हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल गद्य खंड प्रकरण १ हिंदी में गद्य-साहित्य-परंपरा का प्रारंभ

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संवत् १८६० के लगभग हिंदी गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की अखंड परंपरा उस समय से नहीं चली। इधर उधर दो चार पुस्तके अनगढ़ [ ४२५ ]भाषा में लिखी गई हों तो लिखी गई हों पर साहित्य के योग्य स्वच्छ सुव्यवस्ति भाषा में लिखी कोई पुस्तक संवत् १९१५ के पूर्व की नही मिलती। संवत् १८८१ में किसी ने "गोरा बादल री बात" का, जिसे राजस्थानी पद्यो में जटमल ने संवत् १६८० में लिखा था, खड़ी बोली के गद्य में अनुवाद किया। अनुवाद का थोड़ा सा अंश देखिए––

"गोरा बादल की कथा गुरु के बस, सरस्वती के मेहरबानगी से, पूरन भई। तिस वास्ते गुरु कूँ व सरस्वती कूँ नमस्कार करता हूँ। ये कथा सोलः से असी के साल में फागुन सुदी पूनम के रोज बनाई। ये कथा में दो रस है––वीररस व शृंगाररस है, सो कथा मोरछड़ो नाँव गाँव का रहनेवाला कवेसर। उस गाँव के लोग भोहोत सुखी हे। घर घर में आनंद होता है, कोई घर में फकीर दीखता नहीं।"

संवत् १८६० और १९१५ के बीच का काल गद्य-रचना की दृष्टि से प्रायः शून्य ही मिलता है। संवत् १९१४ के बलवे के पीछे ही हिंदी-गद्य साहित्य की परंपरा अच्छी तरह चली।

संवत् १८६० के लगभग हिंदी-गद्य की जो प्रतिष्ठा हुई उसका उस समय यदि किसी ने लाभ उठाया तो ईसाई धर्म-प्रचारको ने, जिन्हें अपने मत को साधारण जनता के बीच फैलाना था। सिरामपुर उस समय पादरियों का प्रधान अड्डा था। विलियम कैरे (william Carey) तथा और कई अँगरेज पादरियों के उद्योग से इजील का अनुवाद उत्तर भारत की कई भाषायों में हुआ| कहा जाता है कि बाइबिल का हिंदी अनुवाद स्वयं केरे साहब ने किया। संवत् १८६६ में उन्होंने "नए धर्म नियम" का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया और संवत् १८७५ मे समग्र ईसाई-धर्म पुस्तक का अनुवाद पूरा हुआ। इस संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि इन ईसाई अनुवादकों ने सदासुख और लल्लूलाल की विशुद्ध भाषा को ही आदर्श माना, उर्दूपन को बिलकुल दूर रखा। इससे यही सूचित होता है कि फारसी अरबी मिली भाषा से साधारण जनता का लगाव नहीं था जिसके बीच मत का प्रचार करना था। जिस भाषा में साधारण हिंदू जनता अपने कथा-पुराण कहती सुनती आती थी उसी भाषा [ ४२६ ]का अवलंबन ईसाई उपदेशकों को आवश्यक दिखाई पड़ा। जिस संस्कृत-मिश्रित भाषा का विरोध करना कुछ लोग एक फैशन समझते हैं उससे साधारण जन-समुदाय उर्दू की अपेक्षा कहीं अधिक परिचित रहा है और है। जिन अँगरेजो को उत्तर भारत में रहकर केवल मुंशीयों और खानसामों की ही बोली सुनने का अवसर मिलता है वे अब भी उर्दू या हिंदुस्तानी को यदि जनसाधारण की भाषा समझा करें तो कोई आश्चर्य नहीं। पर उन पुराने पादरियों ने जिस शिष्ट भाषा में जनसाधारण को धर्म और ज्ञान आदि के उपदेश सुनते-सुनाते पाया उसी को ग्रहण किया।

ईसाइयो ने अपनी धर्मपुस्तक के अनुवाद की भाषा में फारसी और अरबी के शब्द जहाँ तक हो सका है नहीं लिए है और ठेठ ग्रामीण शब्द तक बेधड़क रखे गए हैं। उनकी भाषा सदासुख और लल्लूलाल के ही नमूने पर चली है। उसमें जो कुछ विलक्षणता सी दिखाई पड़ती है वह मूल विदेशी भाषा की वाक्यरचना और शैली के कारण। प्रेमसागर के समान ईसाई धर्मपुस्तक में भी 'करनेवाले' के स्थान पर 'करनहारे', 'तक' के स्थान पर 'लौ', 'कमरबंद' के स्थान पर 'पटुका' प्रयुक्त हुए है। पर लल्लूलाल के इतना ब्रजभाषापन नहीं आने पाया है। 'आय' 'जाय' का व्यवहार न होकर 'आके' 'जाके' व्यवहृत हुए हैं। सारांश यह कि ईसाई मत-प्रचारकों ने विशुद्ध हिंदी का व्यवहार किया है। एक नमूना नीचे दिया जाता है––

"तब यीशु योहन से बपतिरमा लेने को उस पास गालील से यर्दन के तीर पर आया। परंतु योहन यह कह के उसे वर्जने लगा कि मुझे आपके हाथ से बपतिस्मा लेना अवश्य है और क्या आप मेरे पास आते हैं! यीशु ने उसको उत्तर दिया कि अब ऐसा होने दे क्योंकि इसी रीति से सब धर्म को पूरा करना चाहिए। यीशु बपतिस्मा लेके तुरंत जल के ऊपर आया और देखो उसके लिये स्वर्ग खुल गया और उसने ईश्वर के आत्मा को कपोत की नाईं उतरते और अपने ऊपर आते देखा, और देखो यह आकाशवाणी हुई कि यह मेरा प्रिय पुत्र है जिससे मैं अति प्रसन्न हूँ।"

इसके आगे ईसाइयों की पुस्तकें और पैंफलेट बराबर निकलते रहे। उक्त [ ४२७ ]"सिरामपुर प्रेस" से संवत् १८१३ मे "दाऊद के गीतें" नाम की पुस्तक छपी जिसकी भाषा में कुछ फारसी अरबी के बहुत चलते शब्द भी रखे मिलते हैं। पर इसके पीछे अनेक नगरों में बालकों की शिक्षा के लिये ईसाइयों के छोटे-मोटे स्कूल खुलने लगे और शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकें भी निकलने लगीं। इन पुस्तकों की हिंदी भी वैसी ही सरल और विशुद्ध होती थी जैसी 'बाइबिल' के अनुवाद की थी। आगरा, मिर्जापुर, मुंगेर आदि उस समय ईसाइयों के प्रचार के मुख्य केद्र थे।

अँगरेजी की शिक्षा के लिये कई स्थानों पर स्कूल और कालेज खुल चुके थे जिनमें अँगरेजी के साथ हिंदी, उर्दू की पढ़ाई भी कुछ चलती थी। अतः शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकों की माँग सं॰ १९०० के पहले ही पैदा हो गई थी। शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिये सवत् १८९० के लगभग आगरे में पादरियों की एक "स्कूल-बुक-सोसाइटी" स्थापित हुई थी जिसने १८९४ में इँगलैंड के इतिहास का और संवत् १८९६ में मार्शमैन साहब के "प्राचीन इतिहास" का अनुवाद "कथासार" के नाम से प्रकाशित किया। "कथासार" के लेखक या अनुवादक पं॰ रतनलाल थे। इसके संपादक पादरी मूर साहब (J.J. Moore.) ने अपने छोटे से अँगरेजी वक्तव्य में लिखा था कि यदि सर्वसाधारण से इस पुस्तक को प्रोत्साहन मिला तो इसका दूसरा भाग "वर्तमान इतिहास" भी प्रकाशित किया जायगा। भाषा इस पुस्तक की विशुद्ध और पंडिताऊ है। 'की' के स्थान पर 'करी' और 'पाते हैं' के स्थान पर 'पावते है' आदि प्रयोग बराबर मिलते हैं। भाषा का नमूना यह है––

"परंतु सोलन की इन अत्युत्तम व्यवस्थाओं से विरोध भंजन न हुआ। प्रक्षपातियों के मन का क्रोध न गया। फिर कुलीनों में उपद्रव मचा और इसलिये प्रजा की सहायता से पिसिसट्रेटस नामक पुरुष सबो पर पराक्रमी हुआ। इसने सब उपाधियों को दबाकर ऐसा निष्कंटक राज्य किया कि जिसके कारण वह अनाचारी कहाया, तथापि यह उस काल में दूरदर्शी और बुद्धिमानों में अग्रगण्य था।"

आगरे की उक्त सोसइटी के लिये संवत् १८९७ में पंडित ओंकार भट्ट ने [ ४२८ ]'भूगोलसार' और संवत् १९०४ में पंडित बद्रीलाल शर्मा ने "रसायनप्रकाश" लिखा। कलकत्ते में भी ऐसी ही एक स्कूल-बुक-सोसाइटी थी जिसने "पदार्थविद्यासार" (सं॰ १९०३) आदि कई वैज्ञानिक पुस्तकें निकाली थीं। इसी प्रकार कुछ रीडरें भी मिशनरियों के छापेखानों से निकली थीं––जैसे "आजमगढ़ रीडर" जो इलाहाबाद मिशन प्रेस से संवत् १८९७ में प्रकाशित हुई थी।

बलवे के कुछ पहले ही मिर्जापुर में ईसाइयों का एक और "आरफेन प्रेस" खुला था जिससे शिक्षा संबधिनी कई पुस्तकें शेरिंग साहब के संपादन में निकली थीं, जैसे––भूचरित्रदर्पण, भूगोल विद्या, मनोरंजक वृत्तांत, जंतुप्रबंध, विद्यासागर, विद्वान् संग्रह। ये पुस्तकें संवत् १९१२ और १९१९ के बीच की है। तब से मिशन सोसाइटियों के द्वारा बराबर विशुद्ध हिंदी में पुस्तकें और पैंफलेट आदि छपते आ रहे हैं जिनमें कुछ खंडन मंडन, उपदेश और भजन आदि रहा करते हैं। भजन रचनेवाले कई अच्छे ईसाई कवि हो गए हैं जिनमें दो एक अँगरेज भी थे। "आसी" और "जान" के भजन देशी ईसाइयों में बहुत प्रचलित हुए और अब तक गाए जाते हैं। सारांश यह कि हिंदी-गद्य के प्रसार में ईसाइयों का बहुत कुछ योग रहा। शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकें तो पहले पहल उन्हीं ने तैयार की। इन बातों के लिये हिंदी-प्रेमी उनके सदा कृतज्ञ रहेगें।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ईसाइयों के प्रचार-कार्य का प्रभाव हिंदुओं की जनसंख्या पर ही पड़ रहा था। अतः हिंदुओ के शिक्षित वर्ग के बीच स्वधर्म-रक्षा की आकुलता दिखाई पड़ने लगी। ईसाई उपदेशक हिंदू-धर्म की स्थूल और बाहरी बातों को लेकर ही अपना खंडन-मंडन चलाते आ रहे थे। यह देखकर बंगाल में राजा राममोहन राय उपनिषद् और वेदांत का ब्रह्मज्ञान लेकर उसका प्रचार करने खड़े हुए। नूतन शिक्षा के प्रभाव से पढ़े लिखे लोगों में से बहुतों के मन में मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, जाति-पाँति, छूआ-छूत आदि के प्रति अश्रद्धा हो रही थी। अतः राममोहन राय ने इन बातों को अलग करके शुद्ध ब्रह्मोपासना का प्रवर्त्तन करने के लिये 'ब्रह्म-समाज' की नींव डाली। संवत् १८७२ में उन्होंने वेदांत-सूत्रों के भाष्य का हिंदी-अनुवाद [ ४२९ ]करके प्रकाशित कराया था। संवत् १८८६ में उन्होंने "बंगदूत" नाम का एक संवादपत्र भी हिंदी में निकाला। राजा साहब की भाषा में एक-आध जगह कुछ बँगलापन जरूर मिलता है, पर उसका रूप अधिकांश में वही है जो शास्त्रज्ञ विद्वानो के व्यवहार में आता था। नमूना देखिए––

"जो सब ब्राह्मण साग वेद अध्ययन नहीं करते सो सब व्रात्य है, यह प्रमाण करने की इच्छा करके ब्राह्मणधर्म-परायण श्री सुब्रह्मण्य शास्त्रीजी ने जो पत्र साग वेदाध्ययन-हीन अनेक इस देश के ब्राह्मणो के समीप पठाया है, उसमें देखा जो उन्होंने लिखा है––वेदाध्ययन-हीन मनुष्यों को स्वर्ग और मोक्ष होने शक्ता नहीं"।

कई नगरो में, जिनमे कलकत्ता मुख्य था, अब छापेखाने हो गए थे। बंगाल से कुछ अँगरेजी और कुछ बँगला के पत्र भी निकलने लगे थे जिनके पढ़नेवाले भी हो गए थे। इस परिस्थिति में प॰ जुगुलकिशोर ने, जो कानपुर के रहनेवाले थे, संवत् १८८३ में "उदंतमार्त्तंड" नाम का एक संवादपत्र निकाला जिसे हिंदी का पहला समाचारपत्र समझना चाहिए जैसा कि उसके इस लेख से प्रकट होता है––

"यह उदंत-मार्त्तंड अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया, पर अँगरेजी ओ पारसी ओ बँगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियो के जान्ने ओ पढ़नेवालो को ही होता है। इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ समझ ओ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करे ओ अपने भाषे की उपज न छोड़े इसलिए......श्रीमान् गवरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त में लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा। जो कोई प्रशस्त लोग इस खबर के कागज के लेने की इच्छा करें तो अमड़ा तला की गली ३७ अंक मार्त्तड-छापाघर में अपना नाम ओ ठिकाना भेजने ही से सतवारे के सतवारे यहाँ के रहनेवाले घर बैठे ओ बाहिर के रहनेवाले डाक पर कागज पाया करेंगे।"

यह पत्र एक ही वर्ष चलकर सहायता के अभाव से बंद हो गया। इसमें [ ४३० ]'खड़ी बोली' का 'मध्यदेशीय भाषा' के नाम से उल्लेख किया गया है। भाषा का स्वरूप दिखाने के लिये कुछ और उद्धरण दिए जाते हैं––

(१) एक यशी वकील वकालत का काम करते करते बुड्ढा होकर अपने दामाद को वह काम सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला––हे महाराज! आपने जो फलाने का पुराना ओ संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ। यह सुनकर वकील पछता करके बोला तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बढ़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भली भाँति अपना दिन काटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंपकर समझा था कि तुम भी अपने बेटे पोते परोतों तक पलोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसे खो बैठे।

(२) १९ नवंबर को अवधबिहारी बादशाह के आवने की तोपें छूटीं। उस दिन तीसरे पहर को ष्टलिंग साहिब ओ हेल साहिब ओ मेजर फिंडल लार्ड साहिब की ओर से अवधबिहारी की छावनी में जा करके बड़े साहिब का सलाम कहा और भोर होके लार्ड साहिब के साथ हाजिरी करने का नेवता किया। फिर अवधबिहारी बादशाह के जाने के लिये कानपुर के तले गंगा में नावों की पुलवदी हुई और बादशाह बढ़े ठाट से गंगा पार हो गवरनर जेनरेल बहादुर के सन्निध गए।

रीति काल के समाप्त होते होते अँगरेजी राज्य देश में पूर्ण रूप से स्थापित हो गया। इस राजनीतिक घटना के साथ देशवासियों की शिक्षाविधि में भी परिवर्तन हो चला। अँगरेज सरकार ने अँगरेजी की शिक्षा के प्रचार की व्यवस्था की। संवत् १८५४ में ही ईस्ट इंडिया कपनी के डाइरेक्टरो के पास अँगरेजी की शिक्षा द्वारा भारतवासियों को शिक्षित बनाने का परामर्श भेजा गया था। पर उस समय उस पर कुछ न हुआ। पीछे राजा राममोहन राय प्रभृति कुछ शिक्षित और प्रभावशाली सज्जनों के उद्योग से अँगरेजी की पढ़ाई के लिये कलकत्ते में हिंदू कालेज की स्थापना हुई जिसमे से लोग अँगरेजी पढ़ पढ़ कर निकलने और सरकारी नौकरियाँ पाने लगे। देशी भाषा पढ़कर भी कोई शिक्षित हो सकता है, यह विचार उस समय तक लगों को न था। अँगरेजी के सिवाय यदि किसी भाषा पर ध्यान जाता था तो संस्कृत या अरबी [ ४३१ ]पर। संस्कृत की पठशालाओं और अरबी के मदरसों को कंपनी की सरकार से थोड़ी बहुत सहायता मिलती आ रही थी। पर अँगरेजी के शौक के सामने इन पुरानी संस्थाओं की ओर से लोग उदासीन होने लगे। इनको जो सहायता मिलती थी धीरे धीरे वह भी बंद हो गई। कुछ लोगों ने इन प्राचीन भाषाओं की शिक्षा का पक्ष ग्रहण किया था पर मेकाले ने अँगरेजी भाषा की शिक्षा का इतने जोरों के साथ समर्थन किया और पूरबी साहित्य के प्रति ऐसी उपेक्षा प्रकट की कि अंत मे संवत् १८९२ (मार्च ७, सन् १८३५) में कपनी की सरकार ने अँगरेजी शिक्षा के प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया और धीरे धीरे अँगरेजी के स्कूल खुलने लगे।

अँगरेजी शिक्षा की व्यवस्था हो जाने पर अँगरेज सरकार का ध्यान अदालती भाषा की ओर गया। मोगलों के समय में अदालती कार्रवाइयाँ और दफ्तर के सारे काम फारसी भाषा में होते थे। जब अँगरेजो का आधिपत्य हुआ तब उन्होंने भी दफ्तरों में वही परपरा जारी रखी।

दफ्तरों की भाषा फारसी रहने तो दी गई, पर उस भाषा और लिपि से जनता के अपरिचित रहने के कारण लोगों को जो कठिनता होती थी उसे कुछ दूर करने के लिये संवत् १८६० में, एक नया कानून जारी होने पर, कंपनी सरकार की ओर से यह आज्ञा निकाली गई––

"किसी को इस बात का उजुर नहीं होए कि ऊपर के दफे का लीखा हुकुम सबसे वाकीफ नहीं है, हरी एक जिले के कलीकटर साहेब को लाजीम है कि इस आईन के पावने पर एक एक केता इसतहारनामा नीचे के सरह से फारसी व नागरी भाखा वो अच्छर में लीखाय कै...कचहरी में लटकावही। ....अदालत के जज साहेब लोग के कचहरी में भी तमामी आदमी के बुझने के वास्ते लटकावही (अँगरेजी सन् १८०३ साल, ३१ आईने २० दफा)'।

फारसी के अदालती भाषा होने के कारण जनता को जो कठिनाइयाँ होती थीं उनका अनुभव अधिकाधिक होने लगा। अतः सरकार ने संवत् १८९६ (सन् १८३६ ई॰) में 'इश्तहारनामे' निकाले कि अदालती सब काम देश की प्रचलित भाषाओं में हुआ करे। हमारे संयुक्त प्रदेश के सदर बोर्ड की [ ४३२ ]तरफ से जो 'इश्तहार-नामः' हिंदी में निकला था उसकी नकल नीचे दी जाती है––


इश्तहारनाम: बोर्ड सदर

पच्छाँह के सदर बोर्ड के साहबों ने यह ध्यान किया है कि कचहरी के सब काम फारसी जवान में लिखा पढ़ा होने से सब लोगों को बहुत ही हर्ज पड़ता है और बहुत कलप होता है और जब कोई अपनी अर्जी अपनी भाषा में लिख के सरकार में दाखिल करने पावे तो वही बात होगी। सबको चैन आराम होगा। इसलिये हुक्म दिया गया है कि सम् १२४४ की कुवार बढ़ी प्रथम से जिसका जो मामला सदर बोर्ड में हो सो अपना अपना सवाल अपनी हिंदी की बोली में और पारसी कै नागरी अच्छरन में लिख के दाखिल करे कि डाक पर भेजे और सवाल जौन अच्छरन में लिखा हो तीने अच्छरन में और हिंदी बोली में उस पर हुक्म लिखा जायगा। मिती २९ जुलाई सन् १८३६ ई॰।

इस इश्तहारनामे में स्पष्ट कहा गया है कि बोली 'हिंदी' ही हो, अक्षर नागरी के स्थान पर फारसी भी हो सकते हैं। खेद की बात है कि यह उचित व्यवस्था चलने न पाई। मुसलसानों की ओर से इस बात का घोर प्रयत्न हुआ कि दफ्तरों में हिंदी रहने न पाए, उर्दू चलाई जाय। उनका चक्र बराबर चलता रहा, यहाँ तक कि एक वर्ष बाद ही अर्थात् संवत् १८९४ (सन् १८३७ ई॰) में उर्दू हमारे प्रांत के सब दफ्तरों की भाषा कर दी गई।

सरकार की कृपा से खड़ी बोली का अरबी-फारसीमय रूप लिखने-पढ़ने की अदालती भाषा होकर सबके सामने आ गया। जीविका और मान-मर्यादा की दृष्टि से उर्दू ही सीखना आवश्यक हो गया। देश-भाषा के नाम पर लड़को को उर्दू ही सिखाई जाने लगी। उर्दू पढ़े लिखे लोग ही शिक्षित कहलाने लगे। हिंदी की काव्य-परंपरा यद्यपि राजदरवारो के आश्रय में चली चलती थी पर उसके पढ़नेवालों की संख्या भी घटती जा रही थी। नवशिक्षित लोगों का लगाव उसके साथ कम होता जा रहा था। ऐसे प्रतिकूल समय में साधारण जनता के साथ साथ उर्दू पढ़े-लिखे लोगों की भी जो थोड़ी बहुत दृष्टि अपने पुराने साहित्य की ओर बनी हुई थी वह धर्मभाव से। तुलसीकृत रामायण की चौपाइयाँ और सूरदासजी के भजन आदि ही उर्दूग्रस्त लोगों का कुछ लगाव [ ४३३ ]"भाखा" से भी बनाए हुए थे। अन्यथा अपने परंपरागत साहित्य से नवशिक्षित लोगों को अधिकांश कालचक्र के प्रभाव से विमुख हो रहा था। शृंगाररस की भाषा-कविता का अनुशीलन भी गाने बजाने आदि के शौक की तरह इधर उधर बना हुआ था। इस स्थिति का वर्णन करते हुए स्वर्गीय बाबू बालमुकुंद गुप्त लिखते हैं––

"जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिंदी भाषा हिंदी न रहकर उर्दू बन गई। ॱॱॱहिंदी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।"

संवत् १९०२ में यद्यपि राजा शिवप्रसाद शिक्षा विभाग में नहीं आए थे पर विद्याव्यसनी होने के कारण अपनी भाषा हिंदी की और उनका ध्यान था। अतः इधर उधर दूसरी भाषाओं में समाचार पत्र निकलते देख उन्होंने उक्त संवत् में उद्योग करके काशी से "बनारस अखबार" निकलवाया। पर अखबार पढ़नेवाले पहले-पहल नवशिक्षितों में ही मिल सकते थे जिनकी लिखने-पढ़ने की भाषा उर्दू हो रही थी। अतः इस पत्र की भाषा भी उर्दू ही रखी गई, यद्यपि अक्षर देवनागरी के थे। यह पत्र बहुत ही घटिया कागज पर लीथो में छपता था। भाषा इसकी यद्यपि गहरी उर्दू होती थी पर हिंदी की कुछ सूरत पैदा करने के लिये बीच बीच में 'धर्मात्मा', 'परमेश्वर', 'दया' ऐसे कुछ शब्द भी रख दिए जाते थे। इसमें राजा साहब भी कभी कभी कुछ लिख दिया करते थे। इस पत्र की भाषा का अंदाजा नीचे उद्धृत अंश से लग सकता है––

"यहाँ जो नया पाठशाला कई साल से जनाब कप्तान किट साहब बहादुर के इहतिमाम और धर्मात्माओं के मदद से बनता है उसका हाल कई दफा जाहिर हो चुका है। ॱॱॱ ॱदेखकर लोग उस पाठशाले के किते के मकानों की खूबियाँ अक्सर बयान करते हैं और उनके बनने के खर्च की तजबीज करते है कि जमा से ज़ियादा लगा होगा और हर तरह से लायक तारीफ़ के है। सो यह सब दानाई साहब मेमदूह की है।"

इस भाषा को लोग हिंदी कैसे समझ सकते थे? अतः काशी से ही एक दूसरा पत्र "सुधाकर" बाबू तारामोहन मित्र आदि कई सज्जनों के उद्योग से [ ४३४ ]संवत् १९०७ में निकला। कहते है कि काशी के प्रसिद्ध ज्योतिषी सुधाकर जी का नामकरण इसी पत्र के नाम पर हुआ था। जिस समय उनके चाचा के हाथ में डाकिए ने यह पत्र दिया था ठीक उसी समय भीतर से उनके पास सुधाकरजी के उत्पन्न होने की खबर पहुँची थी। इस पत्र की भाषा बहुत कुछ सुधरी हुई तथा ठीक हिंदी थी, पर यह पत्र कुछ दिन चला नहीं। इसी समय के लगभग अर्थात् संवत् १९०९ में आगरे से किसी मुंशी सदासुखलाल के प्रबंध और संपादन में "बुद्धिप्रकाश" निकला जो कई वर्ष तक चलता रहा। "बुद्धिप्रकाश" की भाषा उस समय को देखते हुए बहुत अच्छी होती थी। नमूना देखिए--

"कलकत्ते के समाचार

इस पश्चिमीय देश में बहुतों को प्रगट है कि बँगाले की रीति के अनुसार उस देश के लोग आसन्न-मृत्यु रोगी को गंगा-तट पर ले जाते हैं और यह तो नहीं करते कि उस रोगी के अच्छे होने के लिये उपाय करने में काम करें और उसे यत्न से रक्षा में रक्खें वरन् उसके विपरीत रोगी को जल के तट पर ले जाकर पानी में गोते देते हैं और 'हरी बोल, हरी बोल' कहकर उसका जीव लेते हैं।

स्त्रियों की शिक्षा के विषय

स्त्रियों में संतोष और नम्रता और प्रीत यह सब गुण कर्त्ता में उत्पन्न किए हैं, केवल विद्या की न्यूनता है, जो यह भी हो तो स्त्रियाँ अपने सारे ऋण से चुक सकती है और लडकों को सिखाना-पढ़ाना जैसा उनसे बन सकता है वैसा दूसरों से नहीं। यह काम उन्हीं का है कि शिक्षा के कारण बाल्यावस्था में लड़कों को भूलचूक से बचायें और सरल-सरल विद्या उन्हें सिखावें।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि अदालती भाषा उर्दू बनाई जाने पर भी विक्रम की २० वीं शताब्दी के आरंभ क पहले से ही हिंदी खड़ी बोली गद्य की परंपरा हिंदी साहित्य में अच्छी तरह चल पड़ी, उसमें पुस्तकें छपने लगीं, अखबार निकलने लगे। पद्य की भाषा ब्रजभाषा ही बनी रही। अब अँगरेज सरकार का ध्यान देशी भाषाओं की शिक्षा की ओर गया और उसकी व्यवस्था की बात सोची जाने लगी। हिंदी को अदालतों से निकलने में मुसलमानों को सफलता [ ४३५ ]हो चुकी थी। अब वे इस प्रयत्न में लगे कि हिंदी को शिक्षा-क्रम में भी स्थान न मिले, उसकी पढ़ाई का भी प्रबंध न होने पाए। अतः सर्वसाधारण की शिक्षा के लिये सरकार की ओर से जब जगह जगह मदरसे खुलने की बात उठी और सरकार यह विचारने लगी कि हिंदी का पढ़ना सब विद्यार्थियों के लिये आवश्यक रखा जाय तब प्रभावशाली मुसलमानो की ओर से गहरा विरोध खड़ा किया गया। यहाँ तक कि तंग आकर सरकार को अपना विचार छोड़ना पड़ा और उसने संवत् १९०५ (सन् १८४८) में यह सूचना निकाली––

"ऐसी भाषा का जानना सब विद्यार्थियों के लिये आवश्यक ठहराना जो मुल्क की सरकारी और दफ्तरी जबान नहीं है, हमारी राय में ठीक नहीं है। इसके सिवाय मुसलमान विद्यार्थी, जिनकी संख्या देहली कालेज में बड़ी है, इसे अच्छी नजर से नहीं देखेंगे।"

हिंदी के विरोध की यह चेष्टा बराबर बढ़ती गई। संवत् १९११ के पीछे जब शिक्षा का पक्का प्रबंध होने लगा तब यहाँ तक कोशिश की गई कि वर्नाक्युलर स्कूलों में हिंदी की शिक्षा जारी ही न होने पाए। विरोध के नेता थे सर सैयद अहमद साहब जिनका अँगरेजों के बीच बड़ा मान था। वे हिंदी को एक "गँवारी बोली" बताकर अँगरेजों को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार चेष्टा करते आ रहे थे। इस प्रात के हिंदुओं में राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों के उसी ढंग के कृपापात्र थे जिस ढंग के सर सैयद अहमद। अतः हिंदी की रक्षा के लिये उन्हें खड़ा होना पड़ा और वे बराबर इस संबंध में यत्नशील रहे। इससे हिंदी-उर्दू का झगड़ा बीसो वर्षों तक-भारतेंदु के समय तक-चलता रहा।

गार्सा द तासी एक फरासीसी विद्वान् थे जो पेरिस में हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे। उन्होंने संवत् १८९६ में 'हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास' लिखा था जिसमें उर्दू के कवियों के साथ हिंदी के भी कुछ बहुत प्रसिद्ध कवियों का उल्लेख था। संवत् १९०९ (५ दिसंबर सन् १८५२) के अपने व्याख्यान में उन्होंने उर्दू और हिंदी दोनों भाषाशों की युगपद् सत्ता इन शब्दों में स्वीकार की थी––

"उत्तर के मुसलमानों की भाषा यानी हिंदुस्तानी उर्दू पश्चिमोत्तर प्रदेश [ ४३६ ](अब संयुक्त प्रांत) की सरकारी भाषा नियत की गई है। यद्यपि हिंदी भी उर्दू के साथ साथ उसी तरह बनी है जिस तरह वह फारसी के साथ थी। बात यह हैं कि मुसलमान बादशाह सदा से एक हिंदी सेक्रेटरी, जो हिंदी-नवीस कहलाता था और एक फारसी सेक्रेटरी जिसको फारसी-नवीस कहते थे, रखा करते थे, जिसमें उनकी आज्ञाएँ दोनों भाषाओं में लिखी जायें। इस प्रकार अँगरेज सरकार पश्चिमोत्तर-प्रदेश में हिंदी जनता के लाभ के लिये प्रायः सरकारी कानून का नागरी अक्षरों में हिंदी-अनुवाद भी उर्दू कानूनी पुस्तकों के साथ साथ देती है"।

तासी के व्याख्यानों से पता लगता हैं कि उर्दू के अदालती भाषा नियत हो जाने पर कुछ दिन सीधी भाषा और नागरी अक्षरों में कानूनों और सरकारी आज्ञाओं के हिंदी-अनुवाद छपते रहे। जान पड़ता है कि उर्दू के पक्षपातियों का जोर जब बढ़ा तब उनका छपना एकदम बंद हो गया। जैसा कि अभी कह आए हैं, राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु के समय तक हिंदी उर्दू का झगड़ा चलता रहा। गार्सा द तासी ने भी फ्रांस में बैठे बैठे इस झगड़े में योग दिया। वे अरबी-फारसी के अभ्यासी और हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे। उस समय के अधिकांश और यूरोपियनों के समान उनका भी मजहबी संस्कार प्रबल था। यहाँ जब हिंदी-उर्दू का सवाल उठा तब सर सैयद अहमद, जो अँगरेजों से मेल जोल रखने की विद्या में एक ही थे, हिंदी-विरोध में और बल लाने के लिये मजहबी नुसखा भी काम में लाए। अँगरेजों को सुझाया गया कि हिंदी हिंदुओं की जवान हैं जो 'बुतपरस्त' हैं और उर्दू मुसलमानों की जिनके साथ अँगरेजों का मजहबी रिश्ता है––दोनों 'सामी' या पैगंबरी मत को माननेवाले हैं।

जिस गार्सा द तासी ने संवत् १९०९ के आसपास हिंदी और उर्दू दोनों को रहना आवश्यक समझा था और कभी कहा था कि––

"यद्यपि मैं खुद उर्दू का बड़ा भारी पक्षपाती हूँ, लेकिन मेरे विचार में हिंदी को विभाषा था बोली कहना उचित नहीं"।

वही गार्सा द तासी आगे चलकर मजहवी कट्टरपन की प्रेरणा से, सर सैयद अहमद की भरपेट तारीफ करके हिंदी के संबंध में फरमाते हैं–– [ ४३७ ]"इस वक्त हिंदी की हैसियत भी एक बोली (dialect) की सी रह गई है, जो हर गाँव में अलग अलग ढंग से बोली जाती है"।

हिंदी-उर्दू का झगड़ा उठने पर आपने मजहबी रिश्ते के खयाल से उर्दू का पक्ष ग्रहण किया और कहा––

"हिंदी में हिंदू-धर्म का आभास है––वह हिंदू-धर्म जिसके मूल में बुतपरस्ती और उसके आनुषंगिक विधान हैं। इसके विपरीत उर्दू में इसलामी संस्कृति और आचार-व्यवहार का संचय है। इसलाम भी 'सामी' मत है और एकेश्वरवाद उसका मूल सिद्धांत है, इसलिये इसलामी तहजीब में ईसाई या मसीही तहजीब की विशेषताएँ पाई जाती है"।

सवत् १९२७ के अपने व्याख्यान में गार्सा द वासी ने साफ खोलकर कहा––

"मैं सैयद अहमद खाँ जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान् की तारीफ में और ज्यादा नहीं कहना चाहता। ऊर्दू, भाषा और मुसलमानों के साथ मेरा जो लगाव है वह कोई छिपी हुई बात नहीं है। मैं समझता हूँ कि मुसलमान, लोग कुरान को तो आसमानी किताब मानते ही हैं, इंजील की शिक्षा को, भी अस्वीकार नहीं करते, पर हिंदू लोग मूर्तिपूजक होने के कारण इंजील की शिक्षा नहीं मानते।"

परंपरा से चली आती हुई देश की भाषा का विरोध-और उर्दू का समर्थन कैसे कैसे भावो की, प्रेरणा से किया जाता रहा है, यह दिखाने के लिये इतना बहुत है। विरोध प्रबल होते हुए भी जैसे देश भर में प्रचलित अक्षरों और वर्णमाला को छोड़ना असंभव था वैसे ही परंपरा से चले आते हुए हिंदी साहित्य को भी। अतः अदालती भाषा उर्दू होते हुए भी शिक्षा-विधान में देश की असली भाषा हिंदी को भी स्थान देना ही पड़ा। काव्य-साहित्य तो प्रचुर परिमाण में भर पहा था। अतः जिस रूप में वह था उसी रूप में उसे लेना ही पड़ा। गद्य की भाषा को लेकर खींचतान आरंभ हुई। इसी खींचतान के समय में राजा लक्ष्मणसिंह और राजा शिवप्रसाद मैदान में आए।