हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/४ उत्तर-काल/(ख) सगुण भक्त कवि

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हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

[ ३२८ ]

(ख)

इस शताब्दी के भक्ति मार्गवाले सगुणवादी भक्तों की ओर जब दृष्टि जाती है तो सबसे पहले हमारे सामने नाभादासजी आते हैं । वैष्णवों में इनकी रचनाओं का अच्छा आदर है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने शृंगार रस से मुख मोड़कर भक्ति-रस की धारा बहायी और भक्तमाल' नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें लगभग २०० भक्तों का वर्णन है। अपनी रचना में उन्हों ने वैष्णवमात्र को समान दृष्टि से देखा, और स्वयं रामभक्त होते हुए भी कृष्णचन्द्र के भक्तों में भी उतनी ही आदर बुद्धि प्रकट की जितनी रामचन्द्रजी के भक्तों में। उनके विषय में जो कुछ उन्हों ने लिखा है उसमें भी उनके हृदयकी उदारता और पक्षपात हीनता प्रकट होती है। उनका ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखा गया है । इसका कारण उसकी सामयिक व्यापकता ही है । प्रियादासजी ने उनके ग्रन्थ पर टीका लिखी है, क्योंकि थोड़े में अधिक बातें कहने से उनका ग्रन्थ दुर्वोध हो गया है । उन्हों ने एक छप्पय में ही एक भक्त का हाल लिखा है । इसलिये थोड़े में ही उनको बहुत बातें कहनी पड़ी। ऐसी अवस्था में उनका ग्रंथ गूढ क्यों न हो जाता? प्रियादासजी की टीका ने इस गूढ़ता को अधिकतर अपनी टीका के द्वारा बोधगम्य बना दिया। पद्य ही में 'अष्टयाम' नामक उनका एक ग्रन्थ और है। यह ग्रन्थ भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही में लिखा गया है। दोनों का एक एक पद्य देखिये:--

१-मधुर भाव सम्मिलित ललितलीला सुवलित छवि।
निरखत हरखत हृदय प्रेम बरखत सुकलित कवि ।

[ ३२९ ]

भव निस्तारन हेत देत दृढ़ भक्ति सबन नित ।
जासु सुजस ससि उदै हरत अति तम भ्रम श्रमचित ।
आनन्द कंद श्रीनंद सुत श्रीवृषभानु सुता भजन ।
श्री भट्ट सुभट प्रगट्यो अघट रस रसिकन मनमोद घन ।

भक्तमाल

२-परिखा प्रति चहुं दिसि लसत कंचन कोटि प्रकास।
विविध भांति नग जगमगत प्रति गोपुर पुरवास।
दिव्य फटिक मय कोट की शोभा कहि न सिराय।
चहुं दिसि अदभुत जोति मैं जगमगाति सुखदाय।

इनकी भाषा के विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता मुझे नहीं ज्ञात होती। जो नियम साहित्यिक ब्रजभाषा का मैं ऊपर लिख आया हूं उसका पालन इनकी कविता में अधिकतर पाया जाता है। इनकी रचनामें अनुप्रासों एवं ललित पद-विन्यास की भी छटा है । पद्यमें संस्कृत के तत्सम शब्द भी आये हैं। परन्तु वे अधिकतर ऐसे हैं जो मधुर और कोमल कहे जा सकते हैं। इनकी रचना को देखने से यह ज्ञात होता है कि उत्तम वर्णके न होनेपर भी ये सुशिक्षित थे और ऐसा सत्संग उनको प्राप्त था जिसने उनके हृदय को भक्तिमान और भावुक बना दिया था। किसी किसी ने उनको अछूत जाति का लिखा है, और किसी ने यह लिखकर उनकी जाति-पाँति बताने में आनाकानी की है कि हरि-भक्तों की जाति नहीं पूछी जाती। वे जो हों, परन्तु वे भक्त थे और जैसा भक्त का हृदय होना चाहिये वैसाही उनका हृदय था, जो उनकी रचनाओंमें स्पष्ट प्रतिबिंबित है।

नाभादासजी के बाद हमारे सामने एक बड़े ही सरस हृदय कवि आते हैं। वे हैं रसखान। ये मुसल्मान थे और इन्हों ने अपने को राजवंशी बतलाया है। नीचे के दोहे इस बात के प्रमाण हैं:--

देखि गदर, हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान ।
छिनहिं बादसा बंस की, ठसक छोड़ि रसखान ।

[ ३३० ]

न निकेतन श्री बनहिं, आय गोबरधन धाम ।
लह्यो सरन चित चाहि के, जुगल सरूप ललाम ।

इनमें एक और विशेषता पाई जाती है वह यह है कि एक विजातीय और विधर्मी पुरुष का भगवान श्री कृष्ण के प्रेममें तन्मय हो कर सर्वस्व- त्यागी बन जाना कम आश्चर्यजनक नहीं। परन्तु प्रेम में बड़ी शक्ति है । सच्चा प्रेम क्या नहीं करा सकता ? रसखान की रचनायें पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनमें प्रेम की कितनी लगन थी। वे इतने सच्चे प्रेमी थे और भगवान श्री कृष्णके चरणों में उनका इतना अनुराग था कि गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रधान शिष्यों में उनकी भी गणना हुई और २५२ वैष्णवों की वार्ता में भी उनको स्थान मिला। इस घटना से भी इस बात का पता चलता है कि महाप्रभु वल्लभावार्य की प्रचारित प्रेम-धारा कितनी सबल थी । रसखान का सूफ़ी ममागियों की ओर से मुंह मोड़ कर कृष्णावत सम्प्रदाय में सम्मिलित होना यह बात प्रकट करना है कि उस समय जनता का हृदय किस प्रकार इस सम्प्रदाय की ओर आकर्षित हो रहा था। जब रसखान के निम्नलिखित पद्यों को हम पढ़ते हैं तो यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार उनका हृदय परिवर्तित हो गया था और वे कैसे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक बन गये थे। इन पद्यों में अकृत्रिम भक्ति और प्रेमरस का स्रोत सा बह रहा है।

१--" मानुस हों तो वहीं रस खान
बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जो पसु हों तो कहा बस मेरो
चरौं नित नंद की धेनु मंझारन ।
पाहन हों तो वहीं गिरि को जो
धज्यो कर क्षत्र पुरंदर धारन ।
जो खग हों तो बसेरो करौं वही
कालिँदी फूलकदंब की डारन ।

[ ३३१ ]

२-या लकुटी अरु कामरिया पर
राज तिहूं पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवो निधि को
सुख नन्द की गाइ चराइ बिसारौं ।
आँखिन सो रसखान कर
व्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं ।
कोटिन हूं कलधौत के धाम
करील के कुजन ऊपर वारौं ।

मगवान कृष्णचन्द्र को देवादिदेव कह कर भी उन्होंने उन्हें किस प्रकार प्रेम के वश में बतलाया है. इसको यह पद्य भली भाँति प्रकट कर रहा है:-

"सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहुँ
जाहि निरन्तर गावें ।
जाहि अनादि अनन्त अखंड
अछेद अभेद सुबेद बतायें ।
जाहि हिये लखि आनँद जड़।
मूढ़ जनौ रमखान कहावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया
भरि छाछ पे नाच नचावें ।'

रसखान की भाषा चलती और साफ सुथरी है। जिनने पटा उन्होंने बनायें हैं उनसे रस निचुड़ा पड़ता है। निम्मंदह ब्रजमापा ही में उनकी कविता लिग्बी गयी है। परन्तु खड़ी बोली के भी कोई कोई शान में मिल जाते हैं। इसी प्रकार अवधी के भी। [ ३३२ ]रसखान के लिखे हुये दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, 'सुजान रसखान' और 'प्रेम वाटिका' दोनों की भाषा एक ही है और दोनों में प्रेम का प्रवाह बहता दिखलायी पड़ता है। 'सुजान रसखान' के पद्य आप देख चुके हैं। दो दोहे 'प्रेम,वाटिका' के भी देखिये:-

अति सूछम कोमल अति हि अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा नित इक रस भर पूर ।
डरै सदा चाहै न कछु सहै सबै जो होय ।
रहै एक रस चाहि के प्रेम बखानै सोय ।

इसी प्रेम परायणता के कारण रसखान की गणना भक्तों में की जाती है। और यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि उनके दोनों ग्रन्थ भक्ति भावना से पूर्ण हैं । वे छोटे हों, परन्तु उनमें इतना प्रेम रस भग है कि उसके कवि को सच्चा प्रेमिक मानने के लिये विवश होना पड़ता है। सच्ची तल्लीनता ही भक्ति है। इसलिये रसखान की गणना यदि वैष्गव भक्तों में हुई तो यथार्थ हुई। विधर्मी और विजातीय हो कर भी यदि उन्होंने भगवान कृष्णचन्द्र को पूर्ण रूपेण आत्म-समर्पण किया तो यह उनकी सच्ची भक्ति भावना ही थो। और ऐसी दशा में उनको कौन भक्त स्वीकार न करेगा ?

वनारसीदास जैन की गणना भी भक्त कवियों में होती है। यह कभी आगग और कभी जौनपुर में रहते थे। इनका यौवन-काल प्रमादमय था। परन्तु थोड़े दिनों बाद इनमें ऐसा परिवर्तन हुआ कि इन्होंने अपने शृंगार रस के ग्रन्थ को फाड़ कर गोमती में फेंक दिया और ऐसो रचनाओं के करने में तल्लीन हुये जो मक्ति और ज्ञान-सम्बन्धी कहो जा सकती हैं। इनके भाव-पूर्ण ग्रन्थों की संख्या आठ-दस बतलायी जाती है, जिनमें से अधिकतर पद्य में लिखे गये हैं। इनको गद्य रचनायें भी हैं। ये जैन विद्वान थे, परन्तु इनमें संकोणता नहीं थी। इनका ध्रुव वंदना नामक ग्रंथ इसका

प्रमाण है। इनके कुछ पद्य देखिये:[ ३३३ ]

१-काया सों विचार प्रीति, माया ही में हार जीति,
लिये हठ रीति जैसे हारिल की लकरी ।
चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,
त्योंही पाँय गाड़े पै न छोड़े टेक पकरी ।
मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावै,
धावै चहुं ओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी ।
ऐसी दुरवुद्धि भूलि झूठ के झरोखे झूलि,
फूली फिरै ममता जंजीरन सों जकरी ।

२-भौंदू समझ सबद यह मेरा।
जो तू देखै इन आँखिन
को बिनु परकास न सूझै।
सो परकास अगिनि रवि
ससि को तू अपनोकरि बूझै।
तेरे दृग मुद्रित घट अंतर
अंध रूप तृ डोले ।
के तो सहज खुलें वै आँखें
के गुरु संगति खोले ।

३-भौंदृ ते हिरदै की आंखें ।
जे करखें अपनी सुख-सम्पति
भ्रम की सम्पति नाच
जिन आँखिन सों निरखि
भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारें।
जिन आँखिन सौ लखि सरूप
मुनि ध्यान धारना धारें।

[ ३३४ ]इनको भाषा प्राञ्जल ब्रजभाषा है। इसमें कभी कभी कोई अपरिमा-

जित शब्द आ जाता है. परन्तु उससे इनकी भाषा की विशेषता नहीं नष्ट होती । बनारसी दास ही ऐसे जैन कवि हैं जिन्होंने व्रजभाषा लिखनेमें पूरी सफलता लाभ को। इनकी गणना प्रतिष्ठित व्रजभापा-कवियों में की जा सकती है। इनकी रचना इस बात का भी प्रमाण है कि सत्रहवीं सदी में ब्रजभाषा इतनी प्रभावशालिनी हो गयी थी कि अन्य धर्मवाले भी उसमें अपनी रचनायें करने लगे थे।