का क्यों नहीं। मेरा विचार है कि उनका तो सादर अभिनन्दन करना चाहिये। इस प्रकार के शब्द मराठी के लागू, चालू आदि, गुजराती के हड़ताल आदि, बँगला के गल्प, प्राणपण आदि ओर तामिल भाषा के चुरुत आदि हैं। जब ये शब्द प्रचलित हो गये हैं, और सर्व साधारण के बोधगम्य हैं, तो इन के स्थान पर न तो दूसरा शब्द गढ़ने का उद्योग करना चाहिये और न इनका बायकाट। इस प्रकार का सम्मिलन भाषा विकास का साधक है, बाधक नहीं यदि वह सीमित और मर्यादित हो।

  1. The Grammar of Urdu is unmistakably the same as that of Hindi, and it must follow therefore that the Urdu is a Hindi and an Aryan dialect.

    —Dr R. L. Mittra.

  2. Such words, however, in no way altered or influenced the language itself, which, when its inflectional or phonetic elements are considered, remains still a pure Aryan dialect, just as pure in the pages of Wali and Souda, as it is in those of Tulsi Das or Biharilal. It betrays, therfore, a radical misunderstanding of the whole learnings of the question and of whole Science of philology to speak of Urdu and Hindi as two distinct languages. —Mr Beems.
  3. The language at present best known as the Hindustanee, is also frequently denominated Hindi, Urdu and Rckhia. It is compounded of the Arabic, Persian and Sanskrit, or Bhasha which last appears to have been in former ages the current language of Hindustan.-Dr. Gilchrist.