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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/४ उत्तर-काल

विकिस्रोत से
हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

पटना विश्वविद्यालय, पृष्ठ ३१७ से – ३२१ तक

 

चौथा प्रकरण।
उत्तर-काल।
(१)

सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी साहित्यक्षेत्र में तीन धारायें प्रवल वेग से बहती दृष्टिगत होती हैं। पहली निर्गुणवाद सम्बन्धी दूसरी सगुणवाद या भक्तिमार्ग-सम्बन्धी और तीसरी रीति ग्रन्थ-रचना-सम्बन्धी। इस सदी में निर्गुणवाद के प्रधान प्रचारक कबीर साहब गुरु नानकदेव और दादूदयाल थे। सगुणोपासना अथवा भक्तिमार्ग के प्रधान प्रवर्त्तक कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास थे। रीति ग्रंथ-रचना के प्रधान आचार्य केशवदास जी कहे जा सकते हैं। इन लोगोंने अपने अपने विषयोंमें जो प्रगल्भता दिखलायी वह उत्तर काल में दृष्टिगत नहीं होती। परन्तु उनका अनुगमन उत्तर काल में तो हुआ ही, वर्त्तमान काल में भी हो रहा है। मैं यथा शक्ति यह दिखलाने की चेष्टा करूंगा कि ई॰ सत्रहवीं शताब्दी में इन धाराओं का क्या रूप रहा और फिर अठ्ठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में उनका क्या रूप हुआ। इन तीनों शताब्दियों में जो देश कालानुसार अनेक परिवर्त्तन हुये हैं और भिन्न भिन्न विचार भारत वसुन्धरा में फैले हैं। उनका प्रभाव इन तीनों शत्ताब्दियों की रचनाओं में देखा जाता है। साथ ही भाव और भाषा में भी कुछ न कुछ अन्तर होता गया है। इसलिये यह आवश्यक ज्ञात होता है कि इन शताब्दियों के क्रमिक परिवर्त्तन पर भी प्रकाश डाला जावे और यह दिखलाया जावे कि किस क्रम से भाषा और भावमें परिवर्तन होता गया। यह बात निश्चित रूपसे कही जा सकती है कि इन तीनों शताब्दियों में न तो कोई प्रधान धर्म्म-प्रवत्तक उत्पन्न हुआ, न कोई सूरदास जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी के समान महाकवि, और न केशवदास जी के समान महान रीति-ग्रन्थकार। किन्तु, जो साहित्य-सम्बन्धी विशेष धारायें सोलहवीं शताब्दी में बहीं वे अविच्छिन्न गति से इन शताब्दियों में भी बहती ही रहीं, चाहे वे उतनी व्यापक और प्रबल न इन तीनों शताब्दियों में उस प्रकार की प्रभावमयी धारा बहाने में कोई कवि अथवा महाकवि भले ही समर्थ न हुआ हो, परन्तु इन धाराओं से जल ले ले कर अथवा इनके आधार से नई नई जल प्रणालियां निकाल कर वे हिन्दी साहित्य क्षेत्र के सेचन और उसको सरस और सजल बनाने से कभी विरत नहीं हुये। इन शताब्दियों में भी कुछ ऐसे महान् हृदय और भावुक दृष्टिगत होते हैं जिनको साहित्यिक धारायें यदि उक्त धाराओं जैसी नहीं हैं तो भी उनसे बहुत कुछ समता रखने को अधिकारिणी कही जा सकती हैं, विशेष कर रीतिग्रन्थ-रचना के सम्बन्ध में। परन्तु उनमें वह व्यापकता और विशदता नहीं मिलती, जो उनको उनकी समकक्षता का
गौरव प्रदान कर सके । मैंने जो कुछ कहा है, वह कहां तक सत्य है, इसका यथार्थ ज्ञान आप लोगों को मेरी आगे लिखी जाने वाली लेखमाला से होगा।

मैं पहले लिख आया हूं कि हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में सोलहवीं शताब्दी में ही व्रजभाषा को प्रधानता प्राप्त हो गयी थी। और कुछ विशेष कारणों से हिन्दी के कवि और महाकवियों ने उसी को हिन्दी साहित्य की प्रधान भाषा स्वीकार कर लिया था। यह बात लगभग यथार्थ है परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उत्तर-काल के कवियों की मुख्य भाषा भले ही व्रजभाषा हो, किन्तु उसमें अवधी के कोमल, मनोहर अथच भावमयशब्द भी गृहीत हैं। जो कवि कर्म के मर्मज्ञ हैं वे भली भाँति यह जानते हैं कि अनेक अवस्थाओं में कवियों अथवा महाकवियों को ऐसे शब्द-चयन की आवश्यकता होती है, जो उनको भाव-प्रकाशन में उचित सहायता दे सकें और छन्दोगति में वाधक भी न हों। यदि वे 'ऐसो' लिखना चाहते हैं, परन्तु इस शब्द को वे इस लिये नहीं लिख सकते कि उससे छन्दोगति में वाधा पड़ती है और 'अस' लिखने से वे अपने भाव का द्योतन कर सकते हैं और छन्दोगति भी सुरक्षित रहती है तो वे ऐसी विशेष अवस्था में यह नहीं विचारते कि 'अस' शब्द अवधी का है, इस लिये उसको कविता में स्थान न मिलना चाहिये, वरन् वे यह सोचते हैं, कि हिन्दी भाषा का ही यह शब्द है और उसका प्रयोग हिन्दी साहित्य के एक विभाग में पाया जाता है। इस लिये संकीर्ण स्थलों पर उसके ग्रहण में आपत्ति क्या? हिन्दी साहित्य के महाकवियों को ऐसा करते देखा जाता है। क्योंकि वे जानते, हैं कि बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में कुछ न कुछ भिन्नता होती ही है। मेरे कथन का सारांश यह है कि उत्तर काल के कवियों ने जिसे साहित्यिक भाषा के रूप में ग्रहण किया उनमें से अधिकांश की मुख्य भाषा व्रजभाषा ही है,परन्तु अवधी के भी उपयुक्त शब्द उसमें गृहीत हैं। मेरी विचार है कि इससे साहित्य की व्यापकता बढ़ी है,उसका पथ अधिक प्रशस्त हुआ है, और कवि-कम्र्म में भी बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हुई है। भाषा की शुद्धता की ओर दृष्टि आकर्षण कर
कुछ लोग इस प्रणाली का विरोध करते हैं। उनका कथन है कि सुविधा पर दृष्टि रख कर यदि एक ही शब्दके अनेक रूप गृहीत होने लगेंगे तो इससे भाषा सम्बंधी नियम की रक्षा न होगी और निरंकुशता को प्रश्रय मिलेगा। लोग बेतरह शब्दों को तोड़ मरोड़ कर मनमानी करेंगे और साहित्यक्षेत्र में उच्छृखलता विप्लव मचा देगी । यह कथन बहुत कुछ युक्ति-संगत है, परन्तु ब्रजभाषा साहित्य के मर्मज्ञों अथवा महाकवियों ने यदि उक्त प्रणाली ग्रहण की तो इस उद्देश्य से नहीं कि निरंकुशता को प्रश्रय दिया जाय । शब्द गढ़ने के पक्ष पाती वे नहीं थे, न शब्दों को अधिक तोड़ने-मरोड़ने के समर्थक । वरन् उनका विचार यह था कि विशेष स्थलों पर यदि उपयुक्त अवधी के शब्द आ जाँय तो वे आपत्ति जनक नहीं। अवधी भाषा के कवियों को भी इस प्रणाली का अनुमोदन करते देखा जाता है। क्योंकि उनकी रचनाओं में भी ब्रजभाषा के शब्द विशेष स्थलों पर ग्रहीत होते आये हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यदि कोई विशेष क्षम- तावान है और वह शुद्ध ब्रजभाषा में या शुद्ध अवधी ही में रचना करना चाहता है तो अनुचित करता है। भाषाधिकार कविता का विशेष गुण है। गुण का त्याग किसे वांछनीय होगा ? परन्तु यह स्मरण रहना चाहिये कि कवि-परम्परा (Poetic lieense) का भी कुछ आधार है, कवि कार्य के जटिल पथ में वह सुविधा का अंगुलि-निर्देश है। इसी लिये ब्रजभाषा के साहित्यकारों ने चाहे वे प्रारम्भिक काल के हो, अथवा माध्यमिक काल या उत्तर काल के, इस सुविधा से मुख नहीं मोड़ा । एक बात और है । वह यह कि ब्रजभाषा और अवधी में अधिकतर उच्चारण का विभेद है। अन्यथा दोनों में बहुत कुछ एक रूपता है । इसका कारण यह है कि अवधी पर शौरसनी का अधिकतर प्रभाव रहा है। भरतमुनि कहते हैं:-

शौरसेन्याऽविदृरत्वात् इयमेवाई मागधी।"

इसका अर्थ यह है कि शौरसेनी से अविदूर (सन्निकट. होनेके कारण) मागधी अर्द्ध मागधी कहलाती है। यह कौन नहीं जानता कि शौरसेनी से ब्रजभाषा की और अर्धमागधी से अवधी की उत्पत्ति है। ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों पश्चिमी हैं और अवधी पूर्वी । पछांह वालों की भाषा खड़ी होती है और पूर्व वालों की पड़ी। पछांह वालों के उच्चारण में उठान होती है और पूर्व वालों के उच्चारण में लचक या उसमें चढ़ाव होता है और इसमें उतार । पछाँह वाले कहेंगे ऐसे', 'जैसे', 'कैसे', 'तैसे और पूर्व वाले कहेंगे 'अइसे', 'जइसे', 'कइसे, तइसे' वे कहेंगे गयो' ये कहेंगे 'गयउ । वे कहेगें 'होयहै' या ह है' और ये कहेंगे 'होइहै'। वे कहेंगे रिझै है' ये कहेंगे 'ग्झिइहै'। वे कहेंगे 'कौन' ये कहेंगे 'कवन'। वे कहेंगे 'मैल' ये कहेंगे 'मइल'। वे कहेंगे पाँव' ये कहेंगे पाउ'। वे कहेंगे ‘कीनो', 'लीनो', 'दीनो' और ये कहेंगे कीन', 'लीन', दोन'। इसी प्रकार बहुत से शब्द बतलाये जा सकते हैं। मेरा विचार है, इस साधारण उच्चारण विभेद के कारण एक दूसरे को परस्पर सर्वथा सम्पर्क-हीन समझना युक्ति संगत नहीं। उच्चारण-विभेद के अतिरिक्त कारक-चिन्हों, सर्वनामों और अनेक शब्दों में कुछ विभिन्नतायें भी दोनों में हैं विशेष कर ग्रामीण शब्दों में । उनसे जहाँ तक संभव हो बचने की चेष्टा करनी चाहिये, यद्यपि हमारे आदर्श कवियों और महाकवियों ने अनेक संकीर्ण स्थलों पर इन बातों की भी उपेक्षा की है।